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कालसर्प और पितृ दोष: जीवन बर्बाद होने से पहले करें ये 1 उपाय (नाग पूजा विधि)

AI सारांश (Summary)

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दुर्लभ नाग-पूजा मंत्र – कालसर्प दोष शांति हेतु शिव और नागदेवता का संयुक्त दिव्य मंत्र

(शास्त्रीय संकलन)

प्रस्तावना

ज्योतिष शास्त्र में 'कालसर्प योग' को एक ऐसी ग्रह-स्थिति के रूप में परिभाषित किया गया है, जहाँ जन्म-कुंडली के समस्त ग्रह, छाया-ग्रह राहु एवं केतु के मध्य (एक ओर) स्थित हो जाते हैं । यह स्थिति, जिसे एक 'नाग-पाश' (सर्प-बंधन) के रूप में देखा जाता है, प्रायः जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अप्रत्याशित बाधाओं, संघर्ष, मानसिक अस्थिरता और बनते हुए कार्यों में विघ्न के रूप में प्रकट होती है। यह केवल ग्रहों की स्थिति मात्र नहीं है, अपितु यह एक गहन आध्यात्मिक और कार्मिक अवस्था का द्योतक है, जो बहुधा पूर्वजन्म के कर्मों अथवा पितृ-शाप से संबंधित होती है।

इस गहन कार्मिक बंधन के निवारण हेतु, शास्त्रीय ग्रंथ केवल राहु-केतु की शांति को अपर्याप्त मानते हैं। इसका मूल 'शिव-नाग संयुक्त सिद्धांत' में निहित है। भगवान शिव 'महाकाल' हैं —अर्थात वे 'काल' (समय एवं मृत्यु) के स्वामी हैं। नाग (विशेष रूप से राहु और केतु) 'काल' के दण्ड-अधिकारी (कर्म-फल के प्रवर्तक) माने जाते हैं। कालसर्प दोष, वस्तुतः, 'काल' (शिव) द्वारा 'सर्प' (नाग) के माध्यम से दिया गया एक कार्मिक दण्ड या संतुलन-चक्र है। अतः, इस 'नाग-पाश' से मुक्ति के लिए, 'दण्ड-अधिकारी' (नाग) और 'स्वामी' (शिव) दोनों की 'संयुक्त' आराधना ही एकमात्र पूर्ण और प्रामाणिक उपाय है।

यह शोध-संकलन स्कंद पुराण में वर्णित नाग-माहात्म्य , कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता , रुद्रयामल तंत्र की आगमिक परंपराओं और विशिष्ट 'कालसर्प शांति ग्रंथों' पर आधारित है। इसका उद्देश्य उन दुर्लभ और प्रामाणिक मंत्रों तथा विधियों को प्रस्तुत करना है, जिनके 'सात्त्विक' और गुरु-निर्देशित अनुष्ठान से साधक कालसर्प दोष, ग्रह-बाधा और जीवन की अस्थिरता से मुक्त होकर भगवान शिव और नागदेवता की अमोघ कृपा प्राप्त कर सकता है।

अध्याय 1: प्रमुख नाग-पूजा मंत्र (शिव तथा नागदेवता से जुड़े दुर्लभ मंत्र)

यह खंड वेदों, पुराणों और तंत्रों से शिव और नागों की संयुक्त शक्ति से युक्त मंत्रों को प्रस्तुत करता है, जो कालसर्प शांति के लिए शास्त्रीय आधार स्तंभ हैं।

1.1 वैदिक परम्परा: सर्प सूक्त (यजुर्वेदीय)

महत्व: कालसर्प शांति के लिए यह सर्वाधिक प्रामाणिक और शक्तिशाली 'प्रमाण' है, क्योंकि यह सीधे कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता से उद्धृत है। यह मंत्र किसी एक नाग को नहीं, अपितु ब्रह्मांड में व्याप्त समस्त सर्प-शक्तियों को नमस्कार और शांत करता है। यह "नमो अस्तु सर्पेभ्यो..." से प्रारंभ होता है।

संपूर्ण संस्कृत पाठ:
ॐ नमो॑ अस्तु स॒र्पेभ्यो॒ ये के च॑ पृथि॒वीमनु॑ । ये अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये दि॒वि तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥
ये॑ऽदो रो॑च॒ने दि॒वो ये वा॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिषु॑ । येषा॑म॒प्सु सदः॑ कृ॒तं तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥
या इष॑वो यातु॒धाना॑नां॒ ये वा॒ वन॒स्पती॒ꣳ॒रनु॑ । ये वा॑ व॒टेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥
स्रोत: कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता ।

सरल अर्थ:
"उन सभी सर्पों को नमस्कार है जो पृथ्वी पर (बिल आदि में) रहते हैं। जो अंतरिक्ष में (वायुमंडल में) और जो दिवि (स्वर्गलोक में) देवता रूप में स्थित हैं, उन सभी सर्पों को नमस्कार है।"
"जो सर्प आकाश के प्रकाशमान लोकों में या सूर्य की किरणों में वास करते हैं, और जिन्होंने जलों में अपना निवास बनाया है, उन सभी सर्पों को नमस्कार है।"
"जो सर्प दुष्ट राक्षसों (यातुधानों) के बाणों के रूप में चलते हैं, जो वृक्षों पर या वनस्पतियों में लिपटे रहते हैं, अथवा जो वटों (बिल या गहरे गड्ढों) में शयन करते हैं , उन सभी सर्पों को हमारा नमस्कार है।"

टिप्पणी: ऋग्वेद के खिल सूक्त में भी इस सूक्त का विस्तार मिलता है, जिसमें अजगर, कालिक और कर्कोटक जैसे विशिष्ट नागों का उल्लेख है , जो इसकी अति-प्राचीनता को सिद्ध करता है।

1.2 पौराणिक परम्परा: नवनाग स्तोत्र

महत्व: यह स्तोत्र उन प्रमुख नौ नाग-अधिपतियों को सीधे संबोधित करता है, जो ज्योतिष शास्त्र में प्रकार के कालसर्प योगों के मूल कारक माने जाते हैं (जैसे अनंत, वासुकि, तक्षक आदि)। यह स्तोत्र आवाहन, पूजा और नित्य पाठ द्वारा भय-निवारण तथा सर्वत्र विजय के लिए अनिवार्य माना गया है।

संपूर्ण संस्कृत पाठ:
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् ।
शङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ॥
एतानि नवनामानि नागानां च महात्मनाम् ।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः ।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥
स्रोत: पौराणिक परंपरा (भविष्य पुराण आदि में संदर्भित)।

सरल अर्थ:
"अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिया - ये नौ नाम महात्मा नागों के हैं। जो कोई नित्य सायंकाल और विशेष रूप से प्रातःकाल इनका पाठ करता है, उसे विष का भय नहीं रहता ,तस्य विषभयं नास्ति और वह सभी स्थानों पर विजयी होता है सर्वत्र विजयी भवेत्।"

1.3 आगमिक एवं तांत्रिक परम्परा: नाग गायत्री एवं बीज मंत्र

महत्व: आगमिक परंपरा में गायत्री मंत्रों का प्रयोग चेतना को जाग्रत करने और देवता की शक्ति को साधक के भीतर प्रतिष्ठित करने के लिए किया जाता है। बीज मंत्र तांत्रिक साधना के मूल और देवता की सूक्ष्म-शक्ति के केंद्र होते हैं। कालसर्प शांति के लिए नाग-चेतना से जुड़ने हेतु इन मंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

(अ) वासुकि गायत्री (शिव के नाग हेतु):

ॐ सर्पराजाय विद्महे, पद्म हस्ताय धीमहि, तन्नो वासुकि प्रचोदयात्

(ब) अनन्त गायत्री (नागराज हेतु):

ॐ सर्पराजाय विद्महे, नागराजाय धीमहि, तन्नोऽनन्तः प्रचोदयात् ॥

(स) नवनाग गायत्री (नाग-कुल हेतु):

ॐ नवकुलाय विद्महे, विषदंताय धीमहि, तन्नो सर्प प्रचोदयात् ॥

सरल अर्थ:
"हम सर्पराज/नागराज/नवनाग-कुल को जानते हैं, हम उनका ध्यान करते हैं। वे सर्प (वासुकि/अनंत) हमारी चेतना को (ज्ञान और शांति की ओर) प्रेरित करें।"

1.4 शिव-नाग संयुक्त दिव्य मंत्र (रुद्र-सर्प संपुट)

गहन शास्त्रीय विश्लेषण: उपयोगकर्ता द्वारा 'रुद्रयामल तंत्र' और 'शिव-नाग संयुक्त' मंत्र का अनुरोध एक अत्यंत दुर्लभ और विशिष्ट साधना-पद्धति की ओर संकेत करता है। यद्यपि रुद्रयामल तंत्र एक वृहद तांत्रिक ग्रंथ है, परंतु सार्वजनिक रूप से इसमें कोई सरल, संयुक्त मंत्र उपलब्ध नहीं है। तथापि, शास्त्रीय और आगमिक परंपरा में, 'संयुक्त' का अर्थ प्रायः दो शक्तियों का 'संपुट' या संयोजन होता है।

कालसर्प दोष 'काल' (मृत्यु, भय, अस्थिरता) और 'सर्प' (बंधन, विष) का संयुक्त प्रभाव है।

  • काल का निवारण: 'काल' या 'मृत्यु' के निवारण हेतु भगवान शिव का 'महामृत्युंजय मंत्र' शास्त्रों में अचूक अस्त्र माना गया है।
  • सर्प का निवारण: 'सर्प' दोष के निवारण हेतु 'सर्प सूक्त' सर्वोच्च वैदिक अस्त्र है।

अतः, प्रामाणिक 'शिव-नाग संयुक्त दिव्य मंत्र' कोई एक मंत्र नहीं, बल्कि इन दो महा-मंत्रों का 'संपुट' प्रयोग है:

प्रयोग 1: रुद्र-सर्प संपुट (मानसिक जप हेतु)
यह एक गहन ध्यान और जप की तांत्रिक विधि है। साधक को एक 'संपुट' का पाठ करना चाहिए:

महामृत्युंजय मंत्र (पूर्ण पाठ)
+
सर्प सूक्त (तीनों श्लोक)
+
महामृत्युंजय मंत्र (पूर्ण पाठ)

इस क्रम को 'एक' संपुट माना जाता है। कालसर्प के अनुसार 11, 21, या 108 संपुट का पाठ किया जाता है।

प्रयोग 2: वैदिक-रुद्र संपुट (अभिषेक हेतु)
यह सबसे प्रामाणिक 'शिव-नाग संयुक्त' वैदिक अनुष्ठान है। कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में 'श्री रुद्रम्' (चमकम्-नमकम्) और 'सर्प सूक्त' दोनों एक ही संहिता में स्थित हैं, जो इनके गहरे आंतरिक संबंध को दर्शाता है।
विधि: रुद्राभिषेक करते समय, 'श्री रुद्रम्' के पाठ के उपरांत 'सर्प सूक्त' का सस्वर पाठ करते हुए शिवलिंग पर दुग्ध या जल से अभिषेक करना ही सबसे प्रामाणिक 'शिव-नाग संयुक्त' वैदिक प्रयोग है。

अध्याय 2: अर्थ एवं भावार्थ (ग्रह-शांति, कालसर्प दोष निवारण और मानसिक स्थिरता से संबंध)

2.1 कालसर्प: ज्योतिष से अध्यात्म तक

ज्योतिषीय दृष्टि से, यह दोष राहु (सर्प का मुख) और केतु (सर्प की पूंछ) के मध्य अन्य सात ग्रहों के फँस जाने से बनता है। इसका आध्यात्मिक भावार्थ अधिक गहन है।

  • राहु (मुख): यह अतृप्त इच्छाओं (वासना), भ्रम और भविष्य की असीमित भौतिक आकांक्षाओं का प्रतीक है।
  • केतु (पूंछ): यह अतीत के कर्म-बंधन , मोक्ष की छटपटाहट और वैराग्य का प्रतीक है।

जब जीवन के सभी क्षेत्र (ग्रह) इन दो ध्रुवों के बीच फँस जाते हैं, तो व्यक्ति का जीवन 'अतृप्त-इच्छा' (राहु) और 'कर्म-बंधन' (केतु) के बीच पिसता रहता है। वह न तो पूर्ण रूप से भौतिक हो पाता है और न ही पूर्ण रूप से आध्यात्मिक। यह द्वंद्व ही 'जीवन-अस्थिरता', भ्रम और मानसिक अशांति का मूल कारण है。

2.2 शिव (पशुपति) और नाग (पाश)

इस दोष के निवारण का संपूर्ण दर्शन 'शिव-नाग' संबंध में छिपा है।

  • शिव 'पशुपति' हैं: अर्थात, वे समस्त 'पशुओं' (जीवों) के स्वामी हैं।
  • जीव 'पशु' है: क्योंकि वह 'पाश' (बंधन) में बंधा है।
  • नाग 'पाश' हैं: नाग 'पाश' (रस्सी, बंधन) का प्रतीक हैं।

जो 'नाग-पाश' सामान्य जीव (पशु) को बाँधकर कालसर्प दोष देता है, वही 'नाग' भगवान 'पशुपति' (शिव) के लिए 'आभूषण' हैं। शिव का नागों को आभूषण के रूप में धारण करना यह दर्शाता है कि जो 'बंधन' (पाश) सामान्य जीव को बाँधता है, वह शिव के पूर्ण 'नियंत्रण' में है।
कालसर्प शांति का वास्तविक अर्थ है, अपने 'नाग-पाश' (कर्म-बंधन) को 'पशुपति' (शिव) को अर्पित कर देना, ताकि वे (शिव) उसे अपने आभूषण के रूप में धारण कर लें और जीव (पशु) को उस बंधन से 'मुक्त' कर दें।

2.3 मंत्रों का प्रभाव (कालसर्प और पितृदोष पर)

सर्प सूक्त: यह ब्रह्मांड में व्याप्त सभी ज्ञात-अज्ञात सर्प-शक्तियों (पृथ्वी, आकाश, सूर्य, जल में स्थित) को शांत करता है। यह राहु-केतु के लौकिक और अलौकिक, दोनों प्रकार के नकारात्मक प्रभावों को शांत करता है。
नवनाग स्तोत्र: यह उन विशिष्ट नौ नाग-शक्तियों को संबोधित करता है, जो कुंडली के 12 भावों में विभिन्न प्रकार के कालसर्प योग (जैसे अनंत, वासुकि, तक्षक) बनाते हैं। यह स्तोत्र इन विशिष्ट ऊर्जा-केंद्रों को शांत करता है。
शिव-मंत्र (महामृत्युंजय/रुद्रम्): यह 'काल' (मृत्यु, भय, अस्थिरता) पर विजय प्राप्त करता है। यह उस 'भय' को समाप्त करता है जो कालसर्प योग का सबसे बड़ा लक्षण है。

कालसर्प और पितृदोष का गहरा संबंध:
अनेक शास्त्रीय और ज्योतिषीय ग्रंथ कालसर्प दोष और पितृदोष को एक साथ जोड़ते हैं। इसका कारण अत्यंत सूक्ष्म है:
ज्योतिषीय कारण: राहु और केतु ही सूर्य (पिता का कारक) और चंद्रमा (माता का कारक) को ग्रहण लगाते हैं。
कार्मिक कारण: पितृदोष भी माता-पिता या पूर्वजों के प्रति किए गए अपराधों या अतृप्त इच्छाओं से उत्पन्न होता है。
निष्कर्ष: कालसर्प दोष अक्सर एक अंतर्निहित 'पितृदोष' (विशेषकर मातृ या पितृ शाप) का बाह्य ज्योतिषीय प्रकटीकरण होता है。
यही कारण है कि कालसर्प शांति के लिए 'नारायण नागबली' (जो एक पितृ-शांति और श्राद्ध कर्म है) और 'त्रिपिंडी श्राद्ध' को त्र्यंबकेश्वर जैसे तीर्थों पर अनिवार्य माना गया है। नाग 'पाताल' के निवासी हैं, और 'पितर' भी 'पितृलोक' (पाताल-क्षेत्र) में वास करते हैं। अतः, शिव-नाग पूजा एक साथ 'नाग-शाप' और 'पितृ-शाप' दोनों का शमन करती है。

अध्याय 3: पाठ-विधि (जप-संख्या, दिशा, समय, आसन, माला, नियम-निषेध और ध्यान-विधि)

यह खंड इन शक्तिशाली मंत्रों की साधना के लिए एक सटीक और शास्त्र-सम्मत नियमावली प्रदान करता है।

3.1 सामान्य नियम (साधना के लिए)

  • स्थान एवं समय: किसी शांत और पवित्र स्थान, शिवालय, नदी तट या घर के पूजा-गृह में। मंत्र जाप के लिए प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त या सायंकाल 'प्रदोष काल' (सूर्यास्त के समय) को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
  • दिशा एवं आसन: साधक का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। आसन के लिए ऊनी (कम्बल) या कुशा के आसन का प्रयोग करें।
  • माला: इन मंत्रों के जप के लिए केवल 'रुद्राक्ष की माला' का ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि रुद्राक्ष भगवान शिव के नेत्रों से और नाग उनके आभूषणों से संबंधित हैं।
  • आहार एवं आचरण: साधना काल (जैसे 11, 21, या 40 दिन) में पूर्ण सात्त्विक आहार (लहसुन, प्याज, मांसाहार, मदिरा से रहित) और ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है।

3.2 विशिष्ट मंत्रों की पाठ-विधि (सारांश)

मंत्र जप-संख्या (न्यूनतम) माला दिशा श्रेष्ठ समय ध्यान-विधि
सर्प सूक्त 108 बार (पूर्ण सूक्त) या 11 माला (प्रथम मंत्र की) रुद्राक्ष पूर्व/उत्तर प्रातःकाल (शिव पूजा के साथ) शिवलिंग पर लिपटे नाग
नवनाग स्तोत्र 9, 11, या 21 बार (यह 'पाठ' है, जप नहीं) आवश्यक नहीं पूर्व प्रातः एवं सायं नवनागों का स्मरण
नाग गायत्री (कोई एक) 11 माला (11 x 108) रुद्राक्ष पूर्व प्रातःकाल नाग देवता का दिव्य रूप
शिव पंचाक्षरी (ॐ नमः शिवाय) 108 बार (न्यूनतम) रुद्राक्ष पूर्व/उत्तर कभी भी (विशेषतः प्रदोष) शिव का ध्यान
महामृत्युंजय मंत्र 108 बार रुद्राक्ष पूर्व ब्रह्म मुहूर्त भगवान त्र्यंबकेश्वर (शिव)

3.3 ध्यान-विधि (विस्तार)

नाग-मंत्रों की साधना में 'ध्यान' अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चेतना को सर्प-ऊर्जा के उग्र रूप से बचाता है।

  • साधक को अपनी आज्ञा चक्र में या हृदय-कमल में एक द्वादश-ज्योतिर्लिंग (जैसे त्र्यंबकेश्वर या नागेश्वर) का ध्यान करना चाहिए।
  • ध्यान करें कि वह शिवलिंग करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान है।
  • अब ध्यान करें कि भगवान 'वासुकि' या 'शेषनाग' उस शिवलिंग पर लिपटे हुए हैं, और उनकी मणि के दिव्य प्रकाश से शिवलिंग का अभिषेक हो रहा है।

निषेध: साधक को कभी भी केवल 'सर्प' या 'नाग' का स्वतंत्र रूप से ध्यान नहीं करना चाहिए। ध्यान सदैव 'शिव-आभूषण' (शिवलिंग पर लिपटे हुए) या 'विष्णु-शैया' (शेषनाग) के रूप में, अर्थात 'शिव-आश्रित' या 'विष्णु-आश्रित' रूप में ही करना चाहिए। केवल सर्प का ध्यान उग्र और अनियंत्रित हो सकता है。

अध्याय 4: पूजा-विधि (संकल्प, आवाहन, नाग-आराधना, शिव-अभिषेक, दुग्ध-अर्पण, दीपदान और पूर्णाहुति)

यह कालसर्प दोष शांति के लिए एक संपूर्ण 'शास्त्रोक्त षोडशोपचार पूजा' की क्रमवार प्रक्रिया है, जिसे साधक स्वयं (नाग पंचमी, शिवरात्रि, या मासिक शिवरात्रि पर) कर सकता है。

1. पूर्व-तैयारी:
साधक स्नान कर श्वेत या पीत वस्त्र धारण करे। पूजा सामग्री में 'चांदी' या 'तांबे' के 'नाग-नागिन के जोड़े' को अनिवार्य रूप से रखें। एक शिवलिंग (यदि घर में है) या शिव-चित्र स्थापित करें。

2. संकल्प:
संकल्प पूजा का प्राण है। यह 'काल, स्थान, गोत्र और उद्देश्य' की ब्रह्मांडीय घोषणा है। हाथ में जल, अक्षत और पुष्प लेकर निम्नलिखित विशिष्ट 'कालसर्प शांति संकल्प' का पाठ करें:

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे... [जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, अपने क्षेत्र, तिथि, वार, नक्षत्र का उच्चारण करें]...
... अमुक-गोत्रोत्पन्नः अमुक-नामा (अपना नाम) अहं, श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फल-प्राप्त्यर्थं मम जन्म-कुण्डलिकायां (या गोचरे) कालसर्प-योगस्य (अमुक-नामकस्य, उदा. 'अनन्त' या 'वासुकि') अशुभ-प्रभाव-निवारणार्थं, तथा च ग्रह-बाधा-शमनार्थं, जीवन-स्थिरता-प्राप्त्यर्थं च, भगवान्-महाकाल-शिव-प्रीत्यर्थं तथा च नवनाग-देवता-प्रीत्यर्थं इमां संयुक्त-पूजाम् अहं करिष्ये।

(यह कहकर हाथ का जल, पुष्प और अक्षत भूमि पर या एक पात्र में छोड़ दें।)

3. गणपति एवं गुरु पूजन:
किसी भी पूजा से पूर्व, 'ॐ गं गणपतये नमः' से भगवान गणेश का और 'ॐ श्री गुरुभ्यो नमः' से अपने गुरु का पंचोपचार (गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) पूजन करें。

4. कलश एवं नवग्रह स्थापन:
एक कलश में जल भरकर वरुण-पूजन करें और एक नवग्रह-मंडल (या चित्र) का स्थापन कर पूजन करें。

5. मुख्य आवाहन:
शिव आवाहन: 'ॐ नमः शिवाय' या रुद्र-मंत्रों से शिवलिंग पर भगवान महाकाल का आवाहन करें。
नाग आवाहन: चांदी के नाग-नागिन जोड़े को एक पात्र में रखकर, उसे शिवलिंग पर या शिवलिंग के समक्ष स्थापित करें। 'नवनाग स्तोत्र' का पाठ करते हुए नवनागों का आवाहन करें ('ॐ नवनागदेवताभ्यो नमः, आवाहयामि स्थापयामि।')。

6. षोडशोपचार पूजन (प्रथम 7 चरण):
अब शिवलिंग और नाग-प्रतिमा का 16 चरणों से पूजन प्रारंभ करें:
आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पंचामृत स्नान, शुद्धोदक स्नान।

7. शिव-अभिषेक एवं दुग्ध-अर्पण (मूल चरण):
यह पूजा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है।
'श्री रुद्रम्' (यदि कंठस्थ हो) या 'ॐ नमः शिवाय' या 'महामृत्युंजय मंत्र' का निरंतर जप करते हुए, शिवलिंग और उस पर/उसके समक्ष रखे नाग-प्रतिमा पर 'कच्चे दूध' की धारा अर्पित करें।
इसके उपरांत 'जल-धारा' से अभिषेक करें。
शास्त्रीय निर्देश: यह अभिषेक इस भाव से करें कि आप शिवलिंग पर 'आभूषण' के रूप में स्थित नाग का अभिषेक कर रहे हैं。

8. नाग-आराधना (शेष 9 उपचार):
वस्त्र/कलावा, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, नीराजन।

9. मुख्य पाठ:
आरती के पश्चात, आसन पर बैठकर 'सर्प सूक्त' 7 का 11 बार पाठ करें और 'महामृत्युंजय-सर्प-सूक्त-संपुट' (जैसा अध्याय 1.4 में वर्णित है) का कम से कम 11 बार पाठ करें。

10. पूर्णाहुति (हवन) या आरती:
यदि 'हवन' कर रहे हैं, तो राहु ('ॐ रां राहवे नमः'), केतु ('ॐ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः') तथा 'सर्प सूक्त' की ऋचाओं ("नमो अस्तु सर्पेभ्यो... स्वाहा") से 108 आहुतियां दें।
यदि हवन संभव न हो, तो पुनः कर्पूर-आरती करें और पुष्पांजलि अर्पित करें。

11. क्षमा-प्रार्थना एवं विसर्जन:
पूजा में हुई किसी भी ज्ञात-अज्ञात त्रुटि के लिए क्षमा-प्रार्थना करें। पूजा के उपरांत, उन चांदी के नाग-नागिन की प्रतिमा को किसी योग्य ब्राह्मण को दान कर दें अथवा पवित्र नदी या जलाशय में विसर्जित कर दें。

अध्याय 5: विशेष प्रयोग (कालसर्प दोष शांति, पितृदोष शमन, भय-निवारण हेतु शास्त्र-सम्मत उपाय)

5.1 कालसर्प दोष शांति (तीर्थ-प्रयोग)

शास्त्रीय ग्रंथ और वर्तमान साक्ष्य, दोनों ही कालसर्प शांति के लिए कुछ विशिष्ट 'तीर्थ-क्षेत्रों' को असाधारण महत्व देते हैं। शोध सामग्री बार-बार त्र्यंबकेश्वर (नासिक), उज्जैन , और काशी (वाराणसी) का उल्लेख करती है।

  • त्र्यंबकेश्वर (नासिक): यह भगवान 'त्र्यंबक' (तीन नेत्रों वाले शिव) का 'ज्योतिर्लिंग' है, जो मृत्युंजय-शक्ति का केंद्र है। यह गोदावरी नदी का उद्गम स्थल है, जो पितृ-शांति के लिए दक्षिण की गंगा मानी जाती है। यह स्थान कालसर्प और पितृदोष (नारायण नागबली) दोनों के शमन के लिए प्रमुख केंद्र है।
  • उज्जैन: यह 'महाकाल' की नगरी है, जो स्वयं 'काल' के अधिपति हैं। यहाँ कालसर्प की पूजा सीधे 'काल' के स्वामी को प्रसन्न करने के लिए की जाती है।
  • काशी (वाराणसी): यह 'महा-श्मशान' है, जहाँ 'मृत्यु' पर विजय (मोक्ष) प्राप्त होती है।

प्रयोग: नाग पंचमी या महाशिवरात्रि के दिन, इन तीर्थों में जाकर, पवित्र नदी में स्नान कर, उपरोक्त 'अध्याय 4' में वर्णित विधि से (या वहाँ के आचार्यों द्वारा) चांदी के नाग-नागिन का शिवलिंग पर अभिषेक और पूजन कराकर दान करना, इस दोष के निवारण का सबसे तीव्र और शास्त्र-सम्मत उपाय है。

5.2 पितृदोष शमन (संयुक्त-प्रयोग)

जैसा कि अध्याय 2.3 में विश्लेषण किया गया है, कालसर्प दोष और पितृदोष गहरे रूप से परस्पर जुड़े हुए हैं। कई बार, पितृदोष ही कालसर्प योग के रूप में प्रकट होता है।

प्रयोग: किसी भी 'अमावस्या' तिथि को, किसी पीपल के पेड़ के नीचे (जहाँ पितरों का वास माना जाता है) एक शिवलिंग स्थापित कर, या किसी प्राचीन शिव मंदिर में, ऊपर वर्णित (अध्याय 4) 'शिव-नाग संयुक्त पूजा' संपन्न करें। इस पूजा को करने के उपरांत, यदि संभव हो, तो 'नारायण बली' या 'त्रिपिंडी श्राद्ध' का अनुष्ठान करना (जो अतृप्त पितरों की शांति के लिए होता है) कालसर्प और पितृदोष, दोनों का एक साथ पूर्ण शमन करता है。

5.3 भय-निवारण एवं रक्षा-प्रयोग

कालसर्प योग से पीड़ित जातक को प्रायः अज्ञात भय, दुःस्वप्न (सांप दिखना) और विष-भय की समस्या रहती है।

प्रयोग: 'नवनाग स्तोत्र' का नित्य प्रातः-सायं पाठ करना एक अचूक रक्षा-कवच का कार्य करता है। इसकी फलश्रुति ('तस्य विषभयं नास्ति') स्पष्ट करती है कि यह न केवल भौतिक विष (सर्प-दंश) से, बल्कि मानसिक विष (भय, शत्रु-बाधा, तंत्र-बाधा) से भी रक्षा करता है。

5.4 रुद्रयामल तंत्र (तांत्रिक प्रयोग-चेतावनी)

'रुद्रयामल तंत्र' में उग्र और तीव्र तांत्रिक प्रयोगों का वर्णन है। शोध सामग्री इसी ग्रंथ के 'कालिया नाग' प्रयोग का उल्लेख करती है, जिसका उपयोग तंत्र-बाधा और शत्रु-नाश (शत्रु की प्रगति रोकना) के लिए किया जाता है।

चेतावनी: यह एक 'तामसिक' या 'उग्र' प्रयोग है। आम साधकों के लिए ऐसे प्रयोग सर्वथा 'निषिद्ध' हैं। वे केवल आत्म-रक्षा के लिए 'गुरु-निर्देशन' में ही किए जा सकते हैं। भगवद्गीता के अनुसार, जो लोग अहंकारवश या स्वार्थसिद्धि (जैसे शत्रु-नाश) के लिए घोर तप या आसुरी-विधि (तामसिक) से पूजा करते हैं, वे 'आसुरी-निष्ठा' वाले कहलाते हैं और उनका पतन निश्चित होता है。

अध्याय 6: सावधानियाँ (नाग-पूजा की संवेदनशीलता)

नाग-पूजा और कालसर्प शांति के अनुष्ठान अत्यंत संवेदनशील होते हैं। इनमें की गई एक छोटी सी त्रुटि भी विपरीत फल दे सकती है। अतः, निम्नलिखित सावधानियाँ अनिवार्य हैं。

6.1 गुरु-निर्देशन की अनिवार्यता

नाग-साधना, विशेष रूप से वैदिक 'सर्प सूक्त' का पाठ या 'रुद्रयामल' जैसे तांत्रिक प्रयोग, अत्यंत संवेदनशील हैं। नागों का संबंध सीधे 'कुंडलिनी-शक्ति' से होता है, जो शरीर की मूलाधार-चक्र में स्थित है। इन मंत्रों के गलत उच्चारण या गलत विधि से यह शक्ति अनियंत्रित रूप से जाग्रत होकर साधक को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकती है। इसीलिए, किसी भी गंभीर अनुष्ठान से पूर्व 'गुरु पूजन' और योग्य 'गुरु-निर्देशन' को अनिवार्य माना गया है。

6.2 जीवित सर्प की पूजा का निषेध

यह इस साधना का सबसे महत्वपूर्ण और भ्रामक बिंदु है।

  • लोक-परंपरा: नाग पंचमी पर कई लोग जीवित सर्प (नाग) को पकड़वाकर उसे दूध पिलाने को पुण्य मानते हैं।
  • शास्त्र-मत : शास्त्र इसका कठोरता से खंडन करते हैं।
  • अवैज्ञानिक और हिंसक: जीव-विज्ञान के अनुसार, सर्प 'रेप्टाइल' (स्तनपायी नहीं) होते हैं; दूध उनका आहार नहीं है और यह उनके पाचन तंत्र को खराब कर उनकी मृत्यु का कारण बन सकता है। यह 'अहिंसा' के सिद्धांत का उल्लंघन है।
  • अशास्त्रीय: शास्त्रों में नागों को दूध 'पिलाने' का नहीं, अपितु 'अर्पण' या 'अभिषेक' करने का विधान है।
  • सही विधि: शोध स्पष्ट निर्देश देता है कि पूजा 'चेतन जीवित नाग' की नहीं, बल्कि 'भगवान शंकर के आभूषण' के रूप में 'प्रतिमा' (चांदी, तांबे, या मिट्टी) की होनी चाहिए। भगवान के आभूषण के रूप में पूजित नाग ही सात्त्विक और कल्याणकारी हैं。

6.3 केवल सात्त्विक साधना

यह पूजा केवल सात्त्विक उद्देश्यों—जैसे ग्रह-शांति, मानसिक स्थिरता, परिवार का कल्याण, स्वास्थ्य-लाभ और आध्यात्मिक उन्नति—के लिए ही की जानी चाहिए। अध्याय 5.4 में वर्णित तामसिक या आसुरी प्रयोग, जैसे किसी पर तंत्र-बाधा लगाना या शत्रु-नाश के लिए नाग-शक्ति का आवाहन करना, पूर्णतः निषिद्ध हैं। ऐसा करने से साधक स्वयं 'नाग-पाश' में और गहरे फँस जाता है और उसका पतन हो जाता है。

अध्याय 7: संदर्भ एवं निष्कर्ष

7.1 संदर्भ (शास्त्रीय प्रमाण)

इस संपूर्ण शोध-संकलन का आधार निम्नलिखित प्रामाणिक ग्रंथ और परंपराएं हैं:

  • वैदिक मंत्र: 'सर्प सूक्त' (कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता ) तथा 'श्री रुद्रम्' (तैत्तिरीय संहिता)।
  • पौराणिक स्तोत्र: 'नवनाग स्तोत्र' (पौराणिक परंपरा)।
  • नाग-पूजा विधान: स्कंद पुराण , विशेष रूप से 'नागर खण्ड' और विभिन्न कालसर्प शांति ग्रंथ ।
  • तांत्रिक संदर्भ: रुद्रयामल तंत्र (विशेषकर तांत्रिक प्रयोगों और चेतावनियों के लिए)।
  • पूजा-विधि: आगमिक परंपरा और षोडशोपचार-विधि।
  • संकल्प-विधि: कालसर्प शांति ग्रं।

7.2 निष्कर्ष

यह सिद्ध होता है कि 'कालसर्प दोष' केवल एक ज्योतिषीय बाधा नहीं है, अपितु यह एक गहरा कार्मिक 'नाग-बंधन' है, जिसका मूल प्रायः 'पितृ-दोष' या पूर्वजन्म के कर्मों से जुड़ा होता है।

इसका प्रामाणिक, शुद्ध और संपूर्ण शास्त्रीय निवारण 'काल' के स्वामी (भगवान् महाकाल शिव और 'सर्प' (नागदेवता) की 'संयुक्त-साधना' में ही निहित है。

यह संकलन, जो वेद ('सर्प सूक्त') और पुराण ('नवनाग स्तोत्र') पर आधारित है, साधक को यह स्पष्ट मार्ग प्रदान करता है। यदि साधक, 'गुरु-निर्देशन' में, 'सात्त्विक' भाव से, और 'जीवित सर्प को कष्ट न पहुँचाने' के शास्त्रीय नियम का पालन करते हुए, शिव-नाग की संयुक्त-आराधना (अध्याय 4) और मंत्र-साधना (अध्याय 3) संपन्न करता है, तो वह निश्चित रूप से कालसर्प जनित भय, अस्थिरता और बाधाओं से मुक्त होकर, भगवान शिव की अमोघ कृपा और नागदेवताओं का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करता है。


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