तेज दिमाग और स्मरण शक्ति के लिए: दक्षिणामूर्ति साधना (अचूक विधि) !
AI सारांश (Summary)
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।श्री दक्षिणामूर्ति तत्त्व और साधना-पद्धति
I. प्राक्कथन: दक्षिणामूर्ति तत्त्व का दार्शनिक आधार
1.1. दक्षिणामूर्ति: शिव का गुरु-स्वरूप एवं विश्व-शिक्षक
भगवान दक्षिणामूर्ति शिव का वह परम स्वरूप हैं, जो परम ज्ञान (ब्रह्म-विद्या) के आदि गुरु और विश्व-शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे केवल उपदेश देने वाले नहीं हैं, बल्कि साक्षात् परम तत्त्व का सगुण रूप हैं। दक्षिणामूर्ति उपनिषद्, जो एक शैव उपनिषद् है, इस स्वरूप का विशेष गुणगान करता है और पुष्टि करता है कि शिव के इस आचार्य रूप का ज्ञान ही साधक के लिए परम मुक्ति और आनंद का मार्ग प्रशस्त करता है।
यह स्वरूप केवल मोक्ष के लिए ही नहीं, अपितु सृष्टि और कर्म में सिद्धि के लिए भी आधारभूत है। शास्त्रों के अनुसार, सृष्टि के आदि काल में प्रजापति ब्रह्मा ने इसी शिव तत्त्व रूप की उपासना की थी और उस उपासना से शक्ति प्राप्त करके ही वे सृष्टि की रचना रूपी अपने मनोरथ को पूर्ण कर पाए थे। यह तथ्य स्थापित करता है कि दक्षिणामूर्ति का ज्ञान निष्क्रिय नहीं है, बल्कि सृष्टि और कर्म की सफलता का मूल आधार है। इस शिव तत्त्व रूप की गुप्त विद्या का जो कोई भी पाठ, मनन या चिंतन करता है, वह न केवल अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है, बल्कि अंततः मोक्ष को प्राप्त होता है। इस प्रकार, दक्षिणामूर्ति की उपासना ज्ञान (मोक्ष) और कर्म (सृष्टि की शक्ति) के द्वैत को समाप्त करती है।
1.2. मौन-व्याख्यान: ज्ञान प्रदान करने की अद्वितीय पद्धति
दक्षिणामूर्ति की पहचान उनकी अद्वितीय शिक्षण पद्धति, मौन व्याख्यान, से होती है। वे वटवृक्ष के मूल में विराजमान होते हैं, जहाँ गुरु स्वयं युवा हैं, जबकि उनके शिष्य—सनकादि मुनि—वृद्ध हैं। इस स्थिति में, गुरु बिना कोई शब्द कहे, केवल अपने मौन से ही शिष्यों के सभी संशयों (छिन्नसंशयाः) का निवारण कर देते हैं।
दार्शनिक रूप से, यह मौन-व्याख्यान इस सत्य का प्रतीक है कि ज्ञान का उच्चतम स्तर वाणी और बुद्धि की सीमाओं से परे होता है। यह मौन उपदेश परब्रह्म तत्त्व का प्रत्यक्ष और तात्कालिक प्रकटीकरण है। यह तत्त्व चिर नूतन (युवानम्) रहता है और कभी बूढ़ा नहीं होता, यह दर्शाता है कि आत्म-ज्ञान सदा अपरिणामी और शाश्वत रहता है।
इस स्वरूप में शिव दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर ज्ञान मुद्रा (या चिन-मुद्रा) धारण करते हैं। यह मुद्रा जीवात्मा (तर्जनी) और परमात्मा (अंगूठा) के मिलन, यानी अद्वैत तत्त्व को दर्शाती है, जो उनकी समस्त शिक्षाओं का सार है।
1.3. अद्वैत वेदांत में गुरु का महत्व: आत्म-तत्त्व का एकीकरण
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों का एक अत्यंत गहन और काव्यमय संग्रह है। इस स्तोत्र को एक मोक्ष शास्त्र माना जाता है, जो तत् त्वम् असि (वह तू ही है) और अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) जैसे महावाक्यों के गूढ़ार्थ का विवेचन करता है।
वेदांत दर्शन में गुरु की भूमिका अपरिहार्य है। यदि किसी साधक को आत्म-साक्षात्कारी मानव गुरु उपलब्ध न हों, तो वे भगवान दक्षिणामूर्ति को ही अपना गुरु मानकर उनकी उपासना कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि साधक योग्य है, तो दक्षिणामूर्ति की कृपा से उसे अवश्य ही किसी सद्गुरु की प्राप्ति होती है।
इस स्तोत्र का श्रवण, इसके अर्थ का मनन, ध्यान, और कीर्तन करने से साधक सर्वत्मत्व महाविभूति (आत्म-साक्षात्कार की महान स्थिति) प्राप्त करता है, और साथ ही उसे अष्टधा ऐश्वर्यम् (आठ सिद्धियाँ) भी बिना किसी बाधा के प्राप्त होती हैं।
II. दक्षिणामूर्ति साधना के प्रामाणिक स्रोत
2.1. आगमिक एवं उपनिषदीय परंपरा में स्थान
दक्षिणामूर्ति की साधना पद्धति का आधार केवल वैदिक परंपरा में नहीं है, बल्कि यह शैव आगमिक (तांत्रिक) परंपरा से भी गहराई से जुड़ी हुई है। दक्षिणामूर्ति उपनिषद् उन्हें मोक्ष, ज्ञान, और दीर्घायु के दाता के रूप में पहचानता है।
साधना के विस्तृत अनुष्ठान, जैसे षोडशोपचार (16 उपचार), तारपणम्, और लघु होम विधि, तांत्रिक/आगमिक ग्रंथों से प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए, श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवता नित्य पूजा की विस्तृत विधि इन आगमिक परंपराओं के अनुसार ही वर्णित है। यह दर्शाता है कि दक्षिणामूर्ति उपासना एक ही समय में वैदिक (उपनिषद्), वेदान्तिक (शंकराचार्य स्तोत्र), और तांत्रिक (षोडशोपचार, होम, तारपणम्) तीनों मार्गों को समाहित करती है। इसी बहु-आयामी दृष्टिकोण के कारण, उन्हें सर्व-विद्या का गुरु कहा जाता है, क्योंकि उनकी उपासना ज्ञान के सभी आध्यात्मिक पदानुक्रमों के लिए विधि प्रदान करती है।
2.2. प्रमुख शास्त्रीय संदर्भ
- अद्वैत वेदांत: श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् (आदि शंकराचार्य कृत), जिसे उच्चस्तरीय वेदान्तिक शिक्षाओं के लिए एक प्रमुख संदर्भ माना जाता है। इस स्तोत्र का संबंध सूतसंहिता से भी बताया जाता है।
- ध्यान स्वरूप का श्लोक: ध्यान के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठित श्लोक है: वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् । त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि। यह श्लोक भगवान के ध्यान स्वरूप का स्पष्ट चित्रण करता है और उन्हें जनम-मरण के दुःख का छेदन करने वाला बताता है।
- तान्त्रिक संदर्भ: दक्षिणामूर्ति संहिता का 38वाँ अध्याय गहन उपासना (शाक्तेय उपासना और तारपणम्) के विवरण प्रदान करता है। यह स्पष्ट करता है कि मूल मंत्र और उससे जुड़े अनुष्ठान व्यापक रूप से तांत्रिक ग्रंथों में समाहित हैं और उच्च साधना हेतु प्रमाणिक हैं।
III. प्रमुख मंत्र: संपूर्ण पाठ, स्वर और गूढ़ भावार्थ
3.1. दक्षिणामूर्ति मूल मंत्र
श्री मेधो दक्षिणामूर्ति स्वरूप के पूजन में यह मंत्र सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है।
सरल अर्थ एवं भावार्थ: यह मंत्र भगवान दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करते हुए ज्ञान की दो प्रमुख धाराओं—स्मृति और विवेक—की याचना करता है。
- ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये: उन भगवान दक्षिणामूर्ति को मेरा नमस्कार है।
- मह्यं मेधाम् प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा: मुझे मेधा (धारण शक्ति/स्मरण शक्ति) और प्रज्ञा (विवेकपूर्ण विशिष्ट ज्ञान) प्रदान करें, मैं यह समर्पण (स्वाहा) करता हूँ।
गूढ़ अर्थ (वेदांत दृष्टि): मेधा लौकिक ज्ञान, अध्ययन और स्मृति की सिद्धि के लिए है, जबकि प्रज्ञा आत्म-बोध और उच्चतम विवेक के लिए मांगी जाती है। यह प्रार्थना आत्मन (साधक) की ओर से गुरु (ईश्वर) के प्रति है, जिससे आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक मानसिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त हो सके।
3.2. श्री दक्षिणामूर्ति गायत्री मंत्र
यह मंत्र विशेष रूप से बुद्धि-वृद्धि और शिक्षा में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए जपा जाता है।
विवरण और फल: इस मंत्र में धीशः (बुद्धि के स्वामी) का आह्वान किया गया है। यह चित्त को एकाग्र कर प्रज्ञा (सहज अंतर्ज्ञान) को जागृत करता है और साधक को जीवन में योग्य गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करता है।
3.3. दक्षिणामूर्ति महावाक्य (वेदांत दृष्टि)
दक्षिणामूर्ति का मौन व्याख्यान सीधे वेदान्त के महावाक्यों पर आधारित है, जिनमें तत् त्वम् असि (वह तू ही है) और अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) प्रमुख हैं।
साधक जब जप और ध्यान करता है, तो वह धीरे-धीरे इस बोध में स्थित होने लगता है कि यह देह, मन, या बुद्धि केवल उस एक परब्रह्म चैतन्य की अभिव्यक्ति मात्र है। इस गहन ध्यान विधि का तात्कालिक प्रभाव होता है—मन स्थिर होने लगता है और चित्त में गहराई आती है। साधक का अहं (अहंकार) गलने लगता है, जिससे 'मैं' और 'तू' का भेद मिट जाता है और ब्रह्म के साथ एकत्व का प्रकाश भीतर भरने लगता है। उस क्षण, अहं ब्रह्मास्मि केवल एक दर्शन नहीं रहता, बल्कि साधक का जीवित अनुभव बन जाता है।
| क्रमांक | मंत्र का प्रकार | मंत्र पाठ (संक्षिप्त) | प्रमुख देवता (छन्द) | प्राथमिक उद्देश्य |
|---|---|---|---|---|
| 1 | मूल मंत्र | ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधाम् प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा। | श्री मेधो दक्षिणामूर्ति | आत्मज्ञान, मोक्ष, मेधा शक्ति की प्राप्ति |
| 2 | गायत्री मंत्र | ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे, ध्यानस्थाय धीमहि, तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥ | धीश (बुद्धि के स्वामी) | बुद्धि-वृद्धि, शिक्षा में सफलता, गुरु-प्राप्ति |
| 3 | महावाक्य (ज्ञान-सार) | तत् त्वम् असि / अहं ब्रह्मास्मि | परब्रह्म/आत्मन् | आत्म-साक्षात्कार, अहंकार का विलयन |
IV. पाठ-विधि: जप, ध्यान और नियम-निषेध
4.1. आसन, दिशा और समय
दक्षिणामूर्ति साधना में विशिष्ट भौतिक और कालगत नियमों का पालन आवश्यक है।
- दिशा: उपासना के लिए साधक को दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए, क्योंकि दक्षिणामूर्ति स्वयं दक्षिण मुख वाले गुरु-तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
- समय: साधना का सर्वश्रेष्ठ समय ब्रह्ममुहूर्त (सूर्य उदय से डेढ़ घंटे पूर्व) है, जब सात्त्विक ऊर्जा सर्वाधिक प्रबल होती है।
- आसन: रुद्राक्ष या कम्बल का आसन उपयुक्त है। साधक को वीरासन या पद्मासन में बैठना चाहिए, जो कि शास्त्रों द्वारा अनुशंसित है, जहाँ भगवान दक्षिणामूर्ति को भी वीरासने समासीनम् कहा गया है।
4.2. माला और जप संख्या
- माला: मंत्र जप के लिए रुद्राक्ष माला का प्रयोग अनिवार्य है, क्योंकि यह शिव उपासना में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
- जप संख्या: प्रतिदिन न्यूनतम एक माला (108 बार) का जप करना चाहिए। सिद्धि प्राप्त करने के लिए, गुरु-निर्देशन में मंत्र के लक्ष (1,00,000) जप या सवा लक्ष जप का संकल्प लेना चाहिए।
- जप के प्रकार: मंत्रों को जपने की तीन श्रेणियाँ हैं: वाचिक (बोलकर), उपांशु (फुसफुसाकर), और मानसिक (मन में)। तांत्रिक नियम यह बताते हैं कि गुप्त मंत्रों के लिए मानसिक जप को सर्वोच्च महत्व दिया जाता है। मानसिक जप को सर्वश्रेष्ठ मानने का कारण यह है कि यह साधना के फल को नकारात्मक शक्तियों या बाहरी हस्तक्षेप से गुप्त रखता है। जब साधक मानसिक रूप से जप करता है, तो उसका मन स्थिर होता है और आंतरिक एकाग्रता बढ़ती है, जो आत्म-अनुभूति के लिए आवश्यक है। यदि साधक मानसिक जप में सक्षम न हो, तो उसे उपांशु (फुसफुसाहट) का अभ्यास करना चाहिए, ताकि धीरे-धीरे वह मानसिक जप की ओर अग्रसर हो सके।
4.3. ध्यान-विधान (Dhyana Vidhanam)
साधना का आरंभ ध्यान से होता है। सर्वप्रथम, यदि दीक्षा न हो तो गुरु ध्यान (गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः...) और गणेश ध्यान (शुक्लाम्बरधरम्...) आवश्यक है।
इसके बाद, दक्षिणामूर्ति स्वरूप का ध्यान करना चाहिए:
- स्वरूप: उन्हें तरुण (युवा) गुरु के रूप में वटवृक्ष के नीचे, चार वृद्ध शिष्यों के साथ, श्वेत (गोक्षीर के समान धवल) रंग का, जटाओं में चन्द्ररेखा धारण किए हुए देखना चाहिए।
- भाव: यह चिंतन करना चाहिए कि उनके दाहिने हाथ की ज्ञान मुद्रा से समस्त संशयों का निवारण हो रहा है।
V. दक्षिणामूर्ति साधना-विधि: क्रमवार अनुष्ठान
दक्षिणामूर्ति की नित्य पूजा श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवता नित्य पूजा विधि के अनुसार, षोडशोपचार क्रम का पालन करते हुए की जाती है।
5.1. प्रारंभिक कर्म: शुद्धि, आचमन, प्राणायाम, और संकल्प
शुद्धि एवं आचमन: पूजा से पूर्व, आंतरिक तत्त्वों की शुद्धि के लिए दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार निम्नलिखित मंत्रों से आचमन किया जाता है:
ऐं आत्म तत्वाय स्वाहा
क्लीं विद्या तत्वाय स्वाहा
सौः शिव तत्वाय स्वाहा
प्राणायाम: आचमन के उपरांत, विशिष्ट विधि द्वारा प्राणायाम करते हुए गायत्री मंत्र का जप किया जाता है। यह क्रिया साधक को साधना के लिए मानसिक रूप से तैयार करती है。
संकल्प: हल्दी मिश्रित अक्षत दाहिने हाथ में लेकर, पूजा का उद्देश्य घोषित किया जाता है。
संकल्प पाठ: मम उपत्त समस्थ दुरित क्षय द्वारा, श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवतोमुद्दिश्य, श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवतानुग्रह सिद्ध्यर्थ्यम्, यथा शक्ति, श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवता नित्य पूजां करिष्ये।
5.2. षोडशोपचार पूजन
समस्त उपचारों का मूल विनियोग मंत्र ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधाम् प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा, ॐ श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवतायै नमः... है, जिसे प्रत्येक उपचार के अनुरूप पूर्ण किया जाता है।
- ध्यानम्: अक्षत या पुष्प द्वारा भगवान के स्वरूप का चिंतन।
- आवाहनम्: अक्षत अर्पित कर प्रभु को उपस्थित होने का निमंत्रण।
- आसनम्: पुष्प द्वारा आसन अर्पण।
- पाद्यम्: जल छिड़ककर चरण धोने की भावना।
- अर्घ्यम् : जल छिड़ककर हाथ धोने की भावना।
- आचमनम्: पीने हेतु जल अर्पित करना।
- स्नपनम्: जल या पञ्चामृत (दूध, दही, घी, शहद, चीनी) से स्नान कराना, इस दौरान मूल मंत्र का 15 बार जप किया जाता है।
- वस्त्रम्: दो फूल अर्पित करना।
- आभरणम्: फूल या अक्षत द्वारा आभूषण की भावना।
- गंधम्: चंदन अर्पित करना।
- कुंकुमम् (Saffron): कुंकुम अर्पित करना। इस समय श्री मेधो दक्षिणामूर्ति अष्टोत्तरशतनामावली का पाठ करना चाहिए।
- धूपम्: सुगंधित धूप अर्पित करना।
- दीपम् : दीपक जलाकर भगवान को दिखाना।
5.3. नैवेद्य विधान
नैवेद्यम्: सात्त्विक नैवेद्य (भोग) अर्पित करना। भोग को शुद्ध करने के लिए उसके चारों ओर जल छिड़कते हुए गायत्री मंत्र और ॐ अपोज्योति रसोमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् का पाठ किया जाता है। इसके बाद अमृतमस्तु कहकर भोग पर जल छिड़का जाता है。
प्राण आहुति मंत्र: नैवेद्य अर्पण करते समय छः प्राणों को समर्पित करने हेतु छह मंत्रों का उच्चारण किया जाता है: ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, और ॐ ब्रह्मणे स्वाहा।
नीराजनम्: कर्पूर या घी के दीपक से आरती करना。
पूजा समर्पणम्: अक्षत और जल लेकर, त्रुटियों की क्षमा याचना करते हुए, पूजा का फल भगवान को समर्पित किया जाता है。
समर्पण मंत्र: मंत्र हीनं, क्रिया हीनं, भक्ति हीनं, श्रद्धा हीनं, द्रव्य हीनं परमेश्वर, यत् पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तुते। मया कृत श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवता नित्य पूजा फलं सर्वं श्री मेधो दक्षिणामूर्ति देवता अर्पणमस्तु।
अंत में, पूर्ण ज्ञान की अभिव्यक्ति स्वरूप ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम्... शांति पाठ का उच्चारण किया जाता है।
VI. विशेष प्रयोग एवं फलश्रुति
6.1. बुद्धि-वृद्धि और अध्ययन-सफलता हेतु मेधो दक्षिणामूर्ति साधना
मेधा शक्ति की प्राप्ति: श्री मेधो दक्षिणामूर्ति की उपासना विशेष रूप से मेधा (धारण शक्ति) और प्रज्ञा (विवेक) को तीव्र करने के लिए की जाती है। इस साधना का प्राथमिक उद्देश्य विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं को अध्ययन में सफलता दिलाना है।
गायत्री प्रयोग: दक्षिणामूर्ति गायत्री मंत्र (तन्नो धीशः प्रचोदयात्) का नियमित जप चित्त की एकाग्रता और धी (बुद्धि) की वृद्धि सुनिश्चित करता है।
यह मेधो स्वरूप ज्ञान मार्ग में भौतिक और मानसिक अवरोधों को दूर करने के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। यह साधना साधक को उत्तम अधिकारी (वेदांत के योग्य पात्र) बनाने में सहायता करती है, जो अंततः महावाक्यों के सत्य को ग्रहण करने के लिए तैयार होता है।
6.2. आध्यात्मिक प्रगति और गुरु-कृपा
आत्म-बोध की प्राप्ति: साधना का परम फल अहं (अहंकार) का पूर्ण विलयन है। साधक अनुभव करता है कि यह देह केवल एक आवरण है और चेतना ही सच्चा 'मैं' और ब्रह्म है। दक्षिणामूर्ति की कृपा इस क्षण अमृत की धार बनकर साधक में प्रवाहित होती है।
प्रसन्नता की स्थिति: साधना साधक को ब्रह्म भूत प्रसन्न आत्मा की स्थिति में स्थापित करती है, जहाँ वह दुख से परे, आंतरिक रूप से शांत और आनंदमय होता है।
6.3. तांत्रिक ज्ञानप्राप्ति हेतु विशिष्ट साधना
- लघु होम विधान: तांत्रिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए लघु होम विधि का प्रयोग किया जाता है। इसमें संकल्प के बाद, अग्नि देवता का आह्वान किया जाता है (अग्निम् दूतम् वृणीमहे...), उन्हें उपचार अर्पित किए जाते हैं, और विशिष्ट आज्य संस्कार (घी का शुद्धिकरण) करके मूल मंत्र के साथ आहुतियाँ दी जाती हैं।
- तारपणम्: यह एक उच्च और गहन अनुष्ठान है, जिसका विस्तृत वर्णन दक्षिणामूर्ति संहिता के 38वें अध्याय में मिलता है। इसमें मूल मंत्र के साथ तर्पयामि नमः जोड़कर जल या विशिष्ट द्रव्यों का 108 बार अर्पण किया जाता है। यह तीव्र उपासना केवल योग्य सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए।
- फलश्रुति (सिद्धियाँ): इन गहन साधनाओं की फलश्रुति में मोक्ष की ओर अग्रसर होने के साथ-साथ अष्टधा ऐश्वर्यम् (आठ सिद्धियाँ) भी बिना किसी बाधा के प्राप्त होती हैं।
VII. साधना में सावधानियाँ और नैतिक निर्देश
7.1. सात्त्विक उद्देश्य की अनिवार्यता
दक्षिणामूर्ति की उपासना पूर्णतः सात्त्विक मार्ग की है। साधक का उद्देश्य केवल ज्ञान, विवेक, और आत्म-बोध होना चाहिए। किसी भी प्रकार के तामसिक प्रयोग या दुर्भावनापूर्ण कामनाओं का इस साधना में पूर्णतः निषेध है। साधना के दौरान, साधक को प्रसन्न आत्मा की स्थिति बनाए रखनी चाहिए, क्योंकि दुखी होकर साधना करना परम आनंदमय ब्रह्म तत्त्व का अनादर माना जाता है।
7.2. चित्त की शुद्धता और गुरु का मार्गदर्शन
साधना में सफलता के लिए शुद्ध चित्त और मन की एकाग्रता प्राथमिक शर्त है। मानसिक जप को प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि मन स्थिर हो और चित्त में गहराई आ सके।
गुरु-निर्देशन: यद्यपि दक्षिणामूर्ति स्वयं आदि गुरु हैं, जटिल और तांत्रिक अनुष्ठानों (विशेषतः तारपणम्) को हमेशा सद्गुरु या दीक्षित गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में ही किया जाना चाहिए, ताकि क्रिया हीनता या त्रुटि हीनता से बचा जा सके।
VIII. उपसंहार: ज्ञान की पूर्णता और आत्म-साक्षात्कार
दक्षिणामूर्ति मंत्र साधना ज्ञान, भक्ति, और योग का एक संगम है, जिसका अंतिम लक्ष्य अद्वैत तत्त्व में स्थित होना है। यह साधना साधक को उस बिंदु तक ले जाती है, जहाँ अहं ब्रह्मास्मि केवल एक कथन नहीं, बल्कि उसका जीवित अनुभव बन जाता है।
साधना का सार यह है कि साधक को समस्त बाह्य भ्रमों का नाश होकर यह बोध हो कि सब कुछ उसी एक आत्मा से प्रकट हुआ है और उसी में विलीन हो रहा है। साधना की पूर्णता को पूर्णमदः पूर्णमिदम् (वह पूर्ण है, यह पूर्ण है) शांति पाठ द्वारा दर्शाया जाता है, जो ब्रह्म और सृष्टि की अखंड पूर्णता को प्रमाणित करता है।
इस उपासना का परम फल जनम-मरण दुःख का छेदन (जननमरणदुःखच्छेददक्षं) है। इस प्रकार, दक्षिणामूर्ति साधना साधक को ज्ञान, विवेक, आध्यात्मिक शक्ति, और अंततः आत्म-साक्षात्कार की उच्चतम स्थिति प्रदान करने का एक प्रामाणिक, संपूर्ण, और शास्त्रीय मार्ग है।