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लिंग पुराण (शिव पुराण) – पढ़िए सम्पूर्ण लिंग (शिव) पुराण का संक्षिप्त सारांश

लिंग पुराण (शिव पुराण) – पढ़िए सम्पूर्ण लिंग (शिव) पुराण का संक्षिप्त सारांशAI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

लिंग पुराण: एक विस्तृत परिचय

परिचय

लिंग पुराण हिंदू धर्म के अठारह महापुराणों में से एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है। यह पुराण 11 हजार श्लोकों में विभाजित है और इसे स्वयं ब्रह्मा ने "लैंग" नाम से संबोधित किया था।

इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्याख्या करना है। इस पुराण में अग्नि लिंग की व्याख्या की गई है , जिसमें भगवान शिव स्वयं उपस्थित हैं। इसकी कथा अग्नि कल्प के अंत में महेश्वर द्वारा दी गई शिक्षाओं पर आधारित है।

मत्स्य पुराण में लिंग पुराण का उल्लेख किया गया है, और इसके विवरण इस पुराण से मेल खाते हैं। हालांकि, इसमें कल्प को "ईशान कल्प" कहा गया है, जो अग्नि कल्प से थोड़ा अलग संदर्भ देता है।

लिंग पुराण की संरचना और प्रमुख विषय

1. सृष्टि और शिव तत्व की व्याख्या

लिंग पुराण हिंदू धर्म के एक महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, जिसमें भगवान शिव की महिमा और सृष्टि के उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। यह पुराण विशेष रूप से शिव पूजा और शिव तत्व के महत्व को विस्तार से प्रस्तुत करता है, और शिव को ब्रह्मांड के परम कारण (परम तत्व) के रूप में स्थापित करता है। इस पुराण की संरचना और विषय की गहरी समझ हमें शिव के अस्तित्व और उनके ब्रह्मांडीय स्वरूप को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है।

सृष्टि और प्राथमिक सृजन की व्याख्या

लिंग पुराण की शुरुआत सृष्टि के उत्पत्ति और प्राथमिक सृजन के विवरण से होती है। इस ग्रंथ में ब्रह्मांड की रचना के कई पहलुओं का वर्णन किया गया है, जो शिव के द्वारा सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार के कार्यों में उनके अद्वितीय स्थान को स्पष्ट करता है।

सृष्टि की उत्पत्ति:

लिंग पुराण के अनुसार, जब सृष्टि का कोई रूप नहीं था, तब शिव का अस्तित्व निर्विकल्प और अज्ञेय था। शिव को ही सृष्टि के अंतर्निहित कारण के रूप में माना गया है , जो न तो जन्मे हैं और न ही मरते हैं। वह साकार और निराकार रूपों में स्थित हैं। शिव का यह रूप ही सृष्टि के अराजकता और अंधकारमय प्रारंभ से उत्पन्न हुआ है, जहां से संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना हुई।

शिव का निराकार रूप:

लिंग पुराण में शिव को निराकार ब्रह्म के रूप में दर्शाया गया है, जो ब्रह्मांड के सबसे गहरे और अज्ञेय तत्व का प्रतीक है। उनके निराकार रूप से ही संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना, पालन और संहार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। शिव को महाशक्ति के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है, और उनका यह स्वरूप साकार और निराकार दोनों रूपों में दर्शित होता है।

शिव के द्वारा सृष्टि का आरंभ

शिव के निराकार रूप से उत्पन्न हुई ऊर्जा या शक्ति (जिसे शक्ति या आदि शक्ति कहा जाता है) ने सृष्टि के विकास की शुरुआत की। लिंग पुराण के अनुसार, शिव का यह तत्व सर्वव्यापी और अनंत है, और इस तत्व का प्रकाश या शक्ति संसार के प्रत्येक कण में व्याप्त है।

शिव का यह तत्व ही प्रथम उत्पत्ति का कारण है। उनके निराकार रूप के वियोग और मिलन से ही संसार की रचना और विनाश का चक्र चलता है। शिव के अंतर्यामी रूप के भीतर सृष्टि का यह चक्र सक्रिय रहता है, और यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिदेवों द्वारा संचालित किया जाता है।

शिव को परम तत्व के रूप में प्रस्तुत करना

लिंग पुराण में शिव को परम तत्व के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, और इस ग्रंथ के अनुसार, शिव का अस्तित्व ही सृष्टि के हर पहलू में समाहित है। वह साकार और निर्विकल्प रूप में स्थित हैं, और उनकी कोई सीमाएँ नहीं हैं। वह ब्रह्मा और विष्णु से उच्चतम और सर्वव्यापी हैं।

शिव का त्रिगुणात्मा स्वरूप

लिंग पुराण में यह भी बताया गया है कि शिव ही सत्व, रज और तम के त्रिगुणों के स्रोत हैं। वह इन गुणों के माध्यम से सृष्टि की रचना और संहार करते हैं। वह निर्विकल्प रूप में साकार रूप में परिवर्तनशील होते हैं, और इसलिए वह अध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में अडिग पथप्रदर्शक माने जाते हैं।

विष्णु और शिव का तुलनात्मक दृष्टिकोण

हालांकि अन्य पुराणों में विष्णु को ब्रह्मांड के पालनकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, लिंग पुराण में शिव को न केवल सृष्टि के निर्माता बल्कि उसकी संपूर्णता का प्रतीक माना गया है। लिंग पुराण के दृष्टिकोण से, शिव और विष्णु के बीच एक बुनियादी अंतर यह है कि विष्णु जहां ब्रह्मांड के पालनकर्ता के रूप में सामने आते हैं, वहीं शिव का स्वरूप शाश्वत और अज्ञेय है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के निर्माण और संहार के बीच की संधि के रूप में कार्य करता है।

शिव की महिमा

लिंग पुराण में शिव की महिमा को ग्रहों और तत्त्वों के बीच संतुलन बनाने वाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह न केवल जीवों की आत्मा में निवास करते हैं, बल्कि प्रत्येक तत्व के सापेक्ष वे उसकी मूल प्रकृति को भी जानने का अधिकार रखते हैं।

उनकी महा-माया या शक्ति को ब्रह्मा और विष्णु से भी उच्च माना गया है, क्योंकि वह सृष्टि के हर रूप को समाहित करते हैं। शिव का यह अद्वितीय रूप न केवल साकार रूप में पूजा जाता है, बल्कि उनके लिंग रूप (जो शंकर के दर्शन में प्रतिष्ठित है) को भी सर्वोच्च माना जाता है।

लिंग पुराण में भगवान शिव के अवतार और लीलाएँ

लिंग पुराण में भगवान शिव के 28 अवतारों का वर्णन मिलता है, जो शैव परंपरा को विशेष रूप से सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किए गए हैं। इन अवतारों का उल्लेख अन्य पुराणों में वर्णित विष्णु के 24 अवतारों के समकक्ष किया गया है, और यह अवतार भगवान शिव के विविध रूपों, लीलाओं और उनके योगदान को दर्शाते हैं। भगवान शिव के ये अवतार जीवन के विभिन्न पहलुओं, धर्म, आस्था, और समाज में उनकी भूमिकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शिव के अवतारों का उद्देश्य

भगवान शिव के ये अवतार धर्म की रक्षा, पापों का नाश, और विश्व की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अवतरित हुए थे। इन अवतारों का मुख्य उद्देश्य ब्रह्मांड की विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करना और शिवत्व की व्यापकता को प्रस्तुत करना था। ये अवतार शिव के सशक्त रूप के प्रतीक माने जाते हैं, जो उनके भक्तों को शक्ति, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करते हैं।

भगवान शिव के कुछ महत्वपूर्ण अवतार

  • सर्वेश्वर अवतार: भगवान शिव का यह रूप सर्वव्यापी है, जिसमें वह प्रत्येक तत्व और जीव के भीतर उपस्थित रहते हैं। यह अवतार उनकी अद्वितीयता और अज्ञेय स्वरूप का प्रतीक है।
  • अर्धनारीश्वर अवतार: इस रूप में भगवान शिव आधा पुरुष और आधी स्त्री के रूप में प्रकट होते हैं, जो शिव और शक्ति के अद्वितीय संयोग का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि शिव और शक्ति, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, और एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते।
  • कपालधारी अवतार: इस अवतार में भगवान शिव कपाल (खोपड़ी) धारण करते हैं, जो तामसिक और रजसिक शक्तियों को नष्ट करने का प्रतीक है। यह रूप दर्शाता है कि शिव का वास्तविक कार्य जीवन और मृत्यु के चक्र को पार करना है।
  • नटराज अवतार: नटराज अवतार में भगवान शिव तांडव नृत्य करते हैं, जो सृष्‍टि के निर्माण, पालन और संहार के अनंत चक्र को प्रतीक रूप में व्यक्त करता है। नटराज का यह रूप सृष्‍टि के समापन और पुनर्नविकरण के चक्र का द्योतक है।
  • भूतनाथ अवतार: इस रूप में भगवान शिव को भूतों और प्रेतों का स्वामी माना जाता है। यह अवतार उन जीवों के उद्धार के लिए प्रकट हुआ था जो नश्वर शरीरों से मुक्त नहीं हो पाते थे।
  • महाकाल अवतार: महाकाल रूप में शिव को काल के पार, मृत्यु और समय के नियंत्रणकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वह काल के देवता हैं और मृत्यु के बाद के संसार के नियमों का पालन करते हैं। यह रूप समय और मृत्यु के महत्त्वपूर्ण नियमों को दर्शाता है।
  • वामन अवतार: इस अवतार में भगवान शिव वामन रूप में अवतरित होते हैं और राक्षसों के अत्याचार को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु के वामन अवतार के समान कार्य करते हैं।
  • धन्वंतरि अवतार: धन्वंतरि रूप में शिव आयुर्वेद और चिकित्सा के देवता के रूप में प्रकट होते हैं। यह अवतार आध्यात्मिक और भौतिक उपचार के स्रोत के रूप में भगवान शिव की भूमिका को दर्शाता है।
  • भैरव अवतार: भगवान शिव का भैरव रूप सांसारिक जीवन की तमाम कठिनाइयों को नष्ट करने के लिए प्रकट हुआ था। भैरव, भय और अंधकार से छुटकारा दिलाने वाला देवता है, जो राक्षसों और अन्य अशुभ शक्तियों का संहार करता है।
  • भवानीशंकर अवतार: इस रूप में शिव देवी भवानी के साथ होते हैं। यह रूप उनके शक्ति के रूप को दर्शाता है, जहां वह ब्रह्मांड की संरचना और उसकी रक्षा के लिए देवी-देवताओं के सहयोग से कार्य करते हैं।
  • पञ्चमुख अवतार: शिव का यह रूप पांच मुखों में प्रकट होता है, जो विभिन्न तत्त्वों और दिशाओं के प्रतीक होते हैं। यह रूप शिव की सर्वव्यापी शक्ति को प्रदर्शित करता है।
  • गंगाधर अवतार: इस रूप में भगवान शिव ने गंगा को अपने सिर पर धारण किया था। यह रूप उनके दया, करुणा और शक्ति के संगम को दर्शाता है, जिसमें गंगा की पवित्रता और शिव की शक्ति का एक साथ मिलन होता है।
  • त्रिपुरारी अवतार: त्रिपुरारी रूप में भगवान शिव त्रिपुर (तीन नगरों) के राक्षसों का वध करते हैं। यह रूप दर्शाता है कि शिव दुष्ट शक्तियों का नाश करने के लिए अवतरित होते हैं।
  • रुद्र अवतार: रुद्र रूप में शिव क्रोध और विनाशक रूप में प्रकट होते हैं। रुद्र रूप में वे राक्षसों और दुष्टों को समाप्त करते हैं , और सृष्टि को नए रूप में स्थापित करते हैं।
  • अलिंग अवतार: इस रूप में भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट होते हैं, जो उनके अनंत और साकार रूप का प्रतीक है। लिंग रूप में शिव को ब्रह्मांड के प्रजनक और संहारक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।

भगवान शिव के अवतारों का धार्मिक महत्व

भगवान शिव के ये अवतार न केवल शिवत्व के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करते हैं, बल्कि वे धर्म की रक्षा, भक्तों की सुरक्षा, और सभी जीवों के लिए कल्याणकारी कार्यों का भी परिचायक हैं। लिंग पुराण में दिए गए इन अवतारों का महत्व इस बात में है कि वे शिव के सार्वभौमिक रूप और उनके द्वारा किए गए कार्यों को विस्तृत रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं का समाधान करते हैं।

अग्नि लिंग की कथा

लिंग पुराण में भगवान शिव की सर्वोच्चता और उनके अद्वितीय रूप की महत्वपूर्ण पुष्टि करने वाली कथा है। यह कथा न केवल शिव के अनंत रूप को दर्शाती है, बल्कि इसने शैव परंपरा को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ पर हम अग्नि लिंग की कथा के सभी पहलुओं को विस्तार से समझेंगे।

2.1 कथा की शुरुआत

एक समय ब्रह्मा और विष्णु के बीच एक गंभीर विवाद उत्पन्न हुआ, जिसमें दोनों यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे सर्वश्रेष्ठ हैं।

  • ब्रह्मा ने अपनी सृजन शक्ति का प्रमाण देने के लिए यह दावा किया कि वह ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता हैं।
  • विष्णु ने अपने पालनकर्ता रूप को श्रेष्ठ बताया, यह कहते हुए कि वे सृष्टि की रक्षा करते हैं और प्रत्येक क्षण में संसार को अपने अस्तित्व से बनाए रखते हैं।
  • इस विवाद के कारण ब्रह्मा और विष्णु के बीच गहरी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई।

2.2 अग्नि लिंग का प्रकट होना

  • जब यह विवाद और तीव्र हो गया, तब अचानक एक अग्नि स्तंभ (अग्नि लिंग) प्रकट हुआ, जो बिना किसी अंत के था, यानी इसका कोई ऊपर-नीचे, शुरुआत या अंत नहीं था।
  • यह अग्नि लिंग इतना विशाल और असाधारण था कि ब्रह्मा और विष्णु दोनों के लिए इसे समझना असंभव हो गया।
  • यह एक दिव्य और अद्वितीय रूप था, जो केवल भगवान शिव के सर्वोच्च रूप को दर्शाता था।

2.3 ब्रह्मा और विष्णु का प्रयास

  • अग्नि लिंग के प्रकट होने के बाद, ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने अपनी-अपनी शक्ति का परीक्षण करने के लिए इसके ऊपर और नीचे की ओर यात्रा की।
  • ब्रह्मा ने स्तंभ के ऊपर की ओर यात्रा शुरू की, यह मानते हुए कि वह इसका अंत ढूंढ़कर शिव की श्रेष्ठता को सिद्ध कर देंगे।
  • विष्णु ने इसके निचले हिस्से को खोजने के लिए यात्रा शुरू की, यह सोचते हुए कि वह इस अग्नि लिंग के निचले भाग में प्रवेश कर सकते हैं, और इस तरह से उनकी शक्तियों का प्रमाण देंगे।
  • दोनों ने अपनी यात्रा की, लेकिन वे इस अनंत अग्नि लिंग के अंत तक नहीं पहुँच पाए।
  • वे दोनों ही निराश होकर लौट आए, यह समझते हुए कि वे इस अग्नि लिंग के अंत का पता नहीं लगा सकते, क्योंकि इसका कोई अंत था ही नहीं।

2.4 भगवान शिव की सर्वोच्चता की स्वीकृति

  • ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने जब अपनी यात्रा में असफलता देखी, तो उन्हें यह महसूस हुआ कि इस अग्नि लिंग का कोई अंत नहीं है।
  • उन्होंने यह स्वीकार किया कि यह निश्चित रूप से भगवान शिव का अद्वितीय रूप है।
  • इस प्रकार, दोनों देवताओं ने भगवान शिव की सर्वोच्चता को स्वीकार किया।
  • इस घटना से यह प्रमाणित हो गया कि भगवान शिव ही ब्रह्मांड के वास्तविक कारण, पालनकर्ता और संहारक हैं, और उनका रूप ब्रह्मा और विष्णु से परे है।

ॐ (ओंकार) और वेदों की उत्पत्ति

अग्नि लिंग से ॐ (ओंकार) की उत्पत्ति हुई, जिसे सृष्टि के संपूर्ण रहस्य और ब्रह्मांड के आद्य तत्व के रूप में माना जाता है। ॐ को भगवान शिव के स्वरूप का प्रतीक माना जाता है और इसे शुद्ध आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है। यह केवल एक ध्वनि नहीं है, बल्कि यह पूरे ब्रह्मांड की ऊर्जा का स्रोत है, जो हर वस्तु में व्याप्त है।

इसके साथ ही, वेदों की उत्पत्ति भी इस अग्नि लिंग से मानी जाती है। वेद, जो कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव के ज्ञान के स्रोत हैं, उनका प्रसार इस अग्नि लिंग के माध्यम से हुआ। वेदों में भगवान शिव का अंश समाहित है, और यही वेद हमारे जीवन के मार्गदर्शन के रूप में प्रस्तुत होते हैं। शिव के आदर्श और उनकी महिमा वेदों के भीतर प्रकट होती है।

3. ब्रह्मांड की रचना और पद्म कल्प की कथा

इसमें विष्णु, ब्रह्मा, और शिव के अद्वितीय संबंध और ब्रह्मांड के निर्माण के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है। इस खंड में ब्रह्मा और विष्णु की महान स्तुति के माध्यम से शिव की महिमा और ब्रह्मांड की रचना की प्रक्रिया का उद्घाटन किया गया है। आइए इसे और अधिक विस्तार से समझते हैं।

3.1 पद्म कल्प क्या है?

पद्म कल्प एक सृष्टि के चक्र का नाम है, जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति, उसकी संरचना, पालन, संहार, और पुनः रचना का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसे पद्म पुराण में प्रमुख रूप से वर्णित किया गया है, और यह ब्रह्मांड की सृष्टि, स्थिति, और संहार के चक्रीय प्रक्रिया को दर्शाता है। प्रत्येक कल्प में ब्रह्मा ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं, और फिर यह समाप्त हो जाता है, ताकि नया ब्रह्मांड फिर से उत्पन्न हो सके।

पद्म कल्प में विष्णु, ब्रह्मा, और शिव की भूमिका को स्पष्ट किया गया है, और यह दर्शाया गया है कि ये तीनों देवता मिलकर ब्रह्मांड की सृष्टि, पालन और संहार की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं।

3.2 ब्रह्मांड की रचना

पद्म कल्प के अनुसार, जब सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा को सृष्टि का कार्य सौंपा गया, तो उन्होंने शिव की उपासना की और विष्णु की मदद से ब्रह्मांड का निर्माण प्रारंभ किया। यह एक दिव्य चक्र है, जिसमें सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार लगातार चलता रहता है।

शिव की महिमा और स्तुति

  • ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान शिव की स्तुति करके उनसे सृष्टि की रचना के लिए आशीर्वाद लिया।
  • शिव का रूप शाश्वत, अजेय, और अपरिभाषित है, और उनका तात्त्विक स्वरूप निराकार और साकार दोनों रूपों में उपस्थित है।
  • उन्होंने शिव से ब्रह्मांड की संरचना की अनुमति मांगी और उनसे शरण में आने का आशीर्वाद लिया।

विष्णु ने शिव की स्तुति करते हुए कहा:

"आप ही सृष्टि के रचनाकार हैं, आप ही सब कुछ के कारण हैं, आपके बिना इस ब्रह्मांड का कोई अस्तित्व नहीं है। आपकी महिमा अपरिमित है।"

ब्रह्मा ने भी उसी प्रकार शिव की महिमा को स्वीकार करते हुए कहा:

"आप ही ब्रह्मांड के रचनाकार हैं, आप ही इसके पालक हैं, आप ही इसके संहारक हैं। आप ही हर एक रूप में प्रकट होते हैं।"

विष्णु और ब्रह्मा का योगदान

  • विष्णु, जो इस सृष्टि के पालनकर्ता माने जाते हैं, भगवान शिव से शक्ति प्राप्त करके ब्रह्मांड के पालन का कार्य करते हैं।
  • ब्रह्मा, जो सृष्टि के रचनाकार हैं, भगवान शिव की स्तुति करके अपने कार्य को अंजाम देते हैं।
  • दोनों देवताओं ने मिलकर ब्रह्मांड की संरचना को साकार रूप में व्यक्त किया और उसकी कार्यप्रणाली को सुनिश्चित किया।

शिव की उपस्थिति

  • शिव की उपस्थिति और महिमा ने ब्रह्मांड के निर्माण को सुनिश्चित किया।
  • शिव का साकार रूप ही सृष्टि के स्थायित्व का आधार है।
  • उनका रूप जब तक ब्रह्मांड में व्याप्त है, तब तक सृष्टि अस्तित्व में रहती है।

4. ब्रह्मांड की संरचना

पद्म कल्प के अनुसार, ब्रह्मांड की संरचना इस प्रकार की जाती है:

ब्रह्मांड के विभिन्न लोक

ब्रह्मांड को सात भव्य लोकों में विभाजित किया गया है:

  • भूलोक – जहां पृथ्वी और मनुष्य निवास करते हैं।
  • भवर्लोक – यह संसार से ऊँचा है, लेकिन दिव्य नहीं है।
  • स्वर्गलोक – देवताओं का निवास स्थान, जिसमें इन्द्र का शासन है।
  • महातल – राक्षसों और असुरों का लोक।
  • तलातल – जो निचले लोकों में आता है।
  • पाताल – नागों और असुरों का निवास स्थान।
  • सत्यमलोक – परमपिता परमेश्वर ब्रह्मा का निवास, यह सबसे ऊँचा और शुद्धतम स्थान है।

ब्रह्मांड के सात समुद्र

इन लोकों के बीच सात समुद्र हैं, जो नदियों, जल, और विविध पदार्थों से भरे हैं। ये समुद्र प्रतीकात्मक रूप से विभिन्न ब्रह्मांडीय ऊर्जा और सृजन शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दुनिया के तीन भाग

ब्रह्मांड का यह विस्तार तीन प्रमुख भागों में बांटा जाता है:

  • स्थूल जगत – यह भौतिक और आकारिक दुनिया है।
  • सूक्ष्म जगत – यह मानसिक और आध्यात्मिक लोक है।
  • ब्रह्मा लोक – यह ब्रह्मा का स्थान है, जो विश्व के परम सत्ता का प्रतीक है।

4.1 शिव और ब्रह्मा का अद्वितीय संबंध

पद्म कल्प में भगवान शिव को सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च सत्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान विष्णु और ब्रह्मा दोनों ही शिव की महिमा को स्वीकार करते हुए उनके मार्गदर्शन में काम करते हैं। शिव को न केवल ब्रह्मांड के संहारक और रचनाकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है, बल्कि उनकी उपस्थिति से सृष्टि की सम्पूर्णता सुनिश्चित होती है। उनके बिना कोई भी ब्रह्मांडीय क्रिया सम्भव नहीं है।

4.2 महर्षि दधीचि की कथा

महर्षि दधीचि और शिव भक्ति की महिमा के संदर्भ में लिंग पुराण में दी गई कथा विशेष महत्व रखती है, क्योंकि यह शैव धर्म की श्रेष्ठता को स्पष्ट करती है और भगवान शिव की भक्ति की महिमा को उजागर करती है। इस कथा में महर्षि दधीचि का अत्यधिक महत्व है, जो भगवान शिव के परम भक्त के रूप में पहचाने जाते हैं।

महर्षि दधीचि का समर्पण

  • महर्षि दधीचि एक महान तपस्वी और विद्वान ऋषि थे, जिनका समर्पण भगवान शिव के प्रति अतुलनीय था।
  • जब देवताओं और दानवों के बीच युद्ध हुआ और दानवों ने देवताओं को हराया, तो देवता विष्णु के पास गए और सहायता की प्रार्थना की।
  • भगवान विष्णु ने देवताओं को आश्वासन दिया और दधीचि की हड्डियों से एक शक्तिशाली वज्र (आयुध) बनाने का निर्णय लिया, जिससे वे दानवों को पराजित कर सकें।
  • महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दान दीं, और उनका यह योगदान देवताओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था।

यह घटना भगवान शिव की भक्ति और शैव धर्म की महिमा को और स्पष्ट करती है। दधीचि का समर्पण शिव के प्रति और उनका त्याग शिव भक्ति के उच्चतम रूप का प्रतीक था।

4.3 लिंग पुराण में दधीचि की भूमिका

लिंग पुराण में एक और कथा का वर्णन है, जिसमें महर्षि दधीचि और दुर्वासा ऋषि के बीच एक दिलचस्प संघर्ष होता है।

  • भागवत पुराण में दुर्वासा और अंबरीष के बीच की कथा दी गई है, जिसमें दुर्वासा ऋषि को विष्णु के चक्र से बचाव नहीं मिलता, और अंत में उन्हें उसकी महिमा का अनुभव होता है।
  • लेकिन लिंग पुराण में यह कथा विपरीत रूप में प्रस्तुत की गई है।
  • विष्णु ने दधीचि पर अपना चक्र (सुदर्शन चक्र) छोड़ा, लेकिन यह निष्प्रभावी हो गया।
  • इसका कारण था भगवान शिव की भक्तिपूर्ण उपस्थिति और उनके शिष्य दधीचि का विश्वास।
  • जब विष्णु का चक्र दधीचि पर आया, तो वह किसी भी प्रकार से प्रभावी नहीं हो सका, और भगवान शिव की शक्ति के कारण चक्र असफल हो गया।

इस कथा के माध्यम से शिव की भक्ति की महिमा और शैव धर्म की श्रेष्ठता को विशेष रूप से दर्शाया गया है। जब कोई भक्त पूर्ण समर्पण और विश्वास के साथ शिव की उपासना करता है , तो भगवान शिव उसे सर्वशक्तिमान बनाते हैं, और कोई भी शस्त्र या आयुध उसका कुछ नहीं कर सकता। भगवान शिव का यह स्वरूप शाश्वत और अजेय है, जो न केवल शारीरिक बल से, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति से भी जीतते हैं।

4.2 शैव धर्म की श्रेष्ठता

लिंग पुराण में यह कथा इस उद्देश्य से प्रस्तुत की गई है कि शैव धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया जाए। महर्षि दधीचि की भक्ति ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवान शिव के भक्तों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। चाहे अन्य देवता किसी भी शक्ति से सम्पन्न हों, जब शिव का आशीर्वाद और भक्तिपूर्वक श्रद्धा प्राप्त होती है, तब कोई भी शक्ति निष्क्रिय हो जाती है।

  • यह कथा शैव धर्म की विश्वसनीयता और अजेयता को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है।
  • इसका यह संदेश भी है कि भगवान शिव के भक्तों की शक्ति निरंतर बढ़ती है, और उनके लिए भगवान शिव का आशीर्वाद और प्रेम सर्वोपरि होता है।

5. वैवस्वत मन्वंतर और वंशावली

वैवस्वत मन्वंतर और वंशावली का विवरण लिंग पुराण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि इसमें प्राचीन समय के राजाओं की वंशावली का उल्लेख किया गया है और श्रीकृष्ण के समय तक के राजाओं की कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

5.1 वैवस्वत मन्वंतर का महत्व

मन्वंतर वे कालखंड होते हैं, जिनमें प्रत्येक मनु (सृष्टि के कर्ता) का राज्य रहता है। एक मन्वंतर के अंतर्गत सृष्टि की पुनरावृत्ति होती है, और मनु के नेतृत्व में एक नई सृष्टि का प्रारंभ होता है।

  • वैवस्वत मन्वंतर को विशेष महत्व दिया गया है, क्योंकि यही वर्तमान मन्वंतर है, जिसमें हम रह रहे हैं।
  • वैवस्वत मनु के समय में सृष्टि के विविध प्रबंध और उनके अंतर्गत होने वाली घटनाओं का वर्णन लिंग पुराण में किया गया है।
  • यह मन्वंतर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें मानवता के अस्तित्व से जुड़ी कई प्रमुख घटनाएँ घटित हुईं:
    • महाभारत का युद्ध
    • श्रीकृष्ण का अवतार
    • अन्य कई ऐतिहासिक घटनाएँ
  • इस मन्वंतर का वर्णन अन्य पुराणों के साथ मेल खाता है, जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि विभिन्न पुराणों में घटनाओं और कथाओं को किस प्रकार दोहराया जाता है।

5.2 श्रीकृष्ण तक के राजाओं की वंशावली

लिंग पुराण में वैवस्वत मन्वंतर के अंतर्गत राजाओं की वंशावली का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें विशेष रूप से श्रीकृष्ण के समय तक के प्रमुख राजाओं का विवरण दिया गया है, जैसे:

  • सूर्य वंश:
    • इसमें सूर्य वंश के राजाओं का उल्लेख किया गया है, जो भगवान सूर्य के वंशज माने जाते हैं।
    • सूर्य वंश में प्रमुख राजा इक्ष्वाकु थे, जिनके वंश में कई महान राजा हुए।
    • श्रीराम का जन्म भी इसी वंश में हुआ था।
  • चंद्र वंश:
    • चंद्र वंश के राजाओं का भी वर्णन मिलता है, जिसमें राजा चंद्र से लेकर उनके वंशजों की कहानी है।
    • इस वंश के प्रमुख राजा पुश्य थे, और उनके वंश में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
  • राजा युधिष्ठिर और महाभारत:
    • वैवस्वत मन्वंतर में महाभारत की प्रमुख घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है।
    • इसमें राजा युधिष्ठिर और उनके वंशजों की वंशावली का भी विवरण है, जिनकी कथा अन्य पुराणों और महाभारत में विस्तार से दी गई है।
  • श्री कृष्ण का अवतार:
    • लिंग पुराण में श्री कृष्ण के अवतार का भी विशेष उल्लेख किया गया है।
    • यह कथा अन्य पुराणों में भी मिलती है, लेकिन लिंग पुराण में इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया है कि कृष्ण ने संसार की बुराइयों को समाप्त करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था।
  • कृष्ण का यदुवंश:
    • श्री कृष्ण के यदुवंश का भी विस्तार से वर्णन है, जिसमें कृष्ण के कुल और उनके वंशजों के बारे में बताया गया है।
    • यह वंश प्रसिद्ध था और इसके शासक अपने साहस, बल और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे।

5.3 घटनाएँ और कथाएँ

लिंग पुराण में वैवस्वत मन्वंतर के दौरान घटित कई महत्वपूर्ण घटनाओं और कथाओं का पुनरावलोकन किया गया है। इनमें प्रमुख घटनाएँ और कथाएँ निम्नलिखित हैं:

  • दृष्टि और शिष्य संबंध:
    • इसमें उन महान योगियों और संतों का भी वर्णन है जिन्होंने इस मन्वंतर में तपस्या की और सत्य की खोज की।
    • इसके माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि युगों के अनुसार साधक और उनके गुरुओं का संबंध समय और स्थान से परे होता है।
  • धर्म, कर्म और पुनः जन्म:
    • वैवस्वत मन्वंतर में धर्म, कर्म, और पुनः जन्म की अवधारणा पर भी चर्चा की गई है।
    • इसमें यह बताया गया है कि एक व्यक्ति के कर्म उसके भविष्य को निर्धारित करते हैं, और अपने अच्छे कर्मों से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • विभिन्न योद्धाओं और उनकी वीरता:
    • इस खंड में कई योद्धाओं के योगदान का उल्लेख है, जिन्होंने अपनी वीरता और बलिदान से इतिहास को गौरवान्वित किया।
    • इसमें प्रमुख रूप से महाभारत के महान योद्धाओं जैसे अर्जुन और भीम का उल्लेख है।

6. शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या

लिंग पुराण में शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या का विशेष महत्व है, क्योंकि यह लिंग पूजा के गहरे आध्यात्मिक अर्थ को समझने में मदद करती है। इसमें लिंग पूजा को बाहरी और आंतरिक रूप में विभाजित किया गया है, जिससे यह दर्शाया गया है कि यह केवल एक बाहरी पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गहरी मानसिक और आत्मिक साधना का हिस्सा है।

6.1 लिंग पूजा का बाहरी रूप (अज्ञानी लोगों द्वारा पूजा)

  • अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा पूजा:
    • इस स्तर पर लोग शिव लिंग को केवल भौतिक रूप (जैसे पत्थर या लकड़ी का लिंग) मानकर उसकी पूजा करते हैं।
    • उनका ध्यान केवल बाहरी रूप पर केंद्रित होता है, और वे लिंग को भगवान शिव का एक मूर्त रूप मानते हैं।
    • यह पूजा उन भक्तों के लिए होती है, जो अभी आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर पर नहीं पहुँचे हैं।
  • प्रतीक के रूप में पूजा:
    • यह पूजा शिव के दैवीय प्रतिनिधित्व के रूप में होती है, जिसमें लिंग को भगवान शिव के साथ जोड़कर पूजा जाता है।
    • इसका उद्देश्य आंतरिक शुद्धता और ईश्वर के प्रति श्रद्धा को बढ़ाना है।

6.2 लिंग पूजा का आंतरिक रूप (ज्ञानी लोगों द्वारा पूजा)

  • ज्ञानी व्यक्तियों का दृष्टिकोण:
    • जिन व्यक्तियों ने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, वे लिंग को केवल एक बाहरी रूप नहीं मानते, बल्कि इसे आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में देखते हैं।
    • वे शिव लिंग को परम सत्य का प्रतीक मानते हैं, जो ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त है।
  • आध्यात्मिक ध्यान और आत्मा में शिव का अनुभव:
    • आंतरिक रूप से पूजा करने वाले लोग अपने ध्यान और साधना द्वारा शिव के दिव्य स्वरूप का अनुभव करते हैं।
    • उनके लिए, लिंग पूजा केवल एक बाहरी प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मा में शिव के तत्व को अनुभव करने का माध्यम है।

6.3 लिंग पूजा का प्रतीकात्मक महत्व

  • शिव लिंग के माध्यम से शिव का साक्षात्कार:
    • लिंग को शिव के अनंत और निराकार स्वरूप का प्रतीक माना जाता है।
    • यह ब्रह्मांड के सृजन, पालन, और संहार का प्रतिनिधित्व करता है।
  • शैव परंपरा में प्रतीकात्मक पूजा का महत्व:
    • शैव परंपरा में लिंग पूजा केवल एक बाहरी कर्मकांड नहीं, ब ल्कि गहरी आध्यात्मिक साधना का माध्यम मानी जाती है।
    • इसका वास्तविक उद्देश्य शिव तत्व को अनुभव करना और आत्मिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना है।

4. आध्यात्मिक ऊँचाई की ओर प्रगति

  • बाहरी पूजा से आंतरिक साधना की ओर यात्रा:
    • शुरुआत में भक्त बाहरी पूजा करता है, लेकिन जैसे-जैसे उसकी आध्यात्मिक समझ विकसित होती है, वह लिंग के भौतिक रूप से हटकर उसे एक आध्यात्मिक प्रतीक मानने लगता है।
    • इस तरह, लिंग पूजा केवल एक साधारण पूजा तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह आत्मज्ञान प्राप्त करने और दिव्यता का अनुभव करने का एक तरीका बन जाती है।
  • आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक:
    • लिंग पूजा की यह यात्रा आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक है। यह भक्ति से ज्ञान की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाती है।
    • जैसे-जैसे साधक का ध्यान गहराता है, वह बाहरी रूपों को छोड़कर केवल आध्यात्मिक अनुभव और स्वयं के भीतर शिव के तत्व को अनुभव करता है।

7. लिंग पुराण में योग और शिव साधना

लिंग पुराण में योग और शिव साधना का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह शैव परंपरा में योग की महिमा और शिव साधना से जुड़ी विधियों को विस्तार से समझाता है। यह पुराण योग के विभिन्न प्रकारों और साधनाओं के माध्यम से परम शिव तक पहुँचने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन प्रदान करता है।

7.1 योग के प्रकार

लिंग पुराण में योग के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और शिव के साक्षात्कार के मार्ग पर प्रेरित करते हैं।

  • हठ योग:
    • हठ योग में शरीर और मन के संयम के द्वारा साधक आत्मा के शुद्धिकरण की ओर अग्रसर होते हैं।
    • इसमें विशेष श्वास नियंत्रण (प्राणायाम), आसन, और मुद्रा का अभ्यास किया जाता है।
    • हठ योग के अभ्यास से शरीर को स्वस्थ रखा जाता है और मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है, जिससे ध्यान और साधना में सहायता मिलती है।
  • राज योग:
    • राज योग साधना के उच्चतम रूपों में से एक है, जिसमें साधक अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करके ध्यान की गहरी अवस्था में प्रवेश करता है।
    • इसमें साधक अपने भीतर के ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और परमात्मा से एकाकार होने की कोशिश करता है।
    • राज योग की साधना में मन की शांति और नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जिससे ध्यान की अवस्था को बढ़ाया जाता है।
  • भक्ति योग:
    • भक्ति योग में साधक भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम को ध्यान में रखते हुए साधना करता है। शिव भक्ति में भक्ति योग की विशेष भूमिका है।
    • इसमें साधक भगवान शिव के मंत्रों का जाप, पूजा, और अन्य धार्मिक कृत्यों के माध्यम से अपने मन को शिव में रमा देता है।
    • भक्ति योग में ध्यान और प्रेम के साथ शिव के दिव्य रूप का ध्यान किया जाता है , जिससे आत्मा और भगवान के बीच एक गहरा संबंध बनता है।
  • ज्ञान योग:
    • ज्ञान योग का उद्देश्य ज्ञान के माध्यम से आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है।
    • इसमें साधक तत्त्व का विश्लेषण करता है और अहंकार को समाप्त करने के लिए गहरी सोच और ध्यान साधना करता है।
    • इसमें ब्रह्म ज्ञान के माध्यम से शिव के वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है।

2. शैव योग और ध्यान साधना

लिंग पुराण में शैव योग और ध्यान साधना का विशेष उल्लेख किया गया है। शैव योग का उद्देश्य भगवान शिव को आत्मा का सत्य स्वरूप मानकर उनकी उपासना करना है।

a. शिव ध्यान साधना

  • शिव ध्यान में साधक अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करके भगवान शिव के निराकार रूप का ध्यान करता है।
  • इसका उद्देश्य शिव के साथ एकात्मता और आत्मा की दिव्यता को महसूस करना है।
  • ध्यान की विधि में:
    • श्वास पर नियंत्रण
    • मस्तिष्क को शांत करना
    • भगवान शिव के मंत्रों का जाप
    शामिल होता है।
  • इस साधना से शरीर और मन दोनों को शांति मिलती है, जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है।

b. शिव योग और ध्यान का लक्ष्य

  • शिव योग का मुख्य उद्देश्य शिव का साक्षात्कार करना है, जो आत्मा और परमात्मा का एकाकार रूप है।
  • इसमें व्यक्ति अपनी आत्मा में शिव के तत्व का अनुभव करता है और आत्मा के अद्वितीय सत्य को पहचानता है।
  • ध्यान साधना में साधक निम्न मंत्रों का जाप करता है:
    • सोऽहम् (I am That)
    • शिवोऽहम् (I am Shiva)
    जिससे आत्मा शिव के साथ जुड़ने का प्रयास करती है।

3. योग के माध्यम से परम शिव तक पहुँचना

लिंग पुराण में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि योग के माध्यम से ही परम शिव तक पहुँचा जा सकता है।

a. योग का माध्यम

  • योग साधना, चाहे वह हठ योग हो, राज योग हो, या भक्ति योग हो, सभी साधनाएँ एक ही उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करती हैं – परम शिव का साक्षात्कार
  • इन योगों के माध्यम से साधक अपने भीतर के शिवत्व को पहचानता है।
  • आत्मा और परमात्मा के बीच का अंतर मिटाकर एकाकारता की स्थिति में पहुँचता है।

b. आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग

  • योग साधना एक आध्यात्मिक यात्रा की तरह होती है, जिसमें साधक अपनी चेतना को उच्चतम स्तर तक उठाता है।
  • इस यात्रा में साधना के मार्ग पर चलकर साधक अपने भीतर छिपे हुए शिव तत्व का साक्षात्कार करता है।
  • शिव को आत्मा का वास्तविक रूप मानते हुए, योग साधक स्वयं को शिव के रूप में महसूस करता है और आत्मज्ञान की अवस्था में पहुँचता है।

4. साधना का महत्व और अभ्यास

लिंग पुराण के अनुसार, योग साधना का अभ्यास जीवन के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। यह आत्मा को शुद्ध करने, मन को नियंत्रित करने, और परम शिव तक पहुँचने का सर्वोत्तम तरीका है।

  • प्रत्येक व्यक्ति के लिए साधना का स्तर अलग हो सकता है:
    • कुछ लोग बाहरी साधनाओं (जैसे पूजा-पाठ) से शुरुआत करते हैं।
    • अन्य लोग ध्यान, प्राणायाम और ध्यान साधना से शुरुआत करते हैं।
  • ध्यान और साधना की नियमितता से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है।
  • योग और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति परम शिव के साक्षात्कार में सफलता प्राप्त करता है।

लिंग पुराण का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1. अन्य पुराणों से तुलना

  • यह पुराण अन्य पुराणों के विपरीत अधिक अनुष्ठान-प्रधान और तांत्रिक प्रभाव वाला ग्रंथ है।
  • इसमें शिव के अवतारों की संख्या को विष्णु के अवतारों के समकक्ष रखने का प्रयास किया गया है।
  • महाभारत, विष्णु पुराण और भागवत पुराण में शिव की भूमिका गौण है, लेकिन इस ग्रंथ में शिव को सर्वोच्च स्थान दिया गया है।

2. रचना काल और ऐतिहासिक प्रमाण

  • इस ग्रंथ का सटीक काल निर्धारित करना कठिन है, क्योंकि इसमें कई पुरानी कथाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
  • शिव के अवतारों और योग पर विशेष बल देने के कारण, यह ग्रंथ 8वीं से 9वीं शताब्दी के बीच रचित माना जाता है।
  • यह ग्रंथ अध्यात्म, तंत्र, योग और शिव साधना से जुड़े शिक्षकों के प्रभाव को दर्शाता है।

निष्कर्ष

  • लिंग पुराण मुख्य रूप से शिव भक्ति, योग, और तांत्रिक अनुष्ठानों पर केंद्रित है।
  • यह शिव की सर्वोच्चता को स्थापित करने का प्रयास करता है।
  • इसमें अग्नि लिंग की कथा सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में प्रस्तुत की गई है।
  • शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या इसे अन्य पुराणों से अलग बनाती है।
  • इस ग्रंथ में योग और ध्यान को विशेष स्थान दिया गया है।

क्या यह केवल शिव पूजा पर केंद्रित ग्रंथ है?

  • ❖ यह ग्रंथ केवल शिव की भक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि योग, ध्यान, तंत्र और ब्रह्मांडीय तत्वों की व्याख्या भी करता है।
  • ❖ यह अद्वैत और शैव दर्शन के मिश्रण को प्रस्तुत करता है, जो इसे विशिष्ट बनाता है।

क्या लिंग पुराण वास्तव में तांत्रिक ग्रंथ है?

  • ❖ इसमें तांत्रिक साधनाओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन यह पूरी तरह तंत्र पर आधारित नहीं है।
  • ❖ यह मुख्य रूप से एक आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें लिंग पूजा की रहस्यमय व्याख्या दी गई है।


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लिंग पुराण: एक विस्तृत परिचय

परिचय

लिंग पुराण हिंदू धर्म के अठारह महापुराणों में से एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है। यह पुराण 11 हजार श्लोकों में विभाजित है और इसे स्वयं ब्रह्मा ने "लैंग" नाम से संबोधित किया था।

इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्याख्या करना है। इस पुराण में अग्नि लिंग की व्याख्या की गई है , जिसमें भगवान शिव स्वयं उपस्थित हैं। इसकी कथा अग्नि कल्प के अंत में महेश्वर द्वारा दी गई शिक्षाओं पर आधारित है।

मत्स्य पुराण में लिंग पुराण का उल्लेख किया गया है, और इसके विवरण इस पुराण से मेल खाते हैं। हालांकि, इसमें कल्प को "ईशान कल्प" कहा गया है, जो अग्नि कल्प से थोड़ा अलग संदर्भ देता है।

लिंग पुराण की संरचना और प्रमुख विषय

1. सृष्टि और शिव तत्व की व्याख्या

लिंग पुराण हिंदू धर्म के एक महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, जिसमें भगवान शिव की महिमा और सृष्टि के उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। यह पुराण विशेष रूप से शिव पूजा और शिव तत्व के महत्व को विस्तार से प्रस्तुत करता है, और शिव को ब्रह्मांड के परम कारण (परम तत्व) के रूप में स्थापित करता है। इस पुराण की संरचना और विषय की गहरी समझ हमें शिव के अस्तित्व और उनके ब्रह्मांडीय स्वरूप को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है।

सृष्टि और प्राथमिक सृजन की व्याख्या

लिंग पुराण की शुरुआत सृष्टि के उत्पत्ति और प्राथमिक सृजन के विवरण से होती है। इस ग्रंथ में ब्रह्मांड की रचना के कई पहलुओं का वर्णन किया गया है, जो शिव के द्वारा सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार के कार्यों में उनके अद्वितीय स्थान को स्पष्ट करता है।

सृष्टि की उत्पत्ति:

लिंग पुराण के अनुसार, जब सृष्टि का कोई रूप नहीं था, तब शिव का अस्तित्व निर्विकल्प और अज्ञेय था। शिव को ही सृष्टि के अंतर्निहित कारण के रूप में माना गया है , जो न तो जन्मे हैं और न ही मरते हैं। वह साकार और निराकार रूपों में स्थित हैं। शिव का यह रूप ही सृष्टि के अराजकता और अंधकारमय प्रारंभ से उत्पन्न हुआ है, जहां से संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना हुई।

शिव का निराकार रूप:

लिंग पुराण में शिव को निराकार ब्रह्म के रूप में दर्शाया गया है, जो ब्रह्मांड के सबसे गहरे और अज्ञेय तत्व का प्रतीक है। उनके निराकार रूप से ही संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना, पालन और संहार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। शिव को महाशक्ति के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है, और उनका यह स्वरूप साकार और निराकार दोनों रूपों में दर्शित होता है।

शिव के द्वारा सृष्टि का आरंभ

शिव के निराकार रूप से उत्पन्न हुई ऊर्जा या शक्ति (जिसे शक्ति या आदि शक्ति कहा जाता है) ने सृष्टि के विकास की शुरुआत की। लिंग पुराण के अनुसार, शिव का यह तत्व सर्वव्यापी और अनंत है, और इस तत्व का प्रकाश या शक्ति संसार के प्रत्येक कण में व्याप्त है।

शिव का यह तत्व ही प्रथम उत्पत्ति का कारण है। उनके निराकार रूप के वियोग और मिलन से ही संसार की रचना और विनाश का चक्र चलता है। शिव के अंतर्यामी रूप के भीतर सृष्टि का यह चक्र सक्रिय रहता है, और यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिदेवों द्वारा संचालित किया जाता है।

शिव को परम तत्व के रूप में प्रस्तुत करना

लिंग पुराण में शिव को परम तत्व के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, और इस ग्रंथ के अनुसार, शिव का अस्तित्व ही सृष्टि के हर पहलू में समाहित है। वह साकार और निर्विकल्प रूप में स्थित हैं, और उनकी कोई सीमाएँ नहीं हैं। वह ब्रह्मा और विष्णु से उच्चतम और सर्वव्यापी हैं।

शिव का त्रिगुणात्मा स्वरूप

लिंग पुराण में यह भी बताया गया है कि शिव ही सत्व, रज और तम के त्रिगुणों के स्रोत हैं। वह इन गुणों के माध्यम से सृष्टि की रचना और संहार करते हैं। वह निर्विकल्प रूप में साकार रूप में परिवर्तनशील होते हैं, और इसलिए वह अध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में अडिग पथप्रदर्शक माने जाते हैं।

विष्णु और शिव का तुलनात्मक दृष्टिकोण

हालांकि अन्य पुराणों में विष्णु को ब्रह्मांड के पालनकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, लिंग पुराण में शिव को न केवल सृष्टि के निर्माता बल्कि उसकी संपूर्णता का प्रतीक माना गया है। लिंग पुराण के दृष्टिकोण से, शिव और विष्णु के बीच एक बुनियादी अंतर यह है कि विष्णु जहां ब्रह्मांड के पालनकर्ता के रूप में सामने आते हैं, वहीं शिव का स्वरूप शाश्वत और अज्ञेय है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के निर्माण और संहार के बीच की संधि के रूप में कार्य करता है।

शिव की महिमा

लिंग पुराण में शिव की महिमा को ग्रहों और तत्त्वों के बीच संतुलन बनाने वाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह न केवल जीवों की आत्मा में निवास करते हैं, बल्कि प्रत्येक तत्व के सापेक्ष वे उसकी मूल प्रकृति को भी जानने का अधिकार रखते हैं।

उनकी महा-माया या शक्ति को ब्रह्मा और विष्णु से भी उच्च माना गया है, क्योंकि वह सृष्टि के हर रूप को समाहित करते हैं। शिव का यह अद्वितीय रूप न केवल साकार रूप में पूजा जाता है, बल्कि उनके लिंग रूप (जो शंकर के दर्शन में प्रतिष्ठित है) को भी सर्वोच्च माना जाता है।

लिंग पुराण में भगवान शिव के अवतार और लीलाएँ

लिंग पुराण में भगवान शिव के 28 अवतारों का वर्णन मिलता है, जो शैव परंपरा को विशेष रूप से सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किए गए हैं। इन अवतारों का उल्लेख अन्य पुराणों में वर्णित विष्णु के 24 अवतारों के समकक्ष किया गया है, और यह अवतार भगवान शिव के विविध रूपों, लीलाओं और उनके योगदान को दर्शाते हैं। भगवान शिव के ये अवतार जीवन के विभिन्न पहलुओं, धर्म, आस्था, और समाज में उनकी भूमिकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शिव के अवतारों का उद्देश्य

भगवान शिव के ये अवतार धर्म की रक्षा, पापों का नाश, और विश्व की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अवतरित हुए थे। इन अवतारों का मुख्य उद्देश्य ब्रह्मांड की विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करना और शिवत्व की व्यापकता को प्रस्तुत करना था। ये अवतार शिव के सशक्त रूप के प्रतीक माने जाते हैं, जो उनके भक्तों को शक्ति, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करते हैं।

भगवान शिव के कुछ महत्वपूर्ण अवतार

  • सर्वेश्वर अवतार: भगवान शिव का यह रूप सर्वव्यापी है, जिसमें वह प्रत्येक तत्व और जीव के भीतर उपस्थित रहते हैं। यह अवतार उनकी अद्वितीयता और अज्ञेय स्वरूप का प्रतीक है।
  • अर्धनारीश्वर अवतार: इस रूप में भगवान शिव आधा पुरुष और आधी स्त्री के रूप में प्रकट होते हैं, जो शिव और शक्ति के अद्वितीय संयोग का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि शिव और शक्ति, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, और एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते।
  • कपालधारी अवतार: इस अवतार में भगवान शिव कपाल (खोपड़ी) धारण करते हैं, जो तामसिक और रजसिक शक्तियों को नष्ट करने का प्रतीक है। यह रूप दर्शाता है कि शिव का वास्तविक कार्य जीवन और मृत्यु के चक्र को पार करना है।
  • नटराज अवतार: नटराज अवतार में भगवान शिव तांडव नृत्य करते हैं, जो सृष्‍टि के निर्माण, पालन और संहार के अनंत चक्र को प्रतीक रूप में व्यक्त करता है। नटराज का यह रूप सृष्‍टि के समापन और पुनर्नविकरण के चक्र का द्योतक है।
  • भूतनाथ अवतार: इस रूप में भगवान शिव को भूतों और प्रेतों का स्वामी माना जाता है। यह अवतार उन जीवों के उद्धार के लिए प्रकट हुआ था जो नश्वर शरीरों से मुक्त नहीं हो पाते थे।
  • महाकाल अवतार: महाकाल रूप में शिव को काल के पार, मृत्यु और समय के नियंत्रणकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वह काल के देवता हैं और मृत्यु के बाद के संसार के नियमों का पालन करते हैं। यह रूप समय और मृत्यु के महत्त्वपूर्ण नियमों को दर्शाता है।
  • वामन अवतार: इस अवतार में भगवान शिव वामन रूप में अवतरित होते हैं और राक्षसों के अत्याचार को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु के वामन अवतार के समान कार्य करते हैं।
  • धन्वंतरि अवतार: धन्वंतरि रूप में शिव आयुर्वेद और चिकित्सा के देवता के रूप में प्रकट होते हैं। यह अवतार आध्यात्मिक और भौतिक उपचार के स्रोत के रूप में भगवान शिव की भूमिका को दर्शाता है।
  • भैरव अवतार: भगवान शिव का भैरव रूप सांसारिक जीवन की तमाम कठिनाइयों को नष्ट करने के लिए प्रकट हुआ था। भैरव, भय और अंधकार से छुटकारा दिलाने वाला देवता है, जो राक्षसों और अन्य अशुभ शक्तियों का संहार करता है।
  • भवानीशंकर अवतार: इस रूप में शिव देवी भवानी के साथ होते हैं। यह रूप उनके शक्ति के रूप को दर्शाता है, जहां वह ब्रह्मांड की संरचना और उसकी रक्षा के लिए देवी-देवताओं के सहयोग से कार्य करते हैं।
  • पञ्चमुख अवतार: शिव का यह रूप पांच मुखों में प्रकट होता है, जो विभिन्न तत्त्वों और दिशाओं के प्रतीक होते हैं। यह रूप शिव की सर्वव्यापी शक्ति को प्रदर्शित करता है।
  • गंगाधर अवतार: इस रूप में भगवान शिव ने गंगा को अपने सिर पर धारण किया था। यह रूप उनके दया, करुणा और शक्ति के संगम को दर्शाता है, जिसमें गंगा की पवित्रता और शिव की शक्ति का एक साथ मिलन होता है।
  • त्रिपुरारी अवतार: त्रिपुरारी रूप में भगवान शिव त्रिपुर (तीन नगरों) के राक्षसों का वध करते हैं। यह रूप दर्शाता है कि शिव दुष्ट शक्तियों का नाश करने के लिए अवतरित होते हैं।
  • रुद्र अवतार: रुद्र रूप में शिव क्रोध और विनाशक रूप में प्रकट होते हैं। रुद्र रूप में वे राक्षसों और दुष्टों को समाप्त करते हैं , और सृष्टि को नए रूप में स्थापित करते हैं।
  • अलिंग अवतार: इस रूप में भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट होते हैं, जो उनके अनंत और साकार रूप का प्रतीक है। लिंग रूप में शिव को ब्रह्मांड के प्रजनक और संहारक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।

भगवान शिव के अवतारों का धार्मिक महत्व

भगवान शिव के ये अवतार न केवल शिवत्व के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करते हैं, बल्कि वे धर्म की रक्षा, भक्तों की सुरक्षा, और सभी जीवों के लिए कल्याणकारी कार्यों का भी परिचायक हैं। लिंग पुराण में दिए गए इन अवतारों का महत्व इस बात में है कि वे शिव के सार्वभौमिक रूप और उनके द्वारा किए गए कार्यों को विस्तृत रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं का समाधान करते हैं।

अग्नि लिंग की कथा

लिंग पुराण में भगवान शिव की सर्वोच्चता और उनके अद्वितीय रूप की महत्वपूर्ण पुष्टि करने वाली कथा है। यह कथा न केवल शिव के अनंत रूप को दर्शाती है, बल्कि इसने शैव परंपरा को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ पर हम अग्नि लिंग की कथा के सभी पहलुओं को विस्तार से समझेंगे।

2.1 कथा की शुरुआत

एक समय ब्रह्मा और विष्णु के बीच एक गंभीर विवाद उत्पन्न हुआ, जिसमें दोनों यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे सर्वश्रेष्ठ हैं।

  • ब्रह्मा ने अपनी सृजन शक्ति का प्रमाण देने के लिए यह दावा किया कि वह ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता हैं।
  • विष्णु ने अपने पालनकर्ता रूप को श्रेष्ठ बताया, यह कहते हुए कि वे सृष्टि की रक्षा करते हैं और प्रत्येक क्षण में संसार को अपने अस्तित्व से बनाए रखते हैं।
  • इस विवाद के कारण ब्रह्मा और विष्णु के बीच गहरी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई।

2.2 अग्नि लिंग का प्रकट होना

  • जब यह विवाद और तीव्र हो गया, तब अचानक एक अग्नि स्तंभ (अग्नि लिंग) प्रकट हुआ, जो बिना किसी अंत के था, यानी इसका कोई ऊपर-नीचे, शुरुआत या अंत नहीं था।
  • यह अग्नि लिंग इतना विशाल और असाधारण था कि ब्रह्मा और विष्णु दोनों के लिए इसे समझना असंभव हो गया।
  • यह एक दिव्य और अद्वितीय रूप था, जो केवल भगवान शिव के सर्वोच्च रूप को दर्शाता था।

2.3 ब्रह्मा और विष्णु का प्रयास

  • अग्नि लिंग के प्रकट होने के बाद, ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने अपनी-अपनी शक्ति का परीक्षण करने के लिए इसके ऊपर और नीचे की ओर यात्रा की।
  • ब्रह्मा ने स्तंभ के ऊपर की ओर यात्रा शुरू की, यह मानते हुए कि वह इसका अंत ढूंढ़कर शिव की श्रेष्ठता को सिद्ध कर देंगे।
  • विष्णु ने इसके निचले हिस्से को खोजने के लिए यात्रा शुरू की, यह सोचते हुए कि वह इस अग्नि लिंग के निचले भाग में प्रवेश कर सकते हैं, और इस तरह से उनकी शक्तियों का प्रमाण देंगे।
  • दोनों ने अपनी यात्रा की, लेकिन वे इस अनंत अग्नि लिंग के अंत तक नहीं पहुँच पाए।
  • वे दोनों ही निराश होकर लौट आए, यह समझते हुए कि वे इस अग्नि लिंग के अंत का पता नहीं लगा सकते, क्योंकि इसका कोई अंत था ही नहीं।

2.4 भगवान शिव की सर्वोच्चता की स्वीकृति

  • ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने जब अपनी यात्रा में असफलता देखी, तो उन्हें यह महसूस हुआ कि इस अग्नि लिंग का कोई अंत नहीं है।
  • उन्होंने यह स्वीकार किया कि यह निश्चित रूप से भगवान शिव का अद्वितीय रूप है।
  • इस प्रकार, दोनों देवताओं ने भगवान शिव की सर्वोच्चता को स्वीकार किया।
  • इस घटना से यह प्रमाणित हो गया कि भगवान शिव ही ब्रह्मांड के वास्तविक कारण, पालनकर्ता और संहारक हैं, और उनका रूप ब्रह्मा और विष्णु से परे है।

ॐ (ओंकार) और वेदों की उत्पत्ति

अग्नि लिंग से ॐ (ओंकार) की उत्पत्ति हुई, जिसे सृष्टि के संपूर्ण रहस्य और ब्रह्मांड के आद्य तत्व के रूप में माना जाता है। ॐ को भगवान शिव के स्वरूप का प्रतीक माना जाता है और इसे शुद्ध आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है। यह केवल एक ध्वनि नहीं है, बल्कि यह पूरे ब्रह्मांड की ऊर्जा का स्रोत है, जो हर वस्तु में व्याप्त है।

इसके साथ ही, वेदों की उत्पत्ति भी इस अग्नि लिंग से मानी जाती है। वेद, जो कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव के ज्ञान के स्रोत हैं, उनका प्रसार इस अग्नि लिंग के माध्यम से हुआ। वेदों में भगवान शिव का अंश समाहित है, और यही वेद हमारे जीवन के मार्गदर्शन के रूप में प्रस्तुत होते हैं। शिव के आदर्श और उनकी महिमा वेदों के भीतर प्रकट होती है।

3. ब्रह्मांड की रचना और पद्म कल्प की कथा

इसमें विष्णु, ब्रह्मा, और शिव के अद्वितीय संबंध और ब्रह्मांड के निर्माण के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है। इस खंड में ब्रह्मा और विष्णु की महान स्तुति के माध्यम से शिव की महिमा और ब्रह्मांड की रचना की प्रक्रिया का उद्घाटन किया गया है। आइए इसे और अधिक विस्तार से समझते हैं।

3.1 पद्म कल्प क्या है?

पद्म कल्प एक सृष्टि के चक्र का नाम है, जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति, उसकी संरचना, पालन, संहार, और पुनः रचना का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसे पद्म पुराण में प्रमुख रूप से वर्णित किया गया है, और यह ब्रह्मांड की सृष्टि, स्थिति, और संहार के चक्रीय प्रक्रिया को दर्शाता है। प्रत्येक कल्प में ब्रह्मा ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं, और फिर यह समाप्त हो जाता है, ताकि नया ब्रह्मांड फिर से उत्पन्न हो सके।

पद्म कल्प में विष्णु, ब्रह्मा, और शिव की भूमिका को स्पष्ट किया गया है, और यह दर्शाया गया है कि ये तीनों देवता मिलकर ब्रह्मांड की सृष्टि, पालन और संहार की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं।

3.2 ब्रह्मांड की रचना

पद्म कल्प के अनुसार, जब सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा को सृष्टि का कार्य सौंपा गया, तो उन्होंने शिव की उपासना की और विष्णु की मदद से ब्रह्मांड का निर्माण प्रारंभ किया। यह एक दिव्य चक्र है, जिसमें सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार लगातार चलता रहता है।

शिव की महिमा और स्तुति

  • ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान शिव की स्तुति करके उनसे सृष्टि की रचना के लिए आशीर्वाद लिया।
  • शिव का रूप शाश्वत, अजेय, और अपरिभाषित है, और उनका तात्त्विक स्वरूप निराकार और साकार दोनों रूपों में उपस्थित है।
  • उन्होंने शिव से ब्रह्मांड की संरचना की अनुमति मांगी और उनसे शरण में आने का आशीर्वाद लिया।

विष्णु ने शिव की स्तुति करते हुए कहा:

"आप ही सृष्टि के रचनाकार हैं, आप ही सब कुछ के कारण हैं, आपके बिना इस ब्रह्मांड का कोई अस्तित्व नहीं है। आपकी महिमा अपरिमित है।"

ब्रह्मा ने भी उसी प्रकार शिव की महिमा को स्वीकार करते हुए कहा:

"आप ही ब्रह्मांड के रचनाकार हैं, आप ही इसके पालक हैं, आप ही इसके संहारक हैं। आप ही हर एक रूप में प्रकट होते हैं।"

विष्णु और ब्रह्मा का योगदान

  • विष्णु, जो इस सृष्टि के पालनकर्ता माने जाते हैं, भगवान शिव से शक्ति प्राप्त करके ब्रह्मांड के पालन का कार्य करते हैं।
  • ब्रह्मा, जो सृष्टि के रचनाकार हैं, भगवान शिव की स्तुति करके अपने कार्य को अंजाम देते हैं।
  • दोनों देवताओं ने मिलकर ब्रह्मांड की संरचना को साकार रूप में व्यक्त किया और उसकी कार्यप्रणाली को सुनिश्चित किया।

शिव की उपस्थिति

  • शिव की उपस्थिति और महिमा ने ब्रह्मांड के निर्माण को सुनिश्चित किया।
  • शिव का साकार रूप ही सृष्टि के स्थायित्व का आधार है।
  • उनका रूप जब तक ब्रह्मांड में व्याप्त है, तब तक सृष्टि अस्तित्व में रहती है।

4. ब्रह्मांड की संरचना

पद्म कल्प के अनुसार, ब्रह्मांड की संरचना इस प्रकार की जाती है:

ब्रह्मांड के विभिन्न लोक

ब्रह्मांड को सात भव्य लोकों में विभाजित किया गया है:

  • भूलोक – जहां पृथ्वी और मनुष्य निवास करते हैं।
  • भवर्लोक – यह संसार से ऊँचा है, लेकिन दिव्य नहीं है।
  • स्वर्गलोक – देवताओं का निवास स्थान, जिसमें इन्द्र का शासन है।
  • महातल – राक्षसों और असुरों का लोक।
  • तलातल – जो निचले लोकों में आता है।
  • पाताल – नागों और असुरों का निवास स्थान।
  • सत्यमलोक – परमपिता परमेश्वर ब्रह्मा का निवास, यह सबसे ऊँचा और शुद्धतम स्थान है।

ब्रह्मांड के सात समुद्र

इन लोकों के बीच सात समुद्र हैं, जो नदियों, जल, और विविध पदार्थों से भरे हैं। ये समुद्र प्रतीकात्मक रूप से विभिन्न ब्रह्मांडीय ऊर्जा और सृजन शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दुनिया के तीन भाग

ब्रह्मांड का यह विस्तार तीन प्रमुख भागों में बांटा जाता है:

  • स्थूल जगत – यह भौतिक और आकारिक दुनिया है।
  • सूक्ष्म जगत – यह मानसिक और आध्यात्मिक लोक है।
  • ब्रह्मा लोक – यह ब्रह्मा का स्थान है, जो विश्व के परम सत्ता का प्रतीक है।

4.1 शिव और ब्रह्मा का अद्वितीय संबंध

पद्म कल्प में भगवान शिव को सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च सत्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान विष्णु और ब्रह्मा दोनों ही शिव की महिमा को स्वीकार करते हुए उनके मार्गदर्शन में काम करते हैं। शिव को न केवल ब्रह्मांड के संहारक और रचनाकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है, बल्कि उनकी उपस्थिति से सृष्टि की सम्पूर्णता सुनिश्चित होती है। उनके बिना कोई भी ब्रह्मांडीय क्रिया सम्भव नहीं है।

4.2 महर्षि दधीचि की कथा

महर्षि दधीचि और शिव भक्ति की महिमा के संदर्भ में लिंग पुराण में दी गई कथा विशेष महत्व रखती है, क्योंकि यह शैव धर्म की श्रेष्ठता को स्पष्ट करती है और भगवान शिव की भक्ति की महिमा को उजागर करती है। इस कथा में महर्षि दधीचि का अत्यधिक महत्व है, जो भगवान शिव के परम भक्त के रूप में पहचाने जाते हैं।

महर्षि दधीचि का समर्पण

  • महर्षि दधीचि एक महान तपस्वी और विद्वान ऋषि थे, जिनका समर्पण भगवान शिव के प्रति अतुलनीय था।
  • जब देवताओं और दानवों के बीच युद्ध हुआ और दानवों ने देवताओं को हराया, तो देवता विष्णु के पास गए और सहायता की प्रार्थना की।
  • भगवान विष्णु ने देवताओं को आश्वासन दिया और दधीचि की हड्डियों से एक शक्तिशाली वज्र (आयुध) बनाने का निर्णय लिया, जिससे वे दानवों को पराजित कर सकें।
  • महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दान दीं, और उनका यह योगदान देवताओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था।

यह घटना भगवान शिव की भक्ति और शैव धर्म की महिमा को और स्पष्ट करती है। दधीचि का समर्पण शिव के प्रति और उनका त्याग शिव भक्ति के उच्चतम रूप का प्रतीक था।

4.3 लिंग पुराण में दधीचि की भूमिका

लिंग पुराण में एक और कथा का वर्णन है, जिसमें महर्षि दधीचि और दुर्वासा ऋषि के बीच एक दिलचस्प संघर्ष होता है।

  • भागवत पुराण में दुर्वासा और अंबरीष के बीच की कथा दी गई है, जिसमें दुर्वासा ऋषि को विष्णु के चक्र से बचाव नहीं मिलता, और अंत में उन्हें उसकी महिमा का अनुभव होता है।
  • लेकिन लिंग पुराण में यह कथा विपरीत रूप में प्रस्तुत की गई है।
  • विष्णु ने दधीचि पर अपना चक्र (सुदर्शन चक्र) छोड़ा, लेकिन यह निष्प्रभावी हो गया।
  • इसका कारण था भगवान शिव की भक्तिपूर्ण उपस्थिति और उनके शिष्य दधीचि का विश्वास।
  • जब विष्णु का चक्र दधीचि पर आया, तो वह किसी भी प्रकार से प्रभावी नहीं हो सका, और भगवान शिव की शक्ति के कारण चक्र असफल हो गया।

इस कथा के माध्यम से शिव की भक्ति की महिमा और शैव धर्म की श्रेष्ठता को विशेष रूप से दर्शाया गया है। जब कोई भक्त पूर्ण समर्पण और विश्वास के साथ शिव की उपासना करता है , तो भगवान शिव उसे सर्वशक्तिमान बनाते हैं, और कोई भी शस्त्र या आयुध उसका कुछ नहीं कर सकता। भगवान शिव का यह स्वरूप शाश्वत और अजेय है, जो न केवल शारीरिक बल से, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति से भी जीतते हैं।

4.2 शैव धर्म की श्रेष्ठता

लिंग पुराण में यह कथा इस उद्देश्य से प्रस्तुत की गई है कि शैव धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया जाए। महर्षि दधीचि की भक्ति ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवान शिव के भक्तों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। चाहे अन्य देवता किसी भी शक्ति से सम्पन्न हों, जब शिव का आशीर्वाद और भक्तिपूर्वक श्रद्धा प्राप्त होती है, तब कोई भी शक्ति निष्क्रिय हो जाती है।

  • यह कथा शैव धर्म की विश्वसनीयता और अजेयता को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है।
  • इसका यह संदेश भी है कि भगवान शिव के भक्तों की शक्ति निरंतर बढ़ती है, और उनके लिए भगवान शिव का आशीर्वाद और प्रेम सर्वोपरि होता है।

5. वैवस्वत मन्वंतर और वंशावली

वैवस्वत मन्वंतर और वंशावली का विवरण लिंग पुराण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि इसमें प्राचीन समय के राजाओं की वंशावली का उल्लेख किया गया है और श्रीकृष्ण के समय तक के राजाओं की कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

5.1 वैवस्वत मन्वंतर का महत्व

मन्वंतर वे कालखंड होते हैं, जिनमें प्रत्येक मनु (सृष्टि के कर्ता) का राज्य रहता है। एक मन्वंतर के अंतर्गत सृष्टि की पुनरावृत्ति होती है, और मनु के नेतृत्व में एक नई सृष्टि का प्रारंभ होता है।

  • वैवस्वत मन्वंतर को विशेष महत्व दिया गया है, क्योंकि यही वर्तमान मन्वंतर है, जिसमें हम रह रहे हैं।
  • वैवस्वत मनु के समय में सृष्टि के विविध प्रबंध और उनके अंतर्गत होने वाली घटनाओं का वर्णन लिंग पुराण में किया गया है।
  • यह मन्वंतर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें मानवता के अस्तित्व से जुड़ी कई प्रमुख घटनाएँ घटित हुईं:
    • महाभारत का युद्ध
    • श्रीकृष्ण का अवतार
    • अन्य कई ऐतिहासिक घटनाएँ
  • इस मन्वंतर का वर्णन अन्य पुराणों के साथ मेल खाता है, जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि विभिन्न पुराणों में घटनाओं और कथाओं को किस प्रकार दोहराया जाता है।

5.2 श्रीकृष्ण तक के राजाओं की वंशावली

लिंग पुराण में वैवस्वत मन्वंतर के अंतर्गत राजाओं की वंशावली का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें विशेष रूप से श्रीकृष्ण के समय तक के प्रमुख राजाओं का विवरण दिया गया है, जैसे:

  • सूर्य वंश:
    • इसमें सूर्य वंश के राजाओं का उल्लेख किया गया है, जो भगवान सूर्य के वंशज माने जाते हैं।
    • सूर्य वंश में प्रमुख राजा इक्ष्वाकु थे, जिनके वंश में कई महान राजा हुए।
    • श्रीराम का जन्म भी इसी वंश में हुआ था।
  • चंद्र वंश:
    • चंद्र वंश के राजाओं का भी वर्णन मिलता है, जिसमें राजा चंद्र से लेकर उनके वंशजों की कहानी है।
    • इस वंश के प्रमुख राजा पुश्य थे, और उनके वंश में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
  • राजा युधिष्ठिर और महाभारत:
    • वैवस्वत मन्वंतर में महाभारत की प्रमुख घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है।
    • इसमें राजा युधिष्ठिर और उनके वंशजों की वंशावली का भी विवरण है, जिनकी कथा अन्य पुराणों और महाभारत में विस्तार से दी गई है।
  • श्री कृष्ण का अवतार:
    • लिंग पुराण में श्री कृष्ण के अवतार का भी विशेष उल्लेख किया गया है।
    • यह कथा अन्य पुराणों में भी मिलती है, लेकिन लिंग पुराण में इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया है कि कृष्ण ने संसार की बुराइयों को समाप्त करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था।
  • कृष्ण का यदुवंश:
    • श्री कृष्ण के यदुवंश का भी विस्तार से वर्णन है, जिसमें कृष्ण के कुल और उनके वंशजों के बारे में बताया गया है।
    • यह वंश प्रसिद्ध था और इसके शासक अपने साहस, बल और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे।

5.3 घटनाएँ और कथाएँ

लिंग पुराण में वैवस्वत मन्वंतर के दौरान घटित कई महत्वपूर्ण घटनाओं और कथाओं का पुनरावलोकन किया गया है। इनमें प्रमुख घटनाएँ और कथाएँ निम्नलिखित हैं:

  • दृष्टि और शिष्य संबंध:
    • इसमें उन महान योगियों और संतों का भी वर्णन है जिन्होंने इस मन्वंतर में तपस्या की और सत्य की खोज की।
    • इसके माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि युगों के अनुसार साधक और उनके गुरुओं का संबंध समय और स्थान से परे होता है।
  • धर्म, कर्म और पुनः जन्म:
    • वैवस्वत मन्वंतर में धर्म, कर्म, और पुनः जन्म की अवधारणा पर भी चर्चा की गई है।
    • इसमें यह बताया गया है कि एक व्यक्ति के कर्म उसके भविष्य को निर्धारित करते हैं, और अपने अच्छे कर्मों से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • विभिन्न योद्धाओं और उनकी वीरता:
    • इस खंड में कई योद्धाओं के योगदान का उल्लेख है, जिन्होंने अपनी वीरता और बलिदान से इतिहास को गौरवान्वित किया।
    • इसमें प्रमुख रूप से महाभारत के महान योद्धाओं जैसे अर्जुन और भीम का उल्लेख है।

6. शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या

लिंग पुराण में शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या का विशेष महत्व है, क्योंकि यह लिंग पूजा के गहरे आध्यात्मिक अर्थ को समझने में मदद करती है। इसमें लिंग पूजा को बाहरी और आंतरिक रूप में विभाजित किया गया है, जिससे यह दर्शाया गया है कि यह केवल एक बाहरी पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गहरी मानसिक और आत्मिक साधना का हिस्सा है।

6.1 लिंग पूजा का बाहरी रूप (अज्ञानी लोगों द्वारा पूजा)

  • अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा पूजा:
    • इस स्तर पर लोग शिव लिंग को केवल भौतिक रूप (जैसे पत्थर या लकड़ी का लिंग) मानकर उसकी पूजा करते हैं।
    • उनका ध्यान केवल बाहरी रूप पर केंद्रित होता है, और वे लिंग को भगवान शिव का एक मूर्त रूप मानते हैं।
    • यह पूजा उन भक्तों के लिए होती है, जो अभी आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर पर नहीं पहुँचे हैं।
  • प्रतीक के रूप में पूजा:
    • यह पूजा शिव के दैवीय प्रतिनिधित्व के रूप में होती है, जिसमें लिंग को भगवान शिव के साथ जोड़कर पूजा जाता है।
    • इसका उद्देश्य आंतरिक शुद्धता और ईश्वर के प्रति श्रद्धा को बढ़ाना है।

6.2 लिंग पूजा का आंतरिक रूप (ज्ञानी लोगों द्वारा पूजा)

  • ज्ञानी व्यक्तियों का दृष्टिकोण:
    • जिन व्यक्तियों ने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, वे लिंग को केवल एक बाहरी रूप नहीं मानते, बल्कि इसे आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में देखते हैं।
    • वे शिव लिंग को परम सत्य का प्रतीक मानते हैं, जो ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त है।
  • आध्यात्मिक ध्यान और आत्मा में शिव का अनुभव:
    • आंतरिक रूप से पूजा करने वाले लोग अपने ध्यान और साधना द्वारा शिव के दिव्य स्वरूप का अनुभव करते हैं।
    • उनके लिए, लिंग पूजा केवल एक बाहरी प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मा में शिव के तत्व को अनुभव करने का माध्यम है।

6.3 लिंग पूजा का प्रतीकात्मक महत्व

  • शिव लिंग के माध्यम से शिव का साक्षात्कार:
    • लिंग को शिव के अनंत और निराकार स्वरूप का प्रतीक माना जाता है।
    • यह ब्रह्मांड के सृजन, पालन, और संहार का प्रतिनिधित्व करता है।
  • शैव परंपरा में प्रतीकात्मक पूजा का महत्व:
    • शैव परंपरा में लिंग पूजा केवल एक बाहरी कर्मकांड नहीं, ब ल्कि गहरी आध्यात्मिक साधना का माध्यम मानी जाती है।
    • इसका वास्तविक उद्देश्य शिव तत्व को अनुभव करना और आत्मिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना है।

4. आध्यात्मिक ऊँचाई की ओर प्रगति

  • बाहरी पूजा से आंतरिक साधना की ओर यात्रा:
    • शुरुआत में भक्त बाहरी पूजा करता है, लेकिन जैसे-जैसे उसकी आध्यात्मिक समझ विकसित होती है, वह लिंग के भौतिक रूप से हटकर उसे एक आध्यात्मिक प्रतीक मानने लगता है।
    • इस तरह, लिंग पूजा केवल एक साधारण पूजा तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह आत्मज्ञान प्राप्त करने और दिव्यता का अनुभव करने का एक तरीका बन जाती है।
  • आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक:
    • लिंग पूजा की यह यात्रा आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक है। यह भक्ति से ज्ञान की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाती है।
    • जैसे-जैसे साधक का ध्यान गहराता है, वह बाहरी रूपों को छोड़कर केवल आध्यात्मिक अनुभव और स्वयं के भीतर शिव के तत्व को अनुभव करता है।

7. लिंग पुराण में योग और शिव साधना

लिंग पुराण में योग और शिव साधना का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह शैव परंपरा में योग की महिमा और शिव साधना से जुड़ी विधियों को विस्तार से समझाता है। यह पुराण योग के विभिन्न प्रकारों और साधनाओं के माध्यम से परम शिव तक पहुँचने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन प्रदान करता है।

7.1 योग के प्रकार

लिंग पुराण में योग के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और शिव के साक्षात्कार के मार्ग पर प्रेरित करते हैं।

  • हठ योग:
    • हठ योग में शरीर और मन के संयम के द्वारा साधक आत्मा के शुद्धिकरण की ओर अग्रसर होते हैं।
    • इसमें विशेष श्वास नियंत्रण (प्राणायाम), आसन, और मुद्रा का अभ्यास किया जाता है।
    • हठ योग के अभ्यास से शरीर को स्वस्थ रखा जाता है और मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है, जिससे ध्यान और साधना में सहायता मिलती है।
  • राज योग:
    • राज योग साधना के उच्चतम रूपों में से एक है, जिसमें साधक अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करके ध्यान की गहरी अवस्था में प्रवेश करता है।
    • इसमें साधक अपने भीतर के ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और परमात्मा से एकाकार होने की कोशिश करता है।
    • राज योग की साधना में मन की शांति और नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जिससे ध्यान की अवस्था को बढ़ाया जाता है।
  • भक्ति योग:
    • भक्ति योग में साधक भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम को ध्यान में रखते हुए साधना करता है। शिव भक्ति में भक्ति योग की विशेष भूमिका है।
    • इसमें साधक भगवान शिव के मंत्रों का जाप, पूजा, और अन्य धार्मिक कृत्यों के माध्यम से अपने मन को शिव में रमा देता है।
    • भक्ति योग में ध्यान और प्रेम के साथ शिव के दिव्य रूप का ध्यान किया जाता है , जिससे आत्मा और भगवान के बीच एक गहरा संबंध बनता है।
  • ज्ञान योग:
    • ज्ञान योग का उद्देश्य ज्ञान के माध्यम से आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है।
    • इसमें साधक तत्त्व का विश्लेषण करता है और अहंकार को समाप्त करने के लिए गहरी सोच और ध्यान साधना करता है।
    • इसमें ब्रह्म ज्ञान के माध्यम से शिव के वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है।

2. शैव योग और ध्यान साधना

लिंग पुराण में शैव योग और ध्यान साधना का विशेष उल्लेख किया गया है। शैव योग का उद्देश्य भगवान शिव को आत्मा का सत्य स्वरूप मानकर उनकी उपासना करना है।

a. शिव ध्यान साधना

  • शिव ध्यान में साधक अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करके भगवान शिव के निराकार रूप का ध्यान करता है।
  • इसका उद्देश्य शिव के साथ एकात्मता और आत्मा की दिव्यता को महसूस करना है।
  • ध्यान की विधि में:
    • श्वास पर नियंत्रण
    • मस्तिष्क को शांत करना
    • भगवान शिव के मंत्रों का जाप
    शामिल होता है।
  • इस साधना से शरीर और मन दोनों को शांति मिलती है, जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है।

b. शिव योग और ध्यान का लक्ष्य

  • शिव योग का मुख्य उद्देश्य शिव का साक्षात्कार करना है, जो आत्मा और परमात्मा का एकाकार रूप है।
  • इसमें व्यक्ति अपनी आत्मा में शिव के तत्व का अनुभव करता है और आत्मा के अद्वितीय सत्य को पहचानता है।
  • ध्यान साधना में साधक निम्न मंत्रों का जाप करता है:
    • सोऽहम् (I am That)
    • शिवोऽहम् (I am Shiva)
    जिससे आत्मा शिव के साथ जुड़ने का प्रयास करती है।

3. योग के माध्यम से परम शिव तक पहुँचना

लिंग पुराण में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि योग के माध्यम से ही परम शिव तक पहुँचा जा सकता है।

a. योग का माध्यम

  • योग साधना, चाहे वह हठ योग हो, राज योग हो, या भक्ति योग हो, सभी साधनाएँ एक ही उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करती हैं – परम शिव का साक्षात्कार
  • इन योगों के माध्यम से साधक अपने भीतर के शिवत्व को पहचानता है।
  • आत्मा और परमात्मा के बीच का अंतर मिटाकर एकाकारता की स्थिति में पहुँचता है।

b. आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग

  • योग साधना एक आध्यात्मिक यात्रा की तरह होती है, जिसमें साधक अपनी चेतना को उच्चतम स्तर तक उठाता है।
  • इस यात्रा में साधना के मार्ग पर चलकर साधक अपने भीतर छिपे हुए शिव तत्व का साक्षात्कार करता है।
  • शिव को आत्मा का वास्तविक रूप मानते हुए, योग साधक स्वयं को शिव के रूप में महसूस करता है और आत्मज्ञान की अवस्था में पहुँचता है।

4. साधना का महत्व और अभ्यास

लिंग पुराण के अनुसार, योग साधना का अभ्यास जीवन के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। यह आत्मा को शुद्ध करने, मन को नियंत्रित करने, और परम शिव तक पहुँचने का सर्वोत्तम तरीका है।

  • प्रत्येक व्यक्ति के लिए साधना का स्तर अलग हो सकता है:
    • कुछ लोग बाहरी साधनाओं (जैसे पूजा-पाठ) से शुरुआत करते हैं।
    • अन्य लोग ध्यान, प्राणायाम और ध्यान साधना से शुरुआत करते हैं।
  • ध्यान और साधना की नियमितता से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है।
  • योग और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति परम शिव के साक्षात्कार में सफलता प्राप्त करता है।

लिंग पुराण का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1. अन्य पुराणों से तुलना

  • यह पुराण अन्य पुराणों के विपरीत अधिक अनुष्ठान-प्रधान और तांत्रिक प्रभाव वाला ग्रंथ है।
  • इसमें शिव के अवतारों की संख्या को विष्णु के अवतारों के समकक्ष रखने का प्रयास किया गया है।
  • महाभारत, विष्णु पुराण और भागवत पुराण में शिव की भूमिका गौण है, लेकिन इस ग्रंथ में शिव को सर्वोच्च स्थान दिया गया है।

2. रचना काल और ऐतिहासिक प्रमाण

  • इस ग्रंथ का सटीक काल निर्धारित करना कठिन है, क्योंकि इसमें कई पुरानी कथाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
  • शिव के अवतारों और योग पर विशेष बल देने के कारण, यह ग्रंथ 8वीं से 9वीं शताब्दी के बीच रचित माना जाता है।
  • यह ग्रंथ अध्यात्म, तंत्र, योग और शिव साधना से जुड़े शिक्षकों के प्रभाव को दर्शाता है।

निष्कर्ष

  • लिंग पुराण मुख्य रूप से शिव भक्ति, योग, और तांत्रिक अनुष्ठानों पर केंद्रित है।
  • यह शिव की सर्वोच्चता को स्थापित करने का प्रयास करता है।
  • इसमें अग्नि लिंग की कथा सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में प्रस्तुत की गई है।
  • शिव लिंग की आध्यात्मिक व्याख्या इसे अन्य पुराणों से अलग बनाती है।
  • इस ग्रंथ में योग और ध्यान को विशेष स्थान दिया गया है।

क्या यह केवल शिव पूजा पर केंद्रित ग्रंथ है?

  • ❖ यह ग्रंथ केवल शिव की भक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि योग, ध्यान, तंत्र और ब्रह्मांडीय तत्वों की व्याख्या भी करता है।
  • ❖ यह अद्वैत और शैव दर्शन के मिश्रण को प्रस्तुत करता है, जो इसे विशिष्ट बनाता है।

क्या लिंग पुराण वास्तव में तांत्रिक ग्रंथ है?

  • ❖ इसमें तांत्रिक साधनाओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन यह पूरी तरह तंत्र पर आधारित नहीं है।
  • ❖ यह मुख्य रूप से एक आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें लिंग पूजा की रहस्यमय व्याख्या दी गई है।


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