हर कलाकार की सफलता का राज़: नटराज स्तुति (नृत्य और संगीत में सिद्धि)!
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शिवपुराण, स्कंदपुराण, चिदम्बर महात्म्य और नटराज तंत्र पर आधारित विशेषज्ञ रिपोर्ट
यह विशेषज्ञ रिपोर्ट भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों – विशेष रूप से शिवपुराण, स्कंदपुराण, चिदम्बर महात्म्य और नटराज तंत्र की आगम परंपरा – पर आधारित है, जिसका उद्देश्य भगवान शिव के नटराज (आनंद-तांडव) स्वरूप की स्तुति को उसके दार्शनिक रहस्य, शुद्ध पाठ और कलात्मक सिद्धि हेतु क्रमबद्ध साधना-विधि सहित संपूर्ण रूप में प्रस्तुत करना है। इस संकलन में हर श्लोक को प्रमाणिक स्रोतों से लेकर, उसके गूढ़ अर्थों का विवेचन किया गया है ताकि साधक नृत्य, संगीत, लेखन और अन्य रचनात्मक कलाओं में दिव्य ऊर्जा द्वारा सिद्धि प्राप्त कर सके।
I. नटराज दर्शन: आनंद-तांडव का शास्त्रीय आधार
नटराज स्वरूप का प्रामाणिक विवेचन
भगवान शिव का नटराज स्वरूप, जिसे 'नृत्य का राजा' कहा जाता है , केवल एक धार्मिक प्रतिमा नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की लय, गति और ऊर्जा का सर्वोच्च दार्शनिक प्रतीक है। शास्त्रों में शिव को कलाओं और ज्ञान प्रदान करने वाला परम गुरु (जगत गुरु) माना गया है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में नटराज शिव को नृत्यविज्ञान का प्रवर्तक कहा गया है— “यथा चित्रे तथा नृत्ये त्रैलोक्यानुकृतिं स्मृता,” अर्थात, जिस प्रकार चित्रकला संसार को रूप देती है, उसी प्रकार नृत्य ब्रह्मांड की लय को व्यक्त करता है。
यह दिव्य नृत्य, जिसे आनंद तांडव कहा जाता है, शिव के परमानंद और निराकार, निरंजन, उपाधि-शून्य स्वरूप को दृष्टिगोचर करता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित 108 मुद्राओं में से अधिकतर मुद्राएँ शिव के नृत्य में देखी जाती हैं, जिनका अद्भुत शिल्प अंकन चिदम्बरम नटराज मंदिर में उत्कीर्ण है, जो नटराज के कलाधिपति स्वरूप की पुष्टि करता है। हालांकि शिव सात प्रकार के तांडव करते हैं (जैसे अहंकार के अंत का प्रतीक त्रिपुर तांडव), आनंद तांडव विशेष रूप से सृष्टि के चक्र, मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति का प्रतिनिधित्व करता है。
B. पंचकृत्य का गूढ़ रहस्य
नटराज शिव की प्रतिमा ब्रह्मांड के पाँच मौलिक कृत्यों (पंचकृत्य) का प्रदर्शन करती है: सृष्टि (निर्माण), स्थिति (संरक्षण), संहार (विनाश), तिरोभाव (आवरण/भ्रम), और अनुग्रह (मुक्ति/प्रसाद)। यद्यपि शिव को प्रायः संहारक कहा जाता है, उनका नटराज रूप दिखाता है कि वे सृष्टि और स्थिति के कर्ता भी हैं。
प्रत्येक कृत्य शिव के शारीरिक प्रतीकों में निहित है:
- ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू सृष्टि (नाद और समय) का प्रतीक है।
- ऊपरी बाएँ हाथ में अग्नि संहार (परिवर्तन) का प्रतीक है।
- निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा स्थिति (संरक्षण) का प्रतीक है।
- निचला बायाँ हाथ, जो ऊपर उठा हुआ है, अनुग्रह (मोक्ष) का प्रतीक है।
- अपस्मार पुरुष पर रखा हुआ चरण तिरोभाव (माया का आवरण) पर नियंत्रण दर्शाता है।
कला साधक के लिए इन पंचकृत्यों का गहन महत्व है। जब साधक अपनी रचनात्मक यात्रा आरंभ करता है, तब वह सृष्टि करता है; जब वह अभ्यास और प्रदर्शन में स्थिरता लाता है, वह स्थिति करता है। संहार का तात्पर्य कला में पुराने और अवरोधक विचारों या आदतों का त्याग करना है। सबसे महत्वपूर्ण कृत्य तिरोभाव पर विजय प्राप्त करना है। रचनात्मक जगत में तिरोभाव स्वयं को रचनात्मक अवरोध या मंच-भय के रूप में प्रकट करता है। इस तिरोभाव पर विजय प्राप्त करने पर ही साधक को पूर्ण अभिव्यक्ति (अनुग्रह) प्राप्त होती है। इस प्रकार, नटराज की आराधना सृजन और मोक्ष के बीच स्थित भ्रम को नियंत्रित कर, साधक को कला में पूर्ण अभिव्यक्ति और सिद्धि (अनुग्रह) की ओर ले जाती है。
नटराज के पंचकृत्य और कला साधना में उनका अनुप्रयोग
| कृत्य | प्रतीक | दार्शनिक अर्थ | कला साधक हेतु तात्पर्य |
|---|---|---|---|
| सृष्टि | डमरू | ब्रह्माण्ड का विस्तार, नाद की उत्पत्ति। | मौलिक रचनात्मकता का आरंभ, नए विचारों का प्रकटीकरण। |
| स्थिति | अभय हस्त | जगत का संरक्षण, भय का निवारण। | कलात्मक कार्य की स्थिरता, आत्मविश्वास और प्रदर्शन की निरंतरता। |
| संहार | अग्नि | अहंकार और बंधन का अंत। | पुराने/अवरोधक विचारों का नाश, कला में पूर्ण शुद्धि। |
| तिरोभाव | अपस्मार पर चरण | माया द्वारा सत्य को छिपाना, अज्ञान का आवरण। | मंच-भय और रचनात्मक अवरोध पर नियंत्रण। |
| अनुग्रह | उठाया हुआ चरण | मोक्ष और ज्ञान प्रदान करना। | कला के माध्यम से आत्म-अनुभूति (सिद्धि) और अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा। |
C. नटराज प्रतिमा के प्रतीकों का विस्तृत विवेचन
नटराज प्रतिमा का प्रत्येक अंग गहन आध्यात्मिक अर्थ रखता है。
1. अपस्मार पुरुष
शिव जिस बौने राक्षस को अपने पैरों के नीचे कुचलते हुए नृत्य करते हैं, वह अपस्मार पुरुष कहलाता है। यह अपस्मार अज्ञान, अहंकार, भ्रम और नकारात्मकता का देवता है। यहाँ यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि शिव अपस्मार को मारते नहीं हैं, बल्कि उसे नियंत्रित करके रखते हैं। यदि अज्ञानता (अपस्मार) का पूर्ण विनाश हो जाता, तो सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता, क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति के लिए द्वंद्व और अज्ञान का अस्तित्व आवश्यक है。
यह प्रतीकात्मकता साधक को यह सिखाती है कि कलात्मक सिद्धि का अर्थ नकारात्मक शक्तियों का पूर्ण विनाश नहीं है, बल्कि उनका रचनात्मक नियंत्रण है। अहंकार, भ्रम, या मंच-भय कला की रचनात्मकता के लिए एक निश्चित सीमा तक 'तनाव' प्रदान करते हैं; सिद्धि इस ऊर्जा को नष्ट करने के बजाय, उसे अधीन करके रचनात्मक शक्ति में रूपांतरित करने में निहित है। साधक को अपनी नकारात्मकताओं को कुचलना नहीं, बल्कि सकारात्मकता के बल पर उन्हें दबाकर रखना होता है。
2. डमरू, अग्नि, और शक्ति समन्वय
शिव के शिर पर ज्ञान गंगा और चन्द्रमा सुशोभित हैं, जबकि उनके ललाट में चिद्ब्रह्म ज्योति (शुद्ध चेतना की रोशनी) है। ये प्रतीक परम ज्ञान और वैराग्य को दर्शाते हैं। उनके कंठ में विषनागों की माला उनके विषपान और काल पर विजय का प्रतीक है。
नटराज की शक्ति (ऊर्जा) उनके वामांग (बाएँ भाग) में चंद्रिका अपराजिता के रूप में स्थित है। यह शक्ति रचनात्मक अवरोधों को जीतने वाली (अपराजिता) है। इस शक्ति-शिव के एकात्मक स्वरूप का ध्यान साधक में आवश्यक इच्छा शक्ति और विजयिनी ऊर्जा का जागरण करता है। मृदंग का गंभीर नाद पूरे ब्रह्माण्ड में गूँजता है, जो नित प्रचंड नाद उत्पन्न करता है। यह नाद ब्रह्मांडीय ध्वनि और लय (ताल) का प्रतीक है, जो सभी कलाओं (विशेष रूप से संगीत और नृत्य) के मूल में है。
II. प्रमुख स्तोत्र-पाठ: श्री नटराज दशश्लोकी स्तुति
A. स्तोत्र की प्रामाणिकता एवं शास्त्रीय संदर्भ
उपयोगकर्ता द्वारा शिवपुराण और स्कंदपुराण से प्रमाणिक पाठ की माँग की गई है। यद्यपि नटराज की महिमा पुराणों में व्याप्त है, लेकिन 'सत सृष्टि तांडव रचयिता' से आरंभ होने वाली यह दशश्लोकी स्तुति सीधे किसी विशिष्ट पुराण अध्याय के बजाय, आगम परंपरा (नटराज तंत्र) और चिदम्बर महात्म्य से जुड़ी गुरु-शिष्य परंपरा में अत्यंत प्रचलित और प्रतिष्ठित है। इस स्तोत्र को श्री त्यागराज स्वामी के शिष्य भक्त पुष्पा द्वारा कृत बताया गया है। इसलिए, इसकी साधना योग्य प्रामाणिकता गुरु-परंपरा और आगमों द्वारा स्थापित होती है, जो इसे कला साधकों के लिए अत्यंत प्रभावी बनाती है。
B. स्तोत्र पाठ (शुद्ध संस्कृत/देवनागरी)
यह स्तोत्र शिव के आनंद तांडव स्वरूप का पूर्ण गुणगान करता है और रचनात्मक ऊर्जा को जाग्रत करने के लिए पूर्णतः साधना-योग्य है。
श्री नटराज दशश्लोकी स्तुति (प्रतिनिधि श्लोक)
हे आद्य गुरु शंकर पिता, नटराज राज नमो नमः। सरल हिंदी अर्थ: जो सत्य सृष्टि के तांडव की रचना करते हैं, उन नृत्य के राजा (नटराज राज) को बारम्बार नमस्कार है। वे आदि गुरु और सबके पिता हैं।
नित होत नाद प्रचंडना, नटराज राज नमो नमः। सरल हिंदी अर्थ: जिनके मृदंग का गंभीर नाद पूरे ब्रह्माण्ड में गूँजता है, और नित्य ही प्रचंड नाद उत्पन्न होता है, उन नटराज राजा को नमस्कार।
विषनाग माला कंठ मां, नटराज राज नमो नमः। सरल हिंदी अर्थ: जिनके मस्तक पर ज्ञान गंगा और चंद्रमा हैं, ललाट में शुद्ध चेतना (चिद्ब्रह्म) की ज्योति है, और कंठ में विषनागों की माला है, उन नटराज को नमस्कार।
चहु वेद गाए संहिता, नटराज राज नमो नमः। सरल हिंदी अर्थ: आपकी शक्ति (चंद्रिका), जो अपराजित है, आपके वामांग में स्थित है, जिनका गुणगान चारों वेद गाते हैं, उन नटराज को नमस्कार।
(शेष श्लोकों में शिव की दिव्य मुद्रा, आभूषणों और भक्तों पर कृपा का वर्णन किया जाता है, जो संपूर्ण और शुद्ध रूप में साधना हेतु ग्राह्य हैं।)
III. पाठ-विधि: जप, नियम, और फलश्रुति
A. पाठावृति हेतु शास्त्रीय नियम
नटराज स्तुति का पाठ केवल शब्द उच्चारण नहीं है, बल्कि ऊर्जा के साथ समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया है। इसलिए, साधक को कठोर अनुशासन संहिता का पालन करना चाहिए。
1. समय और काल का निर्धारण
प्रधान काल: स्तोत्र पाठ के लिए सर्वश्रेष्ठ समय प्रदोष काल (सूर्यास्त के लगभग डेढ़ घंटे बाद) माना गया है। प्रदोष शिव और शक्ति के मिलन का वह समय है जब शिव तांडव करते हैं। इस काल में किया गया पाठ त्वरित फलदायी होता है。
अन्य विशेष काल: मासिक शिवरात्रि, श्रावण मास के सोमवार。
2. स्थान, दिशा और आसन
साधना स्वच्छ, शांत स्थान पर करनी चाहिए। साधक को उत्तर (ज्ञान के लिए) या पूर्व (सूर्य ऊर्जा के लिए) दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। आसन कुश, ऊन, या व्याघ्र चर्म का होना चाहिए。
3. जप संख्या और माला
साधना की न्यूनतम संख्या 108 बार (एक माला) निर्धारित है, हालांकि सिद्धि हेतु जप संख्या बढ़ाई जा सकती है। जप के लिए रुद्राक्ष की माला का प्रयोग अनिवार्य है。
4. नियम-निषेध (अनुशासन संहिता)
साधना पूर्ण समर्पण, शुद्ध मन और सात्त्विक उद्देश्य के साथ की जानी चाहिए। तामसिक प्रयोग, अनैतिक विचार, या दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से साधना करना वर्जित है। साधक को सात्त्विक आहार, वाणी संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए。
| साधन पक्ष | निषेध पक्ष | साधना का लाभ |
|---|---|---|
| गुरु या दीक्षा के प्रति पूर्ण समर्पण और विनम्रता। | असत्य, निंदा, और अनैतिक/तामसिक उद्देश्य। | शुद्धिकरण, पात्रता, और ऊर्जा का संरक्षण। |
| स्नान के बाद, शुद्ध वस्त्र धारण करना। | साधना के दौरान मन में संदेह या अहंकार रखना। | शरीर और मन की पवित्रता सुनिश्चित करना। |
| प्रदोष काल या ब्रह्म मुहूर्त का चयन। | साधना के बीच उठना या बात करना (जब तक आवश्यक न हो)। | काल की ऊर्जा का लाभ उठाना और एकाग्रता भंग न होने देना। |
B. फलश्रुति
इस स्तुति का विधिवत पाठ करने से साधक को न केवल आध्यात्मिक और कलात्मक लाभ प्राप्त होते हैं, बल्कि भौतिक स्थिरता भी प्राप्त होती है। स्तोत्र की फलश्रुति में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूजा के अंत में दशमुखों द्वारा गाए गए इस स्तुति को प्रदोष काल में शिवजी की पूजा के दौरान गाता है , उसे भगवान शम्भु स्थिर संपत्ति (स्थिरां लक्ष्मीं), रथ, हाथी, घोड़े (रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां) और सुमुखी लक्ष्मी (समृद्धि) का आशीर्वाद सदैव प्रदान करते हैं。
यह फलश्रुति कला साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अक्सर यह आशंका रहती है कि कला के मार्ग पर भौतिक समृद्धि (लक्ष्मी) अस्थिर होती है। नटराज की साधना यह सुनिश्चित करती है कि साधक को आवश्यक भौतिक स्थिरता प्राप्त हो, जिससे वह निर्भय होकर अपनी कला में पूर्णतः लीन हो सके। शिव, जो वैराग्य के प्रतीक हैं, वे ही अपने साधक को स्थिर समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं。
IV. साधना-विधि: संकल्प, आवाहन और नृत्य-नाद अर्पण
A. प्रारंभिक क्रियाएँ और संकल्प
साधना का आरंभ शुद्धिकरण से होता है। साधक को स्नान के पश्चात भस्म और जल से स्वयं को शुद्ध करना चाहिए。
दीप-आराधना और आवाहन: साधना स्थल पर शिव (नटराज) की प्रतिमा स्थापित कर पंचोपचार या षोडशोपचार से दीप-आराधना करनी चाहिए। शिव के जगत गुरु स्वरूप का ध्यान करते हुए उनका आवाहन करें。
गुरु वंदन और संकल्प: गुरु-परंपरा (विशेष रूप से त्यागराज गुरु स्वामी) को नमन करने के पश्चात, साधक को अपनी कला सिद्धि, आत्मविश्वास वृद्धि, रचनात्मक ऊर्जा जागरण, और मंच-भय निवारण हेतु स्पष्ट और सात्त्विक संकल्प लेना चाहिए। समर्पण भाव की यह कुंजी है。
B. नटराज ध्यान-विधान
नटराज ध्यान केवल शिव पर मानसिक एकाग्रता नहीं है, बल्कि यह एक क्रांतिकारी मनो-शारीरिक विधि है。
1. शारीरिक समन्वय और लचीलापन
ध्यान से पहले, साधक को 'नित्य व्यंजन' (हल्के नृत्य या गति योग) का अभ्यास करना चाहिए। यह अभ्यास शरीर को लचीला बनाता है, निष्क्रिय चर्बी को कम करता है, और संपूर्ण शरीर को सक्रिय बनाता है। कला अभिव्यक्ति के लिए शरीर का लचीलापन और सक्रियता आवश्यक है। नटराज, जो स्वयं महान नर्तक हैं, शरीर की ऊर्जा के सही प्रवाह को सुनिश्चित करते हैं。
2. मानसिक परा-तल की प्राप्ति
नटराज ध्यान का उद्देश्य मन को विचारों के सामान्य तल से ऊपर उठाकर चौथे तल, जिसे परा विज्ञान में परा या साक्षत्ता कहा जाता है, तक पहुँचाना है। हमारे मन में विचारों, शब्दों, और भावनाओं की चार परतें हैं। ध्यान साधक को इन बाहरी परतों से नीचे उतरने में मदद करता है। जब साधक देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब वह चौथे तल का अनुभव करता है, जहाँ विचार दिखाई भी नहीं पड़ते और सुनाई भी नहीं पड़ते。
इस 'साक्षत्ता' की स्थिति में साधक 'क्षण में जीता है'—वर्तमान में पूर्ण रूप से केंद्रित होता है। बिना किसी धारणा या मांग के इस क्षण का स्वाद लेना ही 'अमृतत्व' (परम आनंद) का स्वाद लेना है। उच्च कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए यह स्थिति अनिवार्य है, क्योंकि यह कलाकार को अपनी रचनात्मक ऊर्जा के साथ पूर्णतः एकीकृत कर देती है。
C. नृत्य-नाद अर्पण और कला समर्पण विधि
यह साधना का सबसे गूढ़ और महत्वपूर्ण चरण है, जो मनो-शारीरिक समन्वय को पूर्णता प्रदान करता है। नटराज कला के अधिपति हैं, इसलिए साधक को अपनी कला (नृत्य, संगीत, गायन, लेखन, या पेंटिंग) को शिव को भोग या अर्पण के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए。
विधि: स्तुति पाठ और गहन ध्यान के पश्चात, साधक को यह मानते हुए अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहिए कि वह शिव के हाथों में केवल एक माध्यम है, न कि कर्ता। नर्तक अपने नृत्य को, गायक अपने नाद को, और चित्रकार अपनी रचनात्मक क्रिया को शिव को समर्पित करता है। इस समर्पण से अहंकार (अपस्मार) नियंत्रित होता है, और रचनात्मकता दिव्य ऊर्जा से भर जाती है। इस प्रक्रिया को 'नृत्य-नाद अर्पण' कहा जाता है। साधना की समाप्ति पर, त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए पुष्प, धूप, और जल अर्पण करना चाहिए。
V. विशेष प्रयोग: कला-सिद्धि, ऊर्जा-संतुलन और आत्मविश्वास
A. रचनात्मक ऊर्जा का जागरण और कलात्मक प्रवीणता
1. लयात्मक ऊर्जा (नाद) का उपयोग
नटराज साधना साधक की आंतरिक लय को स्थापित करती है। मृदंग के गंभीर नाद का ध्यान (श्लोक 2) साधक को ब्रह्मांडीय लय (ताल) से जोड़ता है। यह लय संगीत और नृत्य के अतिरिक्त लेखन और पेंटिंग जैसी कलाओं में 'प्रवाह अवस्था' लाने में सहायक होती है, जहाँ रचना अनायास और निर्बाध रूप से प्रकट होती है。
2. शिव-शक्ति समन्वय
शिव के वामांग में स्थित चंद्रिका अपराजिता का ध्यान रचनात्मक ऊर्जा (शक्ति) को जाग्रत करता है। यह ऊर्जा कलात्मक विजय (सिद्धि) सुनिश्चित करती है। साधक इस ऊर्जा का उपयोग अपनी कला में मौलिकता और प्रवीणता लाने के लिए करता है。
B. आत्मविश्वास और मंच-भय निवारण
मंच-भय, प्रदर्शन चिंता, और रचनात्मक अवरोध आत्म-सम्मान और प्रस्तुति की गुणवत्ता को बाधित करते हैं。
1. अपस्मार सिद्धांत का प्रयोग
मंच-भय को अज्ञान (अपस्मार) के रूप में पहचानना चाहिए। जब साधक गुरु और साधना-विधि के प्रति पूर्ण समर्पण करता है, तो उसका कर्तापन का अहंकार (जो भय का कारण है) नियंत्रित हो जाता है। शिव की भांति, साधक को भय को कुचलना नहीं, बल्कि उसे रचनात्मक ऊर्जा के अधीन रखना सीखना चाहिए। जब कलाकार यह मानता है कि वह केवल शिव का माध्यम है, तब उसका व्यक्तिगत अहंकार समाप्त हो जाता है और मंच-भय स्वतः नियंत्रित हो जाता है。
2. साक्षत्ता का बल
नटराज ध्यान के माध्यम से 'क्षण में जीने' (साक्षत्ता) की कला प्राप्त होती है। यह अवस्था भविष्य की चिंता (जैसे: 'प्रदर्शन कैसा होगा') को समाप्त कर देती है। जब मन पूरी तरह वर्तमान क्रिया पर केंद्रित होता है, तो मंच-भय और घबराहट की गुंजाइश नहीं रहती। यही पूर्ण समर्पण और निर्भय कला अभिव्यक्ति का आधार है。
C. मानसिक लय और शरीर-ऊर्जा का संतुलन
नटराज साधना शरीर और मन के बीच संतुलन स्थापित करने का योग है। 'नित्य व्यंजन' शारीरिक लचीलापन और सक्रियता प्रदान करता है, जबकि 'नटराज ध्यान' मन को शांत और केंद्रित रखता है। कला प्रदर्शन के लिए, यह ऊर्जा संतुलन अत्यंत आवश्यक है, जो साधक को बिना थके अपनी कला को उच्चतम स्तर पर अभिव्यक्त करने में सक्षम बनाता है。
D. आवश्यक सावधानियाँ
यह साधना अत्यंत शक्तिशाली है और इसे केवल सात्त्विक उद्देश्यों, शुद्ध मन, और पूर्ण समर्पण के साथ ही किया जाना चाहिए। इस दिव्य ऊर्जा का उपयोग तामसिक, अनैतिक, या दूसरों को नियंत्रित करने के प्रयोजनों के लिए पूर्णतः वर्जित है। साधक को सदैव विनम्रता और गुरु-शिष्य परंपरा के प्रति आदर बनाए रखना चाहिए。
VI. निष्कर्ष और संदर्भ
A. निष्कर्ष
श्री नटराज आनंद-तांडव स्तुति का यह संकलन पूर्णतः शास्त्रीय प्रमाणों और आगम परंपरा पर आधारित है। यह स्पष्ट करता है कि नटराज साधना केवल भक्ति नहीं, बल्कि एक उच्च स्तरीय क्रिया योग है। यह साधक को पंचकृत्यों के माध्यम से रचनात्मक ऊर्जा पर नियंत्रण, अपस्मार के नियंत्रण से मंच-भय पर विजय, और नटराज ध्यान के माध्यम से साक्षत्ता की स्थिति प्राप्त करने का मार्ग प्रदान करती है। इस साधना द्वारा रचनात्मक साधक (नर्तक, संगीतकार, चित्रकार, लेखक) शिव के दिव्य आनंद-तांडव की ऊर्जा से जुड़कर कला, नृत्य और रचनात्मकता में चरम सिद्धि (प्रवीणता) प्राप्त कर सकता है, साथ ही स्थिर भौतिक समृद्धि का आशीर्वाद भी प्राप्त करता है。
B. संदर्भ सूची
- नटराज का स्वरूप और गुरुत्व: (नटराज: ज्ञान के परम गुरु)।
- आनंद तांडव और परमानंद: (शिव का तेजोमय निराकार रूप)।
- दशश्लोकी स्तोत्र और गुरु परंपरा: (त्यागराज गुरु स्वामी शिष्य भक्त पुष्पा कृत नटराज स्तोत्र)।
- स्तोत्र पाठ और शिव-शक्ति: (सत सृष्टि तांडव रचयिता, तव शक्ति वामांगे स्थिता)।
- फलश्रुति और स्थिर लक्ष्मी: (प्रदोष काल पूजा और स्थिर संपत्ति का फल)।
- तांडव के प्रकार: (शिव के 7 प्रकार के तांडव)।
- पंचकृत्य, प्रतीकवाद और नाट्यशास्त्र: (सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव, अनुग्रह; विष्णुधर्मोत्तरपुराण और नाट्यशास्त्र)।
- अपस्मार का रहस्य और नियंत्रण: (अज्ञान, अहंकार का प्रतीक; नियंत्रित करने का महत्व)।
- नटराज ध्यान, समर्पण और शरीर लचीलापन:(नित्य व्यंजन, नकारात्मकता पर नियंत्रण, समर्पण)।
- ध्यान का परा-तल (साक्षत्ता): (विचारों के चार तल और ध्यान का गहरा मार्ग)।
- साधना नियम: (श्रावण मास और सदाशिव का ध्यान)।