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पारद शिवलिंग पूजन विधि, लाभ और चमत्कारिक प्रयोग !

AI सारांश (Summary)

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पारद शिवलिंग पूजन विधि, लाभ और चमत्कारिक प्रयोग !AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

पारद शिवलिंग साधना: निर्माण, पूजन एवं चमत्कारिक प्रयोगों का प्रामाणिक शास्त्रीय संकलन

खण्ड 1: पारद शिवलिंग: शास्त्रीय माहात्म्य एवं परिचय

भारतीय अध्यात्म, तंत्र और रसशास्त्र में पारद (पारा) को एक साधारण धातु नहीं, अपितु साक्षात् शिव का स्वरूप माना गया है। इसे 'रसराज' अर्थात् सभी धातुओं का राजा कहा जाता है और पौराणिक मान्यता के अनुसार, इसे भगवान शिव का 'वीर्य' (जीव-तत्व) माना गया है। यही कारण है कि पारद से निर्मित शिवलिंग को 'जीवंत धातु' या 'रसलिंग' की संज्ञा दी जाती है और इसका माहात्म्य अन्य सभी प्रकार के शिवलिंगों से श्रेष्ठतर माना गया है।

सर्वश्रेष्ठ शिवलिंग (शास्त्रीय पदानुक्रम)

विभिन्न शिवलिंगों के पूजन-फल की तुलना करते हुए 'शिवनिर्णय रत्नाकर' ग्रंथ एक स्पष्ट पदानुक्रम स्थापित करता है, जो पारद शिवलिंग की सर्वोच्चता को निर्विवाद रूप से सिद्ध करता है:

मृदा कोटिगुणं सवर्णम् स्वर्णात् कोटिगुणं मणे:।
मणात् कोटिगुणं बाणो वनत्कोतिगुनं रसः॥
रसात्परतरं लिङ्गं न् भूतो न भविष्यति॥

अर्थ:

  1. मिट्टी या पाषाण (पत्थर) से करोड़ गुना अधिक फल स्वर्ण (सोने) के शिवलिंग के पूजन से मिलता है।
  2. स्वर्ण से करोड़ गुना अधिक फल मणि (रत्न) से निर्मित लिंग के पूजन से मिलता है।
  3. मणि से करोड़ गुना अधिक फल बाणलिंग (नर्मदेश्वर) के पूजन से मिलता है।
  4. और बाणलिंग से भी करोड़ गुना अधिक फल 'रस' अर्थात् पारद से निर्मित शिवलिंग के पूजन से प्राप्त होता है 1।

'रसात्परतरं लिङ्गं न् भूतो न भविष्यति' – अर्थात्, पारद (रस) से श्रेष्ठ शिवलिंग न तो भूतकाल में हुआ है और न ही भविष्य में होगा। यह शास्त्रीय प्रमाण 'रसलिंग' को समस्त शिवलिंगों में शीर्ष पर स्थापित करता है, जो इसके पूजन के असाधारण फल का मूल आधार है।

पौराणिक एवं तांत्रिक संदर्भों से फल-श्रुति

अनेक पुराणों और तंत्र ग्रंथों ने एकमत से पारद शिवलिंग के पूजन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रदाता बताया है।

  • स्कंद पुराण: स्कंद पुराण के अनुसार, जो फल सहस्त्र (हजार) करोड़ शिवलिंगों का पूजन करने पर प्राप्त होता है, वह अतुलनीय फल पारद शिवलिंग के 'दर्शन मात्र' से साधक को मिल जाता है।
  • शिव पुराण (रुद्र संहिता): शिव पुराण के 'रुद्र संहिता' खंड में यह स्पष्ट उल्लेख है कि लंकापति रावण, जो केवल एक महान तांत्रिक ही नहीं, अपितु एक उच्च कोटि का 'रसायन शास्त्री' भी था, ने रसराज पारे के शिवलिंग का निर्माण एवं पूजन करके ही भगवान शिव को प्रसन्न किया था।
  • ब्रह्म पुराण एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण: इन ग्रंथों के अनुसार, वे मनुष्य धन्य हैं जो 'रसेश्वर' (पारद लिंग) का पूजन करते हैं। ऐसा साधक इस लोक में समस्त भौतिक सुखों को भोगता है और अंत में परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' के अनुसार, जो विधि-विधान से पारद शिवलिंग का एक बार भी पूजन कर लेता है, वह जब तक सूर्य और चंद्र रहते हैं, तब तक पूर्ण सुख प्राप्त करता है।
  • रसार्णव तंत्र: यह प्रमुख तांत्रिक ग्रंथ स्पष्ट घोषणा करता है:
    धर्मार्थकाममोक्षाख्या पुरुषार्थश्चतुर्विधा:।
    सिद्ध्यन्ति नात्र सन्देहो रसराजप्रसादत:

    अर्थ:

    "रसराज (पारद) की कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि होती है, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।"

  • वायवीय संहिता: यह ग्रंथ पारद लिंग के पूजन को सभी मनोवांछित वस्तुओं का प्रदाता बताते हुए कहता है कि आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा अन्य जो भी अभिलाषाएं हैं, वे सभी 'रसलिंग' के पूजन से सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

खण्ड 2: पारद 'बंधन': शिवलिंग निर्माण की गुह्य रस-शास्त्रीय विधि

पारद शिवलिंग का निर्माण सामान्य ढलाई की प्रक्रिया नहीं है; यह एक अत्यंत जटिल, गुह्य और रहस्यमयी 'रस-शास्त्रीय' प्रक्रिया है। पारद शिवलिंग 'बनाया' नहीं जाता, अपितु उसे 'सिद्ध' किया जाता है। तरल पारे को ठोस, दिव्य और पूजनीय स्वरूप में लाने के लिए उसे अनेकों 'संस्कारों' से शोधित और सिद्ध किया जाता है। प्रमुख रस-शास्त्रीय ग्रंथ जैसे 'रसरत्नसमुच्चय' और 'रसार्णव तंत्र' इन प्रक्रियाओं का वर्णन करते हैं।

अष्ट (8) बनाम अष्टादश (18) संस्कार

रसशास्त्र के ग्रंथों में पारद के कुल 'अष्टादश' संस्कारों का विधान है। परन्तु, 'रसरत्नसमुच्चय' यह भी स्पष्ट करता है कि इनमें से प्रथम 'अष्ट-संस्कार' (आठ प्रक्रियाएं) ही 'देहसिद्धि' (कायाकल्प या औषधीय प्रयोग) के लिए मुख्य हैं। शिवलिंग निर्माण, जिसे 'रससिद्धि' का ही एक भाग माना जाता है, के लिए भी इन्हीं आठ संस्कारों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

यह आठ संस्कार पारद के नैसर्गिक दोषों (जैसे विष, मल, चापल्य, अग्नि दोष आदि)को दूर कर, उसमें दिव्य गुणों को जाग्रत करने के लिए किये जाते हैं।

प्रमुख संस्कारों का सैद्धांतिक परिचय (कार्य और उद्देश्य)

पारद शिवलिंग के निर्माण में इन आठों संस्कारों का विशेष महत्व है, जिनमें से कुछ प्रमुख संस्कारों का सैद्धांतिक उद्देश्य इस प्रकार है:

  • स्वेदन : यह प्रथम संस्कार है। इसमें पारद को विशिष्ट क्षार, अम्ल और औषधीय कांजी के साथ एक 'दोला यंत्र' में रखकर भाप दी जाती है। इसका उद्देश्य पारद में व्याप्त स्थूल मल और बाह्य अशुद्धियों को दूर करना है।
  • मर्दन : इस प्रक्रिया में शोधित पारद को एक 'खल यंत्र' में रखकर निर्दिष्ट जड़ी-बूटियों (जैसे चित्रक मूल, भृंगराज आदि) के रस के साथ घोंटा जाता है। यह पारद के कणों को सूक्ष्म करता है और औषधियों के गुणों को उसमें आत्मसात कराता है।
  • मूर्छना : यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार है। 'मूर्छना' का शाब्दिक अर्थ है 'अचेत होना'। इस प्रक्रिया द्वारा पारद अपने चंचल, द्रव और विषैले स्वरूप का 'नाश' करता है। विभिन्न वनस्पतियों के साथ मर्दन करने पर पारद अपनी धात्विक चमक और तरलता खोकर एक कृष्ण-वर्णी (काले) चूर्ण (कज्जली) या नष्ट-पिष्ट स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है। यह संस्कार पारद के विष-दोष को समाप्त कर उसमें 'रोगनाशक' और दिव्य शक्ति उत्पन्न करता है।
  • नियमन : पारद का सबसे प्रमुख दोष 'चापल्य' या अत्यधिक चंचलता है। 'नियमन' संस्कार द्वारा पारद को विशिष्ट औषधियों (जैसे सर्पाक्षी, करकोटी) के साथ कांजी में स्वेदन करके उसकी इस चंचलता को नियंत्रित किया जाता है।
  • दीपन : यह एक गूढ़ तांत्रिक-रासायनिक प्रक्रिया है। 'दीपन' का अर्थ है 'अग्नि प्रदीप्त करना' या 'भूख जगाना'। इस संस्कार द्वारा पारद को 'बहुभुक्षित' बनाया जाता है, ताकि उसमें अन्य धातुओं (विशेषकर गंधक और स्वर्ण) को 'ग्रास' करने की अलौकिक क्षमता जाग्रत हो सके।

'बंधन'

अष्ट-संस्कारों से सिद्ध होने के पश्चात्, पारद 'बंधन' के योग्य होता है। यह अंतिम प्रक्रिया है, जिसमें संस्कारित पारद को विशिष्ट दिव्य औषधियों या अन्य शुद्ध धातुओं (जैसे चांदी) के योग से एक जटिल प्रक्रिया द्वारा ठोस ('बद्ध') स्वरूप प्रदान किया जाता है। यही ठोस, सिद्ध और संस्कारित पारद 'पारद शिवलिंग' कहलाता है।

निर्माण प्रक्रिया के गूढ़ आध्यात्मिक संबंध

पारद शिवलिंग का निर्माण केवल एक रासायनिक क्रिया नहीं है, यह साधक के चित्त से भी जुड़ा है।

  • 'नियमन' संस्कार और 'ध्यान' का संबंध: जैसा कि ऊपर वर्णित है, 'नियमन' संस्कार पारद के 'चापल्य' (चंचलता) को स्थिर करने के लिए है। तांत्रिक ग्रंथ एक असाधारण दार्शनिक समानता बताते हैं: "जिस प्रकार सभी धातुओं में पारा (पारद) सर्वाधिक चंचल और अस्थिर है, उसी प्रकार मनुष्य का मन भी सर्वाधिक चंचल है।"। जब 'नियमन' संस्कार द्वारा पारे को स्थिर किया जाता है, तो उस सिद्ध पारद शिवलिंग पर ध्यान करने से साधक का मन भी प्राकृतिक रूप से एकाग्र होने लगता है। इस प्रकार, पारे का 'बंधन' साधक के 'मन का बंधन' बन जाता है।
  • 'दीपन' संस्कार और 'स्वर्ण-भक्षी' चेतावनी: 'दीपन' संस्कार का उद्देश्य पारद को स्वर्ण जैसी धातुओं को 'ग्रास' करने के लिए 'भुक्षित' बनाना है । यह गुण सिद्ध पारद में स्थायी रूप से विद्यमान रहता है। यही कारण है कि शास्त्रीय निर्देशों में पारद शिवलिंग को स्वर्ण (सोने) से स्पर्श कराना वर्जित है। इसे 'स्वर्ण भक्षी' (Gold-eater) कहा गया है । पारद धीरे-धीरे सोने को "खा जाता है" । यह कोई अंधविश्वास या केवल आनुष्ठानिक निषेध नहीं है, बल्कि यह शिवलिंग के निर्माण में प्रयुक्त 'दीपन' संस्कार का प्रत्यक्ष रासायनिक/कीमियावी परिणाम है। यह ज्ञान साधक को भौतिक क्षति से बचाता है।

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