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मृत्यु और पापों के भय का नाश: श्री कालभैरव अष्टकम् (हिंदी अर्थ और विधि)!

AI सारांश (Summary)

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मृत्यु और पापों के भय का नाश: श्री कालभैरव अष्टकम् (हिंदी अर्थ और विधि)!AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

काल भैरव अष्टकम एवं महिमा: आदि शंकराचार्य रचित स्तोत्र का शास्त्रीय विन्यास एवं साधना-मीमांसा

खंड 1: पीठिका: भगवान् कालभैरव का शास्त्रीय एवं तात्विक स्वरूप

हिंदू धर्म-दर्शन में, भगवान शिव के अनेक स्वरूपों का वर्णन है, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट दार्शनिक और ब्रह्मांडीय कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। इन स्वरूपों में, भगवान ‘कालभैरव’ का स्वरूप सर्वाधिक रहस्यमय, उग्र और तात्विक रूप से गहन है। ‘कालभैरव’ नाम स्वयं ही उनके द्वैध और परम स्वरूप को प्रकट करता है। यह नाम दो मूल संस्कृत शब्दों से मिलकर बना है: ‘काल’ और ‘भैरव’

‘काल’ का अर्थ है ‘समय’, जो इस भौतिक जगत का अपरिहार्य नियंत्रक है; यह सृष्टि, स्थिति और संहार का पैमाना है। ‘भैरव’ शब्द के तीन गूढ़ अर्थ हैं: पहला, ‘भय’ (डर) को ‘रव’ (नष्ट करने वाला) अर्थात् ‘भय को हरने वाला’; दूसरा, ‘भीम’ या ‘भयानक’ ; और तीसरा, ‘भ’ (सृष्टि), ‘र’ (स्थिति) और ‘व’ (संहार) — इस प्रकार ‘भैरव’ वह है जो इन तीनों कृत्यों का अधिपति है।

अतः, ‘कालभैरव’ का शाब्दिक अर्थ है "वह जो इतना भयंकर है कि स्वयं 'काल' (समय) भी उससे भयभीत है"। यौगिक परंपरा में, उन्हें एक भयंकर योद्धा, मुंडों की माला धारण करने वाले और शिव के सबसे उग्र स्वरूप के रूप में चित्रित किया गया है। वे ‘काल के संहारक’ हैं, और यह प्रतीकवाद एक आध्यात्मिक साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह परम चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं जो समय और मृत्यु के चक्र से परे है।

यही कालभैरव का केंद्रीय विरोधाभास है—वे ‘भयानक’ होकर ही ‘भय का नाश’ करते हैं। साधक का मूल भय ‘काल’ (मृत्यु, नश्वरता) है। कालभैरव उस ‘काल’ को ही मूर्त रूप देते हैं; वे स्वयं 'काल' के भी 'काल' हैं (जैसा कि अष्टकम् के द्वितीय श्लोक में 'कालकालम्' कहा गया है)। उनकी उपासना भय से पलायन नहीं है, बल्कि भय के मूल स्रोत (समय) का सामना करना, उसे समझना और अंततः उसका अतिक्रमण कर कालातीत (Timeless) अवस्था को प्राप्त करना है।

इस स्तोत्र में उन्हें बार-बार "काशिकापुराधिनाथ" (काशी के सर्वोच्च स्वामी) के रूप में संबोधित किया गया है। यह केवल एक भौगोलिक उपाधि नहीं है। काशी (वाराणसी) को मोक्ष की नगरी माना जाता है, और कालभैरव वहां के ‘कोतवाल’ (रक्षक या दंडाधिकारी) हैं। उनकी यह भूमिका उनकी 'उग्र करुणा' को दर्शाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, काशी में मृत्यु को प्राप्त होने वाले किसी भी प्राणी को, चाहे वह कितना भी पापी क्यों न हो, कालभैरव की 'भैरवी यातना' से गुजरना पड़ता है। यह 'यातना' कोई दंड नहीं, बल्कि उनकी अंतिम और तीव्र करुणा का एक कार्य है। यह मृत्यु के उस अंतिम क्षण में एक ऐसी गहन प्रक्रिया है जो उस जीव के कई जन्मों के संचित कर्मों को—चाहे वे पुण्य हों या पाप—तत्काल भस्म कर देती है। यह अष्टकम् के अष्टम श्लोक में वर्णित उनकी भूमिका 'पुण्यपापशोधकं' (पुण्य और पाप दोनों का शोधन करने वाला) से सीधे तौर पर प्रमाणित होती है। वे जीव को उसके कर्म-बंधन से निर्मल कर 'मुक्ति' (मोक्ष) के लिए तैयार करते हैं। इस प्रकार, उनका भयानक स्वरूप उनकी करुणा (जैसा कि प्रथम श्लोक में 'कृपाकरम्' कहा गया है) का ही एक कार्यकारी रूप है।

आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह "कालभैरव अष्टकम्" इसी परम तत्व की स्तुति है, जो अद्वैत वेदांत, गहन भक्ति और गूढ़ तंत्र के सिद्धांतों का एक अभूतपूर्व संश्लेषण प्रस्तुत करता है।

खंड 2: श्री कालभैरव अष्टकम्: संपूर्ण स्तोत्र (मूल पाठ, लिप्यंतरण एवं हिंदी अर्थ)

यह स्तोत्र आठ श्लोकों का एक 'अष्टकम्' है, जिसके अंत में एक 'फलश्रुति' (नवां श्लोक) है, जो पाठ के लाभों का वर्णन करता है।

॥ श्लोक 1 ॥

संस्कृत:

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥1॥

हिन्दी अर्थ:

जिनके पवित्र चरण-कमलों की सेवा स्वयं देवराज इंद्र करते हैं, जिन्होंने सर्प को ही अपना यज्ञोपवीत (पवित्र धागा) बना लिया है, जिनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है और जो परम दयालु (कृपाकर) हैं; नारद आदि योगीवृंद जिनकी वंदना करते हैं, और जो दिगंबर (दिशाओं को ही वस्त्र के रूप में धारण करने वाले) हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ (उन्हें भजता हूँ)।

॥ श्लोक 2 ॥

संस्कृत:

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥2॥

हिन्दी अर्थ:

जो करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान (तेजस्वी) हैं, जो भक्तों को संसार-सागर (भव-सागर) से पार कराते हैं, जो परम (सर्वोच्च) हैं; जिनका कंठ नीला है (नीलकंठ), जो हमारी इच्छित कामनाओं (ईप्सित अर्थ) को प्रदान करते हैं और जिनके तीन नेत्र (त्रिलोचन) हैं; जो काल के भी काल हैं (अर्थात् मृत्यु के भी स्वामी), जिनके नेत्र कमल के समान हैं, जिनका त्रिशूल अमोघ है और जो स्वयं अविनाशी (अक्षर) हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ ।

॥ श्लोक 3 ॥

संस्कृत:

शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥3॥

हिन्दी अर्थ:

जिन्होंने अपने हाथों में शूल (त्रिशूल), टंक (कुल्हाड़ी/फरसा), पाश (फंदा) और दण्ड (डंडा) धारण किया है, जो (सृष्टि के) आदि-कारण हैं; जिनका शरीर श्याम (काला) है, जो आदिदेव (प्रथम देव), अविनाशी (अक्षर) और निरामय (विकारों से रहित) हैं; जो भयंकर पराक्रम (भीम-विक्रम) वाले प्रभु हैं और जिन्हें विचित्र (अद्भुत) तांडव नृत्य प्रिय है, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ ।

॥ श्लोक 4 ॥

संस्कृत:

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥4॥

हिन्दी अर्थ:

जो सांसारिक भोग (भुक्ति) और आध्यात्मिक मोक्ष (मुक्ति) दोनों प्रदान करने वाले हैं, जिनका स्वरूप (विग्रह) अत्यंत मनमोहक और शुभ (प्रशस्त) है; जो अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य (प्रेम) रखते हैं, जो स्थिर (शाश्वत) हैं और समस्त लोकों के स्वरूप ही हैं; जिनकी कमर (कटि) पर मधुर ध्वनि (क्वणन्) करने वाली सुंदर स्वर्ण-घंटियाँ (हेम-किङ्किणी) सुशोभित हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ ।

॥ श्लोक 5 ॥

संस्कृत:

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम् । स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥5॥

हिन्दी अर्थ:

जो धर्म के सेतु (पुल) के पालक (रक्षक) हैं, और अधर्म के मार्ग का नाश करने वाले हैं; जो हमें कर्मों के बंधन (कर्म-पाश) से मुक्त (मोचकं) करते हैं, जो हमें परम सुख (सुशर्म) प्रदान करने वाले विभु (सर्वव्यापक प्रभु) हैं; जिनका शरीर सुनहरे रंग के शेष-नाग के पाश से सुशोभित है, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ 5।

॥ श्लोक 6 ॥

संस्कृत:

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥6॥

हिन्दी अर्थ:

जिनके चरण-युगल (दोनों पैर) रत्न-जड़ित पादुकाओं (खड़ाऊँ) की आभा (प्रभा) से अत्यंत सुंदर (अभिराम) हैं; जो नित्य (शाश्वत), अद्वैत (अद्वितीय), हमारे इष्ट-देवता और निरंजन (माया से परे, परम पवित्र) हैं; जो मृत्यु (यम) के अभिमान (दर्प) का नाश करने वाले हैं, और जिनकी भयंकर दाढ़ें (कराल-दंष्ट्र) ही (भक्तों के लिए) मोक्ष का साधन हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ।

॥ श्लोक 7 ॥

संस्कृत:

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥7॥

हिन्दी अर्थ:

जिनके प्रचंड अट्टहास (ठहाके) से कमल-जन्मा ब्रह्मा जी द्वारा रचित ब्रह्मांड-कोशों की संतति (श्रृंखला) विदीर्ण हो जाती है (अर्थात् जिनकी ध्वनि से सृष्टि का क्रम रुक सकता है); जिनकी एक दृष्टि पड़ने (दृष्टिपात) मात्र से पापों का संपूर्ण जाल नष्ट हो जाता है, जो उग्र (कठोर) शासन करने वाले हैं; जो आठों सिद्धियों (अष्ट-सिद्धि) को प्रदान करने वाले हैं और जो कपालों (खोपड़ियों) की माला धारण करते हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ।

॥ श्लोक 8 ॥

संस्कृत:

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥8॥

हिन्दी अर्थ:

जो भूत-प्रेतों के संघ (समूह) के नायक (स्वामी) हैं, जो विशाल कीर्ति प्रदान करने वाले हैं; जो काशी में वास करने वाले लोगों के पुण्य और पाप दोनों का शोधन (नाश) करने वाले विभु हैं; जो नीति-मार्ग (सत्य और धर्म के मार्ग) के मर्मज्ञ (कोविद) हैं, जो पुरातन (सबसे प्राचीन) और जगत के स्वामी (जगत्पति) हैं, उन काशी नगरी के स्वामी भगवान कालभैरव का मैं भजन करता हूँ।

॥ फलश्रुति (श्लोक 9) ॥

संस्कृत:

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥9॥

हिन्दी अर्थ:

जो भी मनुष्य इस मनोहर "कालभैरव अष्टकम्" का पाठ करते हैं, जो ज्ञान और मुक्ति का साधन है, जो विचित्र (अनेक प्रकार के) पुण्यों की वृद्धि करने वाला है; और जो शोक, मोह, दीनता (गरीबी), लोभ, क्रोध और ताप (कष्ट) का नाश करने वाला है — वे मनुष्य मृत्यु के पश्चात् निश्चित रूप से (ध्रुवम्) भगवान कालभैरव के चरणों की सन्निधि (शरण) को प्राप्त करते हैं 8।

खंड 4: कालभैरव-तत्व: दार्शनिक प्रतीकों का गूढ़ार्थ

अष्टकम् का पूर्ण भावार्थ समझने के लिए, इसके तीन केंद्रीय प्रतीकों—‘काल’, ‘काशी’, और ‘श्वान’—के गूढ़ार्थ को समझना अनिवार्य है।

4.1. 'काल': समय का तत्वमीमांसा

कालभैरव 'काल के संहारक' हैं। इसका गूढ़ार्थ यह है कि वे 'वर्तमान क्षण' के मूर्त रूप हैं। वैदिक साहित्य के अनुसार, 'कालभैरव' वह है जो "न तो बीता हुआ कल है और न ही आने वाला कल। वह केवल 'अभी' में मौजूद है"।

साधारण मनुष्य (जीव) 'श्व' - जिसका एक अर्थ 'आने वाला कल' या 'बीता हुआ कल' है में बंधा है। वह या तो अतीत के 'शोक' में जीता है या भविष्य की 'चिंता' में। कालभैरव की उपासना 'काल' पर महारत हासिल करने की साधना है। यह 'समाधि' की वह अवस्था है (जिसे 'भैरव अवस्था' भी कहा गया है) जहाँ अतीत और भविष्य विलीन हो जाते हैं, और केवल शुद्ध 'वर्तमान' शेष रहता है। इसी 'वर्तमान क्षण' में 'काल' की पकड़ को तोड़ा जा सकता है और भवाब्धि (श्लोक 2) को पार किया जा सकता है।

4.2. 'काशी' (Kashi): आज्ञा-चक्र का तांत्रिक भूगोल

अष्टकम् में कालभैरव को बार-बार काशिकापुराधिनाथ (काशी के स्वामी) कहा गया है। तांत्रिक परंपरा और योग-दर्शन में, इस भौतिक 'काशी' का एक आध्यात्मिक प्रतिरूप भी है। तांत्रिक विद्या में, 'काशी' को 'आज्ञा चक्र' के रूप में जाना जाता है, जो दोनों भौंहों के बीच स्थित है।

जब आदि शंकराचार्य कहते हैं, "मैं काशी के स्वामी को भजता हूँ," तो वे दोहरा निर्देश दे रहे हैं। 'भक्त' के लिए, यह भौतिक शहर काशी है। लेकिन 'योगी' के लिए, काशी 'आंतरिक' तीर्थ-स्थान है: 'आज्ञा चक्र' । यह 'ज्ञान' और 'गुरु' का स्थान है। कालभैरव का यहाँ निवास करना यह दर्शाता है कि 'वर्तमान क्षण के प्रति पूर्ण सजगता' ही इस चक्र को सक्रिय करने की कुंजी है। 'भैरवी यातना' वह अंतिम, तीव्र 'शक्तिपात' है जो 'सहस्रार' में विलीन होने से ठीक पहले इस 'चक्र' में घटित होता है, जो सभी 'कर्मों' (पुण्य और पाप) को भस्म कर देता है।

4.3. 'श्वान' (Shvaana): वाहन का प्रतीकात्मक अर्थ

कालभैरव का वाहन 'श्वान' (कुत्ता) है। यह प्रतीक अत्यंत जटिल और बहु-स्तरीय है:

वैदिक प्रतीक (काल): जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 'श्वान' शब्द की एक गूढ़ वैदिक व्युत्पत्ति है: श्व (आने वाला/बीता कल) + न (नहीं) = श्वान, अर्थात् "वह जो 'केवल' 'अभी' में है"। इस प्रकार, उनका वाहन ही उनका दर्शन है—'वर्तमान क्षण पर पूर्ण महारत'।

तांत्रिक प्रतीक (मृत्यु और अतिक्रमण): कुत्ता एक 'श्मशान-निवासी' है और श्मशान में सहजता से रहता है। हिंदू परंपरा में, जहाँ श्मशान और मृत्यु को 'अशुद्ध' माना जाता है, वहीं तंत्र में 'श्मशान' साधना का सर्वोच्च स्थान है। 'श्वान' मृत्यु और अशुद्धता के भय से मुक्त होता है। कुत्ते को (जिसे 'अशुद्ध' माना जा सकता है) अपना वाहन बनाकर, भैरव मृत्यु और शुद्धता/अशुद्धता के सभी सामाजिक द्वैतों और वर्जनाओं पर अपनी तांत्रिक विजय की घोषणा करते हैं।

ज्योतिषीय प्रतीक: 'काले कुत्ते' का संबंध विशेष रूप से शनि, राहु और केतु जैसे उग्र और कर्म-प्रधान ग्रहों से है। ज्योतिष शास्त्र में काले कुत्ते को भोजन कराना इन ग्रहों के दुष्प्रभावों के लिए एक प्रभावी 'उपाय' माना जाता है। यह भैरव-उपासना को व्यावहारिक ज्योतिष-उपचार से जोड़ता है।

गुणात्मक प्रतीक (रक्षक): कुत्ता 'निष्ठा', 'सतर्कता' और 'तीव्र सूंघने की शक्ति' (भविष्य का पूर्वाभास) का प्रतीक है। ये 'काशी के कोतवाल' और अपने भक्तों के 'रक्षक' के रूप में उनकी भूमिका के लिए सटीक गुण हैं।

खंड 5: कालभैरव उपासना-महिमा: त्रिविध-ताप से मुक्ति

"कालभैरव अष्टकम्" का पाठ केवल आध्यात्मिक लाभ ही नहीं, बल्कि आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक (त्रिविध-ताप) कष्टों से मुक्ति प्रदान करने वाला भी माना गया है। फलश्रुति और अन्य शास्त्र इस स्तोत्र की महिमा का व्यापक वर्णन करते हैं।

भय से मुक्ति (आध्यात्मिक/मानसिक): 'भैरव' नाम का अर्थ ही 'भय का नाश करने वाला' है। यह स्तोत्र मृत्यु के भय, अशांति और सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा को शांत करता है। फलश्रुति (श्लोक 9) स्पष्ट रूप से कहती है कि यह शोक, मोह, दैन्य (अवसाद) का नाश करता है। यह साधक को 'काल' के भय से मुक्त कर 'कालातीत' आत्मा का बोध कराता है।

शत्रु एवं बाधा से मुक्ति (आधिदैविक): कालभैरव को 'भूतसंघनायक' (श्लोक 8) कहा गया है। सूक्ष्म जगत पर उनका पूर्ण नियंत्रण है। इसलिए, यह माना जाता है कि इस अष्टकम् के पाठ से "शत्रुओं, काला जादू और अहंकार" का उन्मूलन होता है। यह स्तोत्र एक शक्तिशाली 'कवचम्' (रक्ष-कवच) के रूप में कार्य करता है, जो सभी प्रकार की बाहरी और आंतरिक नकारात्मक शक्तियों से साधक की रक्षा करता है।

रोग एवं दुर्भाग्य से मुक्ति (आधिभौतिक): यह स्तोत्र 'भुक्ति' (भौतिक समृद्धि) प्रदान करने वाला है। उपासक को "सभी प्रकार के आराम, धन और रोजगार" की प्राप्ति में सहायता करता है। इसका पाठ "रोगों के उन्मूलन" में भी सहायक माना जाता है । फलश्रुति इसे दैन्य (दीनता/गरीबी) और लोभ का नाशक कहती है, जो साधक को मानसिक और भौतिक स्थिरता प्रदान करता है।

परम लाभ (मुक्ति): अंततः, यह ज्ञानमुक्तिसाधनं (ज्ञान और मुक्ति का साधन) है। इसका नित्य स्मरण साधक को 'समाधि की गहरी अवस्था' तक ले जाता है।

खंड 6: कालभैरव साधना: प्रामाणिक पाठ-विधि एवं नियम

"कालभैरव अष्टकम्" एक अत्यंत शक्तिशाली स्तोत्र है, और इसकी साधना विशिष्ट नियमों और शुद्धता के साथ की जानी चाहिए। शास्त्रीय स्रोतों और पारंपरिक अभ्यासों के आधार पर, प्रामाणिक पाठ-विधि इस प्रकार है:

6.1. उत्तम समय एवं दिन

श्रेष्ठ दिन: कृष्ण पक्ष की अष्टमी (विशेषकर 'कालभैरव अष्टमी'), रविवार, या सोमवार।

श्रेष्ठ समय: ब्रह्म मुहूर्त या प्रदोष काल (सूर्यास्त के बाद)। भगवान भैरव की तांत्रिक पूजा के लिए 'अर्धरात्रि' (मध्यरात्रि) को भी सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

6.2. पूर्व-तैयारी (शारीरिक एवं मानसिक)

शारीरिक शुद्धि: प्रातः या संध्या-काल में स्नान करें (यदि संभव हो तो ठंडे जल से उत्तम)।

वस्त्र: स्वच्छ वस्त्र धारण करें। काले, केसरिया (saffron) या सफेद रंग के वस्त्रों को प्राथमिकता दी जाती है।

आहार: साधना के दिन (और यदि नित्य कर रहे हैं तो) ब्रह्मचर्य और सात्त्विक आहार का पालन अनिवार्य है।

मानसिक शुद्धि: पाठ से पूर्व कुछ मिनट प्राणायाम कर मन को शांत करें। अपने गुरु, भगवान शिव-पार्वती और भगवान कालभैरव का स्मरण करें।

6.3. साधना-स्थान, दिशा एवं आसन

दिशा: एक स्वच्छ आसन (ऊनी या कुशा का) बिछाकर 'पूर्व' या 'उत्तर' दिशा की ओर मुख करके बैठें।

पूजन स्थान: भगवान कालभैरव की प्रतिमा या चित्र को एक स्वच्छ स्थान पर स्थापित करें।

6.4. पूजन सामग्री

दीपक: तिल का तेल या घी का दीपक अनिवार्य रूप से जलाएं।

धूप: अगरबत्ती या विशेष रूप से लोबान/गुग्गुल का धूप जलाएं।

नैवेद्य/अर्पण: पुष्प, काले तिल, नारियल, काले चने, नींबू, और गुड़ या शक्कर अर्पित किए जा सकते हैं।

माला: जप के लिए 'रुद्राक्ष माला' सर्वश्रेष्ठ है।

6.5. पाठ-क्रम एवं जप

संकल्प: हाथ में जल लेकर अपनी कामना और श्रद्धा के साथ पाठ करने का 'संकल्प' लें।

आवाहन: भगवान कालभैरव का ध्यान करें और उनसे उपस्थित होने की प्रार्थना करें।

अष्टकम् पाठ: "कालभैरव अष्टकम्" के सभी आठ श्लोकों और फलश्रुति का स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण के साथ पाठ करें।

मंत्र जप: पाठ के उपरांत, रुद्राक्ष माला पर भगवान कालभैरव के मूल मंत्र "ॐ कालभैरवाय नमः" का 108 बार (एक माला) जाप करें।

क्षमा प्रार्थना एवं समर्पण: अंत में, हाथ जोड़कर पाठ में हुई किसी भी ज्ञात-अज्ञात त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करें और पाठ के पुण्य-फल को भगवान शिव ("ॐ नमः शिवाय" कहकर) या कालभैरव के चरणों में समर्पित करें ।

तालिका 1: कालभैरव अष्टकम् साधना-विधि (संक्षिप्त)

विषय (Aspect) विधि (Method)
श्रेष्ठ दिन कृष्ण पक्ष अष्टमी, रविवार, सोमवार
श्रेष्ठ समय ब्रह्म मुहूर्त (4-6 AM) या प्रदोष काल / अर्धरात्रि
दिशा पूर्व या उत्तर की ओर मुख
वस्त्र काले, केसरिया, या सफेद (स्वच्छ)
आसन ऊनी या कुशा का आसन
मुख्य सामग्री तिल का तेल/घी का दीपक, लोबान/गुग्गुल धूप, काले तिल
जप मंत्र "ॐ कालभैरवाय नमः"
माला रुद्राक्ष माला (108 बार जप)
मुख्य नियम सात्त्विक आहार, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, एकाग्र मन

खंड 7: ग्रंथ-संदर्भ, सावधानियाँ एवं उपसंहार

7.2. साधना-सावधानियाँ (Precautions for Sadhana)

भगवान कालभैरव शिव के उग्र और तांत्रिक स्वरूप हैं। उनकी उपासना अत्यंत फलदायी है, परंतु इसमें कुछ विशिष्ट सावधानियों का पालन करना अनिवार्य है:

आहार की शुद्धता: यह सबसे महत्वपूर्ण नियम है। साधक को साधना काल में (और यदि संभव हो तो जीवन भर) 'सात्त्विक' आहार का पालन करना चाहिए। मांस, मदिरा (शराब), लहसुन, प्याज और किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन का स्पष्ट रूप से त्याग करना चाहिए।

मानसिक शुद्धता: इस स्तोत्र का पाठ दिखावे के लिए, अहंकार की पूर्ति के लिए, या किसी को हानि पहुँचाने के दुर्भाव से कभी नहीं करना चाहिए। इसे पूर्ण श्रद्धा, भक्ति और पवित्र उद्देश्य के साथ ही किया जाना चाहिए।

उचित मनोवृत्ति: भगवान कालभैरव की उपासना को 'चुनौती' के रूप में नहीं लेना चाहिए। यद्यपि वे उग्र हैं, तथापि वे 'भक्तवत्सल' (श्लोक 4) और 'कृपाकर' (श्लोक 1) हैं। साधक को उन्हें एक 'पिता' की तरह प्रेम और स्नेह के साथ भजना चाहिए।

नियमबद्धता: पाठ को जल्दी में या अशुद्ध उच्चारण के साथ न करें। मन को एकाग्र रखें और प्रत्येक शब्द के अर्थ पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करें।

महिलाओं के लिए: सामान्यतः महिलाओं के लिए इस पाठ का कोई निषेध नहीं है। वे इसे शुद्धता के साथ कर सकती हैं। तथापि, पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, मासिक धर्म के दौरान पाठ से बचने का सुझाव दिया गया है।

7.3. उपसंहार

"कालभैरव अष्टकम्" मात्र स्तुति का एक भजन नहीं है; यह स्वयं में एक संपूर्ण 'साधना-ग्रंथ' है। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह कृति 'भक्ति' (समर्पण), 'ज्ञान' (अद्वैत बोध), और 'तंत्र' (गूढ़ प्रतीकवाद) का एक अद्वितीय और शक्तिशाली संश्लेषण है।

यह स्तोत्र साधक को जीवन के अंतिम और सबसे बड़े भय—'काल' (समय और मृत्यु)—का सामना करने और उसका अतिक्रमण करने का मार्ग प्रदान करता है। यह भुक्ति (सांसारिक कल्याण) और मुक्ति (आध्यात्मिक स्वतंत्रता) के बीच एक सेतु का निर्माण करता है, यह सिद्ध करते हुए कि साधक को परम सत्य तक पहुँचने के लिए संसार का त्याग करने की नहीं, बल्कि उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।

इस अष्टकम् का श्रद्धापूर्वक पाठ एक परिवर्तनकारी क्रिया है। यह न केवल पापजालम् (पापों के जाल) और शत्रु एवं काला जादू जैसी बाहरी बाधाओं को नष्ट करता है, बल्कि शोक, मोह, लोभ और क्रोध जैसी आंतरिक मानसिक अवस्थाओं का भी शमन करता है। यह साधक को भय-मुक्त, कर्म-मुक्त और काल-मुक्त अवस्था की ओर ले जाता है, और जैसा कि फलश्रुति ध्रुवम् (निश्चित रूप से) घोषित करती है—उसे भगवान कालभैरव के करुणामय चरणों की सन्निधि में स्थापित करता है।


कालभैरव अष्टकम काशी शंकराचार्य काल श्वान मुक्ति साधना प्रदोष यातन