पति-पत्नी के झगड़े होंगे खत्म: अर्धनारीश्वर स्तोत्र का चमत्कारी पाठ (सरल विधि)!
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।श्री अर्धनारीश्वर तत्व-दर्शन एवं स्तोत्र अनुष्ठान पद्धति
स्कंद-शिवपुराण एवं तंत्र के आलोक में
भगवान अर्धनारीश्वर का स्वरूप शैव-शाक्त दर्शन के हृदय में स्थित वह परम प्रतीक है जो ब्रह्मांड की मूल प्रकृति—पुरुष (चेतना) और प्रकृति (ऊर्जा) के शाश्वत, अविभाज्य एकत्व को दर्शाता है। यह संकलन आदि शंकराचार्य विरचित अर्धनारीश्वर स्तोत्र को आधार बनाकर, स्कंदपुराण, शिवपुराण और तंत्र ग्रंथों में वर्णित प्रमाणिक साधना-विधि को पूर्णतः शुद्ध और क्रियात्मक रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे साधक जीवन में संतुलन, सौभाग्य और आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सके।
खंड 1: अर्धनारीश्वर स्वरूप का दार्शनिक आधार और प्राकट्य
अर्धनारीश्वर स्वरूप केवल एक मूर्तिमान देवता नहीं है, अपितु यह शैव सिद्धांत में वर्णित परम तत्व का सर्वोच्च प्रतीक है। इस स्वरूप की उपासना साधक को सृष्टि के द्वैत से परे अद्वैत की अनुभूति कराती है।
1.1 शिव-शक्ति का शैव सिद्धान्त और तात्विक एकत्व
शैव दर्शन, विशेषकर कश्मीर शैव संप्रदाय, में शिव और शक्ति का संबंध प्रकाश और विमर्श का माना जाता है। शिव निष्क्रिय, अपरिवर्तनीय परम चेतना हैं, जबकि शक्ति उनकी क्रियाशील, सृजनशील ऊर्जा है। दोनों एक-दूसरे से अभिन्न हैं, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य और उसका प्रकाश, या अग्नि और उसका ताप।
शिव-शक्ति के इस एकत्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दार्शनिक निहितार्थ यह है कि बिना शक्ति के शिव 'शव' (मृत शरीर या निष्क्रियता) बन जाते हैं। यह रूप ब्रह्मांड में पुरुष (मासिक ऊर्जा, दाहिना भाग) और प्रकृति (स्त्री ऊर्जा, बायाँ भाग) के समन्वय को सिद्ध करता है, जो सृष्टि की पूर्णता और अस्तित्व का आधार है। यह स्वरूप समस्त अस्तित्वगत विरोधाभासों (द्वंद्वों) के समाधान को प्रस्तुत करता है। यह सिखाता है कि जीवन, मृत्यु, भोग, योग, वैराग्य, और सौंदर्य जैसे परस्पर विरोधी गुण भी परम चेतना में सह-अस्तित्व रख सकते हैं। यह बोध साधक को अपने आंतरिक द्वैत से मुक्त करता है, और जीवन की सही लय प्राप्त करने में सहायक होता है ।
1.2 पुराणों में अर्धनारीश्वर का प्राकट्य एवं संदर्भ
पौराणिक आख्यानों में अर्धनारीश्वर के प्राकट्य के विभिन्न प्रसंग मिलते हैं, जो इस स्वरूप की सार्वभौमिक स्वीकार्यता और विविध दार्शनिक उद्देश्यों को दर्शाते हैं।
1.2.1 सृष्टि विस्तार हेतु प्राकट्य (शिवपुराण)
शिवपुराण में यह वर्णन है कि जब सृष्टि के जनक ब्रह्मा, केवल पुरुष प्राणियों का सृजन करके, सृष्टि के विस्तार में बाधा अनुभव कर रहे थे, तब उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। उनकी विनती पर, भगवान महेश्वर ने अर्धनारीश्वर रूप में दर्शन दिए। इस संयुक्त स्वरूप के दर्शन से ब्रह्मा को यह ज्ञात हुआ कि सृष्टि के प्रजननशील प्राणियों (मैथुनी सृष्टि) के सृजन के लिए पुरुष (शिव भाग) और स्त्री (शक्ति भाग) दोनों की आवश्यकता है। यह प्रसंग कर्म और सृजन की अनिवार्यता को दर्शाता है।
संदर्भ: शिवपुराण, रुद्रसंहिता, प्रथम खण्ड.
1.2.2 पार्वती की शाश्वत एकत्व की इच्छा (स्कंदपुराण)
स्कंदपुराण के अनुसार, देवी पार्वती ने महादेव से यह इच्छा प्रकट की कि वे उनके साथ हमेशा के लिए 'अंग से अंग' मिलाकर रहें । यह उनकी भक्ति, प्रेम और शाश्वत भावनात्मक एकता की पराकाष्ठा थी, जिसके परिणामस्वरूप इस दिव्य रूप का प्राकट्य हुआ। यह कथा भावनात्मक और भक्तियोग के माध्यम से परम लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग सुझाती है।
1.2.3 ऋषि भृंगी प्रसंग
एक अन्य प्रसिद्ध कथा ऋषि भृंगी से संबंधित है। भृंगी केवल भगवान शिव के परम भक्त थे और उन्होंने माता पार्वती की पूजा या परिक्रमा करने से इनकार कर दिया। जब भृंगी ने केवल शिव की परिक्रमा करने का हठ किया, तब देवी पार्वती के मान की रक्षा हेतु, शिव ने स्वयं को पार्वती के साथ एकाकार कर अर्धनारीश्वर रूप धारण कर लिया। भृंगी ने तब भी भ्रमर (भृंगी) रूप धारण कर दोनों के बीच से निकलने का प्रयास किया, जिससे शिव ने उन्हें अपूर्णता का दंड दिया, किंतु पार्वती के अनुनय पर उन्हें संबल हेतु तीसरी टांग दी। अंततः, भृंगी ऋषि ने क्षमा मांगकर अर्धनारीश्वर स्वरूप की ही परिक्रमा की। यह प्रसंग बताता है कि ज्ञान या साधना के मार्ग पर अहंकार (भेद बुद्धि) और द्वैत स्वीकार्य नहीं है, और परम तत्व में शिव और शक्ति दोनों की पूजा अनिवार्य है।
1.3 स्तोत्र का स्रोत और शास्त्रीय संरचना
यह स्तोत्र श्री आदि शंकराचार्य भगवत्पाद द्वारा रचित है और यह एक अष्टकम् के रूप में प्रसिद्ध है, जिसमें कुल आठ श्लोक हैं, और अंत में एक फलश्रुति छंद है। स्तोत्र की विशिष्टता यह है कि यह प्रत्येक श्लोक में शिव और शक्ति के परस्पर विरोधी स्वरूपों की स्तुति करते हुए, अंत में दोनों को एक ही रूप में प्रणाम करता है। इसमें जानबूझकर स्त्रीलिंग (शिवायै, निरीश्वरायै) और पुल्लिंग (शिवाय, जगदेकपित्रे) पदों का समानांतर उपयोग किया गया है, जो भाषा के माध्यम से ही अद्वैत तत्व को स्थापित करता है।
खंड 2: प्रमुख स्तोत्र-पाठ: श्री अर्धनारीश्वर स्तोत्रम् (संस्कृत + हिंदी अर्थ)
साधकों की सुविधा और प्रामाणिकता हेतु, आदि शंकराचार्य विरचित अर्धनारीश्वर स्तोत्रम् का संपूर्ण और शुद्ध पाठ उसके सरल हिंदी अर्थ सहित यहाँ प्रस्तुत है।
2.1 स्तोत्र का विनियोग एवं ध्यान-श्लोक
किसी भी शास्त्रीय अनुष्ठान को आरंभ करने से पूर्व संकल्प और न्यास के पश्चात् देवता के स्वरूप का ध्यान करना अनिवार्य है।
ध्यान विधान: साधक को शांत कमरे में बैठकर , अर्धनारीश्वर के दिव्य स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। जिसमें दाहिना भाग शिव का है—श्वेत, भस्म से लिप्त, जटाधारी, त्रिनेत्र, सर्प आभूषणों से सुसज्जित। बायाँ भाग शक्ति का है—चम्पा के समान गौर वर्ण, कुमकुम और रत्न आभूषणों से मंडित, दिव्य नेत्रों वाली। यह ध्यान द्वैत के समन्वय की भावना को पुष्ट करता है।
2.2 मूल संस्कृत पाठ एवं सरल हिंदी अर्थ (श्लोक 1-8)
यह स्तोत्र भगवान शिव और देवी पार्वती के विरोधाभासी स्वरूपों का गुणगान करता है।
| श्लोक | मूल संस्कृत पाठ (देवनागरी) | सरल हिंदी अर्थ |
|---|---|---|
| 1 | चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय । धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनका आधा शरीर चंपा पुष्प के समान पीत-गौर वर्ण का है, और आधा शरीर कपूर के समान श्वेत-गौर वर्ण का है। जिनके एक ओर सुसज्जित केश-विन्यास (धम्मिल्ल) है और दूसरी ओर जटाजूट है। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 2 | कस्तूरिका कुङ्कुमचर्चितायै चितारजः पुञ्जविचर्चिताय । कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनका आधा शरीर कस्तूरी और कुमकुम से सुसज्जित है (देवी), और आधा शरीर चिता की भस्म से लिप्त है (शिव)। जो काम को प्रसन्न करने वाली (सौंदर्य) हैं, और जो कामदेव को विकृत करने वाले (विनाशक) हैं। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 3 | झणत्क्वणत्कङ्कणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय । हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनके हाथों और पैरों में झंकार करने वाले कंगन और नूपुर हैं (देवी), और जिनके कमल रूपी चरणों में सर्प रूपी नूपुर सुशोभित हैं (शिव)। जिनके सोने के बाजूबंद हैं, और जिनके सर्पों के बाजूबंद हैं। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 4 | विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपङ्केरुहलोचनाय । समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनकी आँखें विशाल नीले कमल के समान लंबी और सुंदर हैं (देवी), और जिनकी आँखें खिले हुए कमल के समान तेजस्वी हैं (शिव)। जो सम-दृष्टि वाली हैं (दो आँखें), और जो विषम-दृष्टि (त्रिनेत्रधारी) वाले हैं। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 5 | मन्दारमालाकलित्तालकायै कपालमालाङ्कितकन्धराय । दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनके केशों में मंदार पुष्पों की माला सुशोभित है (देवी), और जिनके कंधे पर कपालों की माला है (शिव)। जो दिव्य वस्त्र धारण करती हैं, और जो दिशाओं को ही अपना वस्त्र मानते हैं (दिगम्बर)। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 6 | अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय । निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनके केश मेघ के समान श्याम और घने हैं (देवी), और जिनकी जटाएं बिजली की चमक के समान ताम्रवर्णी हैं (शिव)। जो स्वयं परम स्वतंत्र (निरीश्वरा) हैं, और जो संपूर्ण जगत के एकमात्र ईश्वर (निखिलेश्वर) हैं। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 7 | प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय । जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जो सृष्टि करने के लिए लास्य नृत्य करती हैं (देवी), और जो समस्त संहारकारी ताण्डव नृत्य करते हैं (शिव)। जो संसार की जननी (माता) हैं, और जो संसार के एकमात्र पिता हैं। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
| 8 | प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय । शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ |
जिनके कानों में प्रकाशित रत्नों के उज्ज्वल कुंडल हैं (देवी), और जो चमकते हुए बड़े सर्पों के आभूषण धारण करते हैं (शिव)। जो शिव से संयुक्त हैं (शिवा), और जो शक्ति से संयुक्त हैं (शिव)। उन शिवा और शिव को मेरा नमस्कार है। |
2.3 फलश्रुति
प्राप्नोति सौभाग्यमनंतकालं भूयात्सदा तस्य समस्तुसिद्धिः ॥ 1 ॥ हिंदी अर्थ: जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इस आठ श्लोकों वाले स्तोत्र का पाठ करता है, वह इस संसार में सम्मानित होता है और दीर्घायु प्राप्त करता है। उसे अनंत काल तक सौभाग्य की प्राप्ति होती है, और उसे सदैव समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं.
खंड 3: अर्थ एवं भावार्थ: शिव–शक्ति के एकत्व का गहन विवेचन
इस स्तोत्र की महत्ता इसके साहित्यिक सौंदर्य में नहीं, बल्कि इसमें निहित तात्विक संदेश में है, जो द्वैत की भाषा का उपयोग करके अद्वैत की स्थिति को प्राप्त करता है।
3.1 स्वरूपगत द्वंद्व का समन्वय
प्रत्येक श्लोक में विपरीत विशेषताओं का उल्लेख, जैसे चम्पा के समान पीत-गौर वर्ण (आकर्षण, भोग) और कर्पूर के समान श्वेत-गौर वर्ण (वैराग्य, त्याग), एक सुविचारित विरोधाभासी अलंकार का प्रयोग है। यह अलंकार साधक के मन में द्वंद्वों की निरंतरता उत्पन्न करता है। जब मन एक ही स्वरूप में भोग और योग, सौंदर्य और श्मशान की भस्म, झंकार करते कंगन और विषैले सर्प (इंद्रियों पर नियंत्रण का प्रतीक) को एक साथ देखता है, तो उसकी सामान्य तार्किक संरचना टूट जाती है。
यह मनोवैज्ञानिक रूप से साधक को द्वैत के सीमित ढाँचे से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करता है। यह सिखाता है कि साधक को संसार में सक्रिय (शक्ति की तरह) रहना चाहिए, लेकिन भीतर से वैराग्य (शिव की तरह) का नियंत्रण रखना चाहिए। इंद्रियाँ (सर्प) भयानक हो सकती हैं, लेकिन योगी (शिव) उन्हें आभूषण की तरह नियंत्रित रखता है। इसी तरह, साधक को अपने जीवन में बाहरी अभिव्यक्तियों (केशविन्यास, रत्न) और आंतरिक सत्य (जटाजूट, दिगम्बरत्व) के बीच संतुलन स्थापित करना होता है।
3.2 सृष्टि, संहार और स्वतंत्रता का प्रतीकात्मक विवेचन
स्तोत्र का केंद्रीय भाव शिव-शक्ति की भूमिकाओं के विभाजन और पूर्णता में निहित है।
सृष्टि का कार्य श्लोक 8 में स्पष्ट होता है, जहाँ देवी पार्वती को 'प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै' (सृष्टि की ओर उन्मुख लास्य नृत्य करने वाली) कहा गया है। लास्य नृत्य कोमल, सृजनात्मक और प्रेमपूर्ण होता है। इसके विपरीत, शिव 'समस्तसंहारकताण्डवाय' हैं—जो प्रलयकारी, उग्र तांडव नृत्य करते हैं। यह दर्शाता है कि सृजन और संहार, जीवन और प्रलय, दोनों एक ही परम सत्ता के अनिवार्य पहलू हैं।
श्लोक 6 में शक्ति को 'निरीश्वरायै' (जो स्वयं ही ईश्वर हैं, किसी अन्य के अधीन नहीं) और शिव को 'निखिलेश्वराय' (संपूर्ण जगत के ईश्वर) कहकर उनके स्वातन्त्र्य और सार्वभौमिक प्रभुत्व को समान रूप से प्रतिष्ठित किया गया है। शक्ति अपनी रचनात्मक ऊर्जा में पूर्णतः स्वतंत्र है, जबकि शिव संपूर्ण चेतना के आधार हैं। यह भाव शैव दर्शन के इस सिद्धांत को मजबूती देता है कि शिव और शक्ति का आश्रय एक-दूसरे पर है; वे पूर्ण रूप से पूरक हैं और दोनों की ही स्तुति अनिवार्य है।
खंड 4: स्तोत्र-पाठ विधि और अनुष्ठान के नियम
अर्धनारीश्वर स्तोत्र का पाठ करने के लिए शास्त्रीय नियमों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों लाभ प्राप्त हो सकें।
4.1 पाठ के नियम, समय और जप संख्या
स्तोत्र पाठ के लिए सात्त्विक उद्देश्य, शुद्ध मन और विनम्रता अनिवार्य है। यह अभ्यास 18 वर्ष से अधिक आयु का कोई भी स्त्री या पुरुष कर सकता है।
4.1.1 समय और दिशा
आदर्श रूप से, मन की स्थिरता और सात्त्विक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए यह पाठ सूर्योदय से पहले या प्रातः 8:00 बजे से पूर्व करना चाहिए। हालांकि, यदि साधक विशेष तांत्रिक फल या त्वरित लाभ की इच्छा रखता है, तो सूर्यास्त के बाद का समय भी उपयुक्त माना गया है।
4.1.2 विशेष दिन और अनुष्ठान
सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित होने के कारण इस स्तोत्र के पाठ के लिए अत्यंत शुभ है। इसके अतिरिक्त, नवरात्रि (शक्ति का समय) और महाशिवरात्रि पर भी यह स्तोत्र बहुत प्रभावशाली फल देता है।
मानसिक शांति और आंतरिक द्वंद्वों के समाधान के लिए, इस स्तोत्र का नियमित अभ्यास (संभव हो तो कंठस्थ करके) 41 सप्ताह तक किया जाना चाहिए। गंभीर साधकों द्वारा कार्य सिद्धि और भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु सवा लाख से 5 लाख जप का अनुष्ठान किया जा सकता है, जो तांत्रिक साधनाओं में वर्णित है।
4.1.3 नियम-निषेध
अनुष्ठान के दौरान प्रबल संकल्प बनाए रखना चाहिए। साधक को धूम्रपान, मद्यपान, व्यसन और मांसाहार से बचना चाहिए। ब्रह्मचर्य का शक्ति से पालन करना चाहिए, क्योंकि यह ऊर्जा को आध्यात्मिक उन्नति के लिए संरक्षित करता है। महिला साधक मासिक धर्म के दौरान 3 से 5 दिन का अंतराल रखकर पाठ जारी रख सकती हैं।
4.2 मुद्रा विधान: ऊर्जा संतुलन का आधार
अभ्यास समाप्त होने के बाद, साधक को अश्विनी या वज्र मुद्रा का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। यह मुद्रा कुंडलिनी योग के सिद्धांतों पर आधारित है, जहाँ ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है और ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है।
अर्धनारीश्वर का स्वरूप आंतरिक रूप से ईड़ा (शक्ति/चंद्र नाड़ी) और पिंगला (शिव/सूर्य नाड़ी) के सुषुम्ना नाड़ी में मिलन का प्रतीक है। ब्रह्मचर्य के माध्यम से प्राण ऊर्जा (बिंदु) का संरक्षण होता है, और अश्विनी/वज्र मुद्रा इस संरक्षित ऊर्जा को ऊपर की ओर सील और निर्देशित करती है। इस प्रकार, स्तोत्र का भक्तिपूर्ण पाठ बाहरी साधना का कार्य करता है, जबकि मुद्रा आंतरिक रूप से ऊर्जा संतुलन और आध्यात्मिक एकता को साधने का कार्य करती है।
खंड 5: अर्धनारीश्वर साधना-पद्धति (क्रमवार अनुष्ठान प्रक्रिया)
गंभीर साधकों के लिए, स्तोत्र पाठ को एक पूर्ण अनुष्ठान के रूप में करना चाहिए, जिसमें तंत्र-शास्त्रों के अनुसार क्रमवार प्रक्रिया का पालन किया जाता है।
5.1 प्रारंभिक चरण: संकल्प, शुद्धि और आवाहन
शुद्धि: साधक को शुद्ध, शांत कमरे में आसन पर (पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके) बैठना चाहिए।
संकल्प और विनियोग: सर्वप्रथम, जल लेकर, स्तोत्र पाठ या मंत्र जप की संख्या और उद्देश्य का संकल्प लेना चाहिए। इसके पश्चात् स्तोत्र के ऋषि, छंद और देवता (अर्धनारीश्वर) का विनियोग किया जाता है।
आवाहन: एकाग्र मन से अर्धनारीश्वर देव का ध्यान करते हुए, उन्हें विग्रह, चित्र, या यंत्र में प्रतिष्ठित होने का आह्वान करना चाहिए।
5.2 न्यास विधान (शरीर में देवत्व का स्थापन)
न्यास साधना जगत का अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' के सिद्धांत के अनुसार, न्यास साधक के भौतिक शरीर को साधना के योग्य और पवित्र मंदिर बनाता है। यह मुख्य रूप से तंत्र का विषय है。
- ऋष्यादि न्यास: स्तोत्र के ऋषि (आदि शंकराचार्य), छंद (अनुष्टुप), और देवता (अर्धनारीश्वर) का न्यास क्रमशः सिर, मुख और हृदय पर किया जाता है।
- षडंग न्यास: मूल मंत्र 'नमः शिवायै च नमः शिवाय' या अर्धनारीश्वर के बीज मंत्रों की कल्पना करते हुए, साधक अपने हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र (हाथों) पर न्यास करता है। यह न्यास साधक के शरीर में शिव और शक्ति की सुरक्षात्मक और सक्रिय ऊर्जा को स्थापित करता है。
5.3 संयुक्त शिव–शक्ति पूजन (षोडशोपचार)
पूजन विधि में शिव और शक्ति दोनों को समर्पित तत्वों का समान रूप से उपयोग किया जाता है, जो उनके संयुक्त स्वरूप के प्रति सम्मान दर्शाता है।
अर्धनारीश्वर षोडशोपचार पूजन के चरण
| क्रम | साधना चरण | विशेष अर्पण एवं विधि | संयुक्तता का भावार्थ |
|---|---|---|---|
| 1 | आसन, पाद्य, अर्घ्य | जल से पवित्रता और देव का आह्वान। | शिव-शक्ति को संयुक्त रूप से आसन देना। |
| 2 | चंदन, कुमकुम | शिव भाग (दाहिना) पर भस्म या श्वेत चंदन; शक्ति भाग (बायाँ) पर कुमकुम या रक्त चंदन अनामिका से अर्पित करें. | वैराग्य और सौंदर्य का एकीकरण। |
| 3 | पुष्पार्पण | शिव को प्रिय बिल्वपत्र, धतूरा और शक्ति को प्रिय लाल/पीले पुष्प संयुक्त रूप से अर्पण करना। | योग (बिल्व) और भोग (पुष्प) का संतुलन। |
| 4 | दीपदान | पंचोपचार या षोडशोपचार विधि द्वारा दीपदान करना। | चेतना (शिव) और ऊर्जा (शक्ति) के प्रकाश का आह्वान। |
| 5 | नैवेद्य | दोनों देवों को प्रिय सात्त्विक नैवेद्य अर्पित करना। | भोग (प्रकृति) को चेतना (पुरुष) के लिए स्वीकारना। |
| 6 | स्तोत्र पाठ / जप | निर्धारित संख्या में स्तोत्र का शुद्ध उच्चारण के साथ पाठ या मूल मंत्र का जप करना। | ध्यान और जप द्वारा आत्मशुद्धि। |
| 7 | आरती और पुष्पांजलि | कर्पूर या घी की बत्ती से आरती करना। | पूर्ण समर्पण और अंतिम स्तुति। |
| 8 | समर्पण | जप का फल 'गुह्यातिगुह्य गोप्ता त्वं' मंत्र से देव चरणों में समर्पित करना। | साधना के फल का ईश्वर को प्रत्यार्पण। |
खंड 6: विशेष फल, सावधानियाँ एवं निष्कर्ष
6.1 स्तोत्र पाठ के विशेष फल
इस स्तोत्र के पाठ का परिणाम साधक के जीवन के विभिन्न आयामों पर गहरा प्रभाव डालता है, क्योंकि यह सीधे ब्रह्मांडीय संतुलन के सिद्धांत को साधता है।
6.1.1 दांपत्य-सौहार्द और प्रेम संतुलन
अर्धनारीश्वर स्तोत्र का सबसे महत्वपूर्ण फल दांपत्य जीवन में सौहार्द और संतुलन की स्थापना है। स्तोत्र पाठ करने से साधक स्वयं में और अपने साथी में मौजूद पुरुष (स्थिरता, तर्क) और प्रकृति (भावनात्मकता, गतिशीलता) की ऊर्जाओं को समझ पाता है। यह आपसी संबंधों में द्वैत (टकराव) को कम करता है और प्रेम को मजबूत करता है, जिससे रिश्तों में सद्भाव आता है।
6.1.2 मानसिक और भावनात्मक स्थिरता
यह स्तोत्र आंतरिक संघर्षों को समाप्त करने में अत्यधिक प्रभावी है। चूंकि यह रूप समस्त विरोधाभासों का समन्वय करता है, इसलिए इसका पाठ करने से साधक मानसिक द्वंद्वों (जैसे, कर्त्तव्य और वैराग्य के बीच संघर्ष) से मुक्त होकर स्पष्ट सोच और आंतरिक शांति प्राप्त करता है। आधुनिक संदर्भों में, यह आंतरिक पुरुष और स्त्री ऊर्जा के सामंजस्य को स्थापित करने में भी सहायक माना जाता है।
6.1.3 सौभाग्य, सम्मान और दीर्घायु
फलश्रुति स्पष्ट करती है कि भक्तिपूर्वक पाठ करने वाला साधक दीर्घजीवी होता है और उसे समाज में सम्मान प्राप्त होता है। यह स्तोत्र अनंत काल तक सौभाग्य की प्राप्ति कराता है, जिससे जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों पहलुओं में शुभता और समृद्धि आती है।
6.1.4 समस्त सिद्धियों की प्राप्ति
यह स्तोत्र शिव और शक्ति, दोनों की कृपा का संयुक्त आह्वान है। इसलिए, इसका नियमित पाठ साधक को 'समस्त सिद्धियाँ' प्रदान करता है। शिव की कृपा से ज्ञान और वैराग्य, तथा शक्ति की कृपा से इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और समस्त भौतिक सफलताएँ (कार्य सिद्धि, व्यापार सिद्धि) प्राप्त होती हैं।
6.2 सावधानियाँ और पथ्य
साधना में सफलता के लिए शास्त्रीय नियमों का पालन आवश्यक है:
- सात्त्विक भाव: स्तोत्र-पाठ सदैव शुद्ध मन, अहंकार रहित भाव और कल्याणकारी सात्त्विक उद्देश्यों के लिए ही करें।
- निषेध: अनुष्ठान की अवधि में सात्विकता बनाए रखने हेतु धूम्रपान, मद्यपान और मांसाहार का त्याग करें।
- गुरु मार्गदर्शन: न्यास, मंत्र अनुष्ठान, और गुप्त तांत्रिक विधियों (जैसे सवा लाख जप) के लिए योग्य गुरु से दीक्षा और मार्गदर्शन प्राप्त करना आवश्यक है, अन्यथा साधना निष्फल या हानिकारक हो सकती है।
6.3 निष्कर्ष: एकत्व की साधना
श्री अर्धनारीश्वर स्तोत्रम् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक अनुपम भक्ति-स्तुति है, जो शैव-शाक्त सिद्धांत के सर्वोच्च सत्य—शिव और शक्ति की अभिन्नता—को समर्पित है। यह संकलन, शिवपुराण और स्कंदपुराण के आधार पर, स्तोत्र पाठ, विधि, और साधना के क्रियात्मक पक्षों को पूर्णतः शास्त्रीय प्रमाणों पर आधारित करता है。
यह स्तोत्र एक आध्यात्मिक औषधि है जो साधक को संसार के द्वंद्वों (जैसे, जीवन में अत्यधिक भोग या अत्यधिक वैराग्य) से उपजे आंतरिक और बाहरी संघर्षों से मुक्त कर, उसे परम संतुलन की स्थिति में स्थापित करती है। अर्धनारीश्वर की कृपा प्राप्त कर साधक अपने भीतर के 'पुरुष' और 'प्रकृति' का एकत्व साधता है, जिससे वह जीवन में प्रेम, सौभाग्य, दीर्घायु और समस्त आध्यात्मिक सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त कर लेता है। यह साधना का मार्ग अंततः द्वैत को अस्वीकार कर परम अद्वैत में लय होने का मार्ग है。