कूष्मांडा देवी का नाम तीन शब्दों से मिलकर बना है – कु (थोड़ा) + ऊष्म (ऊर्जा/ताप) + अंड (अंडा)। इसका अर्थ सहज रूप में “छोटी सी ऊर्जा से ब्रह्मांडीय अंड का सृजन करने वाली” देवी है। ऐसी मान्यता है कि अपने मंद हास्य (हल्की मुस्कान) द्वारा देवी ने ब्रह्मांड रूपी अंड की रचना की, जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था। अतः उन्हें सृष्टि की आदिस्वरूपा कहा जाता है।
कूष्मांडा को अष्टभुजा धारी देवी के रूप में दर्शाया जाता है – इनके आठ हाथ हैं जिनमें कमंडल, धनुष-बाण, कमल, अमृतकलश, चक्र, गदा आदि हैं तथा एक हाथ में जपमाला है। इनका वाहन सिंह है। वे अपने भीतर समस्त ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं। नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की आराधना होती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभ में चारों ओर अंधकार एवं शून्यता थी। तब माता आदिशक्ति ने कूष्मांडा के रूप में प्रकट होकर एक हल्का हास्य किया, जिसकी ऊष्मा से एक छोटा सा अंड (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। यही ब्रह्मांडीय अंड आगे चलकर पूरे विश्व का आधार बना। इसीलिए देवी को सृष्टि की उत्पत्ति कर्त्री कहा जाता है।
देवी भगवत पुराण में वर्णन आता है कि कैसे आदिशक्ति ने सूर्यमंडल के भीतर निवास कर अपनी ऊर्जा से सूर्य सहित समस्त ग्रह-नक्षत्रों को तेज प्रदान किया। देवी कूष्मांडा ही एकमात्र शक्ति हैं जो सूर्यलोक के भीतरी भाग में निवास करने की क्षमता रखती हैं।
उनके भीतर समाहित प्रकाश से ही दसों दिशाएँ उज्ज्वलित हुईं। कूष्मांडा देवी ने अपने इस सृजनकारी रूप से त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, महेश – को सृष्टि रचना, पालन एवं संहार के दायित्व सौंपे। उन्हें अष्टसिद्धि और नौ निधियों की दाता भी माना गया है।
देवी के इस अवतार का मुख्य उद्देश्य था सृजन – यानी ब्रह्मांड की रचना करना और जीवन का संचार करना। माना जाता है कि माँ कूष्मांडा ने अपने उदर से ही समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है, इसलिए उन्हें जगत जननी के रूप में पूजा जाता है।
कूष्मांडा देवी की पूजा करने से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। चूँकि यह स्वरूप सृष्टि की आरंभिक ऊर्जा का प्रतीक है, अतः इनकी आराधना से आध्यात्मिक साधक का अनाहत चक्र जाग्रत होता है, जिससे उसमें प्रेम, करुणा व स्वास्थ्य के गुण विकसित होते हैं।
शास्त्रों में वर्णन है कि माँ कूष्मांडा सूर्य मंडल में निवास करती हैं और उनके तेज से ही सूर्य प्रकाशमान होता है। अतः उनको “सूर्य स्वरों की अधिष्ठात्री” कहना अनुचित नहीं होगा। यह भी विश्वास है कि उनकी हंसी द्वारा उत्पन्न ऊर्जा ही संसार के जीवों का पोषण करती है।
देवी अपने भक्तों के कष्ट हरण करने वाली माँ के रूप में जानी जाती हैं – उन्हें असुरों का विनाश करने वाली नहीं बल्कि दुःखों का विनाश करने वाली कहा जाता है। उनके मंद हास्य से प्रस्फुटित सृष्टि बताती है कि ईश्वर रचना करने के लिए मात्र एक पल भर की इच्छा पर्याप्त है।
कूष्मांडा माता अष्टभुजी हैं, अतः उनकी आठ भुजाएँ आठ दिशाओं में व्याप्त उनकी शक्ति की द्योतक हैं। भक्तजन चौथे नवरात्र पर उन्हें मालपुए का भोग अर्पित करते हैं, जो उनकी प्रसन्नता का कारक है।
देवी की कृपा से अल्प प्रयास में बड़े फल की प्राप्ति हो सकती है – जैसे माँ ने थोड़ी सी ऊर्जा से पूरी सृष्टि रच डाली। इनकी पूजा करने से निरोगता और समृद्धि का वर मिलता है तथा आत्मविश्वास बढ़ता है।
माँ कूष्मांडा का प्रसिद्ध मंदिर उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के घाटमपुर क्षेत्र में स्थित है। इसके अलावा कई शक्तिपीठों में उन्हें विराजमान माना जाता है। उनके स्वरूप की आराधना विशेषकर सूर्य उपासना से भी जुड़ी है, इसलिए कुछ लोग उदयकालीन सूर्य को कूष्मांडा का प्रतीक मानकर अर्घ्य देते हैं।
शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि देवी कूष्मांडा का निवास स्थान सूर्य लोक है। वर्तमान मान्यता अनुसार, देवी सदा सूर्य के भीतर-बाहर हर जगह विद्यमान हैं और अपनी ऊर्जा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित रखती हैं।
इस प्रकार भक्त मानते हैं कि दिन का प्रकाश स्वयं कूष्मांडा देवी का प्रत्यक्ष रूप है। एक अन्य विश्वास के अनुसार, माँ कूष्मांडा अपने सुप्त रूप में वैकुण्ठ में विष्णु भगवान के हृदय में विराजमान थीं और सृष्टि की इच्छा होने पर उन्होंने प्रसन्न मुख से हँसकर ब्रह्माण्ड की रचना की।
फलतः वे अब पूरे ब्रह्मांड में विस्तारित हो चुकी हैं। उनका हर रूप प्रकृति के किसी ना किसी अंग में देखा जा सकता है। भक्त जब चौथे नवरात्र को उनका ध्यान करते हैं, तो कहते हैं कि सूर्य में स्थित कूष्मांडा देवी उनके जीवन से अज्ञान रूपी अंधकार को हटा देती हैं और ज्ञान का प्रकाश भरती हैं।
कूष्मांडा देवी का नाम तीन शब्दों से मिलकर बना है – कु (थोड़ा) + ऊष्म (ऊर्जा/ताप) + अंड (अंडा)। इसका अर्थ सहज रूप में “छोटी सी ऊर्जा से ब्रह्मांडीय अंड का सृजन करने वाली” देवी है। ऐसी मान्यता है कि अपने मंद हास्य (हल्की मुस्कान) द्वारा देवी ने ब्रह्मांड रूपी अंड की रचना की, जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था। अतः उन्हें सृष्टि की आदिस्वरूपा कहा जाता है।
कूष्मांडा को अष्टभुजा धारी देवी के रूप में दर्शाया जाता है – इनके आठ हाथ हैं जिनमें कमंडल, धनुष-बाण, कमल, अमृतकलश, चक्र, गदा आदि हैं तथा एक हाथ में जपमाला है। इनका वाहन सिंह है। वे अपने भीतर समस्त ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं। नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की आराधना होती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभ में चारों ओर अंधकार एवं शून्यता थी। तब माता आदिशक्ति ने कूष्मांडा के रूप में प्रकट होकर एक हल्का हास्य किया, जिसकी ऊष्मा से एक छोटा सा अंड (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। यही ब्रह्मांडीय अंड आगे चलकर पूरे विश्व का आधार बना। इसीलिए देवी को सृष्टि की उत्पत्ति कर्त्री कहा जाता है।
देवी भगवत पुराण में वर्णन आता है कि कैसे आदिशक्ति ने सूर्यमंडल के भीतर निवास कर अपनी ऊर्जा से सूर्य सहित समस्त ग्रह-नक्षत्रों को तेज प्रदान किया। देवी कूष्मांडा ही एकमात्र शक्ति हैं जो सूर्यलोक के भीतरी भाग में निवास करने की क्षमता रखती हैं।
उनके भीतर समाहित प्रकाश से ही दसों दिशाएँ उज्ज्वलित हुईं। कूष्मांडा देवी ने अपने इस सृजनकारी रूप से त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, महेश – को सृष्टि रचना, पालन एवं संहार के दायित्व सौंपे। उन्हें अष्टसिद्धि और नौ निधियों की दाता भी माना गया है।
देवी के इस अवतार का मुख्य उद्देश्य था सृजन – यानी ब्रह्मांड की रचना करना और जीवन का संचार करना। माना जाता है कि माँ कूष्मांडा ने अपने उदर से ही समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है, इसलिए उन्हें जगत जननी के रूप में पूजा जाता है।
कूष्मांडा देवी की पूजा करने से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। चूँकि यह स्वरूप सृष्टि की आरंभिक ऊर्जा का प्रतीक है, अतः इनकी आराधना से आध्यात्मिक साधक का अनाहत चक्र जाग्रत होता है, जिससे उसमें प्रेम, करुणा व स्वास्थ्य के गुण विकसित होते हैं।
शास्त्रों में वर्णन है कि माँ कूष्मांडा सूर्य मंडल में निवास करती हैं और उनके तेज से ही सूर्य प्रकाशमान होता है। अतः उनको “सूर्य स्वरों की अधिष्ठात्री” कहना अनुचित नहीं होगा। यह भी विश्वास है कि उनकी हंसी द्वारा उत्पन्न ऊर्जा ही संसार के जीवों का पोषण करती है।
देवी अपने भक्तों के कष्ट हरण करने वाली माँ के रूप में जानी जाती हैं – उन्हें असुरों का विनाश करने वाली नहीं बल्कि दुःखों का विनाश करने वाली कहा जाता है। उनके मंद हास्य से प्रस्फुटित सृष्टि बताती है कि ईश्वर रचना करने के लिए मात्र एक पल भर की इच्छा पर्याप्त है।
कूष्मांडा माता अष्टभुजी हैं, अतः उनकी आठ भुजाएँ आठ दिशाओं में व्याप्त उनकी शक्ति की द्योतक हैं। भक्तजन चौथे नवरात्र पर उन्हें मालपुए का भोग अर्पित करते हैं, जो उनकी प्रसन्नता का कारक है।
देवी की कृपा से अल्प प्रयास में बड़े फल की प्राप्ति हो सकती है – जैसे माँ ने थोड़ी सी ऊर्जा से पूरी सृष्टि रच डाली। इनकी पूजा करने से निरोगता और समृद्धि का वर मिलता है तथा आत्मविश्वास बढ़ता है।
माँ कूष्मांडा का प्रसिद्ध मंदिर उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के घाटमपुर क्षेत्र में स्थित है। इसके अलावा कई शक्तिपीठों में उन्हें विराजमान माना जाता है। उनके स्वरूप की आराधना विशेषकर सूर्य उपासना से भी जुड़ी है, इसलिए कुछ लोग उदयकालीन सूर्य को कूष्मांडा का प्रतीक मानकर अर्घ्य देते हैं।
शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि देवी कूष्मांडा का निवास स्थान सूर्य लोक है। वर्तमान मान्यता अनुसार, देवी सदा सूर्य के भीतर-बाहर हर जगह विद्यमान हैं और अपनी ऊर्जा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित रखती हैं।
इस प्रकार भक्त मानते हैं कि दिन का प्रकाश स्वयं कूष्मांडा देवी का प्रत्यक्ष रूप है। एक अन्य विश्वास के अनुसार, माँ कूष्मांडा अपने सुप्त रूप में वैकुण्ठ में विष्णु भगवान के हृदय में विराजमान थीं और सृष्टि की इच्छा होने पर उन्होंने प्रसन्न मुख से हँसकर ब्रह्माण्ड की रचना की।
फलतः वे अब पूरे ब्रह्मांड में विस्तारित हो चुकी हैं। उनका हर रूप प्रकृति के किसी ना किसी अंग में देखा जा सकता है। भक्त जब चौथे नवरात्र को उनका ध्यान करते हैं, तो कहते हैं कि सूर्य में स्थित कूष्मांडा देवी उनके जीवन से अज्ञान रूपी अंधकार को हटा देती हैं और ज्ञान का प्रकाश भरती हैं।