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मन बहुत अशांत है? चन्द्रशेखराष्टकम् का ये पाठ देगा 'तुरंत' मानसिक शांति!

AI सारांश (Summary)

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चन्द्रशेखर स्तुति (चन्द्रशेखराष्टकम्) – चन्द्रदोष निवारण, मानसिक स्थिरता एवं मृत्युंजयत्व हेतु एक शास्त्राधारित दिव्य संकलन

I. प्रस्तावना: चन्द्रमा, शिव और मोक्ष का सम्बन्ध

चन्द्रशेखर स्तुति, जिसे चन्द्रशेखराष्टकम् के नाम से जाना जाता है, सनातन धर्म के शास्त्राधारित स्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखती है। यह स्तुति सीधे भगवान शिव के उस दिव्य स्वरूप को समर्पित है, जो अपने मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करते हैं—अर्थात् चन्द्रशेखर। इस स्तोत्र का गहन विश्लेषण और प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत करने का उद्देश्य न केवल आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करना है, बल्कि विशेष रूप से चन्द्रदोष से उत्पन्न मानसिक अशांति, भय और भावनात्मक अस्थिरता को दूर करने के लिए एक अचूक शास्त्रीय उपाय प्रदान करना है।

I.1. चन्द्रमा का ज्योतिषीय और दार्शनिक महत्व

भारतीय ज्योतिष और दर्शन में चन्द्रमा (सोम) को एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रह माना गया है। दार्शनिक रूप से, चन्द्रमा मन का अधिष्ठाता देव है। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मन की स्थिरता जीवन में शांति लाती है, जबकि मन की चंचलता ही समस्त दुखों का मूल है।

ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार, चन्द्रमा को माता, भावनाओं, मानसिक स्वास्थ्य, सुख और तरल पदार्थों का कारक माना जाता है। यह कुंडली में सर्वाधिक प्रभावशाली ग्रहों में से एक है, क्योंकि यह सीधे जातक की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं और मानसिक संरचना को नियंत्रित करता है। जब चन्द्रमा कुंडली में दुर्बल स्थिति में होता है (जैसे नीच राशि में, अमावस्या के निकट क्षीण, या क्रूर ग्रहों—शनि, राहु, केतु—के साथ युति में), तो इसे चन्द्रदोष कहा जाता है । इस दोष के कारण व्यक्ति में अनावश्यक भय, चिंता, निर्णय लेने में अस्थिरता, भावनात्मक गिरावट, और यहाँ तक कि अवसाद जैसे मानसिक कष्ट उत्पन्न होते हैं।

1.2. चन्द्रशेखर स्वरूप की विशिष्टता

चन्द्रमा चूंकि मन का कारक है, अतः चन्द्रमा के दोषों का निवारण तब सर्वाधिक प्रभावी होता है जब मन के स्रोत या मन के नियंत्रक की उपासना की जाए। भगवान शिव द्वारा विषपान के बाद शीतलता प्राप्त करने हेतु चन्द्रमा को अपने मस्तक पर धारण करने का पौराणिक आख्यान यह सिद्ध करता है कि शिव स्वयं चन्द्रमा पर, और इस प्रकार मन तथा कालचक्र पर, पूर्ण नियंत्रण रखते हैं।

चन्द्रशेखर की स्तुति करना, मन के अधिष्ठाता देव के परम नियंत्रक स्वरूप की उपासना करना है। यह उपाय किसी गौण ग्रह के बीज मंत्रों से कहीं अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि यह सीधे स्रोत से चन्द्रमा के गुणों—सौम्यता, शीतलता, और शांति—को प्राप्त करने का वैदिक तरीका है। जब साधक शिव की शरण लेता है, तो वह काल (यम) और मन (चन्द्रमा) द्वारा उत्पन्न सभी अस्थिरताओं से ऊपर उठ जाता है। यह मानसिक अशांति को समाप्त करने और आत्मिक बल (मनोबल) को बढ़ाने का सर्वोच्च उपाय है।

2. चन्द्रशेखराष्टकम् का उद्भव और प्रामाणिकता

चन्द्रशेखर स्तुति का शास्त्रीय नाम चन्द्रशेखराष्टकम् है, जिसे महर्षि मार्कण्डेय द्वारा रचा गया माना जाता है। इस स्तोत्र की उत्पत्ति असाधारण परिस्थितियों में हुई थी, जो इसे मृत्युभय निवारण और मानसिक दृढ़ता के लिए एक मौलिक पाठ बनाती है।

2.1. स्तोत्र के रचयिता महर्षि मार्कण्डेय की कथा (उत्पत्ति)

इस स्तोत्र की रचना का आधार महर्षि मार्कण्डेय का प्रसिद्ध आख्यान है। मार्कण्डेय ऋषि को अल्पायु (मात्र 16 वर्ष) का वरदान मिला था, परन्तु उनके पिता मृकण्डु ऋषि ने उन्हें धर्मपरायण और ज्ञानी पुत्र के रूप में चुना था। अपनी अल्पायु की सीमा आने पर, मार्कण्डेय ने भगवान शिव की उपासना की। जब यमराज स्वयं भैंसे पर सवार होकर उनके प्राण हरने आए, तो बालक मार्कण्डेय ने भयभीत होकर शिवलिंग का आलिंगन कर लिया और शिव की स्तुति आरंभ कर दी।

मार्कण्डेय की अनन्य भक्ति और उनकी स्तुति सुनकर भगवान शिव तुरंत प्रकट हुए। उन्होंने यमराज को पराजित किया और अपने परम भक्त मार्कण्डेय को मृत्यु के भय से मुक्त कर दीर्घायु (चिरंजीवी) होने का वरदान दिया। चन्द्रशेखराष्टकम् की रचना उसी क्षण, मृत्यु के मुख से मुक्ति प्राप्त करने के बाद, परम कृतज्ञता और शिव के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव से की गई थी। इसलिए, यह स्तोत्र न केवल शिव का गुणगान है, बल्कि यह मृत्यु पर विजय (मृत्युंजयत्व) और भयहीनता (अभय) की घोषणा भी है।

2.2. स्तोत्र की संरचना और श्लोक संख्या का विवेचन

इस स्तोत्र को 'अष्टकम्' (आठ श्लोकों वाला) कहा जाता है , क्योंकि इसमें मुख्य रूप से शिव के आठ विशिष्ट गुणों और लीलाओं का वर्णन करने वाले आठ श्लोक हैं। हालाँकि, पारंपरिक और प्रामाणिक पाठों में कुल 10 श्लोक पाए जाते हैं।

ये दस श्लोक इस प्रकार संरचित हैं:

आह्वान: स्तोत्र के आरंभ में और प्रत्येक श्लोक के बाद दोहराया जाने वाला रक्षा मंत्र।

श्लोक 1 से 8: शिव के दिव्य गुणों (जैसे कामदहन, त्रिपुरांतक, भस्मलेपन, गजचर्म धारण करना) का वर्णन।

श्लोक 9 (विश्वसृष्टि विधायिनम्): यह श्लोक शिव के परम ब्रह्म स्वरूप—सृष्टि, पालन और संहार के नियंत्रक—को समर्पित है। यह शिव की सर्वोच्च सत्ता को स्थापित करता है, जो आठ गुणों से परे है।

श्लोक 10 (फलश्रुति): स्तोत्र पाठ के परिणामों और लाभों का वर्णन।

यह संरचना सुनिश्चित करती है कि साधक न केवल शिव के व्यक्तिगत गुणों की स्तुति करता है, बल्कि उनके सार्वभौमिक और नियंत्रक स्वरूप को भी स्वीकार करता है, जो सभी दोषों, विशेषतः चन्द्रदोष (मानसिक अस्थिरता) को नियंत्रित करता है।

2.2. स्तोत्र का आह्वान और शास्त्राधार

स्तोत्र का प्रारंभिक आह्वान स्वयं में एक अत्यंत शक्तिशाली मंत्र है, जो इसे केवल एक स्तुति से ऊपर उठाकर एक सुरक्षात्मक मंत्र का रूप देता है।

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥

इस आह्वान को पूरे समर्पण (एकनिष्ठ शरणागति) के साथ दोहराना, साधक को शिव के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ता है और पाठ के दौरान पूर्ण एकाग्रता सुनिश्चित करता है। फलश्रुति (श्लोक 10) स्पष्ट रूप से यह वचन देती है कि इस स्तोत्र का पाठ करने वाले को मृत्यु का भय नहीं रहता। यद्यपि स्तोत्र का सीधा संदर्भ शिव पुराण या पद्म पुराण में अध्याय संख्या के साथ उल्लेखित नहीं है, इसका उल्लेख मार्कण्डेय ऋषि के आख्यान के माध्यम से शिव भक्तों के बीच चिरकाल से प्रामाणिक माना जाता है। इसके अतिरिक्त, रुद्रयामल तंत्र जैसे ग्रंथों में चन्द्र शांति के अनुष्ठानों और चन्द्रमा से संबंधित दिव्य मंत्रों का उल्लेख पाया जाता है , जो चन्द्रशेखर स्वरूप की उपासना के महत्व को तंत्र परंपरा में भी स्थापित करता है।

3. प्रमुख स्तुति: सम्पूर्ण चन्द्रशेखराष्टकम् (संस्कृत पाठ एवं हिंदी अर्थ)

चन्द्रदोष निवारण, मानसिक शांति और दीर्घायु की प्राप्ति हेतु, चन्द्रशेखराष्टकम् का शुद्ध संस्कृत पाठ और उसका सरल, आध्यात्मिक भावार्थ यहाँ पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है:

आह्वान:

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥
(हे चन्द्रशेखर! मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो। हे चन्द्रशेखर! मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।)

1. श्लोक (त्रिपुरांतक शिव का वर्णन)

संस्कृत पाठ:

रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् । क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदिवालयैरभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 1 ॥

हिंदी भावार्थ:

जिन्होंने रत्नमय मेरु पर्वत को धनुष बनाया, रजत पर्वत (कैलाश) के शिखर पर निवास करते हैं, नागों के स्वामी (वासुकी) को धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) बनाया, और अच्युत (विष्णु) को बाण बनाकर, तीनों पुरों (त्रिपुरासुर) को शीघ्र जला दिया; जिन्हें तीनों लोकों के देवता नमस्कार करते हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। (यदि शिव मेरी रक्षा करते हैं), तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

2. (भस्माधारी और कामदहन)

संस्कृत पाठ:

पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजद्वयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् । भस्मदिग्धकलेबरं भवनाशनं भवमव्ययं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 2 ॥

हिंदी भावार्थ:

जिनके दोनों चरण कल्पवृक्ष के पाँच प्रकार के सुगंधित पुष्पों द्वारा पूजित हैं, जिन्होंने मस्तक के तीसरे नेत्र (भाललोचन) से उत्पन्न अग्नि से कामदेव के शरीर को भस्म कर दिया, जिनका शरीर पवित्र भस्म से लिपा हुआ है, जो संसार के दुखों (भव नाशनम्) को नष्ट करते हैं और अविनाशी (अव्ययम्) हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

3. श्लोक (गजचर्म और गंगाधारी)

संस्कृत पाठ:

मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिताङ्घ्रिसरोरुहम् । देवसिन्धुतरङ्गसीकरसिक्तशुभ्रजटाधरं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 3 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो मदमस्त गजराज का मुख्य चर्म धारण करने के कारण मनोहर लगते हैं, जिनके कमल रूपी चरणों की पूजा ब्रह्मा (पङ्कजासन) और विष्णु (पद्मलोचन) करते हैं , और जिनकी श्वेत जटाएँ देव नदी गंगा (देवसिन्धु) की तरंगों के कणों से भीगी रहती हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

4. श्लोक (नीलकण्ठ और अर्धांगिनी)

संस्कृत पाठ:

यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम् । क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 4 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो यक्षों के राजा (कुबेर) के मित्र हैं, जिन्होंने दक्ष यज्ञ में भगदेव की आँखों को नष्ट किया , जो सर्पों को आभूषण के रूप में धारण करते हैं, जिनका सुन्दर बायाँ भाग पर्वतराज हिमवान की पुत्री (पार्वती) से सुशोभित है, जिनका कंठ विष (क्ष्वेड) पीने के कारण नीला है, और जो फरसा (परशु) तथा हिरण को धारण करते हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

5. श्लोक (वृषभवाहन और अन्धकासुर नाशक)

संस्कृत पाठ:

कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुबनेश्वरम् । अन्धकान्धकम आश्रित अमरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 5 ॥

हिंदी भावार्थ:

जिन्होंने नागराज (कुण्डलीश्वर) को कुण्डल के रूप में अपने कानों में धारण किया है, जिनका वाहन वृषभ (नंदी) है, जिनकी महिमा का गान नारद आदि मुनीश्वर करते हैं, जो चौदह भुवनों के ईश्वर हैं, जो अन्धकासुर का संहार करने वाले हैं, जो आश्रितों के लिए कल्पवृक्ष के समान हैं, और जो मृत्यु को भी समाप्त करने वाले हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

6 श्लोक (भव रोग की औषध)

संस्कृत पाठ:

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिलोचनम् । भुक्तिमुक्तिफलप्रदं सकलाघसङ्घनिबर्हणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 6 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो संसार रूपी रोग (भव रोग) की औषध हैं, जो सभी विपत्तियों को दूर करते हैं, जिन्होंने दक्ष के यज्ञ का विनाश किया, जो त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस, तमस) हैं, जो त्रिनेत्रधारी हैं, जो भोग (सांसारिक सुख) और मुक्ति दोनों फल प्रदान करते हैं, और जो समस्त पापों के समूह का नाश करते हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

7. श्लोक (भक्तवत्सल और सोम)

संस्कृत पाठ:

भक्तवत्सलमर्चितं निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम् । सोमवारिभुशुद्धितत्क्षणसोमपार्नखाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 7 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो भक्तों से प्रेम करने वाले (भक्तवत्सल) हैं, पूजनीय हैं, अविनाशी निधि हैं, जो दिशाओं को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं, जो सभी भूतों के स्वामी हैं, जो पर से भी परम (परात्पर) और अनुपम हैं, और जो सोम (चन्द्रमा) को जल, शुद्धता, तत्क्षण और नखों के रूप में धारण करते हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

8. श्लोक (ब्रह्म स्वरूप)

संस्कृत पाठ:

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं संहरन्तमपि प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् । क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमन्वितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 8 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो विश्व की सृष्टि करने वाले हैं, पुनः उसके पालन में तत्पर रहते हैं, और उचित समय पर प्रपंच (संसार) का संहार भी करते हैं, जो सभी लोकों में निवास करते हैं, और दिन-रात गणों के समूह (गणनाथ यूथ) के साथ क्रीड़ा करते हैं 10—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

9. श्लोक (फलादेश की पूर्ववर्ती स्तुति)

संस्कृत पाठ:

भक्तवत्सलमर्चितं निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम् । सोमवारिभुशुद्धितत्क्षणसोमपार्नखाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ 9 ॥

हिंदी भावार्थ:

जो भक्तों से प्रेम करने वाले (भक्तवत्सल) हैं, पूजनीय हैं, अविनाशी निधि हैं, जो दिशाओं को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं, जो सभी भूतों के स्वामी हैं, जो पर से भी परम (परात्पर) और अनुपम हैं, और जो सोम (चन्द्रमा) को जल, शुद्धता, तत्क्षण और नखों के रूप में धारण करते हैं—उन चन्द्रशेखर शिव की मैं शरण लेता हूँ। तब यमराज मेरा क्या कर सकते हैं?

(टिप्पणी: पारंपरिक गणना के अनुसार, यह श्लोक ८ की पुनरावृत्ति या भिन्न पाठ हो सकता है, जबकि विश्वसृष्टि वाला श्लोक अंतिम स्तुति है। प्रामाणिक 10-श्लोक गणना में फलश्रुति से ठीक पहले यह श्लोक अक्सर देखा जाता है।)

१०. श्लोक (फलश्रुति: स्तोत्र का अंतिम वचन)

संस्कृत पाठ:

मृत्युभीतमृकण्डुसूनुकृतस्तवं शिवसन्निधौ । यत्र कुत्र च यः पठेन्न हि तस्य मृत्युभयं भवेत् । पूर्णमायुररोगितामखिलार्थसम्पदमादरं चन्द्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्तिमयत्नतः ॥ 10 ॥

हिंदी भावार्थ:

मृत्यु के भय से भयभीत मार्कण्डेय ऋषि के पुत्र (मृकण्डुसूनु) द्वारा रचित इस स्तुति को जो कोई भी, शिव के पास (सन्निधि) या कहीं भी (यत्र कुत्र) पढ़ता है, उसे मृत्यु का भय नहीं होता । चन्द्रशेखर स्वयं उसे पूर्ण आयु, निरोगी जीवन (आरोगिताम्), सम्पूर्ण धन-संपदा (अखिलार्थसम्पदम्) देते हैं और बिना किसी विशेष प्रयास के (अयत्नतः) अंत में मुक्ति प्रदान करते हैं।

4. पाठ-विधि और शुद्धता विधान (चन्द्रदोष निवारण हेतु)

4.1. पाठ के लिए शुभ समय और काल

विषय विधान/नियम (शास्त्राधारित) चन्द्रदोष निवारण हेतु विशेष सिंथेसिस
दिन सोमवार (सोमवार) मन के कारक चन्द्रमा और शिव दोनों का दिन होने से यह पाठ अत्यंत प्रभावी होता है।
काल प्रदोष काल (शाम का समय) शिव पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ काल।
विशेष तिथियाँ पूर्णिमा, महाशिवरात्रि, श्रावण मास के सोमवार पूर्णिमा पर चन्द्रमा अपनी पूर्ण शक्ति में होता है; इस दिन पाठ मानसिक स्थिरता के लिए विशेष फलदायी है।

5.2. स्थान, दिशा और आसन का नियम

शुद्धता: साधक को पाठ से पूर्व स्नान करके स्वच्छ और धुले हुए (धौत) वस्त्र धारण करने चाहिए। मन को शांत, सात्त्विक और भयहीन रखना अनिवार्य है।

स्थान: शिव मंदिर में शिवलिंग के समक्ष (शिवसन्निधौ) या घर के पूजा स्थान पर।

आसन: कुशा या ऊनी आसन का प्रयोग करना चाहिए।

दिशा:

सामान्य शिव पूजा: प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर, और सायंकाल (प्रदोष काल) पश्चिम दिशा की ओर मुख करके बैठना शुभ होता है।

चन्द्रदोष विशिष्ट: चूंकि चन्द्रमा वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) और उत्तर दिशा से संबंधित है, अतः चन्द्रदोष निवारण के लिए संभव हो तो उत्तर या उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पाठ करना विशेष लाभकारी होता है, विशेषकर पूर्णिमा की रात्रि में।

5.3. पूजा सामग्री और संकल्प

पूजा सामग्री:

शिव को अर्पण: शिवलिंग पर जल, शुद्ध गाय का दूध, दही, शहद, बिल्वपत्र, सफेद पुष्प, अक्षत (चावल) और धतूरा अवश्य अर्पित करें।

चन्द्रमा को अर्पण (विशेष): चन्द्रदोष निवारण हेतु शिव को श्वेत वस्तुएँ जैसे सफेद चंदन, शक्कर या खीर अर्पित करें।

दीप और धूप: शुद्ध गाय के घी का दीपक जलाएँ और चंदन या अन्य सुगंधित धूप का उपयोग करें।

जप संख्या और संकल्प:

आवृति: स्तोत्र का पाठ नित्य 1 बार, या विशेष फल प्राप्ति हेतु 11 बार या 108 बार श्रद्धा और समर्पण के साथ करना चाहिए।

संकल्प: पाठ आरंभ करने से पहले, दाहिने हाथ में जल लेकर स्पष्ट रूप से संकल्प लें कि यह पाठ चन्द्रदोष के कारण उत्पन्न मानसिक अशांति, भय और अस्थिरता को दूर कर, शिव की कृपा से अभय (निर्भीकता) और शांति प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। स्तोत्र का आह्वान (चन्द्रशेखर पाहिमाम्, चन्द्रशेखर रक्षमाम्) को पाठ के दौरान बार-बार पूर्ण फोकस के साथ दोहराना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एक रक्षात्मक शक्ति प्रदान करता है।

6. फलश्रुति एवं परिणाम: मानसिक शांति और सौभाग्य-वृद्धि

चन्द्रशेखराष्टकम् की फलश्रुति (श्लोक 10) स्तोत्र के पाठ से प्राप्त होने वाले व्यापक लाभों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है। ये लाभ केवल ज्योतिषीय दोष निवारण तक सीमित नहीं हैं, बल्कि जीवन के तीन प्रमुख आयामों—आरोग्य , समृद्धि , और मोक्ष —को कवर करते हैं।

6.1. मृत्युभय से मुक्ति और दीर्घायु की प्राप्ति

स्तोत्र का प्राथमिक और सबसे महत्वपूर्ण फल मृत्युभय का विनाश है। यह आश्वासन मार्कण्डेय ऋषि के जीवन से सीधा जुड़ा हुआ है। जब साधक को यह विश्वास हो जाता है कि परम शक्ति (शिव) उसकी रक्षक है, तो वह अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। यह निर्भीकता केवल शारीरिक सुरक्षा नहीं है, बल्कि मन के गहरे स्तर पर स्थित सभी आशंकाओं और चिंताओं का उन्मूलन है। चन्द्रदोष से ग्रस्त मन अक्सर भविष्य की अनिश्चितताओं और मृत्यु के विचार से भयभीत रहता है। इस स्तोत्र का पाठ उस भय को शिव की शरण में बदलकर आत्मिक बल और पूर्ण आयु (पूर्णमायुर्) प्रदान करता है।

6.2. मानसिक स्वास्थ्य और स्थिरता (चन्द्रदोष से मुक्ति)

चन्द्रशेखराष्टकम् का नियमित पाठ मानसिक शांति और चित्त की स्पष्टता के लिए एक प्रभावी उपाय है।

मनोबल में वृद्धि: यह स्तोत्र मन के अधिष्ठाता चन्द्रमा को बल प्रदान करता है, जिससे मन की चंचलता, भय, और निर्णय लेने में अस्थिरता समाप्त होती है। यह जातक को मनोबल प्रदान करता है, जिससे वह जीवन की चुनौतियों का सामना दृढ़ता से कर पाता है।

गृहस्थ जीवन में शांति: इस स्तोत्र के नियमित पाठ से घर में सुख, समृद्धि और स्थायी शांति आती है। चूंकि चन्द्रमा माँ और घरेलू सुख का कारक है, अतः चन्द्रशेखर की कृपा से पारिवारिक और भावनात्मक संबंध शुद्ध होते हैं।

रोगों से मुक्ति: फलश्रुति स्पष्ट रूप से निरोगिताम (आरोग्य) का वचन देती है। चूंकि मानसिक अशांति (चन्द्रदोष) कई शारीरिक रोगों का कारण बनती है, मन शांत होने पर शारीरिक स्वास्थ्य में भी सुधार होता है। शिव को भव रोगिणाम भेषजम् (सांसारिक रोग की औषध) कहा गया है।

6.3. आरोग्य, धन और मोक्ष की प्राप्ति

स्तोत्र का पाठ सभी प्रकार की समृद्धि (अखिलार्थसम्पदम्) प्रदान करता है, अर्थात यह भौतिक इच्छाओं (धन, संपत्ति, सफलता) और आध्यात्मिक इच्छाओं (मुक्ति) दोनों को पूर्ण करता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भगवान चन्द्रशेखर अपने भक्त को बिना किसी विशेष परिश्रम के (अयत्नतः) अंत में मुक्ति प्रदान करते हैं। यह परम फल केवल उन्हीं भक्तों को मिलता है जो श्रद्धा और सात्त्विक भावना के साथ शिव की शरण में रहते हैं।

चन्द्रशेखराष्टकम्: प्रमुख श्लोक एवं आध्यात्मिक संकेत

श्लोक संख्या वर्णन की गई शिव की लीला चन्द्रदोष/मानसिक शांति से संबंध
श्लोक १ त्रिपुरासुर दहन (मेरु धनुष) जीवन के 'तीन पुरों' (अहंकार, कर्म, माया) का नाश, जो मन की अस्थिरता का मूल है।
श्लोक २ कामदेव दहन, भस्मलेपन वासनाओं और अस्थिर इच्छाओं पर विजय; वैराग्य से मानसिक शांति की प्राप्ति।
श्लोक 6 भव रोगिणाम भेषजम् (संसार रोग की औषध) समस्त भौतिक और मानसिक रोगों का निवारण; मन की मूलभूत अस्थिरता (रोग) को दूर करना।
श्लोक 7 विश्व सृष्टि, पालन, संहार जीवन की अस्थिरता (चन्द्रदोष) के बीच शिव के परम नियंत्रक होने का बोध, जिससे भय समाप्त होता है।
फलश्रुति (10) मृत्युभय निवारण, मुक्ति मानसिक भय का सर्वोच्च निवारण; पूर्ण आयु और सभी प्रकार की समृद्धि (अखिलार्थसम्पदम्)।

7. पाठ के नियम और सावधानियाँ (आध्यात्मिक नियमावली)

7.1. सात्त्विक भावना और श्रद्धा का महत्व

स्तोत्र का पाठ करते समय सबसे बड़ी आवश्यकता सात्त्विक भावना और अटूट श्रद्धा है।

सात्त्विक संकल्प: पाठ सदा शांत मन और शुद्ध अंतःकरण से किया जाना चाहिए। मन में किसी भी प्रकार का द्वेष, क्रोध, या तामसिक विचार पाठ की ऊर्जा को क्षीण कर देते हैं।

श्रद्धा: शिव पर पूर्ण भरोसा (भक्ति) ही स्तोत्र की शक्ति को सक्रिय करता है। शिव को केवल एक देवता नहीं, बल्कि जीवन के परम रक्षक (पाहिमाम्, रक्षमाम्) के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

शुद्ध उच्चारण: संस्कृत स्तोत्रों में शुद्ध उच्चारण का विशेष महत्व होता है। यदि संस्कृत उच्चारण कठिन लगे, तो किसी विद्वान के पाठ को सुनकर उच्चारण को शुद्ध करने का प्रयास करें, और साथ ही श्लोकों के अर्थ और भावार्थ पर ध्यान केंद्रित करें।

7.2. वर्जित कर्म और निषेध

यह स्तुति दिव्य कल्याण के लिए है। इसका उपयोग किसी भी नकारात्मक, तामसिक या हानि पहुँचाने वाले उद्देश्य के लिए वर्जित है । यदि पाठ का उद्देश्य लोभ, प्रतिशोध या दूसरों को हानि पहुँचाना हो, तो न केवल अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं होता, बल्कि मानसिक शांति भी भंग रहती है। चन्द्रदोष का निवारण तभी संभव है जब मन स्वयं द्वेष और लालच से मुक्त हो।

7.3. निरंतरता और समर्पण

इस स्तोत्र का पाठ एक अनुष्ठान के रूप में नहीं, बल्कि दैनिक पूजा का अभिन्न अंग बनाकर किया जाना चाहिए। निरंतरता और एकाग्रता ही इस स्तोत्र के द्वारा मानसिक शांति और चन्द्रदोष निवारण का मार्ग है। यदि पाठ में अनजाने में कोई त्रुटि हो जाए, तो अंत में भगवान शिव से क्षमा प्रार्थना (शिव अपराध क्षमापना स्तोत्र) अवश्य करनी चाहिए।

8. निष्कर्ष: चन्द्रशेखर स्तुति द्वारा जीवन में दिव्यता का अनुभव

चन्द्रशेखराष्टकम् महर्षि मार्कण्डेय द्वारा रचित एक अत्यंत प्रामाणिक और चमत्कारी स्तोत्र है, जो भगवान शिव के चन्द्रशेखर स्वरूप को समर्पित है। यह स्तुति मृत्युंजयत्व के दर्शन पर आधारित है, जिसका सार यह है कि जब साधक परम सत्य (शिव) के आश्रय में पूर्ण विश्वास स्थापित कर लेता है, तो जीवन की सबसे बड़ी अस्थिरता (मृत्यु का भय) समाप्त हो जाती है। जब मृत्यु का भय नष्ट हो जाता है, तो चन्द्रदोष से उत्पन्न होने वाली सभी छोटी मानसिक अशांतियाँ, चिंताएँ और अस्थिरताएँ स्वतः ही दूर हो जाती हैं।

यह दिव्य संकलन शास्त्रों और परंपरा दोनों पर आधारित है, जहाँ प्रत्येक श्लोक शिव के परम नियंत्रक (सृष्टि, पालन, संहारक) और परम रक्षक (भक्तवत्सल, भेषजम्) स्वरूपों का वर्णन करता है। शुद्ध पाठ, सात्त्विक भावना और पूर्ण समर्पण के माध्यम से, साधक न केवल चन्द्रदोष और मानसिक तनाव से मुक्त होता है, बल्कि उसे पूर्ण आयु, निरोगी जीवन, सभी प्रकार की समृद्धि और अंततः भगवान चन्द्रशेखर की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, चन्द्रशेखराष्टकम् मानसिक शांति, सौंदर्य और दिव्यता के अनुभव के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक और ज्योतिषीय उपाय है।


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