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श्री चण्डी कवचम्: संस्कृत पाठ, उत्पत्ति व तांत्रिक विज्ञान !

AI सारांश (Summary)

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श्री चण्डी कवचम्: पाठ, उत्पत्ति मीमांसा एवं अनुष्ठान विज्ञान — एक विस्तृत शोध प्रतिवेदन

1. प्रस्तावना: शक्ति की अवधारणा और 'कवच' का तत्त्वमीमांसा

भारतीय धर्मशास्त्र और तंत्र परंपरा में 'कवच' की अवधारणा अत्यंत गूढ़ और वैज्ञानिक है। जिस प्रकार एक योद्धा भौतिक युद्ध में अपने शरीर की रक्षा के लिए लौह निर्मित कवच धारण करता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में, अदृश्य बाधाओं, नकारात्मक ऊर्जाओं और प्रारब्ध जनित कष्टों से रक्षा के लिए 'मंत्रात्मक कवच' का प्रावधान किया गया है। श्री दुर्गा कवच, जिसे 'देवी कवच' या 'चण्डी कवच' के नाम से भी जाना जाता है, शक्ति साधना का एक आधारभूत स्तंभ है। यह मात्र एक स्तोत्र नहीं, बल्कि एक तांत्रिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से साधक अपने स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों को मंत्रों की अभेद्य दीवार से सुरक्षित करता है。

प्रस्तुत शोध प्रतिवेदन का उद्देश्य न केवल श्री दुर्गा कवच का प्रामाणिक मूल पाठ प्रस्तुत करना है, बल्कि इसके ऐतिहासिक उद्गम, पौराणिक संदर्भ और अनुष्ठान की शास्त्रीय विधि का गहन विश्लेषण करना भी है। यह दस्तावेज़ इस कवच को केवल भक्ति के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि 'मंत्र-विज्ञान' और 'शरीर-विज्ञान' के परिप्रेक्ष्य में भी विश्लेषित करेगा।

2. श्री दुर्गा कवच: संपूर्ण मूल संस्कृत पाठ

उपयोगकर्ता की प्राथमिक आवश्यकता के अनुसार, यहाँ गीता प्रेस (गोरखपुर) और प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों की परंपरा के आधार पर शुद्ध और संपूर्ण संस्कृत पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पाठ 'विनियोग' और 'न्यास' की प्रक्रियाओं को समाहित करते हुए, मुख्य कवच से लेकर फलश्रुति तक विस्तृत है।

2.1 विनियोगः (संकल्प और उद्देश्य)

प्रत्येक वैदिक और तांत्रिक मंत्र का एक विनियोग होता है, जो उस मंत्र के ऋषि (द्रष्टा), छंद (लय), देवता (शक्ति) और उद्देश्य को निर्धारित करता है।

॥ अथ देव्याः कवचम् ॥
विनियोगः ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्त-मातरो बीजम्, दिग्बन्ध-देवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बा-प्रीत्यर्थे सप्तशती-पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः। (साधक जल हाथ में लेकर उक्त मंत्र पढ़ें और तत्पश्चात जल भूमि पर छोड़ दें।)

2.2 मूल पाठ

॥ मार्कण्डेय उवाच ॥ ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥ नवमं सिद्धिदात्री च शोकदुःखभयं न हि॥७॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥ प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥ माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥ श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥ इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः। नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥ दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥ नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥ त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्द्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥ दक्षिणेऽवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी॥१॥ उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा॥१९॥ एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥ अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥ मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी। त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥ शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शाङ्करी॥२३॥ नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥ दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥ कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥ नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥ हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२॥ स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥ नाभौ च कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥ गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्थलवासिनी॥३२॥ नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥ पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥३५॥ शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥ प्राणापानौ तथा व्यानं उदानं च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥ रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३॥ आयु रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥ गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥ पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥ पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥ तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्। परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥ निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः। त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥ इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥ दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥४७॥ नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४॥ अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥ सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥ ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥ नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥ यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले। जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥ यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥ देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥ लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥५६॥ ॥ इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम् ॥

3. शोध विश्लेषण: उद्गम, पौराणिक संदर्भ और शास्त्रार्थ

इस खंड में हम कवच के उत्पत्ति स्रोत, इसके रचयिता के संबंध में विभिन्न मतों, और इसके 'अंग' के रूप में महत्व का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।

3.1 उद्गम एवं ग्रंथ-संदर्भ

दुर्गा कवच का संबंध मुख्य रूप से 'दुर्गा सप्तशती' (जिसे 'देवी माहात्म्य' या 'चण्डी पाठ' भी कहा जाता है) से है। दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण के सावर्णि मन्वन्तर (अध्याय 81 से 93) का एक हिस्सा है। परंतु, कवच का उद्गम एक जटिल और रोचक शोध का विषय है, क्योंकि यह मुख्य 700 श्लोकों का हिस्सा नहीं है, बल्कि सप्तशती के 'षडंग' (छह अंगों) में से एक है।

3.3 ऋषि, छंद और देवता

विनियोग श्लोक इस कवच की तांत्रिक संरचना को स्पष्ट करता है:

  • ऋषि (Brahma): इस कवच के दृष्टा ऋषि ब्रह्मा हैं। इसका अर्थ है कि सृष्टि के सृजनकर्ता ने स्वयं इस रक्षा-विज्ञान को देखा और प्रकट किया।
  • छन्द: यह 32 अक्षरों वाले अनुष्टुप छंद में रचा गया है, जो स्थिरता और संरक्षण का प्रतीक है।
  • देवता : इसकी मुख्य अधिष्ठात्री देवी 'चामुण्डा' हैं। चामुण्डा, देवी का वह उग्र रूप है जिसने 'चंड' और 'मुंड' (प्रवृत्ति और निवृत्ति, या राग और द्वेष) का नाश किया। रक्षा के लिए उग्र शक्ति की आवश्यकता होती है, इसलिए सौम्य रूपों (जैसे लक्ष्मी या सरस्वती) की बजाय चामुण्डा को यहाँ देवता बनाया गया है।
  • बीज और शक्ति: 'दिग्बन्ध-देवता' इसके तत्व हैं और 'अंगन्यास की मातृकाएं' (सप्तमातृका) इसका बीज हैं। यह दर्शाता है कि कवच का कार्य दिशाओं को बांधना और शरीर में मातृका शक्तियों को स्थापित करना है।

4. अनुष्ठान विधि: श्रद्धा और नियम

4.1 पूर्व-तैयारी

  • पवित्रता: स्नान के पश्चात शुद्ध वस्त्र धारण करें। लाल, पीले या श्वेत वस्त्र प्रशस्त माने गए हैं। काले या नीले वस्त्र वर्जित हैं (जब तक कि विशेष तांत्रिक प्रयोग न हो)।
  • स्थान और आसन: एकांत स्थान या पूजा कक्ष में कुशा (घास) या ऊनी कंबल के आसन पर बैठें।
  • दिशा: मुख पूर्व (ज्ञान प्राप्ति हेतु) या उत्तर (शक्ति/धन प्राप्ति हेतु) की ओर होना चाहिए। दक्षिण दिशा केवल मारण/उच्चाटन कर्मों में प्रयोग होती है।
  • काल: नवरात्रि का समय सर्वश्रेष्ठ है। सामान्य दिनों में अष्टमी, चतुर्दशी, या मंगलवार/शुक्रवार का दिन उपयुक्त है। प्रातः काल या रात्रि का 'निशीथ काल' (मध्यरात्रि) विशेष फलदायी है।

4.2 संकल्प

बिना संकल्प के किया गया पाठ निष्फल होता है। दाहिने हाथ में जल, अक्षत (चावल), पुष्प और यदि संभव हो तो गंध (चंदन) और द्रव्य (सिक्का) लें।
संकल्प वाक्य: "ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः... (देशकाल का उच्चारण)... अमुक गोत्रः (अपना गोत्र)... अमुक शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं (अपना नाम)... मम सर्वारिष्ट-निवृत्ति-पूर्वकं, शरीर-रक्षा-ार्थं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-प्राप्त्यर्थं, श्रीजगदम्बा-प्रीत्यर्थं चण्डी-कवच-पाठं करिष्ये।"
जल को भूमि पर छोड़ दें।

4.3 पाठ का क्रम

यदि आप पूर्ण दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे हैं, तो क्रम अत्यंत महत्वपूर्ण है:

  • शापोद्धार मंत्र: (ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा) - ७ बार।
  • कवच पाठ: (रक्षा हेतु)।
  • अर्गला स्तोत्र: (बाधा निवारण हेतु)।
  • कीलक स्तोत्र: (शक्ति जागरण हेतु)।
  • रात्रि सूक्त और नर्वाण मंत्र जप।
  • मुख्य पाठ (१३ अध्याय)।
  • देवी सूक्त और सिद्ध कुंजिका।
यदि केवल कवच का पाठ करना है, तो संकल्प के बाद सीधे कवच का पाठ किया जा सकता है।

4.4 न्यास और ध्यान

शास्त्रों में कहा गया है—"देवो भूत्वा यजेद् देवं" (देवता बनकर ही देवता की पूजा करें)। कवच का पाठ करते समय मात्र शब्दों को पढ़ना पर्याप्त नहीं है।

  • भाव-न्यास: जब आप पढ़ें "शिखामुद्योतिनी रक्षेत्" (शिखा की रक्षा उद्योतिनी देवी करें), तो अपने मन की आँखों से देखें कि एक दिव्य ज्योति आपकी शिखा (सिर की चोटी) पर स्थित होकर उसे सुरक्षित कर रही है।
  • स्पर्श-न्यास: पाठ के दौरान जिन अंगों का नाम आए, बाएँ हाथ में पुस्तक रखकर दाहिने हाथ से उन अंगों का स्पर्श करना 'स्पर्श-न्यास' कहलाता है। यह विधि अत्यंत शक्तिशाली मानी जाती है, जिससे शरीर में चेतना का संचार होता है।

4.5 निषेध और नियम

  • कवच के बिना पाठ वर्जित: श्लोक 53 स्पष्ट कहता है—"जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा"। बिना कवच का पाठ किए सप्तशती का पाठ करना वैसा ही है जैसे बिना वस्त्रों के जंगल में जाना।
  • स्पष्ट उच्चारण: उच्चारण त्रुटिरहित होना चाहिए। 'श' और 'ष', 'ब' और 'व' का भेद स्पष्ट होना चाहिए।
  • एकाग्रता: पाठ के बीच में किसी से वार्तालाप न करें। यदि बोलना आवश्यक हो, तो पाठ वहीं रोककर पुनः आचमन करें और फिर शुरू करें।

5. फलश्रुति विश्लेषण: कवच का प्रभाव

कवच के अंत में 'फलश्रुति' दी गई है, जो इसके लाभों का वर्णन करती है। आधुनिक संदर्भ में इसका विश्लेषण निम्न प्रकार है:

5.1 दैहिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा (Protection)

श्लोक 47-48 में कहा गया है कि कवच पाठ करने वाले को "अपमृत्यु" (Accidental/Untimely Death) का भय नहीं रहता। "नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः" — यहाँ 'लूता' (मकड़ी के विष) और 'विस्फोटक' (फोड़े/चेचक) का उल्लेख है, जो संक्रामक रोगों का प्रतीक है। मनोवैज्ञानिक रूप से, यह साधक के अवचेतन मन से मृत्यु और बीमारी के डर को निकालकर उसे निर्भीक (Fearless) बनाता है (श्लोक 45: "निर्भयो जायते मर्त्यः")।

5.2 तांत्रिक और नकारात्मक ऊर्जा से रक्षा

श्लोक 41-51 में 'अभिचार' (Black Magic), मंत्र-यंत्र बाधा, और 'डाकिनी-शाकिनी' (Negative Elemental Entities) के नाश की बात कही गई है。
शोध दृष्टि: ये तत्व नकारात्मक विचारों, ईर्ष्या, और मानसिक अवसादों (Depression) के रूपक भी हो सकते हैं। कवच का पाठ एक ऐसा 'मानसिक आवरण' (Psychic Shield) बनाता है जिससे बाहरी नकारात्मक सुझाव या तरंगें साधक के मन को प्रभावित नहीं कर पातीं।

5.3 मोक्ष

अंततः, कवच का सर्वोच्च लक्ष्य सांसारिक सुख नहीं, बल्कि "शिवेन सह मोदते" (शिव के साथ आनंद) है। यह जीव को महामाया के बंधन से मुक्त कर परम पद तक ले जाता है।

6. निष्कर्ष

श्री दुर्गा कवच, मार्कण्डेय और वाराह पुराण की परंपराओं का एक अद्भुत संगम है। यह 'शब्द-शक्ति' का उपयोग करके मानव अस्तित्व को सुरक्षित करने की एक प्राचीन तकनीक है। शोध से यह स्पष्ट होता है कि कवच का पाठ केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं है, बल्कि यह एक 'आत्म-सम्मोहन' और 'ध्यान' की प्रक्रिया है, जो साधक को अपने शरीर और मन के प्रति जागरूक करती है。
जब साधक "कवचेनावृतो नित्यं" (सदा कवच से ढका हुआ) रहने का अभ्यास करता है, तो वह वस्तुतः यह स्वीकार कर रहा होता है कि वह केवल हाड़-मांस का शरीर नहीं, बल्कि साक्षात शक्ति का अंश है। यही भावना उसे जीवन के हर रणक्षेत्र में—चाहे वह भौतिक हो या मानसिक—विजयी बनाती है।

॥ ॐ तत्सत् ॥

चण्डी कवच दुर्गा सप्तशती शक्तिपाठ अनुष्ठान तंत्र संरक्षण देवी विनियोग