जब दवा असर न करे: लाइलाज रोगों का 'अंतिम' उपाय - असितांग भैरव साधना !
AI सारांश (Summary)
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।असितांग भैरव साधना: लाइलाज रोगों से मुक्ति दिलाने वाला दुर्लभ भैरव मंत्र प्रयोग
खण्ड I: असितांग भैरव का शास्त्रीय परिचय एवं तात्विक स्वरूप
भगवान भैरव, जो कि परमेश्वर शिव के रौद्र एवं संहारक स्वरूप हैं, उनकी उपासना तंत्रशास्त्र में असाध्य रोगों के निवारण और कालजयी शक्ति की प्राप्ति के लिए विशिष्ट रूप से की जाती है। अष्ट भैरवों में असितांग भैरव का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिनका संबंध ज्ञान, सृजनात्मकता और शाप-निवृत्ति से है, जो रोग मुक्ति के तात्विक आधार को स्थापित करता है।
1.1 भैरव तत्व: भरण-पोषण और काल पर नियंत्रण
भैरव तत्व की मूल परिभाषा प्रायः भयभीत करने वाले या भय का हरण करने वाले देवता के रूप में दी जाती है, किंतु शिव पुराण में भगवान शिव ने स्वयं इस नाम की गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत की है। शास्त्रानुसार, 'भैरव' नाम का वास्तविक अर्थ है भरण-पोषण करने वाला। जैसा कि कहा गया है: भरणाद भैरव स्मृत । इस व्याख्या के अनुसार, भैरव केवल संहारक नहीं, बल्कि सृष्टि के संरक्षक, पोषक और विघ्नों के दमनकर्ता हैं।
यह भरण-पोषण का कार्य ही भैरव को स्वास्थ्य और जीवन का दाता बनाता है। रोग, कष्ट और अकाल मृत्यु सभी काल के अधीन होते हैं। भैरव, जिन्हें काल भैरव के रूप में काल का नियंत्रक माना जाता है , उनकी आराधना साधक को काल के भय और कालजनित विकारों (जैसे लाइलाज रोगों) पर विजय प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करती है। भैरव को काशी (वाराणसी) का कोतवाल या मुख्य रक्षक भी कहा जाता है, जो यह दर्शाता है कि उनकी शक्ति स्थूल और सूक्ष्म, दोनों स्तरों पर रक्षा करने वाली है। उनका वाहन श्वान (कुत्ता) इसी क्षेत्रपालक (रक्षक) स्वभाव का प्रतीक है।
1.2 अष्ट भैरव परंपरा और असितांग स्वरूप
असितांग भैरव अष्ट भैरवों में तृतीय स्थान पर आते हैं और उन्हें पूर्व दिशा का संरक्षक (दिक्पाल) माना जाता है।
1.2.1 स्वरूप, आयुध और फलश्रुति
असितांग भैरव का स्वरूप तेजोमय है; वे सुनहरी आभा से युक्त दिखाई देते हैं। वे सफेद कपालों की माला धारण करते हैं, जो मृत्यु पर उनकी विजय का प्रतीक है। उनके चार हाथों में प्रमुख रूप से शूल (त्रिशूल), कपाल (खोपड़ी), पाश (फंदा) और डमरू जैसे तांत्रिक आयुध होते हैं, जिनका उपयोग वे लोकों की रक्षा के लिए करते हैं।
उनकी पूजा का परिणाम भौतिक और आध्यात्मिक दोनों होता है। यह साधना मनुष्य में कलात्मक क्षमताओं को विकसित करती है, करियर में उन्नति प्रदान करती है , और जीवन में उपस्थित नकारात्मक ऊर्जाओं, आध्यात्मिक रुकावटों तथा सामाजिक संकटों का निवारण करती है।
खण्ड II: असितांग भैरव के रोग-निवारक प्रमुख मंत्र
इस साधना में रोग मुक्ति और शाप-निवृत्ति के लिए तीन प्रमुख मंत्रों का विधान है, जिनका उपयोग जप, ध्यान और दैनिक पूजा में किया जाता है।
2.1 असितांग भैरव का मूल शाप-निवारक मंत्र (बीज मंत्र सहित)
यह मंत्र अष्ट भैरव परंपरा का एक अत्यंत दुर्लभ एवं शक्तिशाली प्रयोग है, जो असाध्य रोगों के मूल कारण माने जाने वाले 'सर्व शाप' (सभी प्रकार के श्रापों या कर्मों के दुष्परिणाम) को समाप्त करने के लिए समर्पित है।
1. पूर्ण मंत्र पाठ:
ॐ ह्रीं ह्रां ह्रीं ह्रुं जं क्लां क्लीं क्लुं ब्राह्मी देवी समेताय असिताङ्ग भैरवाय सर्व शाप निवर्तिताय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा
2. मंत्र का विन्यास और फल:
इस मंत्र में शक्तिशाली तांत्रिक बीजाक्षरों (जैसे ह्रीं, ह्रुं, क्लां, क्लीं, क्लुं) का समावेश है जो महामाया, रक्षा और विघ्न संहार की शक्तियों का आह्वान करते हैं । मंत्र का मुख्य भाग 'ब्राह्मी देवी समेताय असिताङ्ग भैरवाय' उनके ज्ञान स्वरूप का वंदन करता है, जबकि 'सर्व शाप निवर्तिताय' पद स्पष्ट करता है कि यह मंत्र सभी प्रकार के कष्टों, कर्म-बंधनों और शापजन्य रोगों के निवारण के लिए सिद्ध है। पुरश्चरण हेतु इस मंत्र का सवा लाख (1,25,000) जप करना अनिवार्य माना गया है।
2. स्रोत प्रमाण: अष्ट भैरव मंत्र संग्रह / भैरव तंत्र।
2.2 असितांग भैरव गायत्री मंत्र
गायत्री मंत्र ज्ञान और एकाग्रता में वृद्धि करता है, जो साधना की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह मंत्र विशेष रूप से ज्ञान के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए है।
1. पूर्ण मंत्र पाठ:
ॐ ज्ञानदेवाय विद्महे विद्या राजाय धीमहि।तन्नो असिताङ्ग भैरव प्रचोदयात्
2. अर्थ और लाभ:
"हम ज्ञान के दाता (ज्ञानदेव) और विद्या के राजा (विद्या राज) असितांग भैरव का ध्यान करते हैं; वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।" यह मंत्र साधक को मानसिक शांति, एकाग्रता, बुद्धि का विकास, और साधना में त्वरित सिद्धि प्रदान करता है। इसका जप विशेष रूप से गुरुत्व और ज्ञान से संबंधित दिन—अर्थात् गुरुवार—को सूर्योदय के समय करने का विधान है।
3. स्रोत प्रमाण: तांत्रिक गायत्री परंपरा (रुद्रयामल खंड के अंतर्गत)।
2.3 असितांग भैरव ध्यान श्लोक (रुद्रयामल तंत्र से)
जप प्रारंभ करने से पहले देवता के स्वरूप का मानसिक चित्र बनाना (ध्यान) आवश्यक है, जो उनकी ऊर्जा को साधक के भीतर स्थिर करता है।
1. पूर्ण पाठ (आंशिक उद्धरण):
नमः रक्त ज्वाल जटा धरम सतम् रक्ता तेजो मयम्।हस्ते शूल कपाल पाश डमरु लोकस रक्षा करम्
निर्वाणं श्वान वाहनं त्रिनयनम् आनन्द कोलाहलम्।वन्दे भूत पिशाच नाथकं क्षेत्रस्य पालम् शिवम्
2. निहितार्थ :
यह श्लोक असितांग भैरव को रक्त की ज्वाला जैसी जटाओं वाला, रक्त के समान तेजस्वी बताता है, जो शूल, कपाल, पाश और डमरू धारण करके लोकों की रक्षा करते हैं। उन्हें निर्वाण स्वरूप, श्वान वाहन पर आरूढ़, तीन नेत्रों वाला और क्षेत्र का पालक (क्षेत्रस्य पालम्) कहा गया है। उनके क्षेत्रपालक होने का अर्थ है कि वे साधक के परिवेश और शरीर की रक्षा करते हैं। यह ध्यान विशेष रूप से उन रोगों के निवारण में सहायक है जो भूत-पिशाच या नकारात्मक ऊर्जाओं (बाह्य विघ्नों) के कारण उत्पन्न होते हैं।
खण्ड III: मंत्र जप और पाठ-विधि
3.1 आसन, माला और दिशा का विधान
- वस्त्र एवं आसन: साधना में सफलता और ज्ञान के त्वरित लाभ के लिए साधक को पीले वस्त्र धारण करने चाहिए और जप हेतु पीले आसन का प्रयोग करना चाहिए। पीला रंग गुरु बृहस्पति से संबंधित है और साधना में शुद्धता और गुरुत्व को बल देता है। चमड़े के किसी भी सामान (बेल्ट आदि) को साधना के समय शरीर से हटा देना चाहिए।
- जप माला: भैरव के उग्र स्वरूप की साधना में रुद्राक्ष माला का प्रयोग किया जाता है। हालाँकि, दीर्घायु और आरोग्य के सात्त्विक उद्देश्य के लिए रक्त चंदन या तुलसी की माला भी गुरु-निर्देशानुसार प्रयोग की जा सकती है।
- दिशा: असितांग भैरव पूर्व दिशा के दिक्पालक हैं। अतः जप करते समय साधक का मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
3.2 जप-संख्या और काल-निर्णय
काल निर्धारण:
- दिन: यह साधना गुरुवार को ज्ञान प्राप्ति और त्वरित लाभ हेतु, अथवा कालाष्टमी या षष्ठी/बुधवार को शुरू की जा सकती है।
- विशेष मुहूर्त: अधिकतम प्रभाव के लिए, यह विधान है कि गुरुवार को सूर्योदय होने के बाद पहले 12 मिनट के भीतर गायत्री मंत्र या मूल मंत्र का जप प्रारंभ कर दिया जाए। यह समय सबसे चमत्कारी परिणाम देने वाला माना गया है।
- समय: सामान्य गृहस्थों के लिए यह साधना दिन में (गुरुवार सूर्योदय के बाद) करनी चाहिए, जबकि तांत्रिक प्रयोगों हेतु संध्याकाल या रात्रि को उचित माना गया है।
जप संख्या (Purashcharana): न्यूनतम दैनिक जप संख्या माला निर्धारित की गई है। पूर्ण मंत्र सिद्धि और असाध्य रोग निवारण हेतु, साधक को मूल मंत्र का सवा लाख (1,25,000) जप पूरा करना चाहिए। पुरश्चरण की समाप्ति पर दशांश हवन अनिवार्य है।
3.3 न्यास और ध्यान-विधि
साधना में सफलता के लिए गुरु का आशीर्वाद और आंतरिक शुद्धता सर्वोपरि है।
- गुरु वंदन: साधना शुरू करने से पहले और जप समाप्त होने के बाद कम से कम एक माला गुरु मंत्र का जप अवश्य करें। यह साधना को सुरक्षित और प्रामाणिक बनाता है ।
- न्यास: न्यास की विधि में मंत्र के ऋषि, छंद, देवता और बीज को शरीर के विभिन्न अंगों पर स्थापित किया जाता है। यह क्रिया शरीर में मंत्र की ऊर्जा को प्रवाहित करने के लिए गुरु परंपरा से सीखी जानी चाहिए।
- ध्यान: साधक को ध्यान श्लोक (2.3) के अनुसार, असितांग भैरव के रक्त ज्वाल जटा वाले, श्वान वाहन पर आरूढ़ और लोक रक्षक स्वरूप का हृदय या भ्रूमध्य में ध्यान करना चाहिए। असाध्य रोगों के निवारण के लिए साधक को भैरव के रौद्र या तामसिक स्वरूपों से विचलित हुए बिना, बटुक भैरव के समान उनके सौम्य, पालक स्वरूप पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बटुक भैरव अभय देने वाले हैं, और असितांग भैरव का यह पालक स्वरूप आयु में वृद्धि और समस्त शारीरिक तथा मानसिक कष्टों (आधि-व्याधि) से मुक्ति प्रदान करने वाला है।
खण्ड 14: असितांग भैरव की चरणवार साधना-विधि
असाध्य रोग निवारण हेतु असितांग भैरव की पूजा पद्धति षोडशोपचार (सोलह उपचार) पर आधारित होनी चाहिए, जिससे देवत्व का पूर्ण आह्वान हो सके।
4.1 संकल्प एवं आवाहन
- संकल्प: सर्वप्रथम साधक शुद्ध जल, अक्षत और पुष्प दाहिने हाथ में लेकर, अपने गुरु का स्मरण करते हुए, अपना नाम, गोत्र, निवास स्थान और जिस असाध्य रोग से मुक्ति तथा जिस आयु वृद्धि की कामना है, उसका स्पष्ट उल्लेख करते हुए साधना को निर्विघ्न पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प लेता है।
- आवाहन: ध्यान श्लोक (2.3) का पाठ करते हुए असितांग भैरव का यंत्र, विग्रह या स्थापित चित्र में आवाहन किया जाता है, उन्हें भक्त के समक्ष प्रकट होने के लिए प्रार्थना की जाती है।
4.2 षोडशोपचार पूजन-क्रम (विस्तृत विवरण)
षोडशोपचार पूजा के चरण निम्नलिखित क्रम में किए जाते हैं, जिनमें विशिष्ट सामग्री का प्रयोग रोग मुक्ति के उद्देश्य से किया जाता है:
| उपचार क्रम | संक्षेप में क्रिया | रोग-निवारण में विशिष्ट प्रयोग |
|---|---|---|
| पाद्य, अर्घ्य, आचमन | जल द्वारा शुद्धि और प्रतिष्ठा | शरीर और मन को बाहरी अशुद्धियों से मुक्त करना। |
| स्नान | पंचामृत या सुगंधित जल से स्नान | आंतरिक और बाहरी पवित्रता। |
| वस्त्र, उपवस्त्र | नवीन या शुद्ध वस्त्र अर्पण | समर्पण और नवीन ऊर्जा का आह्वान। |
| गंध | रोली, चंदन, सिन्दूर का प्रयोग | आज्ञा चक्र और अन्य ऊर्जा केंद्रों का पोषण। |
| पुष्प | चमेली का फूल (सर्वाधिक प्रिय) और पीले फूल | मानसिक शांति, ज्ञान और इष्ट की शीघ्र प्रसन्नता। |
| धूप | गुग्गुल (Guggal) युक्त धूप दिखाना | नकारात्मक ऊर्जा (भूत-पिशाच आदि) का शमन। |
| दीपदान | शुद्ध घी का दीपक (पीतल या दीया) | अज्ञान (रोग का कारण) के अंधकार का नाश। |
| नैवेद्य | उड़द या उड़द से बनी वस्तुएँ | भैरव को भोग, तंत्र में नकारात्मक शक्तियों के भक्षण हेतु। |
| विशेष अर्घ्य | पाँच पीले नींबू अर्पण (संध्याकाल में) | असाध्य रोग और तीव्र नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव को दूर करना। |
| मनसा नमस्कार | मन पूर्वक देव का ध्यान और नमस्कार | मन की एकाग्रता और आंतरिक शांति। |
| परिक्रमा | स्थान पर खड़े होकर तीन बार घूमना | ऊर्जा की गति को स्थापित करना और समर्पण भाव। |
| मंत्र पुष्पांजलि | पुष्प और अक्षत के साथ मंत्रोच्चारण | पूजा की पूर्णाहुति हेतु देव को भेंट। |
4.3 भैरवताण्डव स्तोत्रम् (पूरक पाठ)
षोडशोपचार पूजा और मंत्र जप के बाद, भैरव को प्रसन्न करने के लिए स्तोत्र पाठ का विधान है। श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रं का पाठ अत्यधिक प्रभावी माना जाता है। इस स्तोत्र में भैरव को कुष्ठहरम् (त्वचा और अन्य विकट रोगों का नाशक) कहा गया है, जो सीधे तौर पर असाध्य रोग निवारण के लक्ष्य को पूरा करता है।
4.4 क्षमा प्रार्थना और समापन
- क्षमा प्रार्थना: पूजा या जप में हुई किसी भी ज्ञात अथवा अज्ञात भूल-चूक या त्रुटि के लिए अंत में देवता से क्षमा मांगना अनिवार्य है।
- तीर्थ प्राशन: पूजा के जल (तीर्थ) को दाहिने हाथ की गोकर्ण मुद्रा (गाय के कान के समान) बनाकर ग्रहण किया जाता है 17। यह भैरव की ऊर्जा को साधक के भीतर आत्मसात करने की अंतिम क्रिया है।
खण्ड 5: असाध्य रोगों से मुक्ति और आयु-वृद्धि हेतु विशेष प्रयोग
असितांग भैरव साधना की पूर्णता के लिए मंत्र, ध्यान और बाह्य क्रियाओं का समन्वित प्रयोग आवश्यक है।
5.1 सात्त्विक रोग-निवारण प्रयोग
असाध्य रोगों से मुक्ति (व्याधि से मुक्ति) और दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए साधक को भैरव के तामसिक रूपों से दूर रहकर, बटुक भैरव के समान सात्त्विक स्वरूप का ही ध्यान करना चाहिए। सात्त्विक ध्यान से आयु में वृद्धि होती है और समस्त शारीरिक तथा मानसिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इसके अतिरिक्त, यदि रोग का कारण नकारात्मक शक्ति या तांत्रिक क्रियाओं का दुष्प्रभाव है, तो कालाष्टमी के दिन असितांग भैरव का ध्यान और जप करने से इन रुकावटों का निवारण होता है। यह साधना तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव (जैसे उच्चाटन, सम्मोहन, मारण आदि) को नष्ट करने के लिए एक प्रकार के ब्रह्मास्त्र के रूप में कार्य करती है 2।
5.2 सर्व रोग निवारण हेतु यज्ञ/हवन
मंत्र पुरश्चरण के उपरांत दशांश हवन (यज्ञ) करने का विधान है। यह हवन असाध्य रोगों के निवारण के लिए विशेष रूप से कल्याणकर होता है।
- मुख्य सामग्री: हवन में कपूर, गुग्गुल और दिव्य घी का प्रयोग अत्यंत आवश्यक माना गया है। गुग्गुल का धुआँ (धूम्र) परिवेश की नकारात्मकता को दूर करता है, जबकि घी और कपूर यज्ञ की ऊर्जा को बढ़ाते हैं।
- विधान: यदि साधक मल विसर्जन के लिए गया हो, तो हवन में बैठने से पहले पूर्ण स्नान अनिवार्य है। हवन में वेद के मंत्रों द्वारा आहुतियाँ डालने से यह प्रयोग अधिक फलदायी होता है।
5.3 प्राणवायु द्वारा आंतरिक यज
रोग मुक्ति और आयु वृद्धि केवल बाहरी कर्मकांडों तक सीमित नहीं है, बल्कि आंतरिक ऊर्जा का शुद्धिकरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है। साधना के दौरान, साधक को श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसे योग और तंत्र में आंतरिक यज्ञ (यज) माना गया है।
विज्ञान भैरव तंत्र में शिव द्वारा वर्णित ध्यान तकनीक के अनुसार, साधक को अपनी श्वासों की गति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि साधक सजग रहकर लगभग 111 श्वासों तक इस प्रक्रिया को दोहराता है, तो उसकी चेतना स्थिर होती है, और वह समाधि के निकट पहुँच सकता है। श्वास पर नियंत्रण (प्राणायाम) आंतरिक शक्ति को जागृत करता है, जो रोग से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि किसी भी असाध्य रोग के उपचार में "एक तत्व से बात नहीं बनती"। मंत्र जप को प्रधान तत्व माना जाता है, लेकिन इसे पूरक तत्वों (गुण तत्व) द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक साधना को चल रहे भौतिक चिकित्सा उपचार (औषधि) के पूरक के रूप में प्रयोग करना चाहिए। सफलता के लिए आध्यात्मिक प्रयास और व्यवहारिक कर्म (चिकित्सा) दोनों ही आवश्यक हैं।
खण्ड 6: साधना की अनिवार्यताएँ एवं सावधानियाँ
भैरव तंत्र एक उच्च-स्तरीय पद्धति है जिसके लिए कठोर अनुशासन और गुरु-मार्गदर्शन अनिवार्य है।
6.1 गुरु-निर्देशन की अनिवार्यता
भैरव तंत्र, विशेषकर असाध्य रोगों के निवारण जैसी विशिष्ट कामनाओं के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान, अत्यंत रहस्यमय और शक्तिशाली होते हैं। तंत्रशास्त्र स्पष्ट करता है कि यह एक गहरा विषय है जिसे केवल किसी विशेषज्ञ गुरु के मार्गदर्शन और आदेशानुसार अभ्यास के बाद ही संपूर्ण रूप से समझा जा सकता है।
मंत्रों की शक्ति और प्रामाणिकता तब तक अधूरी रहती है, जब तक वे गुरु के मुख से प्राप्त न हों। गुरु-निर्देशन के बिना, मंत्र शक्तिहीन हो सकते हैं या साधक को विपरीत परिणाम भी दे सकते हैं, अतः बिना गुरु की अनुमति के इस साधना का प्रयास वर्जित है।
6.2 सात्त्विक उद्देश्य की दृढ़ता
भैरव साधना के परिणाम साधक के उद्देश्य पर निर्भर करते हैं।
- हानि-उद्देश्य वर्जित: यह साधना केवल आत्मिक उत्थान, आरोग्य और लोक कल्याण के सात्त्विक उद्देश्य से ही की जानी चाहिए। वशीकरण, उच्चाटन, मारण या शत्रु नाश जैसी तांत्रिक क्रियाओं (तामसिक प्रवृत्तियों) के लिए इसका उपयोग वर्जित है। यदि साधना का उद्देश्य नकारात्मक होगा, तो दंडनायक भैरव द्वारा साधक को स्वयं दंडित किया जा सकता है।
- शुद्ध संकल्प: साधना की शक्ति और फल सुनिश्चित करने के लिए साधक का संकल्प शुद्ध और दृढ़ होना चाहिए, जिसमें केवल आरोग्य और दीर्घायु की कामना हो।
6.3 नियम और संयम
साधना काल में साधक को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए (विशेषकर पुरश्चरण के दौरान)। शारीरिक और मानसिक शुद्धता बनाए रखना आवश्यक है। शुद्धता भंग होने पर, जैसे कि मल-विसर्जन के बाद, साधक को पूर्ण स्नान करके ही पूजा स्थान पर पुनः बैठना चाहिए। साधना के दौरान किसी भी प्रकार की नकारात्मकता या क्रोध से दूर रहना भी अनिवार्य है।
खण्ड 7: शास्त्रीय संदर्भ सारणी और निष्कर्ष
7.1 निष्कर्ष
प्रस्तुत संकलन असितांग भैरव के दुर्लभ और रोग-निवारक मंत्रों तथा साधना विधानों पर शास्त्रीय एवं तांत्रिक प्रमाणों पर आधारित है। असितांग भैरव, जो ज्ञान की शक्ति (ब्राह्मी) से युक्त हैं और पूर्व दिशा के संरक्षक हैं, उनकी साधना असाध्य रोगों के मूल कारण (शाप, कर्म, अज्ञान) को नष्ट करने की क्षमता रखती है।
इस साधना की सफलता के लिए तीन मुख्य तत्त्वों का समन्वय आवश्यक है: पहला, गुरु-निर्देशित और सात्त्विक संकल्प की शुद्धता; दूसरा, मूल मंत्र (2.1) का पुरश्चरण (1.25 लाख जप) और पीत वस्त्र का विधान; और तीसरा, शारीरिक उपचार (चिकित्सा) के साथ-साथ आंतरिक यज (प्राणायाम) और बाह्य यज्ञ (हवन) का पूरक प्रयोग।
साधक को दृढ़ विश्वास, पूर्ण समर्पण और शारीरिक तथा आध्यात्मिक शुद्धता के साथ यह साधना करनी चाहिए, जिससे वह भगवान असितांग भैरव की कृपा से असाध्य रोगों और कष्टों से निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त कर सके।
7.2 प्रामाणिक संदर्भ तालिका
यह तालिका इस प्रतिवेदन में उद्धृत प्रमुख शास्त्रीय, तांत्रिक एवं पौराणिक प्रमाणों का सार प्रस्तुत करती है:
शास्त्रीय संदर्भ और विधान सारणी
| विषय | प्रमुख प्रमाण/श्लोक | ग्रंथ/स्रोत |
|---|---|---|
| भैरव का तात्विक अर्थ | भरणाद भैरव स्मृत (भरण-पोषण) | शिव पुराण (उद्धरण) |
| असितांग युगल शक्ति | असितांगो महावीर्य ब्राह्मण्य सह संस्थितिता | रुद्र अमल तंत्र |
| मूल शाप-निवारक मंत्र | ...सर्व शाप निवर्तिताय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा। | अष्ट भैरव मंत्र संग्रह |
| गायत्री मंत्र विधान | ॐ ज्ञानदेवाय विद्महे... (पीत वस्त्र/गुरुवार) | तांत्रिक गायत्री परंपरा |
| रोग-निवारक नैवेद्य | उड़द, चमेली फूल, 5 पीले नींबू | भैरव पूजा विधान |
| आयु वृद्धि हेतु स्वरूप | बटुक/असितांग का सात्त्विक ध्यान | तंत्रशास्त्र |
| साधना में सुरक्षा | गुरु का मार्गदर्शन और सात्त्विक उद्देश्य की अनिवार्यता | भैरव तंत्र / साधक निर्देश |
| ध्यान श्लोक | नमः रक्त ज्वाल जटा धरम सतम्... | रुद्रयामल तंत्र |
| आंतरिक शुद्धिकरण | 111 श्वासों की विधि | विज्ञान भैरव तंत्र |