कालभैरव शत्रु-बाधा निवारण मंत्र साधना: बटुक भैरव कवच और उग्र तांत्रिक प्रयोगों की पूर्ण विधि !
AI सारांश (Summary)
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प्रस्तावना: भैरव-तत्व का शास्त्रीय परिचय
तंत्र एवं आगम शास्त्रों में, भगवान भैरव को परमशिव का साक्षात् 'पूर्ण-रूप' माना गया है। 'भैरव' शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है: प्रथम, 'भय-रव', अर्थात् जिनके भीषण नाद (रव) से भय भी भयभीत हो उठता हो; और द्वितीय, 'भय-हर', अर्थात् जो अपने भक्तों के त्रिविध भयों (आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक) का हरण कर लेते हैं। वे भगवान शिव के 'रुद्र' अथवा उग्र स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
'कालभैरव' के रूप में, वे 'काल' अर्थात् समय एवं मृत्यु के भी स्वामी हैं। 'शिव पुराण' के अनुसार, एक बार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अहंकारवश स्वयं को परम-तत्व घोषित कर दिया। उनके इस अहंकार का शमन करने हेतु ही भगवान शिव के रौद्र-रूप से कालभैरव की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने ब्रह्मा के उस पंचम मस्तक को विच्छिन्न कर दिया जो अहंकार का प्रतीक था।
अतः, यह स्पष्ट होना चाहिए कि भैरव-साधना केवल स्थूल शत्रु-नाश या बाधा-निवारण तक सीमित नहीं है। यह वस्तुतः साधक के आंतरिक भय, अहंकार और स्वयं 'काल' (मृत्यु-भय) पर विजय प्राप्त करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। शत्रु-बाधाओं का निवारण तो इस महा-साधना का एक अनुषंगी फल मात्र है। 'रुद्रयामल तंत्र' जैसे प्रधान आगम-ग्रंथ यह स्पष्ट निर्देश देते हैं कि दस महाविद्याओं की भी कोई साधना तब तक पूर्ण नहीं होती, जब तक उनके संबंधित भैरव (जो शिव-रूप हैं) की उपासना संपन्न न की जाए।
यह शोध-संकलन, गम्भीर साधकों के समक्ष, भगवान भैरव के उन्हीं दुर्लभ एवं प्रामाणिक शत्रु-विनाशक मंत्रों को उनकी पूर्ण शास्त्रीय विधि, अर्थ एवं ग्रंथ-संदर्भों सहित प्रस्तुत करने का एक प्रयास है।
खंड 1: प्रमुख शत्रु-नाशक भैरव मंत्र (शास्त्रीय विश्लेषण)
तांत्रिक साधना में, साधक की आवश्यकता और उद्देश्य (सात्त्विक रक्षा, उग्र-रक्षा, या अभिचार-शमन) के आधार पर भिन्न-भिन्न भैरव-स्वरूपों के मंत्रों का विधान है।
1.1: श्री बटुक भैरव आपदुद्धारण मंत्र (सात्त्विक रक्षा-प्रयोग)
यह भगवान भैरव का 'बटुक' अर्थात् बाल-स्वरूप एवं 'आनंद भैरव' का सौम्य मंत्र है। इसका उद्देश्य किसी का नाश करना नहीं, अपितु भक्त को 'आपदा' (शत्रु-बाधा, संकट, भय) से उद्धार करना है। यह गृहस्थ साधकों के लिए सर्वश्रेष्ठ और पूर्णतः सात्त्विक रक्षा-मंत्र है।
पूर्ण मंत्र-पाठ:
ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू बटुकाय ह्रीं
ग्रंथ-संदर्भ: यह मंत्र 'रुद्रयामल तंत्र' से संबद्ध 'श्री बटुक भैरव स्तोत्र' एवं 'कवच' प्रकरणों में प्रमुखता से पाया जाता है।
1.2: श्री कालभैरव बीज-युक्त उग्र मंत्र (उग्र रक्षा-प्रयोग)
यह कालभैरव का प्रमुख बीज-युक्त मंत्र है, जिसका प्रयोग शत्रु द्वारा किए गए अभिचार को नष्ट करने और एक उग्र रक्षा-कवच के निर्माण हेतु किया जाता है।
पूर्ण मंत्र-पाठ:
ॐ भ्रं कालभैरवाय फट् (कुछ परंपराओं में )भ्रां
अर्थ एवं व्याख्या: 'भ्रं' भगवान भैरव का उग्र, तांत्रिक बीज है। 'फट्' एक अस्त्र-वाचक तांत्रिक शब्द है, जिसका प्रयोग बाधाओं को विस्फोटित करने, छिन्न-भिन्न करने और नकारात्मक शक्तियों को बलपूर्वक नष्ट कर वापस भेजने (प्रत्याक्रमण) हेतु किया जाता है।
ग्रंथ-संदर्भ: 'रुद्रयामल तंत्र' में यह मंत्र स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
1.3: श्री क्रोध भैरव उच्चाटन मंत्र (विशिष्ट तांत्रिक-प्रयोग)
यह मंत्र तांत्रिक 'षट्कर्म' (मारण, मोहन, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण) में से 'उच्चाटन' का एक विशिष्ट एवं अत्यंत तीव्र प्रयोग है।
पूर्ण मंत्र-पाठ:
ॐ भ्रम भ्रम भ्रम क्रोध भैरवाय अमुक उच्चाटय भ्रम भ्रम भ्रम फट्
अर्थ एवं व्याख्या: यहाँ 'अमुक' के स्थान पर शत्रु का नाम अथवा 'मम सर्व-शत्रु' का प्रयोग किया जाता है। यह मंत्र शत्रु को मानसिक रूप से अस्थिर कर, उसके चित्त में भय उत्पन्न कर, उसे साधक के जीवन और स्थान से बलपूर्वक दूर भगाता (उच्चाटन) है।
ग्रंथ-संदर्भ: यह प्रायः 'डामर तंत्र' या विशिष्ट 'भैरव प्रयोग-ग्रंथों' से उद्धृत होता है ।
1.4: श्री महाकाल भैरव गूढ़ बीजाक्षर मंत्र (आंतरिक-रक्षा प्रयोग)
यह मंत्र गूढ़ बीजाक्षरों से युक्त है, जिसका प्रभाव स्थूल शत्रुओं से अधिक सूक्ष्म-शत्रुओं (जैसे रोग, असाध्य मानसिक क्लेश, अज्ञात भय, और कर्म-जनित बाधाओं) के शमन के लिए होता है।
पूर्ण मंत्र-पाठ:
ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नमः
अर्थ एवं व्याख्या: ये बीजाक्षर साधक के ऊर्जा-शरीर पर एक शक्तिशाली कवच का निर्माण करते हैं, जिससे नकारात्मक शक्तियाँ प्रवेश नहीं कर पातीं।
ग्रंथ-संदर्भ: तांत्रिक-संग्रह एवं 'श्री कालभैरव तंत्र'।
1.5: पूजा-अनुज्ञा मंत्र (साधना-आरंभ हेतु)
यह जप-मंत्र नहीं है, अपितु किसी भी भैरव-साधना या पूजन को आरंभ करने से पूर्व, उन उग्र देव से विनम्रतापूर्वक आज्ञा प्राप्त करने का प्रार्थना-मंत्र है।
पूर्ण मंत्र-पाठ:
ॐ तीखदन्त महाकाय कल्पान्तदोहनम्, भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञां दातुर्माहिसि
अर्थ: "हे तीक्ष्ण दांतों वाले, विशाल शरीर वाले, कल्प के अंत के समान (भयानक), हे भैरव, आपको नमस्कार है, मुझे (मेरी पूजा को करने की) आज्ञा प्रदान करें।"
ग्रंथ-संदर्भ: विभिन्न भैरव-पूजा विधानों में यह मंत्र पाया जाता है।
शास्त्रों में वर्णित इन विभिन्न मंत्रों में एक स्पष्ट पदानुक्रम परिलक्षित होता है। साधक को अपनी परिस्थिति के अनुसार मंत्र का चयन करना चाहिए। यदि केवल सात्त्विक रक्षा और आपदा-निवारण चाहिए, तो 'बटुक भैरव' का मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। यदि शत्रु द्वारा किए गए तंत्र-प्रयोग को काटना और वापस भेजना है, तो 'काल भैरव' का 'फट्' युक्त मंत्र उपयुक्त है। और यदि शत्रु को दंडित कर उसे अपने जीवन से दूर (उच्चाटित) करना है, तो 'क्रोध भैरव' का प्रयोग किया जाता है, जो अत्यंत उग्र श्रेणी में आता है।
तालिका 1: प्रमुख भैरव मंत्रों का तुलनात्मक विश्लेषण
| मंत्र (Mantra) | देवता (Deity) | स्वरूप (Nature) | मुख्य प्रयोजन (Primary Purpose) | ग्रंथ-स्रोत (Source Clue) |
|---|---|---|---|---|
| ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय. | श्री बटुक भैरव | सौम्य (बाल-रूप) | सात्त्विक रक्षा, आपदा-निवारण 10 | रुद्रयामल तंत्र |
| ॐ भ्रं कालभैरवाय फट् | श्री काल भैरव | उग्र | शत्रु-कृत अभिचार-नाश, उग्र-रक्षा | रुद्रयामल तंत्र |
| ॐ भ्रम... क्रोध भैरवाय अमुक उच्चाटय. | श्री क्रोध भैरव | अति-उग्र (तामसिक) | शत्रु-उच्चाटन, षट्कर्म | भैरव प्रयोग-ग्रंथ |
| ॐ हं षं नं गं... महाकाल भैरवाय नमः | श्री महाकाल भैरव | गूढ़ | सूक्ष्म-बाधा, रोग, भय-नाश | कालभैरव तंत्र |
खंड २: सामान्य पाठ-विधि
किसी भी भैरव-साधना की सफलता के लिए शास्त्र-निर्दिष्ट देश, काल और विधि का पालन अनिवार्य है।
2.1: काल एवं समय
- निशिता काल (मध्यरात्रि): भगवान भैरव रात्रि के देवता हैं। तांत्रिक पूजा, उग्र-साधना और षट्कर्मों के लिए मध्यरात्रि (12 AM से 3 AM) का समय सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
- प्रदोष काल (संध्या समय): 'शिव पुराण' के अनुसार, भैरव का प्राकट्य प्रदोष काल में हुआ था। अतः, सात्त्विक पूजा और नित्य-अर्चना के लिए यह समय भी अत्यंत शुभ है।
- शुभ तिथि: कृष्ण पक्ष की अष्टमी (कालाष्टमी) भैरव-पूजा के लिए सर्व-श्रेष्ठ तिथि है। इसके अतिरिक्त, रविवार, शनिवार अथवा कोई भी अमावस्या तिथि उग्र-प्रयोगों के लिए चुनी जाती है।
2.2: दिशा, आसन, एवं माला (Direction, Seat, Rosary)
- दिशा : साधना करते समय साधक का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए। यह यम और भैरव की दिशा है और उग्र-साधनाओं में अनिवार्य है।
- आसन : काला ऊनी आसन, कुशा का आसन, अथवा मृगचर्म (यदि शास्त्रीय रूप से उपलब्ध हो)।
- माला : रुद्राक्ष माला को सर्व-कार्य-सिद्धि हेतु प्रयोग किया जा सकता है। विशिष्ट तांत्रिक प्रयोगों में हकीक माला का भी विधान है।
2.3: जप-संख्या
जप-संख्या पूर्णतः 'प्रयोग' पर निर्भर करती है।
- नित्य पाठ: 1 माला (108 बार)।
- विशिष्ट प्रयोग: 21 बार (दीप-प्रयोग हेतु), 27 बार (स्तोत्र-पाठ हेतु) , 51 माला (उग्र-उच्चाटन हेतु), अथवा 21,000 मंत्र (महा-विपत्ति निवारण हेतु)।
- पुरश्चरण: सवा लाख मंत्र।
2.4: ध्यान-विधि
मंत्र-जाप से पूर्व साधक को अपने इष्ट (भैरव) के उस स्वरूप का ध्यान करना चाहिए, जिसकी वह उपासना कर रहा है। ध्यान के बिना किया गया जप निष्फल होता है।
श्री बटुक भैरव (सौम्य) ध्यान:
वन्दे बालं स्फटिक-सदृशम्, कुन्तलोल्लासि-वक्त्रम्।
दिव्याकल्पैर्नव-मणि-मयैः, किंकिणी-नूपुराढ्यैः
दीप्ताकारं विशद-वदनं, सुप्रसन्नं त्रि-नेत्रम्।
हस्ताब्जाभ्यां बटुकमनिशं, शूल -दण्डौ दधानम्
(अर्थ: मैं उन बटुक (बाल) भैरव की वंदना करता हूँ, जो स्फटिक के समान (गौर वर्ण) हैं, जिनका मुख घुंघराले केशों से सुशोभित है, जो दिव्य मणिमय किंकिणी (करधनी) और नूपुरों से सजे हैं, जिनका स्वरूप दीप्तिमान, मुख उज्ज्वल और जो त्रिनेत्र-धारी होकर परम प्रसन्न हैं, और जो अपने दो कमल-हस्तों में शूल और दण्ड धारण करते हैं।)
श्री काल भैरव (उग्र) ध्यान:
ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तम शशिश्कलधरम मुण्डमालं महेशम्।
दिग्वस्त्रं पिंगकेशं डमरुमथ सृणिं खडगपाशाभयानि॥
नागं घण्टाकपालं करसरसिरुहैर्बिभ्रतं भीमद्रष्टम।
दिव्यकल्पम त्रिनेत्रं मणिमयविलसद किंकिणी नुपुराढ्यम॥
(अर्थ: मैं उन (कालभैरव) का ध्यान करता हूँ, जिनकी कांति नील पर्वत के समान है, जो मस्तक पर चंद्रकला धारण करते हैं, मुंडमाला पहने हैं, दिगंबर (दिग्वस्त्र) हैं, जिनके केश भूरे (पिंगल) हैं, जो अपने हाथों में डमरू, अंकुश (सृणि), खड्ग, पाश, अभयमुद्रा, नाग, घंटा और कपाल धारण करते हैं, जिनकी दाढ़ें भयंकर हैं, जो त्रिनेत्र-धारी और मणिमय आभूषणों से सुशोभित हैं।)
खंड 3: संपूर्ण तांत्रिक साधना-क्रम
एक प्रामाणिक तांत्रिक साधना केवल मंत्र-जाप नहीं है, अपितु यह एक संपूर्ण क्रमबद्ध प्रक्रिया है, जिसमें संकल्प, न्यास, पूजन और अर्पण शामिल हैं।
3.1: आत्म-रक्षा एवं संकल्प
उग्र-साधना से पूर्व, साधक को अपनी रक्षा-विधि (आत्म-रक्षा) करनी चाहिए। इसके उपरांत, पवित्रीकरण (आचमन), प्राणायाम करके हाथ में जल, अक्षत और पुष्प लेकर स्पष्ट सात्त्विक संकल्प लेना अनिवार्य है।
उदाहरण संकल्प:
विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः... (तिथि, वार, नक्षत्र)...... (स्व-नाम एवं गोत्र)... अहं मम जीवने आगतानां ज्ञात-अज्ञात-शत्रु-कृतानां सर्व-बाधानां निवारणार्थं, नकारात्मक-शक्ति-शमनार्थं, श्रीभगवत्याः अनुज्ञया निर्भय-जीवन-प्राप्त्यर्थं च श्री कालभैरव (अथवा बटुक भैरव) देवस्य (मंत्र-नाम) मंत्र-जप-अनुष्ठानं करिष्ये।
3.2: विनियोग एवं न्यास
'विनियोग' और 'न्यास' किसी भी मंत्र-साधना के प्राण हैं। यह उस मंत्र के ऋषि, छंद, देवता, बीज और शक्ति को साधक के शरीर में स्थापित करने की प्रक्रिया है। इसके बिना मंत्र-चैतन्य जाग्रत नहीं होता। 'श्री बटुक भैरव आपदुद्धारण मंत्र' का प्रामाणिक विनियोग एवं न्यास के अनुसार निम्नवत् है:
विनियोग:
ॐ अस्य श्रीआपदुद्धारण-बटुकभैरवमन्त्रस्य बृहदारण्यक ऋषिः त्रिष्टु प् छन्दः श्रीबटुकभैरवो देवता ह्रीं बीजं स्वाहा शक्तिः भैरवः कीलकं मम् धर्मार्थ-काम-मोक्षार्थं श्रीबटुकभैरव प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यास:
बृहदारण्यक ऋषये नमः शिरसि (सिर को स्पर्श करें),
त्रिष्टु प् छन्दसे नमः मुखे (मुख को),
श्रीबटुकभैरवो देवतायै नमः हृदये (हृदय को),
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये$ (गुह्य-स्थान को),
स्वाहा शक्तये नमः पादयो (पैरों को),
भैरवः कीलकाय नमः नाभौ (नाभि को),
मम्... विनियोगाय नमः सर्वांगे (सभी अंगों को)।
कर-न्यास एवं षडङ्ग-न्यास: इसके उपरांत, मंत्र के बीजाक्षरों (यथा ह्रां, ह्रीं, ह्रूं...) द्वारा कर-न्यास (अंगूठा, तर्जनी...) और षडङ्ग-न्यास (हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा...) किया जाता है। 'फट्' युक्त उग्र मंत्रों का न्यास अत्यंत गम्भीर होता है और उसे केवल दीक्षित साधक को गुरु-निर्देशन में ही करना चाहिए।
3.3: आवाहन एवं पूजन-क्रम
- अनुज्ञा-मंत्र: न्यास के पश्चात्, ॐ तीखदन्त महाकाय... का उच्चारण कर साधना की औपचारिक आज्ञा लें।
- ध्यान: खंड 2.5 में दिए गए संबंधित ध्यान-श्लोक का पाठ करें।
- पूजन-स्थल: एक चौकी पर काला या लाल वस्त्र बिछाकर, उस पर 'बटुक भैरव यंत्र' या 'कालभैरव यंत्र' की स्थापना करें। यंत्र को 'काले तिल की ढेरी' पर स्थापित करना अत्यंत प्रभावी माना गया है।
- पूजन-विधि: यंत्र का सिन्दूर से पूजन करें । भगवान भैरव को लाल पुष्प (विशेषकर गुड़हल) या चमेली का पुष्प अर्पित करें। सरसों के तेल या तिल के तेल का दीपक प्रज्वलित करें।
3.4: नैवेद्य एवं अर्घ्य
भैरव-नैवेद्य के विषय में साधकों में प्रायः भ्रम की स्थिति रहती है, क्योंकि शास्त्रों में सात्त्विक और तामसिक, दोनों प्रकार के भोगों का वर्णन मिलता है।
- स्वरूप-भेद: इसका समाधान 'स्वरूप-भेद' में निहित है। 'बटुक भैरव' (जो बाल-रूप हैं) और 'आनंद भैरव' को केवल सात्त्विक भोग ही प्रिय हैं, जैसे—मीठा पान, लड्डू, जलेबी, दूध, दही, और विशेष रूप से उड़द दाल से बने पदार्थ (जैसे दही-वड़े)।
- तामसिक विधान: 'काल भैरव' या 'क्रोध भैरव' के उग्र-रूप की श्मशान-साधना या विशिष्ट तांत्रिक षट्कर्मों में 'मदिरा' (शराब) और 'मांस' (बकरे का) जैसे तामसिक भोगों का विधान मिलता है।
- सात्त्विक साधक हेतु निर्देश: गृहस्थ साधक को किसी भी परिस्थिति में तामसिक पूजा नहीं करनी चाहिए। शत्रु-बाधा निवारण के सात्त्विक उद्देश्य के लिए, केवल सात्त्विक नैवेद्य (उड़द, दही, गुड़, जलेबी) ही अर्पित करें। यदि किसी उग्र-प्रयोग में तामसिक वस्तु का विधान हो, तो उसके स्थान पर सात्त्विक 'प्रति-द्रव्य' का प्रयोग किया जाता है, जैसे—मदिरा के स्थान पर नारियल का जल, और मांस के स्थान पर उड़द दाल के वड़े या कद्दू (कुष्मांड) की बलि।
तालिका 2: भैरव-नैवेद्य (सात्त्विक एवं तामसिक भेद)
| नैवेद्य-प्रकार | सात्त्विक स्वरूप (बटुक भैरव) | उग्र/तामसिक स्वरूप (काल/क्रोध भैरव) | सात्त्विक साधक हेतु विकल्प |
|---|---|---|---|
| मुख्य भोग | लड्डू, जलेबी, मीठा पान | मांस (बकरे का) | उड़द दाल के वड़े |
| पेय | दूध, दही | मदिरा (शराब) | नारियल का जल / केवल जल |
| अनाज | उड़द | --- | उड़द |
| पुष्प | चमेली | लाल पुष्प | लाल (गुड़हल) या नीले पुष्प |
| दीप | तिल या घी | सरसों का तेल | सरसों या तिल का तेल |
खंड 4: विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग (शत्रु, बाधा, भय-निवारण)
यहाँ कुछ प्रामाणिक तांत्रिक प्रयोग दिए जा रहे हैं, जिन्हें केवल सात्त्विक उद्देश्य (आत्म-रक्षा) हेतु ही प्रयोग में लाना चाहिए।
4.1: प्रयोग 1: श्री क्रोध भैरव उच्चाटन प्रयोग (केवल शास्त्रीय संदर्भ हेतु)
- उद्देश्य: शत्रु को साधक के जीवन से बलपूर्वक दूर करना (उच्चाटन)।
- मंत्र: ॐ भ्रम भ्रम भ्रम क्रोध भैरवाय अमुक उच्चाटे भ्रम भ्रम भ्रम फट्।
- विधि (तामसिक): लाल पुष्प और रुद्राक्ष माला का प्रयोग करें। मध्यरात्रि में 51 माला (लगभग 5508 बार) मंत्र जाप किया जाता है। जाप के उपरांत, अग्नि प्रज्वलित करके 108 आहुतियां दी जाती हैं।
- आहुति सामग्री (तामसिक): बकरे के मांस में शराब मिलाकर आहुति देने का विधान है।
- फल: इस प्रयोग से शत्रु का उच्चाटन हो जाता है, और वह साधक के जीवन में पुनः बाधा नहीं डालता।
- चेतावनी: यह एक शुद्ध तामसिक प्रयोग है। इसका दुरुपयोग साधक का पतन करता है।
4.2: प्रयोग 2: कालभैरव शत्रु-बाधा निवारण (दीप-स्तंभन प्रयोग)
यह एक अत्यंत प्रभावी और सात्त्विक-अनुकूलित प्रयोग है, जो शत्रु द्वारा उत्पन्न बाधाओं का शमन और स्तंभन (रोक देना) करता है।
- उद्देश्य: शत्रु-कृत बाधाओं का शमन।
- मंत्र: ॐ ह्रीं भैरवाय वं वं वं ह्रां क्ष्रौं नमः।
- विधि:
- मध्यरात्रि में, भैरव मंदिर, शनि मंदिर या किसी निर्जन चौराहे पर दक्षिण मुखी होकर बैठें। यदि घर पर करें, तो भी दक्षिण मुखी होकर करें।
- सरसों के तेल का एक दीपक (मिट्टी का) प्रज्वलित करें और उसमें थोड़ी पीली सरसों डाल दें।
- खंड 2.4 में वर्णित 'उग्र-ध्यान' (ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तम...) का पाठ करें।
- उपरोक्त मंत्र का 21 बार जाप करें। प्रत्येक जाप के साथ, एक चुटकी 'काले उड़द' दीपक के तेल में डालते जाएँ।
- जाप पूर्ण होने पर, एक चुटकी 'लाल सिन्दूर' लें और शत्रु के मुख का ध्यान करते हुए उसे दीपक में अर्पित करें।
- 5 साबुत (फूल वाली) 'लौंग' लें। प्रत्येक लौंग पर शत्रु का नाम लेते हुए 21-21 बार मंत्र का जाप करें।
- उन पाँचों अभिमंत्रित लौंगों को एक-एक कर दीपक के तेल में इस प्रकार खड़ा गाड़ दें (जैसे कील ठोंक रहे हों)।
- भगवान भैरव से शत्रु-मुक्ति की प्रार्थना करें, प्रणाम करें और बिना पीछे मुड़े वापस आ जाएँ। यदि घर पर किया है, तो उस दीपक को मध्यरात्रि में किसी चौराहे पर रख आएं।
4.3: प्रयोग 3: श्री बटुक भैरव ब्रह्म कवचम् (सर्व-रक्षा हेतु)
- उद्देश्य: यह प्रयोग शत्रु-नाश के स्थान पर 'रक्षा' पर केंद्रित है। यह सभी प्रकार की नकारात्मक शक्तियों, ऊपरी बाधाओं, तंत्र-प्रयोगों और अज्ञात शत्रु-भय से साधक की रक्षा करता है।
- ग्रंथ-संदर्भ: यह कवच साक्षात् 'रुद्रयामल तंत्र' से उद्धृत है, जो इस संकलन का एक अत्यंत प्रामाणिक अंश है।
- कवच-विनियोग: अस्य श्री बटुक भैरव कवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छंदः, श्री बटुक भैरवो देवता, वैराग्य मोक्ष सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
- प्रयोग विधि: प्रतिदिन नित्य-पूजा के बाद सात्त्विक रूप से (स्नान-ध्यान के उपरांत) इस कवच का एक बार पाठ करने से, साधक के चारों ओर एक अभेद्य आध्यात्मिक रक्षा-घेरा बन जाता है। इसे सिद्ध करने के लिए गुरु-निर्देशन में अनुष्ठान किया जाता है।
4.4: प्रयोग 4: भैरव शाबर मंत्र (लोक-तंत्र/शीघ्र-प्रभाव हेतु)
शाबर मंत्र, शास्त्रीय (आगमिक) मंत्रों से भिन्न कार्य-पद्धति पर चलते हैं। ये मंत्र संस्कृत-निष्ठ न होकर, लोक-भाषा में होते हैं और 'आन-बान' (शपथ) पर आधारित होते हैं (जैसे: 'मेरी भक्ति गुरु की शक्ति', 'ईश्वर वाचा', 'सत्यनाम आदेश गुरु का')। ये मंत्र 'कीलित' नहीं माने जाते, अतः इनका प्रभाव अत्यंत शीघ्र (त्वरित) होता है।
शाबर मंत्र 1 (रक्षा एवं शत्रु-नाश):
ॐ आद भैरव, जुगाद भैरव । भैरव है सब थाई । भैरों ब्रह्मा, भैरों विष्णु, भैरों ही भोला साईं ।......जहाँ सिमरूँ, भैरों बाबा हाजिर खड़ा । चले मन्त्र, फुरे वाचा । देखाँ, आद भैरो! तेरे इल्मी चोट का तमाशा ।
शाबर मंत्र 2 (शत्रु-बाधा नाशक):
ओम काल भैरू झंकाल का तीर मार तोड़ दुश्मन की छाती घोट चले तो खरा जोगिनी का तीर छूटे मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फ्रू मंत्र ईश्वरों वाचा सत्यनाम आदेश गुरु का।
शाबर प्रयोग-विधि (मंत्र 2 हेतु):
- यह 21 दिन की रात्रि-कालीन साधना है।
- साधक किसी एकांत स्थान या देवालय में अग्नि प्रज्वलित करे।
- सामग्री: 21 'कनेर' के पुष्प और 21 'गूगल' की गोलियां (जिन्हें सरसों के तेल में डुबोया गया हो)।
- उपरोक्त 'शाबर मंत्र 2' का 21 बार जाप करें।
- प्रत्येक मंत्र-पाठ की समाप्ति पर, 1 कनेर का फूल और 1 गूगल की गोली अग्नि में आहुति दें।
- अनिवार्य नियम: शाबर-आहुति में मंत्र के अंत में 'स्वाहा' शब्द नहीं जोड़ा जाता।
खंड 5: साधना की अनिवार्य सावधानियाँ एवं निषेध
यह इस शोध-पत्र का सबसे महत्वपूर्ण नैतिक और सुरक्षा-संबंधी घटक है। भैरव-साधना एक 'असि-धारा व्रत' (तलवार की धार पर चलना) है। इसमें हुई त्रुटि साधक का ही अनिष्ट कर देती है।
5.1: गुरु-दीक्षा की अनिवार्यता
भैरव-साधना, विशेषकर उग्र-स्वरूपों की साधना, बिना योग्य 'गुरु-आज्ञा' और 'दीक्षा' के कदापि प्रारंभ न करें। 'फट्' युक्त मंत्रों या कवच के जाप के लिए भी गुरु-मार्गदर्शन अनिवार्य है, क्योंकि गुरु ही साधना-काल में साधक की रक्षा करते हैं और अनजाने में हुई त्रुटियों का परिहार (निवारण) करते हैं।
5.2: साधना के अयोग्य व्यक्ति
- भयभीत या कमजोर हृदय वाले: भैरव-साधना उग्र है। यदि साधक को रात्रि में अकेले रहने में या उग्र-स्वरूपों से भय लगता है, तो उसे यह प्रयोग नहीं करना चाहिए।
- अस्थिर मानसिकता वाले: इस साधना में गहन मानसिक स्थिरता और धैर्य की आवश्यकता होती है। मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति इस ऊर्जा को सहन नहीं कर पाता और विक्षिप्त (पागल) हो सकता है।
- नियम-पालन में अक्षम: जो साधक साधना-काल में कठोर नियमों (जैसे—ब्रह्मचर्य-पालन, भूमि-शयन, और आहार-शुद्धि) का पालन नहीं कर सकते, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए। आहार-शुद्धि में मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज का पूर्ण त्याग अनिवार्य है।
- शारीरिक रूप से अस्वस्थ: गंभीर रोगों से ग्रस्त व्यक्ति को यह साधना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसमें अत्यधिक ऊर्जा का क्षय होता है।
5.3: तामसिक साधना के संकट)
तांत्रिक पूजा दो प्रकार की है—राजसिक और तामसिक । तामसिक सिद्धियों में प्रायः भूत, प्रेत, पिशाच आदि निम्न-स्तरीय शक्तियों का आवाहन और उपयोग होता है।
- यदि साधक का आत्म-बल या उसका 'इष्ट-मंत्र' कमजोर है, तो ये आमंत्रित तामसिक शक्तियाँ साधक को ही अपना ग्रास बना लेती हैं, उसे अपने लोक में खींच लेती हैं , अथवा उसका मानसिक और शारीरिक पतन कर देती हैं।
- साधना के दौरान अदृश्य शक्तियों की उपस्थिति को तीव्र रूप से महसूस करना या मानसिक संतुलन खो देना इसके प्रमुख संकट हैं।
5.4: उद्देश्य की शुचिता
यह साधना केवल 'रक्षा' और 'बाधा-निवारण' के सात्त्विक उद्देश्य से ही की जानी चाहिए, जैसा कि इस शोध का लक्ष्य है। यदि किसी निर्दोष व्यक्ति का अहित (नुकसान) करने के लिए, ईर्ष्यावश या लोभवश इस महा-मंत्रों का दुरुपयोग किया गया, तो भगवान भैरव का दंड (भैरव-दंड) साधक को ही भोगना पड़ता है, और समस्त प्रभाव 'विपरीत' होकर साधक को ही नष्ट कर देता है।
खंड 6: संदर्भ-ग्रंथ एवं उपसंहार
6.1: संदर्भ-सूची (संकेतित)
- प्राथमिक आगमिक ग्रंथ : 'रुद्रयामल तंत्र' (इस ग्रंथ से बटुक भैरव कवचम्, कालभैरव बीज-मंत्र और बटुक आपदुद्धारण मंत्र संबद्ध हैं)।
- पौराणिक संदर्भ :'शिव पुराण' (भैरव-उत्पत्ति प्रकरण हेतु)।
- अन्य तांत्रिक प्रयोग-ग्रंथ एवं संग्रह: (विशिष्ट प्रयोगों और शाबर मंत्रों हेतु)।
6.2: उपसंहार (निष्कर्ष)
यह शोध-संकलन प्रामाणिक तांत्रिक और आगमिक ग्रंथों के आधार पर भगवान कालभैरव के शत्रु-बाधा नाशक मंत्रों और प्रयोगों को प्रस्तुत करता है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि भगवान भैरव एक 'उग्र' और 'भीषण' देवता होते हुए भी, अपने 'भक्त' और 'सात्त्विक साधक' के लिए परम 'करुणानिधि' और रक्षक हैं।
वे साधक को सभी ज्ञात-अज्ञात शत्रुओं, स्थूल एवं सूक्ष्म बाधाओं, और नकारात्मक शक्तियों से मुक्त कर 'निर्भय-जीवन' प्रदान करते हैं 4। साधक का अंतिम लक्ष्य शत्रु-नाश नहीं, अपितु 'भय-मुक्ति' और 'आत्म-ज्ञान' होना चाहिए। भगवान भैरव की कृपा से यह दोनों ही सुलभ हैं। यह संकलन एक गम्भीर साधक को भ्रम से निकालकर, शास्त्र-सम्मत मार्ग पर चलने हेतु एक प्रामाणिक दिग्दर्शन प्रदान करता है।
।। ॐ कालभैरवाय नमः ।।