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यमराज भी लौट जाएंगे खाली हाथ: अकाल मृत्यु टालने का अचूक शिव उपाय !

AI सारांश (Summary)

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शिव गंडांत रक्षा प्रयोग – अकाल मृत्यु टालने का दुर्लभ एवं प्रमाणिक शिव उपाय

यह शोध-आधारित प्रतिवेदन शिव पुराण, रुद्रयामल तंत्र, और अथर्ववेदीय अनुष्ठानों में वर्णित उन प्रमाणिक शिव उपायों पर केंद्रित है, जिनका उद्देश्य गंडांत दोष का निवारण करना और साधक को अकाल मृत्यु के भय से सुरक्षा प्रदान कर दीर्घायु, सुरक्षा, और आत्मिक शांति का वरदान देना है। इस संकलन में हर मंत्र और प्रयोग को संपूर्ण, शुद्ध, और शास्त्र-सम्मत रूप में प्रस्तुत किया गया है।

खंड 1: शास्त्रीय आधार और गंडांत दोष का स्वरूप

गंडांत दोष की परिभाषा और जटिलता

गंडांत दोष ज्योतिषीय शास्त्र में वर्णित एक अत्यंत अशुभ काल खंड है, जिसे 'गण्ड' (गाँठ) और 'अंत' (समाप्ति) की संधि माना जाता है 1। यह वह अस्थिर संक्रमण काल होता है, जब एक नक्षत्र या राशि की ऊर्जा समाप्त होती है और दूसरी की ऊर्जा प्रारंभ होती है। यह संधि-काल नवजात शिशु के लिए, विवाह जैसे शुभ कार्यों के लिए, तथा जीवन के महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों के लिए निषिद्ध माना गया है।

गंडांत दोष मुख्यतः तीन प्रकार का होता है: नक्षत्र गंडांत, तिथि गंडांत, और लग्न गंडांत। इनमें से नक्षत्र गंडांत सर्वाधिक प्रचलित है, जो छह विशिष्ट नक्षत्रों (अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, और रेवती) की संधि पर बनता है। स्कन्द पुराण और बृहत् पराशर होरा शास्त्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में इन गंडांत नक्षत्रों का विस्तृत वर्णन किया गया है।

नक्षत्र गंडांत की अवधि ज्योतिषीय गणना पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए, रेवती नक्षत्र की अंतिम चार घड़ियाँ और अश्विनी नक्षत्र की पहली चार घड़ियाँ गंडांत काल मानी गई हैं। मिथिला जैसे क्षेत्रों में, नक्षत्र गंडांत का विचार दंड मूल दोष के रूप में किया जाता है, जहाँ रेवती के अंत में 12 दंड, आश्लेषा के अंत में 11 दंड, और ज्येष्ठा के अंत में 6 दंड की अवधि को दोषपूर्ण माना जाता है।

दंड मूल दोष के चरण-वार अनिष्ट फल

गंडांत दोष केवल व्यक्ति के स्वास्थ्य को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि यह उसके परिवार और कुल की विशिष्ट पीढ़ियों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। दोष का प्रभाव जन्म के समय, नक्षत्र चरण, और दिन के प्रहर पर निर्भर करता है।

एक महत्त्वपूर्ण विशेष अनिष्ट काल 'अभुक्त मूल' कहलाता है, जिसमें ज्येष्ठा नक्षत्र की अंतिम दो घटियाँ और मूल नक्षत्र की आरंभिक दो घटियाँ शामिल हैं। इस अवधि में उत्पन्न बालक या बालिका कुल के लिए अत्यंत अनिष्टकारी माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त, संतान यदि दिन में गंडांत नक्षत्र में उत्पन्न हो, तो पिता को कष्ट होता है; रात्रि में माता को, और संध्या काल में स्वयं जातक को कष्ट होता है।

शास्त्रों में चरण-वार फल इस प्रकार बताए गए हैं:

नक्षत्र गंडांत अवधि जन्म चरण प्रमुख अनिष्ट फल (शास्त्रोक्त)
ज्येष्ठा अंतिम 4 चरण प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ क्रमशः बड़े भाई, छोटे भाई, माता, पिता को कष्ट (पहले वर्ष में)
मूल प्रथम 4 चरण प्रथम, द्वितीय, तृतीय क्रमशः पिता, माता, धन हानि (पहले 4 वर्षों में)
आश्लेषा अंतिम 4 चरण तीसरे में माता को, चौथे में पिता को पिता को कष्ट (पहले 2 वर्षों में)

यह चरण-वार विभाजन यह दर्शाता है कि गंडांत दोष केवल एक ज्योतिषीय समस्या नहीं है, बल्कि यह एक कर्मफलात्मक दोष है जो विशिष्ट पारिवारिक संबंधों (माता, पिता, भाई, ससुर) की शुद्धि की मांग करता है। इस दोष के निवारण हेतु किया गया शिव अनुष्ठान (महाकाल की आराधना) व्यक्ति के स्वास्थ्य के साथ-साथ पूरे पितृकुल और मातृकुल की शुद्धि के लिए अनिवार्य हो जाता है।

काल के अधिपति का आश्रय

यद्यपि ज्योतिष में गण्डमूल दोष की शांति के लिए 28वें दिन उसी नक्षत्र में शांति विधान करने का उल्लेख है, यह उपाय केवल दोष के प्राथमिक प्रभावों (जन्म के शुरुआती वर्ष) को शांत करता है। लेकिन जब दोष अकाल मृत्यु, ग्रहदोष, या गंभीर जीवन-जोखिम का कारण बनता है, जो गहन प्राक्तन कर्मों से जुड़ा होता है, तब काल के अधिपति, भगवान महाकाल शिव का आश्रय ही एकमात्र समाधान होता है। इसलिए, रुद्रयामल और शिव पुराण जैसे शास्त्र शिव मंत्रों को सर्वोच्च रक्षा प्रयोग मानते हैं।

खंड 2: प्रमुख शिव रक्षा-मंत्र एवं अर्थ

अकाल मृत्यु निवारण और गंडांत दोष शांति के लिए दो सर्वाधिक शक्तिशाली शिव मंत्रों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है: महामृत्युंजय मंत्र और पंचाक्षरी मंत्र।

महामृत्युंजय मंत्र (त्र्यम्बकं मंत्र) — पूर्ण पाठ, विनियोग एवं ध्यान

महामृत्युंजय मंत्र का मूल ऋग्वेद और यजुर्वेद (रुद्राष्टाध्यायी) में है। हालाँकि, अकाल मृत्यु निवारण हेतु प्रयुक्त होने वाला इसका 'सप्त-बीजात्मक' स्वरूप रुद्रयामल तंत्र और शिव पुराण में विशेष रूप से वर्णित है।

संजीवनी (सप्त-बीजात्मक) महामृत्युंजय मंत्र का शुद्ध पाठ

यह मंत्र बीज मंत्रों के संयोजन से अत्यंत शक्तिशाली हो जाता है:

ॐ हौं जूं स: भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुव भूम ॐ स: जूं हौं ॐ

मंत्र का आध्यात्मिक भाव

इस मंत्र का अर्थ अत्यंत गूढ़ है। साधक त्रिनेत्रधारी शिव की पूजा करता है, जो जीवन में सुगंध (यश, ऐश्वर्य) और पुष्टि (ज्ञान, बल) की वृद्धि करते हैं। मंत्र का सार है 'मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्', जिसका अर्थ है कि हे भगवान शिव, मुझे पके हुए खीरे (उर्वारुक) की तरह अनायास मृत्यु के बंधन से मुक्त कर दें, लेकिन अमृतत्व से नहीं । यह प्रार्थना नश्वरता (जन्म-मृत्यु के चक्र) से मुक्ति और अमरता की ओर ले जाती है।

ध्यान और विनियोग

महामृत्युंजय जप आरंभ करने से पूर्व विनियोग आवश्यक है, जो मंत्र को विशिष्ट उद्देश्य (गंडांत दोष शांति, अकाल मृत्यु भय निवारण) के लिए जागृत करता है।

ध्यान के लिए साधक को भगवान शिव के गौर वर्ण में, कर्पूर की तरह उज्जवल और शांत, समाधि की अवस्था में, आँखें बंद किए हुए स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। भगवान शिव का क्रोधित या विनाश के लिए तत्पर स्वरूप ध्यान या पूजा के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है ।

अन्य शिव रक्षा प्रयोग: बीज, पंचाक्षरी और रुद्राभिषेक

मृत्युंजय बीज मंत्र: पुरश्चरण के दौरान सहायक बीज मंत्र का प्रयोग होता है:

ॐ हौं जुं स: मृत्युंजयाय नम:

यह बीज मंत्र महामृत्युंजय पुरश्चरण में त्वरित फल प्राप्ति के लिए सहायक होता है।

पंचाक्षरी मंत्र (ॐ नमः शिवाय): यह शिव का मूल मंत्र है, जो सभी दोषों, ग्रहदोषों, और जीवन जोखिमों की शांति में सहायक है । शुद्ध सात्त्विक जीवन के साथ इसकी साधना करने से व्यक्ति को दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो सामान्य जनों को उपलब्ध नहीं होता। गंडांत दोष एक जन्मगत संरचनात्मक दोष है, जिसके शुद्धिकरण के लिए मूल पंचाक्षरी साधना अत्यंत आवश्यक है।

रुद्राष्टाध्यायी: यजुर्वेद के 'रुद्र' अध्याय का यह संकलन शिव के रौद्र स्वरूप की स्तुति करता है और अथर्ववेदीय अनुष्ठानों में रुद्राभिषेक के समय विशेष रूप से पढ़ा जाता है । रुद्राभिषेक वातावरण और बाह्य शुद्धि के लिए आवश्यक है, जबकि महामृत्युंजय आंतरिक सुरक्षा के लिए है। एक सफल अनुष्ठान में, गंडांत दोष शांति (पंचाक्षरी/रुद्राभिषेक द्वारा संरचनात्मक दोषों का शुद्धिकरण) और अकाल मृत्यु निवारण (महामृत्युंजय द्वारा कालजयी स्वरूप का आह्वान) का समन्वय आवश्यक होता है।

खंड 3: शिव कवच (स्कंद पुराण, ब्रह्मोत्तर खण्ड) — अमोघ मृत्यु भय नाशक प्रयोग

शिव कवच एक शक्तिशाली रक्षा प्रयोग है, जो न केवल अकाल मृत्यु से बचाता है, बल्कि शत्रु भय, ग्रहदोष, और जीवन की आकस्मिक विपत्तियों से भी सुरक्षा प्रदान करता है।

शिव कवच का माहात्म्य और स्रोत प्रमाण

यह कवच स्कंद महापुराण के ब्रह्मोत्तर खण्ड में वर्णित है, जिसे ऋषभ योगी ने पार्थिव सुनु को प्रदान किया था । इसे 'अमोघ शिव कवच' कहा जाता है क्योंकि यह कभी विफल नहीं होता। इसकी फलश्रुति अत्यंत व्यापक है: इसके प्रभाव से साधक को हजारों हाथियों के समान बल प्राप्त होता है, वह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है, और सिंहासन पर प्रतिष्ठित होकर अपने कुल (पितृ-गोप्ता) की रक्षा करने में समर्थ होता है । यह दर्शाता है कि कवच की शक्ति केवल आत्मिक नहीं, बल्कि भौतिक सुरक्षा और ऐश्वर्य भी प्रदान करती है, जो गंडांत दोष के कारण होने वाले सामाजिक और आर्थिक कष्टों के निवारण में भी प्रभावी है।

शिव कवच स्तोत्र का अनुष्ठानिक पाठ

कवच का पाठ विनियोग, न्यास, ध्यान और स्तोत्र खंड सहित पूर्ण होना चाहिए।

विनियोग और न्यास

कवच पाठ से पहले ऋषि, छन्द, देवता, और बीज-शक्ति का उच्चारण किया जाता है। न्यास में शरीर के विभिन्न अंगों पर शिव के विशिष्ट रूपों का आह्वान किया जाता है।

न्यास उदाहरण: ॐ शिं रैं स्वतन्त्र-शक्ति-धाम्ने वामदेवात्मने कवचाय हुम्। अन्त: स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदा पातु बहि: स्थितम् माम्।

कवच पाठ की विशेष विधि (पुनरावृत्ति नियम)

कवच का नित्य कम से कम एक पाठ अवश्य करना चाहिए। यदि साधक इसे अनुष्ठान (जैसे 1000 या 10000 पाठ) के रूप में करता है, तो शास्त्र में एक विशेष विधि का विधान है। यह विधि मंत्र ऊर्जा के सतत् प्रवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक है:

प्रथम पाठ: अनुष्ठान के पहले पाठ में संपूर्ण विनियोग, न्यास और ध्यान किया जाता है।

मध्य के पाठ: यदि साधक 10 पाठ कर रहा है, तो दूसरे से नौवें पाठ तक केवल स्तोत्र खंड (श्लोक संख्या 2 से 16 तक) का पाठ किया जाता है, विनियोग, न्यास और ध्यान की पुनरावृत्ति नहीं की जाती।

अंतिम पाठ: अनुष्ठान का अंतिम पाठ पुनः संपूर्ण विनियोग, न्यास और फलश्रुति के साथ किया जाता है।

यह अनुष्ठानिक नियम जप की कुशलता और एकाग्रता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे साधक कम समय में अधिक जप संख्या पूर्ण कर सके।

खंड 4: जप-संख्या, पाठ-विधि और नियम-निषेध

महाकाल की साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए शुद्धता, नियम पालन और पुरश्चरण विधान का पालन अनिवार्य है।

साधना के उपकरण और वातावरण

दिशा, आसन, और स्थान: जप हमेशा पूर्व दिशा की ओर मुख करके किया जाना चाहिए। आसन स्थिर होना चाहिए; साधक को बिना हिले-डुले एक ही स्थान पर बैठने का अभ्यास करना चाहिए। कुश या मृग चर्म का आसन श्रेष्ठ माना जाता है। आसन ग्रहण करने से पूर्व आसन शुद्धि मंत्र का पाठ आवश्यक है:

ॐ पृथ्वि! त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रां कुरु चासनम्

इस मंत्र को पढ़कर आसन पर जल छिड़का जाता है। जप के लिए मंदिर, नदी का किनारा, या पीपल/बरगद के नीचे का स्थान उपयुक्त होता है।

माला: मंत्र जप के लिए रुद्राक्ष या तुलसी की माला का उपयोग किया जाना चाहिए। माला फिराने के लिए दाएँ हाथ के अंगूठे और बिचली (मध्यमा) या अनामिका उँगली का ही उपयोग करें। माला को जप के समय ढककर रखना आवश्यक है।

संकल्प, जप संख्या और पुरश्चरण विधान

संकल्प और स्थिरता: साधक को अपनी क्षमता के अनुसार ही जप संख्या का संकल्प लेना चाहिए। एक बार संकल्प लेने के बाद, दैनिक जप संख्या को कम नहीं किया जा सकता। यदि उत्साह में जप संख्या बढ़ा दी जाती है (उदाहरण के लिए 11 से 15 माला), तो अगली बार उससे कम संख्या (11 माला) पर वापस नहीं आया जा सकता। साधक को 15 या उससे अधिक माला ही करनी होगी, इसलिए संकल्प सोच-समझकर, क्षमतानुसार ही लेना चाहिए।

पुरश्चरण संख्या: तंत्र शास्त्र में बृहद् मंत्रों के सिद्ध होने के लिए जप की निश्चित संख्या निर्धारित की गई है। महामृत्युंजय जैसे मंत्रों को सिद्ध करने के लिए न्यूनतम सवा लाख (1,25,000) बार जप अनिवार्य माना गया है। यह पुरश्चरण सामान्यतः 45 से अधिकतम 84 दिनों में पूर्ण कर लिया जाना चाहिए।

दशांश कर्म की अनिवार्यता: जप संख्या पूर्ण होने के बाद पुरश्चरण की सफलता के लिए दशांश (1/10वां हिस्सा) कर्म करना अनिवार्य है।

हवन: 1,25,000 मंत्रों के जप के लिए 12,500 मंत्रों का दशांश हवन करना आवश्यक है।

तर्पण और मार्जन: हवन का दशांश तर्पण, और तर्पण का दशांश मार्जन किया जाता है।

ब्राह्मण भोजन: मार्जन के दशांश या यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

यदि हवन करना संभव न हो, तो उस दशांश संख्या (12,500 अतिरिक्त जप) को अधिक जप द्वारा पूर्ण किया जाना चाहिए।

अनिवार्य यम-नियम (सात्त्विक अनुबंध)

साधना की सफलता केवल संख्यात्मक जप पर निर्भर नहीं करती, बल्कि साधक के सात्त्विक आचरण और जीवनशैली पर निर्भर करती है। महामृत्युंजय जप के दिनों में निम्नलिखित नियमों का कठोरता से पालन आवश्यक है:

निषेध: मांसाहार, झूठ बोलना, दूसरों की बुराई या निंदा करना, और आलस्य या उबासी को पास नहीं आने देना चाहिए।

शुद्धि: त्रिपुण्ड्र (भस्म) और रुद्राक्ष धारण करना अनिवार्य है। शिव पुराण के अनुसार, भस्म (या जल) से त्रिपुण्ड्र धारण करने से ही जप, तप और दान सफल होते हैं। यह बाह्य आचरण साधक के शरीर को मंत्र की ऊर्जा धारण करने के लिए तैयार करता है।

पार्थिवेश्वर पूजा: महामृत्युंजय जप के दिनों में पार्थिवेश्वर (मिट्टी के शिवलिंग) की पूजा का विधान है। यह प्रतीकात्मक रूप से साधक की नश्वर देह (मिट्टी) को महाकाल तत्व से जोड़ता है, जो गंडांत जैसे दोषों के निवारण के लिए अत्यंत प्रशस्त है।

खंड 5: शिव साधना का क्रमवार अनुष्ठान (षोडशोपचार विधि)

गंडांत दोष निवारण और अकाल मृत्यु रक्षा हेतु शिव साधना को क्रमबद्ध षोडशोपचार विधि से संपन्न करना चाहिए।

प्रारंभिक कर्म एवं शारीरिक शुद्धि

आचमन और प्राणायाम: तीन बार आचमन करें। इसके बाद ॐ गोविंदाय नमः जैसे मंत्रों के साथ तीन छोटे चक्र प्राणायाम करें।

त्रिपुण्ड्र धारण: शुद्ध भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करें; भस्म न होने पर जल का उपयोग करें।

रुद्राक्ष धारण: साधना आरंभ करने से पहले रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

संकल्प, आवाहन और पूजन

आसन शुद्धि: आसन शुद्धि मंत्र से आसन को पवित्र करें।

संकल्प: देश, काल, नाम, गोत्र का उच्चारण करते हुए स्पष्ट संकल्प लें कि यह अनुष्ठान गंडांत दोष निवारण, अकाल मृत्यु भय से रक्षा, और दीर्घायु हेतु किया जा रहा है।

घण्टा और दीप पूजन: धूप, घी का दीपक प्रज्वलित करें। घंटा पूजन करें (आगमार्थन्तु देवानां गमनार्थन्तु रक्षसाम्... )।

आवाहन एवं स्थापना: भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को घर में उत्तर दिशा में स्थापित करना श्रेष्ठ है। शिव का आवाहन इन मंत्रों से करें:

नमोंदु स्वरूपाय नमो दिग्विवसनायच नमो भक्तार्थी हंच मम मृत्युं विनाशय। एवं मृत्यु विनाशंम भय हरमसाम्राज्य मुक्ति प्रदम नाना भूत गणावित देव सदा सेवित अज्ञान धक नाम शुभकरम विद्या सौख्य प्रदम सर्व सर्वपतिम महेश्वर हरम मृत्युंजय भावये ये।

षोडशोपचार पूजा: आवाहन के पश्चात जल, दूध, बेलपत्र, फूल आदि अर्पित करें।

अभिषेक: मंत्र जाप के समय शिवलिंग पर दूध मिले जल से अभिषेक करते रहें । रोगमुक्ति, धन लाभ और संतान संबंधी नकारात्मकता दूर करने के लिए पूरे महीने गाय के कच्चे दूध में गंगाजल मिलाकर प्रतिदिन अभिषेक करना अति सरल और प्रभावशाली उपाय है।

अर्पण: बेलपत्र, शमी पत्र, सफेद फूल (श्वेत पुष्प), धूप, दीप, और नैवेद्य अर्पित करें।

अथर्ववेदीय अनुष्ठान: रुद्राभिषेक

अथर्ववेदीय अनुष्ठानों में, सभी अनिष्टों, जीवन जोखिमों, और ग्रहदोषों को दूर करने के लिए रुद्राष्टाध्यायी के पाठ के साथ रुद्राभिषेक किया जाता है। सावन के सोमवार को शिव की पूजा सर्वोत्तम मानी जाती है। यदि पूरे सावन पूजा न हो सके, तो सोमवार को शिवलिंग पर जल और बेलपत्र अर्पित करने से आयु की रक्षा होती है और स्वास्थ्य तथा मानसिक स्थिति बेहतर होती है। सावन सोमवार का विशेष फल अनुष्ठान की शक्ति को केंद्रित कर गंडांत जैसे दोषों के शमन में तेजी लाता है।

खंड 6: सावधानी, गुरु-निर्देशन और फलश्रुति

गुरु का अनिवार्य मार्गदर्शन और आचार संहिता

गूढ़ मंत्रों, विशेषकर तांत्रिक बीजों और महामृत्युंजय मंत्रों का प्रयोग, गुरु के मार्गदर्शन और दीक्षा के बिना नहीं किया जाना चाहिए। गुरु का निर्देश मंत्र की शक्ति को जागृत करने और विपरीत फल को रोकने के लिए अनिवार्य है। गुरु का स्वरूप मनुष्य रूप में ही होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि मार्गदर्शन किसी भी रूप में प्राप्त हो सकता है, जिससे साधक को दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है।

यह साधना केवल सात्त्विक और कल्याणकारी उद्देश्यों से की जानी चाहिए। तामसिक, शत्रुतापूर्ण, या अत्यधिक स्वार्थपूर्ण प्रयोग शास्त्र में पूर्णतः वर्जित हैं। इसके अतिरिक्त, साधक को अपने गुरु मंत्र को किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।

साधना की समाप्ति एवं विसर्जन

जप और पूजा की समाप्ति पर, साधक को हाथ में फूल लेकर शिव जी को प्रणाम करना चाहिए और क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए।

क्षमा प्रार्थना मंत्र

पूजा के दौरान जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए यह क्षमा प्रार्थना अनिवार्य है:

कर चरण कृतम वाक्कायजम कर्मजं वा श्रवण नयनजम वानसम वा पराधम। विहितम विहितम सर्वमेतत क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥

क्षमा प्रार्थना के बाद, साधक को महादेव से हर जन्म में अपनी भक्ति बनाए रखने और विपत्तियों से मुक्त रखने की प्रार्थना करनी चाहिए। साधना पूर्ण करने के बाद, उपयोग की गई सामग्री को कम से कम एक सप्ताह तक पूजा स्थल पर रखना चाहिए, फिर गुरु गुटिका (यदि धारण की हो) को गले या उंगली में धारण करके, शेष सामग्री को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर देना चाहिए।

फल और लाभ (दीर्घायु और आत्मिक उन्नति)

यह शिव रक्षा प्रयोग अकाल मृत्यु योग को काटकर साधक को लम्बी आयु प्रदान करता है, और गंभीर बीमारियों का इलाज करने में सक्षम माना जाता है।

महामृत्युंजय और शिव कवच की साधना से प्राप्त होने वाले प्रमुख फल और लाभ निम्नलिखित हैं:

आयु-वृद्धि और भय-नाश: यह काल के भय से मुक्ति दिलाता है और साधक को जीवन सुरक्षा प्रदान करता है।

मानसिक और आत्मिक स्थिरता: साधक को मानसिक शांति, आत्मिक स्थिरता, और सभी विपत्तियों से मुक्ति मिलती है।

भौतिक समृद्धि: शिव पुराण के अनुसार, इस दिव्य विधि से पूजा करने वाला साधक सांसारिक सुखों (धन, संतान, यश, स्वास्थ्य) को प्राप्त करता है।

मंत्र सिद्धि के लक्षण: निरंतर और समर्पित जप से साधक को असीम शांति, आनंद की अनुभूति, मन के संकल्पों की पूर्ति, और भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगता है। सबसे महत्त्वपूर्ण फल हृदय की निर्मलता और शुद्धता का अनुभव है।

मोक्ष की प्राप्ति: यह साधना अंततः साधक को भोग के साथ-साथ मोक्ष का अधिकारी भी बनाती है। अंतिम समय में भगवान शिव का स्मरण होने से व्यक्ति आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाता है।

निष्कर्ष

यह संकलन यह स्थापित करता है कि गंडांत दोष (जन्मगत काल-संधि दोष) और अकाल मृत्यु (आकस्मिक काल का प्रभाव) जैसे गंभीर अनिष्टों का निवारण केवल काल के अधिपति महाकाल शिव की प्रामाणिक साधना से ही संभव है।

शिव पुराण, रुद्रयामल तंत्र और अथर्ववेदीय परंपरा में वर्णित महामृत्युंजय मंत्र, पंचाक्षरी मंत्र, और अमोघ शिव कवच जैसे दुर्लभ उपाय साधक को दोहरी सुरक्षा प्रदान करते हैं: एक ओर, ये गंडांत दोष से उत्पन्न होने वाली संरचनात्मक नकारात्मकता को शुद्ध करते हैं (पंचाक्षरी और रुद्राभिषेक द्वारा), और दूसरी ओर, ये महामृत्युंजय और शिव कवच के माध्यम से जीवन जोखिमों और काल के आकस्मिक प्रहारों से सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।

सफलता के लिए मूलभूत आवश्यकता यह है कि साधक को सवा लाख जप, दशांश हवन, तर्पण, और ब्राह्मण भोजन सहित पुरश्चरण के कठोर नियमों का पालन करना होगा। यह पद्धति, जब शुद्ध सात्त्विक आचरण और गुरु-निर्देशन के साथ की जाती है, तो साधक को मृत्यु के भय से मुक्त करके दीर्घायु और परम आत्मिक कल्याण (अवागमन से मुक्ति) की ओर अग्रसर करती है। इन शास्त्रीय उपायों का पूर्ण और शुद्ध पाठ साधक को शिव की कृपा प्राप्त करने के योग्य बनाता है।


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