नटराज मूर्ति रहस्य: डमरू, अग्नि और पैरों के नीचे वो 'दानव' किसका प्रतीक है?
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।नटराज मूर्ति का अर्थ: सृष्टि-रहस्य की दिव्य व्याख्या
भगवान नटराज के आनंद-तांडव में छिपे दार्शनिक एवं वैज्ञानिक रहस्य
यह शोध रिपोर्ट भगवान नटराज की मूर्ति, मुद्रा और तांडव के वास्तविक दार्शनिक अर्थ को शैवागमों, उपनिषदों और तांत्रिक दर्शन के आलोक में, पूर्णतः प्रमाणिक एवं संपूर्ण रूप में प्रस्तुत करती है। नटराज, जो 'नृत्य के अधिपति' हैं, उनका स्वरूप केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं है, बल्कि यह परम तत्त्वज्ञान का मूर्त भाष्य है, जो सृष्टि, ऊर्जा, चेतना और ब्रह्मांडीय लय के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करता है।
भाग I: नटराज स्वरूप का शास्त्रीय आधार
1.1 "नृत्य के अधिपति" — नटराज शिव का कॉस्मिक डांस (आनंद-तांडव)
नटराज का नामकरण 'नट' (कला/नृत्य) और 'राज' (अधिपति) के संयोजन से हुआ है, जिसका अर्थ है कलाओं के आधार और सर्वोच्च नर्तक। शिव का यह स्वरूप न केवल काल और स्थान की संपूर्णता को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्थापित करता है कि ब्रह्मांड में व्याप्त सारा जीवन, उसकी गति और कंपन, तथा उससे परे स्थित शून्य की नि:शब्दता—ये सभी शिव में ही निहित हैं। नटराज की स्तुति में उन्हें 'सत सृष्टि तांडव रचयिता' (मौजूदगी के तांडव के निर्माता) कहकर संबोधित किया गया है, जो इस बात का संकेत है कि उनका नृत्य केवल प्रलयंकर नहीं, बल्कि सृजन का मूल आधार है。
नटराज की दार्शनिक परिकल्पना भारतीय आध्यात्मिक दर्शन का शिखर-बिंदु मानी जाती है। विद्वानों ने, विशेष रूप से आनंद केंटिश कुमारस्वामी ने, 1918 में अपने प्रसिद्ध निबंध "The Dance of Shiva" में नटराज की प्रतिमा को "भारत द्वारा निर्मित अब तक की सबसे परिपूर्ण दार्शनिक दृश्य कल्पना" के रूप में प्रस्तुत किया। कुमारस्वामी की यह व्याख्या, भारतीय मूर्तियों को केवल सौंदर्यबोध से निकालकर दार्शनिक गहराई के साथ प्रस्तुत करती है, जिससे यह मूर्ति सृष्टि, संहार, तत्त्वज्ञान और योग के वैश्विक प्रतीक के रूप में स्थापित होती है。
नटराज स्वरूप का आगमिक कालक्रम
नटराज की प्रतीकात्मकता शैव धर्मग्रंथों में सुस्थापित है। इस रूप का उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन ज्ञात ग्रंथ अंशुमद्भेद आगम है, जिसकी रचना लगभग 9वीं शताब्दी ईस्वी में पल्लव वंश के शासनकाल में हुई थी। यह आगमिक ग्रंथ नटराज के पंच-कृत्य (पाँच क्रियाओं) की दार्शनिक अवधारणा का औपचारिक आधार प्रदान करता है। इसी आगमिक परिभाषा के बाद, 10वीं से 13वीं शताब्दी तक शासन करने वाले चोल सम्राटों के काल में नटराज की कांस्य प्रतिमाओं का चरम उत्कर्ष हुआ। यह क्रम दर्शाता है कि आगमिक सिद्धांत (कारण) पहले आया, जिसने बाद में चोल मूर्तिकला (प्रभाव) के माध्यम से इस रूप को भौतिक अभिव्यक्ति प्रदान की, और अंततः यह रूप विश्वव्यापी मेटाफिज़िक्स का प्रतीक बन गया。
1.2 चिदंबरम् (आकाश तत्त्व) में स्थित शिव का नृत्त–नाद स्वरूप
नटराज की पूजा का केंद्रीय स्थान तमिलनाडु में स्थित चिदंबरम् है, जिसे पंच-भूत स्थलों में आकाश तत्त्व का प्रतिनिधि माना जाता है। चिदंबरम् शब्द दो संस्कृत शब्दों से बना है: चित् (चेतना, ज्ञान) और अंबरम् (विशाल, अपरिमित आकाश या अंतरिक्ष)। यह नाम ही इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि शिव का आनंद-तांडव किसी भौतिक स्थान या सीमित काल में नहीं, बल्कि अनंत, अपरिमित चेतना के भीतर हो रहा है。
चिदंबर रहस्य: निराकार ब्रह्म का प्रतीक
चिदंबरम मंदिर के गर्भगृह में, चिदंबर रहस्य के रूप में, एक आवरण (पर्दा) है जिसके पीछे केवल खाली स्थान होता है। यह खालीपन शिव तत्त्व के रूपविहीन, निराकार स्वरूप (निराकार ब्रह्म) का प्रतीक है। शैव सिद्धांत यह मानता है कि शिव, जो परम शांति और आनंद का सिद्धांत हैं, वह जड़ या निष्क्रिय नहीं हैं—वे नृत्य कर रहे हैं। यह नृत्त-नाद स्वरूप, अक्रिय (स्थिर) चेतना (आकाश/अंबरम्) के भीतर सक्रिय (गतिशील) ऊर्जा (नृत्य) के द्वैत और अद्वैत को दर्शाता है। ब्रह्मांडीय गतिविधि (गति) का आधार हमेशा शाश्वत और अपरिवर्तनशील चेतना (शिव) ही होती है, जो आकाश तत्त्व द्वारा दर्शायी जाती है。
दारुकावन में नृत्त-नाद की अनिवार्यता
चिदंबर महात्म्य (12वीं शताब्दी) में वर्णित कथा के अनुसार, शिव ने भिक्षटन और विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर दारुकावन के ऋषियों को यह सिखाने के लिए लीला रची कि दैवीय कृपा (अनुग्रह) के बिना उनका ज्ञान और तपस्या व्यर्थ है। जब ऋषियों ने शिव पर मायावी शक्तियों (बाघ और सर्प) का प्रयोग किया, तो शिव ने उन्हें परास्त किया और अपना कॉस्मिक डांस (तांडव) शुरू किया। यह नृत्य अज्ञान (अपस्मार) के दमन तथा पंच-कृत्य के प्रदर्शन के लिए अनिवार्य था। इस प्रकार, नटराज का नृत्य केवल कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि माया के आवरण को हटाने और अनुग्रह प्रदान करने की एक ईश्वरीय क्रिया है。
भाग II: आनंद-तांडव: पंच-कृत्य का ब्रह्मांडीय लय
नटराज का तांडव सृष्टि के संपूर्ण चक्रीय प्रवाह का प्रदर्शन है, जिसे शैवागमों में पंच-कृत्य (पाँच क्रियाएँ) कहा गया है। यह क्रियाएँ हैं: सृष्टि (सृजन), स्थिति (पालन), संहार (विनाश), तिरोभाव (आवरण/छिपाव) और अनुग्रह (मुक्ति/कृपा)。
2.1 दर्पणात्मक अर्थ: नटराज का नृत्य = पाँच क्रियाओं का प्रतीक
नटराज की प्रतिमा में निहित प्रत्येक प्रतीक इन पाँच ब्रह्मांडीय क्रियाओं से जुड़ा हुआ है:
- सृष्टि : शिव के दाहिने ऊपरी हाथ में डमरू सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है। इसकी ध्वनि नाद या स्पंदन-तरंगें हैं, जिससे जगत का जन्म हुआ。
- स्थिति: दाहिने निचले हाथ में अभय मुद्रा (भयमुक्त करने की मुद्रा) सृष्टि की रक्षा, स्थिरता और निरंतरता का आश्वासन देती है。
- संहार: बाएँ ऊपरी हाथ में धारण की गई अग्नि, प्रलय और विनाश का प्रतिनिधित्व करती है। यह संहार केवल भौतिक समाप्ति नहीं, बल्कि ऊर्जा का अनिवार्य रूपांतरण है, जिसके बाद पुनर्सृजन होता है。
- तिरोभाव: यह क्रिया माया या आवरण (अज्ञानता का पर्दा) है, जो साधक को सत्य से दूर रखती है। इसका प्रतीक शिव की बाईं भुजा का घूमना या भुजंग वलय माना जाता है。
- अनुग्रह : बाएँ निचले हाथ की मुद्रा, जो उनके उठे हुए चरण (कुंचित पाद) की ओर इंगित करती है, मोक्ष और दैवीय कृपा का मार्ग है। यह वह कृपा है, जिसके द्वारा आत्मा माया के बंधन से मुक्त होती है。
इन पांचों क्रियाओं की दार्शनिक अवधारणा की पुष्टि संत मणिक्कवाचकर के 9वीं शताब्दी में रचित तमिल भजन संकलन तिरुवासगम में होती है। तिरुवासगम में तिल्लई (चिदंबरम्) के नर्तक (कूत्तन) की स्तुति की गई है, जो अग्नि के साथ नृत्य करते हुए स्वर्ग, पृथ्वी और सब कुछ बनाते और नष्ट करते हैं。
| पंच-कृत्य (क्रिया) | नटराज स्वरूप में प्रतीक | दार्शनिक अर्थ (वेदांत/शैव सिद्धांत) | शास्त्रीय स्रोत (संदर्भ) |
|---|---|---|---|
| सृष्टि | दाहिने ऊपरी हाथ में डमरू | ध्वनि (नाद) से जगत की उत्पत्ति; आदि स्पंदन। | अंशुमद्भेद आगम |
| स्थिति | दाहिने निचले हाथ की अभय मुद्रा | संरक्षण, रक्षा और संतुलन। | शैव सिद्धांत |
| संहार | बाएँ ऊपरी हाथ में अग्नि | रूपांतरण, परिवर्तन, लय (प्रलय)। | तिरुवासगम ; आनंद कुमारस्वामी |
| तिरोभाव | बाईं भुजा का घूमना/माया | माया और आवरण (अज्ञानता) का छिपाव। | आनंद कुमारस्वामी |
| अनुग्रह | उठा हुआ चरण (कुंचित पाद) | मोक्ष, मुक्ति, अज्ञान पर विजय से प्राप्त कृपा। | अंशुमद्भेद आगम |
2.2 तांडव = ब्रह्मांडीय ऊर्जा का लय–ताल
तांडव ब्रह्मांडीय ऊर्जा का वह लय-ताल है, जो सृष्टि की अनवरत गति का प्रतीक है। यह नृत्य इस सत्य को उद्घाटित करता है कि जीवन, नृत्य की भांति ही, स्थायी नहीं है, बल्कि निरंतर परिवर्तनशील है। यह गति और कंपन ही वह ऊर्जा है जिसमें ब्रह्मांड का सारा जीवन निहित है。
दार्शनिक रूप से, तांडव सृजन और विनाश के चक्र को दर्शाता है। यह न केवल विनाश (प्रलयंकर का नृत्य) है, बल्कि एक चक्रीय प्रक्रिया है जहाँ तांडव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है, और फिर पुन: सृजित होता है। इस निरंतर रूपांतरण में, अग्नि (संहार) द्वारा पुराने विचारों, स्वरूपों और ऊर्जाओं का विलय होता है, जो डमरू (सृष्टि) के माध्यम से नए आरंभ के लिए मार्ग प्रशस्त करता है。
नटराज की यह छवि पदार्थ और ऊर्जा के शाश्वत होने तथा निरंतर रूपांतरण के आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ एक गहन दार्शनिक समानता रखती है। यह ब्रह्मांडीय लय, जो सृष्टि के स्पंदन को दर्शाती है, आधुनिक भौतिकी की अवधारणाओं जैसे ब्रह्मांड के विस्तार और कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड से मिलती-जुलती है, जो यह प्रमाणित करती है कि ब्रह्मांड गतिशील और ऊर्जा से भरा हुआ है。
भाग III: मूर्ति में निहित दार्शनिक और वैज्ञानिक संकेत
नटराज की प्रतिमा का प्रत्येक अंग चेतना और ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं के मूलभूत नियमों को दर्शाता है。
3.1 अग्नि (दाहिना हाथ) – संहार, परिवर्तन और ऊर्जा-रूपांतरण
शिव के ऊपरी दाहिने हाथ में स्थित अग्नि (ज्वाला) संहारक ऊर्जा का प्रतीक है। शैव सिद्धांत में, संहार का अर्थ केवल ध्वंस नहीं है, बल्कि यह वह शक्ति है जो एक स्वरूप को नष्ट करके उसे दूसरे स्वरूप में रूपांतरित करती है। यह निरंतर परिवर्तनशील भौतिक जगत की अस्थिरता (अनित्य) को दर्शाता है। अग्नि वह शक्ति है जो पुराने और अनावश्यक को जलाकर शुद्ध करती है, जिससे नया जीवन या सृजन संभव हो पाता है。
यद्यपि आनंद तांडव प्रायः आनंदमय होता है, तांडव का एक पहलू प्रलयंकर (विनाशक) नृत्य भी है, जिसे परम पुरुष के क्रोध की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है। यह नृत्य प्रकृति में भयंकर उथल-पुथल लाता है, जैसे कि जलवायु परिवर्तन और समुद्री स्तर का बढ़ना, जो आर्थिक प्रतिस्पर्धा और पर्यावरण प्रदूषण का परिणाम है। यह दर्शाता है कि जब प्राकृतिक नियम टूटते हैं, तो संहार की ऊर्जा सक्रिय होती है, जो बड़े पैमाने पर परिवर्तन (रूपांतरण) के लिए अनिवार्य है。
3.2 डमरू (बायाँ हाथ) – सृष्टि की स्पंदन-तरंगें
डमरू (ऊपरी बायाँ हाथ) सृष्टि और नाद-ब्रह्म (ध्वनि से जन्मी सृष्टि) का प्रतीक है। डमरू से उत्पन्न होने वाला गंभीर नाद ब्रह्मांड की आदि स्पंदन-तरंगें हैं, जिससे सृष्टि का जन्म हुआ। तांत्रिक ग्रंथों में यह नाद नाद-ब्रह्म के रूप में जाना जाता है, जो ध्वनि से जन्मी सृष्टि का द्योतक है。
डमरू का आकार, जो मध्य में संकरा और किनारों पर विस्तृत होता है, अनंतता के प्रतीक जैसा दिखता है, जो ब्रह्मांड की अपरिमित प्रकृति और निरंतरता को दर्शाता है। यह वह कॉस्मिक ध्वनि है जो भौतिक पदार्थ के रूप में प्रकट होने से पहले ऊर्जा के स्पंदन के रूप में मौजूद थी。
3.3 अपस्मार-दैत्य – अज्ञान/अहंकार का दमन
नटराज के चरणों के नीचे कुचला हुआ बौना दैत्य अपस्मार है। अपस्मार अज्ञान (अविद्या), अहंकार (अहं), और सांसारिक इच्छाओं का प्रतीक है। शिव द्वारा उस पर पाद रखना इस बात का दार्शनिक संकेत है कि चेतना का उत्थान और मोक्ष (मुक्ति) केवल तभी संभव है जब साधक अपने अहंकार और अज्ञान को दबा दे। यह मुद्रा साधक को आत्म-नियंत्रण और अहंकार-विलय की अनिवार्यता सिखाती है。
जब तक मनुष्य इच्छाओं (अपस्मार) को अपने ऊपर हावी होने देता है, वह संकट में रहता है। आनंद का नृत्य (आनंद तांडव) तभी प्राप्त होता है जब व्यक्ति इच्छाओं के ऊपर नृत्य करता है, अर्थात उन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है。
3.4 अर्ध-वृत ज्योति (नृत्य-वलय) – ब्रह्मांड का ऊर्जा-चक्र
नटराज को घेरने वाली आग की लपटों का अर्ध-वृत्त, जिसे प्रभा-मंडल या नृत्य-वलय कहते हैं, ब्रह्मांड की सीमा का प्रतीक है। यह वलय, काल (समय) और अंतरिक्ष की परिधि को दर्शाता है, जिसके भीतर सारा जीवन—उसकी गति और कंपन—निहित है。
शिव इस वलय के केंद्र में नृत्य करते हैं, जो इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि वे ब्रह्मांडीय सीमाओं (काल और गति) के भीतर होने वाली सभी क्रियाओं के स्रोत हैं, फिर भी वे स्वयं इन सीमाओं से परे (आकाश तत्त्व में) स्थित हैं। यह वलय निरंतर ऊर्जा चक्र और ब्रह्मांड के निरंतर विस्तार का भी संकेत देता है。
3.5 उर्ध्व पद्मासन मुद्रा – सृष्टि की उत्कर्ष-ऊर्जा
नटराज का उठा हुआ (कुंचित) बायाँ पाद मोक्ष के मार्ग और सृष्टि की उत्कर्ष-ऊर्जा का दार्शनिक संकेत है。
बायाँ हाथ उठा हुआ चरण की ओर इंगित करता है, जिसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं—यह मोक्ष उनके चरणों में ही है। आध्यात्मिक रूप से, यह उर्ध्व चेता (उच्च चेतना) होने की आवश्यकता को दर्शाता है। शिव अपने उठाए हुए पैर से भक्त को यह संकेत देते हैं कि वे मुक्ति के लिए तैयार हैं, मानो वे पहले ही भक्त की ओर एक कदम ले चुके हैं। यह मुद्रा दर्शाती है कि चेतना का उत्थान नृत्य के अंतिम लक्ष्य, यानी अनुग्रह (कृपा), की ओर ले जाता है。
भाग IV: नटराज तंत्र: साधना और सिद्धि की विधियाँ
नटराज तंत्र और योगिक पद्धतियाँ साधक को डमरू के नाद से पैदा हुई सृष्टि के स्रोत में वापस विलीन होने का मार्ग सिखाती हैं। यह साधना शिवागमों, नाद उपनिषद और हठ योग प्रदीपिका पर आधारित है。
4.1 नटराज = नाद-ब्रह्म (ध्वनि से जन्मी सृष्टि)
उपनिषद कहते हैं कि सच्ची साधना बाहरी अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि भीतर उतरती है और आत्मा तथा ब्रह्म के साथ सीधा संबंध स्थापित करती है। इसी साधना को नाद साधना या नादानुसंधान कहा गया है。
नाद उपनिषद के अनुसार, जब साधक चित्त को स्थिर करता है, तो वह अपने भीतर उठने वाली अनाहत ध्वनि (अनस्ट्रक साउंड) को सुनता है। यह ध्वनि केवल शब्द नहीं है, बल्कि चेतना का मूल स्वरूप है। चूंकि ब्रह्मांड की सृष्टि डमरू के नाद से हुई (सृष्टि), इसलिए साधक नाद साधना के माध्यम से ही अपनी चेतना को वापस स्रोत (ब्रह्म) में विलीन कर सकता है。
4.2 तांडव = जीवन की अनवरत गति और अहंकार-विलय
तांत्रिक दर्शन में, नटराज साधना का उद्देश्य साधक के जीवन में स्नेह और सकारात्मक क्रोध (ऊर्जा का सृजनात्मक रूपांतरण) के बीच संतुलन बनाना है। तांडव का आध्यात्मिक अर्थ आंतरिक परिवर्तन और अहंकार का विलय है। आनंद तांडव की स्थिति जीवन की अनवरत गति, सक्रियता और नवनिर्माण का संकेत है。
- अहंकार पर विजय: अपस्मार पर पाद रखने का अर्थ है अहंकार और अज्ञान से मुक्ति। केवल जब व्यक्ति संसार के आकर्षण (वैराग्य) से मुक्त होता है और इच्छाओं पर नृत्य करता है, तभी आंतरिक आनंद (आनंद तत्त्व) जागृत होता है。
- सृजनात्मकता की सिद्धि: नटराज साधना को सृजनात्मकता की साधना कहा जाता है। जब तक साधक जीवन में आनंद तांडव जैसी मानसिक स्थिति (सृजनात्मक ऊर्जा की चरम अवस्था) प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक कोई भी नवनिर्माण या रचनात्मकता संभव नहीं है。
4.3 पूजा-विधि और साधना: नाद–योग, लय–योग और कला–साधना की शास्त्रीय विधियाँ
शिवागम परंपरा में नाद-योग (नादानुसंधान) को समाधि का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया गया है। भगवान शिव (सदाशिव) ने हजारों लय योगों का वर्णन किया है, जिनमें नादानुसंधान को समाधि (लय) का सर्वश्रेष्ठ मार्ग माना गया है。
लय योग और नादानुसंधान
लय की परिभाषा: लय का शाब्दिक अर्थ है घुलना या विलय होना। यह मन (चित्त) और प्राण (जीवन शक्ति) का वह विघटन है, जिससे साधक को मुक्ति और परमानंद प्राप्त होता है。
योगिक पदानुक्रम: हठ योग प्रदीपिका के अनुसार, मन इंद्रियों का स्वामी है, श्वास मन का स्वामी है, लय श्वास का स्वामी है, और लय नाद पर निर्भर करता है。
नाद की प्रक्रिया: नादानुसंधान की प्रक्रिया में, साधक चेतन रूप से मस्तिष्क केंद्रों, तंत्रिका तंत्र और चेतना केंद्रों को अचेतन की स्थिति में लाता है। जैसे मधुमक्खी फूल की गंध की परवाह किए बिना शहद पीती है, उसी तरह चित्त इंद्रिय सुखों की इच्छा किए बिना नाद से जुड़ जाता है。
नाद की चार शास्त्रीय अवस्थाएँ
नाद की साधना चार चरणों में विकसित होती है, जिससे मन उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है और अंततः सभी भौतिक धारणाओं से शुद्ध हो जाता है:
| लय योग/नादानुसंधान की अवस्था | ध्वनि का स्वरूप | योगिक उपलब्धि | शास्त्रीय स्रोत (संदर्भ) |
|---|---|---|---|
| 1. वैखरी | वाचिक, श्रव्य/उत्पादित ध्वनि। | मन एकाग्रता; प्रत्याहार की शुरुआत। | हठ योग प्रदीपिका |
| 2. मध्यमा | फुसफुसाहट; मानसिक/सूक्ष्म ध्वनि। | इंद्रियों से चित्त का प्रत्याहार। | नाद तंत्र |
| 3. पश्यंती | आंतरिक स्पंदन/सूक्ष्म ध्वनि (घंटी, वीणा, शंख)। | अनाहत चक्र में प्रवेश; चित्त का लय में स्थिर होना। | नाद उपनिषद; योगतारवली |
| 4. परा | अनाहत नाद/परम ध्वनि (ॐ); अनादि स्पंदन। | समाधि, चित्त का विलय; ग्रन्थियों का भेदन; सर्वोच्च चेतना। | शिवागम; हठ योग प्रदीपिका |
4.4 साधना के विशेष फल
नटराज साधना का अनुष्ठानिक और आंतरिक अभ्यास साधक को विशिष्ट सिद्धियाँ प्रदान करता है:
- कला और रचनात्मकता में सिद्धि: यह साधना साधक को षोडश कलाओं (16 कलाएँ) में से एक-एक करके समस्त कलाओं को प्राप्त करने की ओर ले जाती है, जिससे वह जीवन में नृत्य युक्त और रचनात्मकता से युक्त हो सके。
- मानसिक संतुलन और ऊर्जा-वृद्धि: नटराज ध्यान विधि शरीर को लचीला और सक्रिय बनाती है, तथा मानसिक संतुलन, ध्यान-शक्ति और ऊर्जा-वृद्धि में सहायक होती है。
- आध्यात्मिक जागरण और अहंकार-विलय: नादानुसंधान से चित्त और प्राण के विघटित होने पर, सभी मानसिक भ्रम (संकल्प और विकल्प) जड़ से उखड़ जाते हैं। इस लय की स्थिति में साधक ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि का भेदन करता है, जिससे वह सर्वोच्च चेतना प्राप्त कर 'योग का स्वामी' बन जाता है, और सृष्टि तथा संहार की क्षमता प्राप्त करता है。
- स्तोत्र पाठ का महत्त्व: रावण द्वारा नटराज साधना के माध्यम से ही शिव तांडव स्तोत्र की रचना की गई थी, जो दर्शाता है कि इस साधना में तीव्र ऊर्जा (क्रोध/शक्ति) को रचनात्मक (सकारात्मक कंपन) रूप में बदलने की शक्ति है。
निष्कर्ष: सृष्टि, ऊर्जा और चेतना का शाश्वत नृत्य
भगवान नटराज की प्रतिमा, शिवागम, वेदांत और नटराज-तांत्रिक दर्शन के त्रिवेणी संगम का प्रतिनिधित्व करती है। यह केवल एक मूर्तिकला नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय क्रियाशीलता का एक गतिशील प्रतिमान है。
नटराज का आनंद-तांडव हमें यह सिखाता है कि सृष्टि (डमरू) और संहार (अग्नि) की प्रक्रियाएँ निरंतर और चक्रीय हैं। यह चक्रीय गति शाश्वत चेतना (चिदंबरम् का आकाश) के भीतर घटित होती है। मोक्ष (अनुग्रह) और परम आनंद (आनंद तत्त्व) की प्राप्ति का मार्ग अज्ञान (अपस्मार) के दमन और आंतरिक नाद की खोज (नादानुसंधान) में निहित है。
यह संकलन सिद्ध करता है कि नटराज मूर्ति के हर अंग, मुद्रा और नृत्य की व्याख्या संपूर्ण, शुद्ध और प्रमाणिक रूप में शैव सिद्धांत पर आधारित है। साधक के लिए नटराज का अंतिम संदेश यह है कि जीवन में परिवर्तन (नृत्य) अनिवार्य है, लेकिन सच्ची स्वतंत्रता तभी प्राप्त होती है जब हम इच्छाओं पर नियंत्रण पाते हुए, स्वयं को उस परम लय (लय योग) में विलीन कर देते हैं जो सृष्टि के आदि स्पंदन (नाद-ब्रह्म) से उत्पन्न हुई है। नटराज का नृत्य जीवन में सक्रियता, परिवर्तन और आंतरिक शांति के बीच के अचूक संतुलन को दर्शाता है。
संदर्भ
- आगम एवं दार्शनिक ग्रंथ: अंशुमद्भेद आगम , चिदंबर महात्म्य , हठ योग प्रदीपिका , नाद उपनिषद ।
- भक्ति साहित्य: संत मणिक्कवाचकर का तिरुवासगम , नटराज स्तुति।
- आधुनिक शैव व्याख्या: आनंद केंटिश कुमारस्वामी कृत ‘The Dance of Shiva’।