शीघ्र विवाह और मनचाहा साथी: ब्रह्मचारिणी शिव पूजा अनुष्ठान विधि!
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खंड I: अनुष्ठान का दार्शनिक आधार और संकल्प
1.1 प्रस्तावना: ब्रह्मचारिणी स्वरूप और गौरी-शंकर उपासना का माहात्म्य
ब्रह्मचारिणी स्वरूप, नवदुर्गाओं में द्वितीय है और यह भगवती पार्वती के उस अति-कठोर तपस्या काल को निरूपित करता है, जो उन्होंने देवाधिदेव महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किया था। यह स्वरूप केवल भौतिक ब्रह्मचर्य के पालन तक सीमित नहीं है, अपितु इसका गहन अर्थ 'ब्रह्म में विचरण करने वाली' से है। यह तपस्या साधक में आत्मिक पवित्रता, प्रचंड आत्मबल और लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा का संचार करती है।
भगवान शिव और माता पार्वती की युगल उपासना, विशेषकर अविवाहित कन्याओं और युवकों के लिए, अत्यंत शुभ मानी जाती है। शास्त्रीय ग्रंथों में यह विधान है कि विवाहेच्छुक साधकों को भगवान शिव और माता पार्वती की एक साथ पूजा करनी चाहिए। इस नियम का मूल कारण शिव के स्वरूप में निहित है। रुद्र तत्व, जिसे प्रायः एकाकी शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है, स्वभावतः वैराग्य, संहार और संसार से विरक्ति प्रदान करता है। अविवाहित साधक, जिनका लक्ष्य गृहस्थ जीवन (विवाह) और योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति है , यदि केवल एकाकी शिवलिंग की पूजा करते हैं, तो उन्हें वैराग्य की ओर प्रेरित करने वाले परिणाम मिल सकते हैं, जैसा कि कुछ धार्मिक मतों में इसका धार्मिक कारण बताया गया है।
जब भगवान शिव की उपासना माता पार्वती (शक्ति) के साथ की जाती है, तब शिव का उग्र, वैराग्यपूर्ण भाव सौम्यता, गृहस्थ सुख और सौभाग्य में परिवर्तित हो जाता है। यह संयोजन (गौरी-शंकर विग्रह) तप की प्रचंड शक्ति को गृहस्थी के मंगलकारी परिणाम में बदल देता है। शिव महापुराण में वर्णित है कि पार्वती ने गुरु नारद के वचन को शिरोधार्य करते हुए, अपने इस निश्चय को दृढ़ रखा कि वे या तो शिव से विवाह करेंगी अथवा जीवन भर कुमारी रहेंगी। यह कथा इस अनुष्ठान में संकल्प शक्ति और गुरु के प्रति अटूट निष्ठा की महत्ता स्थापित करती है। अतः, यह उपासना केवल भौतिक इच्छा (विवाह) की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि आत्मबल और पवित्रता की वृद्धि के लिए एक सशक्त साधन है।
1.2 अनुष्ठान का विनियोग एवं संकल्प-विधान
किसी भी शास्त्रोक्त अनुष्ठान का प्रारम्भ 'संकल्प' के बिना अपूर्ण माना जाता है। संकल्प वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा साधक देश (स्थान), काल (समय), उद्देश्य (मनोकामना), और कर्ता (यजमान) का त्रैकालिक निर्धारण करते हुए पूजा के समस्त फल को अपने लक्ष्य से जोड़ता है
सबसे पहले आसन शुद्धि मंत्र का पाठ करके आसन को पवित्र किया जाता है:
इसके उपरांत, संकल्प पाठ का उच्चारण किया जाता है, जो सृष्टि के काल-गणना के साथ प्रारम्भ होता है:
मनोकामना-विशिष्ट संकल्प: (यजमान अपना नाम, गोत्र और उद्देश्य लेते हुए)
मम आत्मनः शुभशीघ्रविवाह-सिद्धिपूर्वकम् योग्य-श्रेष्ठ-जीवनसाथी-प्राप्ति-कामार्थं, सम्बन्धेषु स्थिरतां, चित्तशुद्धिं च प्राप्तुं, श्रीब्रह्मचारिणी-पार्वती-शिवयोः प्रीत्यर्थं, शास्त्रोक्तविधिना (मंत्र संख्या, जैसे सवा लाख) जपम्/पूजनम् अहं करिष्ये।
इस संकल्प में सात्त्विक उद्देश्य की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि उपासना केवल धर्मानुकूल और लोक-कल्याणकारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही की जानी चाहिए। किसी भी तामसिक या हानिकारक प्रयोजन (जैसे किसी प्रतिद्वंद्वी के विवाह में बाधा डालना) का पूर्ण निषेध है। यदि कोई मंत्र में 'शिव को त्रिशूल पड़े' जैसे तामसिक वाक्यांशों का प्रयोग करता है, तो ऐसे प्रयोगों को शास्त्र वर्जित मानते हैं और वे साधक को लक्ष्य से विमुख कर सकते हैं। अतः, शुद्ध मन और सात्त्विक भावना ही अनुष्ठान की सफलता का आधार है।
खंड II: प्रमुख मंत्रों का शास्त्रीय पाठ एवं व्याख्या
इस अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों का चयन ब्रह्मचारिणी स्वरूप की तपस्या, गौरी-शंकर के युगल माहात्म्य और विवाह-सौभाग्य की कामना के आधार पर किया गया है। प्रत्येक मंत्र साधक को विशिष्ट मनोबल और आध्यात्मिक शुद्धि प्रदान करता है।
2.1 ब्रह्मचारिणी देवी का मूल ध्यान मंत्र एवं स्तोत्र
ब्रह्मचारिणी स्वरूप का ध्यान साधक में वह शक्ति और दृढ़ता स्थापित करता है, जिसके बल पर पार्वती ने अपनी कठोर तपस्या पूर्ण की थी।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥ सरल हिंदी अर्थ: जो देवी अपने कर-कमलों में अक्षमाला (जाप माला) और कमंडल धारण किए हुए हैं, वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचारिणी देवी मुझ पर प्रसन्न हों।
भावार्थ: यह मंत्र पवित्रता (कमंडल), निरंतर साधना (अक्षमाला), और तपस्या के माध्यम से मानसिक संतुलन प्राप्त करने की भावना का आह्वान करता है। देवीभागवत महापुराण में वर्णित तपस्या के फलस्वरूप साधक में आत्मबल, पवित्रता (ब्रह्मचर्य), और चित्तशुद्धि का संचार होता है।
प्रणामाम्यहं शंकरप्रियाम् त्वम् हि भुक्ति-मुक्ति-दायिनीम्।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणामाम्यहम्॥ सरल हिंदी अर्थ: मैं शिव की प्रिया (पार्वती) को प्रणाम करता हूँ, आप ही भोग (संसार सुख) और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। शांति और ज्ञान देने वाली ब्रह्मचारिणी को मैं प्रणाम करता हूँ।
2.2 शीघ्र विवाह हेतु गौरी-शंकर मंत्र एवं स्तुति
विवाह और योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति के लिए युगल रूप (गौरी-शंकर) की उपासना आवश्यक है, क्योंकि यह शिव की शक्ति (पार्वती) के माध्यम से सौभाग्य को प्रत्यक्ष करता है।
2.2.1 गौरी-शंकर मूल मंत्र
यह मंत्र शिव और शक्ति के संयुक्त रूप को समर्पित है और विवाह की बाधाओं को दूर करने में अत्यंत प्रभावी माना जाता है।
अर्थ एवं भावार्थ: मैं माता गौरी (पार्वती) और भगवान शंकर (शिव) को संयुक्त रूप से नमस्कार करता हूँ। यह मंत्र प्रेम, संतुलन, और स्थिरता को आकर्षित करता है। शिवपुराण (रुद्र संहिता खंड) में पार्वती की तपस्या के वर्णन को इस मंत्र की प्रमाणिकता का आधार माना जाता है, क्योंकि यह युगल शक्ति का आह्वान करता है, जो अंततः गृहस्थ जीवन की स्थापना करती है।
2.2.2 पार्वती सौभाग्य स्तुति
यह स्तुति मनोवांछित पति या पत्नी की प्राप्ति के लिए साधकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है।
तथा मां कुरू कल्याणि कान्तकान्तां सुदुर्लभाम्॥ सरल हिंदी अर्थ: हे गौरी! आप भगवान शंकर के अर्धांग में निवास करती हैं और आप उन्हें अत्यंत प्रिय हैं। हे कल्याणी! उसी प्रकार मुझे भी अत्यंत दुर्लभ, मनोवांछित कान्त (योग्य पति/पत्नी) प्रदान कीजिए।
स्रोत संदर्भ: यह श्लोक गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के बालकाण्ड में माता सीता द्वारा किए गए गौरी वंदना के अंत में दिया गया है। इसकी शक्ति का आधार यह है कि यह सीधे भक्ति मार्ग से सिद्ध हुआ है, जहाँ आदर्श पत्नी (सीता) द्वारा आदर्श पति (राम) की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई थी। यह पौराणिक-आगमिक परंपरा के भीतर ही सात्त्विक प्रेम की सफलता और संबंधों में स्थिरता के लिए अद्वितीय रूप से मान्य है।
प्रमुख मंत्रों का विनियोग एवं फल-श्रुति सार
| क्रम संख्या | मंत्र का नाम | विनियोग में देवता | स्रोत (आगम/पुराण संदर्भ) | फल-श्रुति (अभिप्राय) |
|---|---|---|---|---|
| 1 | ब्रह्मचारिणी ध्यान मंत्र | ब्रह्मचारिणी देवी | देवीभागवत/कल्याणकाण्ड | आत्मबल, वैराग्य, पवित्रता, चित्तशुद्धि |
| 2 | गौरी-शंकर मंत्र | गौरीशंकर | शिवपुराण (रूद्र संहिता खंड) | शीघ्र विवाह, शुभ संयोग, बाधा-निवारण |
| 3 | पार्वती सौभाग्य स्तुति | गौरी (सीता कृत वंदना) | रामचरितमानस (बालकाण्ड) | मनोवांछित कान्त की प्राप्ति, प्रेम सफलता |
खंड III: विस्तृत जाप एवं पाठ-विधि
शास्त्रीय अनुष्ठानों में जप-विधि की शुद्धता और नियमों का पालन मंत्र की सिद्धि के लिए अनिवार्य है।
3.1 जप-विधि का शास्त्रीय विधान
शुद्धता-विधान और आसन शुद्धि
पूजा स्थल और साधक की शुद्धता (पवित्रीकरण) सर्वोपरि है। सर्वप्रथम, शरीर, स्थान और सामग्री को शुद्ध किया जाता है। आसन पर बैठते समय आसन शुद्धि मंत्र का पाठ करके आसन पर जल छिड़कना अनिवार्य है। साधक को सदैव शुद्ध ऊन, कुशा या कम्बल के आसन पर बैठना चाहिए, ताकि उसका शरीर सीधे भूमि के संपर्क में न आए।
समय और दिशा
जाप के लिए ब्रह्म मुहूर्त (प्रातः 4 से 6 बजे) या संध्याकाल (गोधूलि वेला) सर्वोत्तम माना गया है। साधक को एक निश्चित काल (समय) और निश्चित दिशा का चयन करके अनुष्ठान अवधि तक उसका पालन करना चाहिए। देवी (ब्रह्मचारिणी/पार्वती) की पूजा के लिए पूर्व दिशा या ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) की ओर मुख करके बैठना शुभ और स्थिरतादायक माना जाता है।
जप संख्या एवं पुरश्चरण
नित्य जाप के लिए न्यूनतम 108 माला (एक रुद्राक्ष, चंदन, या तुलसी माला पर) का विधान है। शीघ्र सिद्धि के लिए, विशेषकर विवाह जैसी मनोकामना की पूर्ति हेतु, मंत्र का पुरश्चरण करना चाहिए, जिसकी संख्या सवा लाख (1,25,000) निर्धारित है। यह अनुष्ठान सामान्यतः 40 दिनों की अवधि में पूर्ण किया जाता है।
दशांश विधि का महत्व
किसी भी मंत्र जाप की पूर्ण सिद्धि केवल जप संख्या पूर्ण कर लेने से नहीं होती, बल्कि उसकी दशांश क्रिया (Dasamsa) पूर्ण होने पर ही होती है। यह क्रिया जप द्वारा संचित ऊर्जा को फल में रूपांतरित करने का अनिवार्य चरण है।
दशांश प्रक्रिया:
जप की समाप्ति पर, कुल जप संख्या के दसवें भाग (1/10) से हवन किया जाता है। हवन के दसवें भाग (1/10) से तर्पण (जलार्पण) किया जाता है। तर्पण के दसवें भाग (1/10) से मार्जन (प्रोक्षण) किया जाता है, और अंत में मार्जन के दसवें भाग (1/10) से ब्राह्मण भोजन (या यथाशक्ति दक्षिणा/दान) का विधान है। उदाहरणार्थ, सवा लाख जप पूर्ण करने पर, साधक को कम से कम 12,500 आहुतियाँ हवन में देनी चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि उपासना की ऊर्जा (साधना का फल) भौतिक जगत में प्रकट हो और लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिले। दशांश क्रिया के बिना, पुरश्चरण अधूरा माना जाता है।
3.2 नियम-निषेध एवं विकल्प
नियम
अनुष्ठान काल में साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, और सात्त्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए। खीर या अन्य मीठे व्यंजनों से व्रत या अनुष्ठान को खोलना शुभ माना जाता है। क्रोध और व्यर्थ वार्तालाप से बचना चाहिए, तथा गुरु, ब्राह्मण और कन्याओं का सम्मान आवश्यक है।
निषेध
शिव निर्माल्य का निषेध: महाभागवत पुराण के अनुसार, शिवलिंग के ऊपर अर्घ्य या अन्य रूप में समर्पित किया गया प्रसाद (निर्माल्य) अग्राह्य होता है। यदि कोई इसे ग्रहण करता है, तो वह विष्णु के कोप का भाजन हो सकता है, क्योंकि शिव का निर्माल्य वैराग्य का प्रतीक है। हालाँकि, यदि वह निर्माल्य अनादिलिंग (स्वयंभू लिंग) का हो, तो वह ग्राह्य हो जाता है और ग्रहण करने से शिवत्व की प्राप्ति होती है। अविवाहित साधकों को अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए।
तामसिक प्रयोजनों का निषेध: जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, किसी भी हानिकारक मंत्र या तामसिक प्रयोजन का प्रयोग शास्त्रों में पूरी तरह वर्जित है।
शिथिलता की स्थिति में विकल्प
आधुनिक जीवनशैली में कई साधकों के लिए जटिल शुद्धता-विधानों (जैसे दशांश हवन) का पालन करना कठिन हो सकता है। शास्त्र इस परिस्थिति में श्रद्धा और सरलता को महत्व देते हैं। यदि साधक अत्यधिक शुद्धता का ध्यान नहीं रख पा रहा है या जटिल कर्मकाण्ड करने में असमर्थ है, तो उसके लिए सरल उपाय बताए गए हैं:
- पंचाक्षरी मंत्र: ऐसे साधकों को केवल पंचाक्षरी मंत्र ‘नमः शिवाय’ का निरंतर जाप करने का आदेश दिया गया है। यह जाप भी अत्यधिक फलदायी होता है, बशर्ते यह पूर्ण विश्वास और मान्यता के साथ किया जाए।
- सरल पाठ: यदि संस्कृत उच्चारण में समस्या है, तो हिंदी अनुवाद वाली दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रंथों का श्रद्धापूर्वक पाठ करना भी वही फल देता है जो मूल संस्कृत पाठ से प्राप्त होता है।
| अनुष्ठान घटक | आवश्यक नियम |
|---|---|
| संकल्प | गुरु/ब्राह्मण/देवता की साक्षी, शुद्ध उच्चारण |
| समय | प्रातःकाल (ब्रह्म मुहूर्त) |
| स्थान एवं दिशा | ईशान या पूर्व |
| आसन | शुद्ध ऊन या कुशा का आसन, भूमि से स्पर्श वर्जित |
| जाप के समय | पूर्व दिशा |
| जाप संख्या | पुरश्चरण (1.25 लाख) या नित्य (108 माला) |
| निश्चित काल (प्रातः/संध्या) | निश्चित दिशा (ईशान कोण) |
| व्रत/उपवास | 16 सोमवार या अनुष्ठान अवधि में सात्त्विक आहार |
| अनुष्ठान अवधि | घर का मंदिर/शांत स्थान |
खंड IV: ब्रह्मचारिणी–शिव अनुष्ठान की क्रमवार प्रक्रिया
यह अनुष्ठान विधि षोडशोपचार पद्धति पर आधारित है, जिसमें ब्रह्मचारिणी देवी और गौरी-शंकर विग्रह का संयुक्त पूजन किया जाता है।
4.1 पूर्वार्ध क्रियाएँ
- पवित्रीकरण और स्वस्तिवाचन: पूजा प्रारम्भ करने से पूर्व स्थान, सामग्री और शरीर का शुद्धिकरण किया जाता है। ॐ अपवित्रः पवित्रो वा... मंत्र का पाठ करते हुए जल छिड़ककर प्रोक्षण किया जाता है।
- आसन शुद्धि: आसन पर आसन शुद्धि मंत्र (खंड 1.2) का पाठ किया जाता है।
- यजमान तिलक: ब्राह्मण द्वारा यजमान के ललाट पर कुंकुम तिलक किया जाता है, जिसके लिए मंत्र है: ॐ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः। तिलकान्ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये।
- कर्मपात्र/जलपात्र (कलश) पूजन: जलपात्र का पूजन किया जाता है, क्योंकि यह समस्त पूजा कर्मों का आधार होता है।
- गणेश-गुरु वंदना: किसी भी शुभ कर्म के निर्विघ्न समापन हेतु सर्वप्रथम श्री गणेश और गुरुदेव का पूजन एवं ध्यान किया जाता है।
4.2 मुख्य आवाहन, स्थापना एवं आराधना
- संकल्प: पूर्वार्ध क्रियाएँ समाप्त होने पर, साधक खड़े होकर या बैठकर हाथ में जल लेकर मनोकामना विशिष्ट संकल्प (खंड 1.2) का उच्चारण करता है।
- ब्रह्मचारिणी देवी का आवाहन: साधक ब्रह्मचारिणी देवी का ध्यान करते हुए उनका आवाहन करता है। मूर्ति या चित्रपट पर देवी को स्थापित करते हुए कहा जाता है: ॐ ब्रह्मचारिण्यै नमः। आवाहयामि स्थापयामि। इसके पश्चात पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान आदि पंचोपचार द्वारा देवी की आराधना की जाती है।
- गौरी-शंकर विग्रह का स्थापना: भगवान शिव और माता पार्वती की युगल प्रतिमा (गौरी-शंकर विग्रह) स्थापित की जाती है। इस युगल स्वरूप की पूजा विवाहेच्छुकों के लिए अनिवार्य है।
- शिव अभिषेक (रुद्राभिषेक): युगल विग्रह का जल, दुग्ध, दही, घी, मधु और शर्करा (पंचामृत) से अभिषेक किया जाता है।
- भगवान शिव को अर्पण: भगवान शिव को विशेष रूप से प्रिय सामग्री जैसे बेलपत्र, धतूरा, भांग आदि अर्पित करनी चाहिए। पंच पल्लव (पीपल, आम, गूलर, पाकड़, बरगद) भी स्थापित किए जा सकते हैं।
- माता पार्वती को अर्पण: माता पार्वती को सौभाग्य सामग्री, विशेषतः सोलह श्रृंगार, लाल वस्त्र, सिंदूर, और आभूषण अर्पित किए जाते हैं।
4.3 मुख्य जप, ग्रंथि वंदन और दीपदान
- मंत्र जप: खंड 3 में वर्णित विधि अनुसार आसन, दिशा और माला का ध्यान रखते हुए गौरी-शंकर मंत्र या पार्वती सौभाग्य स्तुति का पूर्ण श्रद्धा के साथ जाप किया जाता है।
- ग्रंथि वंदन: योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति और संबंधों में स्थिरता के लिए यह क्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अनुष्ठान के दौरान शिव और पार्वती के विग्रह को एक पीले या लाल पवित्र सूत्र से बांधकर 'ग्रंथि वंदन' किया जाता है। यह क्रिया इस भावना को मजबूत करती है कि साधक का संबंध शिव-पार्वती के युगल बंधन के समान अटूट हो। है गौरि शंकरार्धांगि... स्तुति का उच्चारण करते हुए ग्रंथि वंदन करना विशेष फलदायी है।
- दीपदान और नैवेद्य: दीपकों को प्रज्वलित कर घृतदीप (ज्योति) का पूजन किया जाता है। नैवेद्य में मीठे व्यंजन जैसे खीर या मिष्ठान अर्पित करना चाहिए, क्योंकि मीठे से व्रत खोलना शुभ माना जाता है।
खंड V: विशेष फल एवं साधना अनुप्रयोग
ब्रह्मचारिणी-शिव अनुष्ठान केवल विवाह का मार्ग प्रशस्त नहीं करता, बल्कि जीवन के अन्य महत्त्वपूर्ण पहलुओं में भी सफलता, स्थिरता और आत्मिक विकास प्रदान करता है।
5.1 शीघ्र विवाह एवं योग्य जीवनसाथी प्राप्ति
शीघ्र विवाह की सिद्धि के लिए, साधक को गौरी-शंकर मंत्र का सवा लाख पुरश्चरण अनुष्ठान करना चाहिए, जिसमें दशांश क्रिया (हवन, तर्पण) आवश्यक रूप से शामिल हो। इसके अतिरिक्त, अविवाहित कन्याओं को लगातार 16 सोमवार का व्रत रखते हुए महादेव का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
मुख्य क्रिया:
इस लक्ष्य के लिए, गौरी-शंकर ग्रंथि बंधन सबसे प्रभावी क्रिया है। प्रत्येक पूजा में युगल विग्रह को सूत्र से बांधना और मनोकामना दोहराना, शुभ संयोग की प्राप्ति और विवाह की बाधाओं को त्वरित गति से समाप्त करता है। यह अनुष्ठान उन रुकावटों को खत्म करता है जो विवाह मार्ग में उत्पन्न हो रही होती हैं।
5.2 मनोवांछित प्रेम–सफलता एवं संबंधों में स्थिरता
मनोवांछित प्रेम या संबंधों में स्थिरता प्राप्त करने के लिए भाव की शुद्धता और समर्पित प्रेम का होना आवश्यक है।
साधना प्रयोग:
माता पार्वती को सोलह श्रृंगार सामग्री (सिंदूर, बिंदी, चूड़ी, मेहंदी) अर्पित करने का विधान है। यह क्रिया संबंधों में मधुरता और स्थायी सौभाग्य को आकर्षित करती है। इसके साथ ही, पार्वती सौभाग्य स्तुति "है गौरि शंकरार्धांगि..." का नित्य संध्याकाल में 11 माला जाप करना अत्यंत प्रभावी है। यह स्तुति गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में माता सीता द्वारा राम को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से की गई थी। इस संदर्भ से यह स्पष्ट होता है कि यह मंत्र आदर्श, धर्मनिष्ठ और मनोवांछित कान्त (पति) की प्राप्ति के लिए एक सिद्ध मार्ग है, जो सात्त्विक प्रेम की सफलता और संबंधों में आवश्यक स्थिरता प्रदान करता है।
5.3 चित्तशुद्धि और आत्मबल-वृद्धि
ब्रह्मचारिणी स्वरूप का अनुष्ठान केवल भौतिक इच्छाओं की पूर्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि साधक के आंतरिक विकास पर भी केंद्रित है।
आत्मिक प्रयोग:
साधक को नित्य ब्रह्मचारिणी देवी का ध्यान मंत्र (खंड 2.1) का जाप करना चाहिए। साथ ही, शिवजी की स्तुति करते समय उनके निर्गुण, अवधूत स्वरूप का ध्यान करना चाहिए, जो अपनी शक्ति और ऐश्वर्य का विज्ञापन नहीं करते। यह मनन साधक को वैराग्य (Detachment) और पवित्रता की भावना देता है। शिव महापुराण में कहा गया है कि सच्ची भक्ति, धैर्य और संकल्प से ईश्वर को प्रसन्न किया जा सकता है। इस तपस्या भाव से चित्तशुद्धि होती है और जीवन की सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए आत्मिक ऊर्जा और बल की प्राप्ति होती है।
विशिष्ट फल हेतु प्रयोगों का सार
| वांछित परिणाम | मुख्य अनुष्ठानिक क्रिया | पूरक मंत्र/स्तुति | सिफारिशित आवृत्ति |
|---|---|---|---|
| शीघ्र विवाह | गौरी-शंकर ग्रंथि बंधन और अभिषेक | ॐ गौरी शंकरराय नमः | 16 सोमवार व्रत/सवा लाख जप |
| संबंधों में स्थिरता | पार्वती जी को सोलह श्रृंगार अर्पण | है गौरि शंकरार्धांगि... (स्तुति) | नित्य संध्याकाल (11 माला) |
| आत्मबल एवं चित्तशुद्धि | ब्रह्मचारिणी ध्यान, शिव के निर्गुण स्वरूप का मनन | ध्यान मंत्र और ‘शिवाय नमः’ जप | नित्य प्रातःकाल |
खंड VI: उपसंहार, सावधानियाँ, और फल-श्रुति
यह संकलन सुनिश्चित करता है कि साधक को ब्रह्मचारिणी–शिव अनुष्ठान की एक पूर्ण, शुद्ध और साधना-योग्य विधि प्राप्त हो, जो शास्त्रीय प्रमाणों पर आधारित हो।
6.1 सावधानियाँ एवं गुरु-निर्देशन
गुरु की अनिवार्यता: विशेष और लंबे अनुष्ठानों (जैसे पुरश्चरण) के लिए गुरु का निर्देशन अनिवार्य है। गुरु साधक की पात्रता, उसकी जीवन शैली और उसकी वर्तमान ऊर्जा स्थिति के आधार पर मंत्र और विधि का उचित चयन करते हैं, जिससे अनुष्ठान में सफलता सुनिश्चित होती है।
सात्त्विकता का नियम: यह अनिवार्य है कि साधक पूजा सदा सात्त्विक उद्देश्य और शुद्ध मन से करे। तामसिक या हानिकारक प्रयोजन के लिए साधना का प्रयोग पूर्णतः वर्जित है। सात्त्विकता धर्म का मूल स्तंभ है।
निर्माल्य नियम का पालन: साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि शिवलिंग पर अर्पित किए गए भोग या अर्घ्य को ग्रहण न करें, जब तक कि वह अनादिलिंग का प्रसाद न हो या किसी शालिग्राम शिला से स्पर्शित न किया गया हो।
6.2 अनुष्ठान की पूर्णता एवं क्षमा प्रार्थना
जाप पूर्ण होने पर, विशेषकर पुरश्चरण की समाप्ति पर, दशांश क्रियाएँ (हवन, तर्पण, मार्जन) अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। हवन के पश्चात, योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराना या उन्हें दक्षिणा देना आवश्यक है। इससे अनुष्ठान पूर्णता को प्राप्त होता है।
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥
6.3 फल-श्रुति: शिव-पार्वती कृपा से प्राप्त मंगल
पार्वती द्वारा किए गए कठोर तप का फल शिव-पार्वती विवाह था, जिसके बाद संपूर्ण देवता और चराचर जीव प्रसन्न हुए और मंगलकारी कार्य होने लगे। यह अनुष्ठान साधक के लिए भी इसी प्रकार के मंगल का आह्वान करता है।
प्राप्त होने वाले फल:
यह अनुष्ठान भौतिक जगत में शीघ्र विवाह, शुभ संयोग, योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति और संबंधों में स्थिरता प्रदान करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से, यह साधक में आत्मबोध, चित्तशुद्धि, और आत्मबल का संचार करता है, जिससे वह जीवन में स्थिर और मंगलकारी परिवर्तन प्राप्त कर सकता है। शिवत्व की प्राप्ति (आध्यात्मिक उन्नति) और सदा ऊर्जावान बने रहने की स्थिति इस उपासना का निहितार्थ है, जिससे साधक जीवन के अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) की ओर भी अग्रसर होता है । यह समग्र साधना, पार्वती-शिव की कृपा से साधक के जीवन को आनंदित, सुखी और ऊर्जावान बनाए रखती है।