अकाल मृत्यु का भय? रुद्र कवच का ये पाठ 'यमराज' को भी खाली हाथ लौटा दे!
AI सारांश (Summary)
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।श्री रुद्र-कवच-संहिता: स्कन्दपुराण तथा रुद्रयामल-तन्त्र से संग्रहीत दुर्लभ एवं प्रामाणिक शिव-कवचों का एक शास्त्रीय संकलन
खण्ड 1: कवच-साधना के आधारभूत सिद्धांत एवं सामान्य विधान
1.1 पीठिका: कवच का आध्यात्मिक एवं तात्विक रहस्य
सनातन परम्परा में 'कवच' (अथवा 'वर्म') केवल एक स्तोत्र या प्रार्थना-संग्रह नहीं है। यह एक गहन आध्यात्मिक, यौगिक एवं तांत्रिक प्रक्रिया है, जि���े 'न्यास' की एक विशिष्ट एवं शक्तिशाली पद्धति के रूप में समझा जाना चाहिए। 'न्यास' का शाब्दिक अर्थ है 'स्थापित करना' या 'आरोपित करना'
कवच-साधना की प्रक्रिया में, साधक मंत्रों और देव-नामों के माध्यम से अपने नश्वर शरीर के विभिन्न अंगों (जैसे मस्तक, नेत्र, भुजाएं, हृदय, आदि) पर दिव्य शक्तियों, आयुधों और स्वयं इष्ट-देवता के विभिन्न स्वरूपों का आवाहन, आरोपण एवं स्थापन करता है।
इसका तात्कालिक फल 'रक्षा' है, किन्तु इसका गूढ़ आध्यात्मिक लक्ष्य केवल रक्षा पाना नहीं है, अपितु अपने 'देह-भाव' (यह नश्वर शरीर 'मैं' हूँ) का 'देव-भाव' (यह शरीर स्वयं देवता का जाग्रत मन्दिर है) में रूपान्तरण करना है। कवच-पाठ के द्वारा साधक अपने स्थूल शरीर को ही एक अभेद्य, जाग्रत और दिव्य दुर्ग में परिवर्तित कर देता है, जहाँ इष्ट-देवता स्वयं अंग-प्रत्यंग के रक्षक बनकर विराजित होते हैं।
1.2 कवच-साधना हेतु सामान्य पूजन-विधान
किसी भी कवच की साधना प्रारम्भ करने से पूर्व 'पञ्चाङ्ग-शुद्धि' अथवा 'पञ्च-शुद्धि' का विधान अनिवार्य माना गया है। यह पाँच स्तरों पर शुद्धि है:
- स्थान शुद्धि: साधना-कक्ष या पूजा-गृह का स्वच्छ, शांत और पवित्र होना।
- देह शुद्धि: स्नान आदि से शारीरिक पवित्रता।
- आसन शुद्धि: बैठने का आसन (कुश, ऊन या मृगचर्म) का शुद्ध होना।
- मन शुद्धि: मानसिक द्वंद्व, लोभ, क्रोध और कपट से रहित होकर शुद्ध भाव से बैठना ।
- मंत्र शुद्धि: मंत्र या कवच के पाठ का शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण करना, क्योंकि अशुद्ध उच्चारण से लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना रहती है।
1.3 संकल्प-विधि: साधना का आध्यात्मिक प्रतिज्ञा-पत्र
संकल्प, किसी भी वैदिक या तांत्रिक अनुष्ठान का प्राण है। यह एक आध्यात्मिक एवं विधिवत 'प्रतिज्ञा-पत्र' है, जो साधक को उसके इष्ट, उसके लक्ष्य और उसकी साधना के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध करता है। यह केवल इच्छा-सूची नहीं है, अपितु एक आध्यात्मिक 'अनुबंध' है।
एक सामान्य, किन्तु प्रभावी संकल्प-विधि, जिसे किसी भी शिव-कवच के पाठ से पूर्व उपयोग किया जा सकता है, वह जल, अक्षत और पुष्प को हाथ में लेकर इस प्रकार की जाती है:
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे क��ियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे (अमुक) क्षेत्रे (अमुक) नगरे (अमुक) संवत्सरे (अमुक) मासे (अमुक) पक्षे (अमुक) तिथौ (अमुक) वासरे...
... (अमुक-गोत्रोत्पन्नः) (अमुक-शर्मा/वर्मा/गुप्तः) अहं, आत्मनः श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फल-प्राप्त्यर्थं, तथा च मम सपरिवारस्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-चतुर्विध-पुरुषार्थ-सिद्ध्यर्थं, सकल-आधि-व्याधि-जरा-पीड़ा-अपमृत्यु-दोष-निवारणार्थं, लोके-सभायां-राजद्वारे सर्वत्र यश-विजय-लाभादि-प्राप्त्यर्थं, एवं च भू-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी-अभिचार-दोष-निवारण-पूर्वकं, भगवतः साम्ब-सदाशिवस्य पूर्ण-कृपा-प्रसाद-द्वार�� दिव्य-संरक्षण-प्राप्त्यर्थं, अद्य अहं (अमुक-कवचस्य) (यथा-अमुक-संख्याकं) पाठं करिष्ये।
(यह कहकर हाथ का जल, पुष्प और अक्षत भूमि पर या एक ताम्र-पात्र में छोड़ दें)।
यह संकल्प स्पष्ट करता है कि पौराणिक साधना केवल मोक्ष के लिए नहीं, अपितु 'भोग' (सांसारिक कल्याण, स्वास्थ्य, ऐश्वर्य) और 'मोक्ष' (आध्यात्मिक मुक्ति) दोनों के संतुलन के लिए है।
1.3 आवाहन, ध्यान एवं पूजन-क्रम
संकल्प के उपरान्त, साधक को इष्ट-देवता का आवाहन करना चाहिए। कवच-ग्रंथों में दिया गया 'ध्यान' श्लोक वस्तुतः आवाहन का ही एक केंद्रित रूप है। साधक उस देवता से रक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, जिसका उसने अपने चित्त, हृदय या पूजा-स्थान पर आवाहन और स्थापन न किया हो।
उदाहरण के लिए, रुद्र कवच के ध्यान श्लोक में शिव के आयुधों (शूल, वज्र, खड्ग) का स्मरण किया जाता है। यह ध्यान, कवच के वाचिक-पाठ से पूर्व ही, साधक के चारों ओर एक 'मानसिक-कवच' का निर्माण कर देता है।
आवाहन के पश्चात्, भगवान शिव का सामान्य पञ्चोपचार (गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) अथवा षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। पाठ से पूर्व एक 'छोटी सी पूजा' अनिवार्य है। इसके पश्चात् ही कवच का पाठ प्रारम्भ किया जाता है।
1.5 पाठ-विधि: शास्त्रीय नियम एवं जप-संख्या
- आसन: साधक को शुद्ध आसन (कुश या ऊन का आसन) पर बैठना चाहिए।
- दिशा: पूर्वाभिमुख (पूर्व दिशा) या उत्तराभिमुख (उत्तर दिशा) होकर बैठना सर्वश्रेष्ठ है।
- समय: ब्रह्म-मुहूर्त (सूर्योदय से पूर्व) अथवा प्रदोष-काल (सूर्यास्त के समय) शिव-साधना के लिए सर्वोत्तम माने गए हैं।
- माला: यदि कवच का 'सिद्धि' हेतु अनुष्ठान या पुरश्चरण किया जा रहा है, तो जप-संख्या की गणना के लिए 'रुद्राक्ष' की माला का प्रयोग करना चाहिए।
- उच्चारण: जैसा कि खण्ड 5.1 में पुनः बल दिया जाएगा, कवच का पाठ पूर्णतः शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण में होना चाहिए। अशुद्ध उच्चारण से मंत्र 'खण्डित' हो जाता है।
- जप-संख्या: सामान्य रक्षा के लिए कवच का एक पाठ पर्याप्त है। परन्तु किसी विशेष कार्य-सिद्धि, रोग-निवारण या आपदा-मुक्ति हेतु पुरश्चरण किया जाता है। कवच के 'मुख्य-भाग' (फलश्रुति को छोड़कर) की आवृत्ति (पुनरावृत्ति) की जाती है। यह संख्या साधक के सामर्थ्य और उद्देश्य के अनुसार 3,11, 21, 51 अथवा 101 हो सकती है । फलश्रुति का पाठ अनुष्ठान के अंत में केवल एक बार किया जाता है ।
खण्ड 2: स्कन्दपुराणोक्तम् श्री रुद्रकवचम् (दुर्वासा-प्रोक्तम्)
2.1 संदर्भ एवं प्रामाणिकता
यह पवित्र 'रुद्र कवच' हिन्दू धर्म के अष्टादश महापुराणों में से एक 'स्कन्द महापुराण' से प्राप्त होता है। इस कवच के दृष्टा (वक्ता) स्वयं भगवान शिव के अंशावतार, महर्षि 'दुर्वासा' हैं।
महर्षि दुर्वासा को उनके उग्र स्वभाव और रुद्र-तेज के लिए जाना जाता है। अतः, उनके द्वारा प्रदान किया गया यह कवच असाधारण रूप से शक्तिशाली, 'तेजस' (अग्नि-तत्व) प्रधान और आशु-फलदायी (शीघ्र परिणाम देने वाला) माना जाता है। यह उन साधकों के लिए एक अचूक अस्त्र है, जिन्हें तत्काल, उग्र और आक्रामक दैवीय-संरक्षण की आवश्यकता होती है।
2.2 श्री रुद्रकवचम्: संपूर्ण मूल पाठ (संस्कृत)
(हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र का उच्चारण करें)
ॐ अस्य श्री रुद्र कवच स्तोत्र महा मंत्रस्य दूर्वासऋषिः, अनुष्ठुप् छंदः, त्र्यंबक रुद्रो देवता, ह्राम् बीजम्, श्रीम् शक्तिः, ह्रीम् कीलकम्, मम मनसोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
ह्रामित्यादिषड्बीजैः षडंगन्यासः।
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ ह्रः करतलकर���ृष्ठाभ्यां नमः।
(इसी प्रकार हृदयादि-न्यास भी करें)
(भगवान रुद्र का ध्यान करें)
शान्तम् पद्मासनस्थम् शशिधरमकुटम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्।
शूलम् वज्रंच खड्गम् परशुमभयदम् दक्षभागे महन्तम्॥
नागम् पाशम् च घंटाम् प्रळय हुतवहम् सांकुशम् वामभागे।
नानालंकारयुक्तम् स्फटिकमणिनिभम् पार्वतीशम् नमामि॥
प्रणम्य शिरसा देवम् स्वयंभु परमेश्वरम्।
एकम् सर्वगतम् देवम् सर्वदेवमयम् विभुम्॥ 1॥
रुद्र वर्म प्रवक्ष्यामि अंग प्राणस्य रक्षये।
अहोरात्रमयम् देवम् रक्षार्थम् निर्मितम् पुरा॥ 2॥
रुद्रो मे च अग्रतः पातु, पातु पार्श्वौ हरस्तथा।
शिरो मे ईश्वरः पातु, ललाटम् नीలలోहितः॥ 3॥
नेत्रयोस्त्र्यम्बकः पातु, मुखम् पातु महेश्वरः।
कर्णयोः पातु मे शम्भुः, नासिकायाम् सदाशिवः॥ 4॥
वागीशः पातु मे जिह्वाम्, ओष्ठौ पात्वम्बिकापतिः।
श्रीकण्ठः पातु मे ग्रीवाम्, बाहूंचैव पिनाकधृत्॥ 5॥
हृदयम् मे महादेवः, ईश्वरोऽव्यात् स्तनांतरम्।
नाभिम् कटिम् च वक्षश्च, पातु सर्वम् उमापतिः॥ 6॥
बाहुमध्यान्तरम् चैव, सूक्ष्मरूपः सदाशिवः।
स्वरम् रक्षतु सर्वेशो, गात्राणि च यथा क्रमम्॥ 7॥
वज्रशक्तिकरं चैव, पाशांकुशधरम् तथा।
गण्डशूलधरम् नित्यम्, रक्षतु त्रिदशेश्वरः॥ 8॥
प्रस्थानेषु पदे चैव, वृक्षमूले नदीतटे।
सन्ध्यायाम् राजभवने, विरूपाक्षस्तु पातु माम्॥ 9॥
शीतोष्णाद्-अथ-कालेषु, तुहि-द्रुम-कण्टके।
निर्मनुष्येऽसमे मार्गे, त्राहि माम् वृषभध्वजः॥ 10॥
इत्येतद्-रुद्रकवचम् पवित्रम् पापनाशनम्।
महादेव-प्रसादेन दूर्वासो मुनि-कल्पितम्॥ 11॥
ममाख्यातम् समासेन, न भयम् विन्दति क्वचित्।
प्राप्नोति परमम् आरोग्यम्, पुण्यम् आयुर्विवर्धनम्॥ 12॥
विद्यार्थी लभते विद्याम्, धनार्थी लभते धनम्।
कन्यार्थी लभते कन्याम्, न भयम् विन्दति क्वचित्॥ 13॥
अपुत्रो लभते पुत्रम्, मोक्षार्थी मोक्षम् आप्नुयात्।
त्राहि त्राहि महादेव, त्राहि त्राहि त्रयीमय॥ 14॥
त्राहि माम् पार्वतीनाथ, त्राहि माम् त्रिपुरान्तक।
पाशम् खट्वाङ्ग-दिव्यास्त्रम्, त्रिशूलम् रुद्रमेव च॥ 15॥
नमस्कार���मि देवेश, त्राहि माम् जगदीश्वर।
शत्रु-मध्यम् सभा-मध्यम्, ग्राम-मध्यम् गृहान्तरे॥ 16॥
गमनागमने चैव, त्राहि माम् भक्तवत्सल।
त्वम् चित्तम् त्वम् मनश्चैव, त्वम् बुद्धिः त्वम् परायणम्॥ 17॥
कर्मणा मनसा वाचा, त्वमेव शरणम् गतः।
सर्व-ज्वर-भयम्, सर्व-शत्रु-निवारणम्, सर्व-व्याधि-निवारणम्॥ 18॥
रुद्र लोकम् स गच्छति, रुद्र लोकम् स गच्छति ॐ नमः॥ 19॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे दूर्वास-प्रोक्तम् श्रीरुद्रकवचम् सम्पूर्णम्॥
2.3 अर्थ एवं आध्यात्मिक भावार्थ (श्लोक-दर-श्लोक)
(यहाँ कुछ प्रमुख श्लोकों का अर्थ और भावार्थ प्रस्तुत है)
- विनियोग (अर्थ): "ॐ, इस श्री रुद्र कवच स्तोत्र रूपी महामंत्र के ऋषि दुर्वासा हैं, छंद अनुष्टुप् है, देवता त्र्यम्बक रुद्र हैं, 'ह्रां' बीज है, 'श्रीं' शक्ति है, 'ह्रीं' कीलक है, मेरे मन की अभीष्ट (इच्छा) सिद्धि के लिए मैं इसका जप (पाठ) करता हूँ।"
- ध्यान (अर्थ): "मैं उन पार्वती के स्वामी (शिव) को नमन करता हूँ, जो शांत हैं, पद्मासन में स्थित हैं, चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किये हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं। जो अपने दाहिने भागों में शूल, वज्र, खड्ग, परशु और अभय-मुद्रा धारण करते हैं; तथा बायें भागों में नाग, पाश, घंटा, प्रलय-अग्नि और अंकुश धारण करते हैं। जो नाना अलंकारों से युक्त हैं और स्फटिक मणि के समान निर्मल हैं।"
- श्लोक 1-2 (अर्थ): दुर्वासा ऋषि कहते हैं: "स्वयं उत्पन्न (स्वयंभू), परमेश्वर, एक, सर्वव्यापी, सभी देवताओं के स्वरूप और सर्व-समर्थ भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके, मैं उस 'रुद्र-वर्म' (रुद्र-कवच) को कहता हूँ, जो अंग और प्राणों की रक्षा के लिए है; तथा जो दिन-रात रक्षा करने वाले देवता (शिव) के संरक्षण हेतु प्राचीन काल में निर्मित किया गया था।"
- श्लोक 3-9 (भावार्थ): यह कवच का मुख्य 'देह-न्यास' है। यह केवल रक्षा की मांग नहीं करता; यह साधक के अंगों पर शिव के विशिष्ट रूपों को स्थापित करता है।
- 'आगे से रुद्र और पार्श्व (बगल) से हर मेरी रक्षा करें।'
- 'मेरा मस्तक ईश्वर और ललाट (माथा) नीలలోहित सुरक्षित करें।'
- 'नेत्रों की त्र्यम्बक, मुख की महेश्वर, कानों की शम्भु और नासिका की सदाशिव रक्षा करें।'
- 'जिह्वा की वागीश, होठों की अम्बिकापति (पार्वती के पति), ग्रीवा (गर्दन) की श्रीकण्ठ और भुजाओं की पिनाकधृत् (पिनाक धनुषधारी) रक्षा करें।'
- 'हृदय की महादेव और वक्ष-स्थल की उमापति रक्षा करें।'
यह प्रक्रिया साधक के शरीर को व्यवस्थित रूप से 'शिव-रूप' में पुनर्निर्मित करती है। श्लोक 1 और 10 इस संरक्षण को व्यक्ति-देह से उठाकर विभिन्न परिस्थितियों (जैसे यात्रा, वृक्ष के नीचे, नदी किनारे, राज-भवन में, शीत-उष्ण काल में, निर्जन-मार्ग में) तक विस्तारित करते हैं, जिससे साधक का तादात्म्य शिव के सर्वव्यापी-भाव से होता है।
2.4 फलश्रुति एवं विशेष प्रयोग
यह कवच एक 'सर्व-सिद्धि-प्रदायक' और गृहस्थों के लिए विशेष रूप से उपयोगी कवच है, क्योंकि यह लौकिक और पारलौकिक, दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करता है।
- पाप-नाश और भय-मुक्ति: यह कवच 'पवित्र' और 'पापनाशनम्' (समस्त पापों का नाश करने वाला) है।
- रोग-मुक्ति और आयु-वृद्धि: यह 'सर्व भय हरम्' (सभी भयों को हरने वाला) और 'सर्व व्याधि विनाशनम्' (सभी रोगों का विनाश करने वाला) है। यह परम आरोग्य, पुण्य और आयु की वृद्धि करता है।
- विशेष प्रयोग (चतुर्विध-पुरुषार्थ): यह कवच धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों पर कार्य करता है:
- विद्यार्थी लभते विद्यां: विद्यार्थी को विद्या प्राप्त होती है ।
- धनार्थी लभते धनं: धन की इच्छा रखने वाले को धन प्राप्त होता है।
- कन्यार्थी लभते कन्यां: (सुयोग्य) कन्या की कामना करने वाले को कन्या प्राप्त होती है।
- अपुत्रो लभते पुत्रं: पुत्रहीन को पुत्र की प्राप्ति होती है।
- मोक्षार्थी मोक्षम् आप्नुयात्: मोक्ष की इच्छा रखने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है।
यह फलश्रुति स्पष्ट करती है कि यह कवच केवल संन्यासियों या विरक्तों के लिए नहीं, अपितु उन गृहस्थों के लिए एक अमूल्य निधि है, जो अपने सांसारिक दायित्वों को निभाते हुए आध्यात्मिक संरक्षण और उन्नति चाहते हैं।
खण्ड 3: स्कन्दपुराणोक्तम् अमोघ-शिवकवचम्
3.1 संदर्भ एवं प्रामाणिकता
यह द्वितीय, किन्तु समान रूप से शक्तिशाली कवच भी 'स्कन्द पुराण' से ही प्राप्त होता है। इसके वक्ता (ऋषि) 'ऋषभ योगीश्वर' हैं। कथा के अनुसार, उन्होंने यह कवच राजकुमार 'भद्रायु' को दिया था, जो शत्रुओं द्वारा अपने राज्य से निष्कासित कर दिए गए थे। इस कवच के प्रभाव से भद्रायु ने अपना राज्य पुनः प्राप्त किया।
इस कवच का नाम 'अमोघ' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'अचूक' या 'कभी विफल न होने वाला'। यह नाम ही इसकी शक्ति का परिचायक है। कुछ परम्पराओं में इसे (स्वयं-सिद्ध) माना जाता है, जिसका अर्थ है कि इसका लाभ और संरक्षण "पहले पाठ क�� तुरंत बाद" ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है। यह इसे दुर्वासा-कृत रुद्रकवच से भिन्न और विशिष्ट बनाता है, जिसे सिद्ध करने में अधिक समय और अनुष्ठान की आवश्यकता हो सकती है।
3.2 अमोघ-शिवकवचम्: संपूर्ण मूल पाठ (संस्कृत)
(हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र का उच्चारण करें)
ॐ अस्य श्री शिव कवच स्तोत्र महामन्त्रस्य ऋषभ योगीश्वर ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री साम्ब सदाशिवो देवता, ॐ बीजम्, नमः शक्तिः, शिवाय इति कीलकम्, मम साम्बसदाशिव प्रीत्यर्थे (अथवा कार्य-सिद्ध्यर्थे) जपे विनियोगः।
ॐ सदाशिवाय अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ नं गंगाधराय तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ मं मृत्युञ्जयाय मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ शिं शूलपाणये अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ वां पिनाकपाणये कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ यं उमापतये करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
(यह इस कवच का अत्यंत शक्तिशाली और विशिष्ट तांत्रिक-न्यास है)
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ यं रः अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट्।
(यह ध्यान रुद्र-कवच के ध्यान से भिन्न और अधिक 'योगिक' है)
हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोऽवकाशम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायेत् परानन्दमयं महेशम्॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्धश्-चिरं चिदानन्दनिमग्नचेताः।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात् कवचेन रक्षाम्॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्वव्यापिनमीश्वरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम्॥ 1॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत् कल्पितासनः।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्-चिन्तयेच्छिवमव्ययम्॥ 2॥
मां पातु देवोऽखिलदेवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे।
तन्नाम दिव्यं वरमन्त्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम्॥ 3॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्तिर्-ज्योतिर्मयानन्दघनश्-चिदात्मा। अणोरणीयान्-उरुशक्तिरेकः स ईश्वरः पातु भयादशेषात्॥ 4॥
यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्तिः।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति शीतं स मां पातु जलेषु नित्यम्॥ 5॥
(... इत्यादि... संपूर्ण कवच का पाठ...)
यथा देहं शिवस्येदं शिवं कवचमुत्तमम्।
एतद् धारयते यस्तु न भयं तस्य कुत्रचित्॥
क्षीणायुर्-मृत्युमापन्नो महारोगहतोऽपि वा।
सद्यः सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्च विन्दति॥
महापातक-संघातैर्-उपपातैश्च संवृतः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो देहांते शिवतां व्रजेत्॥
3.3 अर्थ एवं आध्यात्मिक भावार्थ
षडङ्गन्यास (भावार्थ): इस कवच की शक्ति का रहस्य इसके 'न्यास' में है। यह सामान्य न्यास नहीं है। यह शिव के पाँच मुखों (पञ्चमुख - ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात) से जुड़े शक्तिशाली बीज मंत्रों (ह्रां, रिं, रूं, रैं, रौं) का उपयोग करता है। यह इस कवच को एक 'तांत्रिक-पौराणिक-मिश्रण' बनाता है, जो इसे अत्यंत शक्तिशाली और 'स्वयं-सिद्ध' होने का मुख्य कारण है。
ध्यान (भावार्थ): इसका ध्यान श्लोक शिव को बाह्य रूप में देखने के बजाय, उन्हें हृत्पुण्डरीक तरसन्निविष्टं (हृदय-कमल के भीतर स्थित) देखने का निर्देश देता है। यह एक उच्च-स्तरीय और अधिक 'आंतरिक' साधना है। साधक अपने हृदय में ही 'परानन्दमय महेश' का ध्यान करता है。
श्लोक 3 (भावार्थ): "जो अखिल-देवता-स्वरूप देव, इस गंभीर संसार-कूप में गिरे हुए मेरी रक्षा करें। उनका जो दिव्य 'शिव' नाम है, जो सभी श्रेष्ठ मन्त्रों का मूल है, वह मेरे हृदय में स्थित सभी पापों (अघं) का नाश करे।"
श्लोक 4 (भावार्थ): "सर्वत्र मेरी रक्षा वह विश्वमूर्ति करें, जो ज्योतिर्मय, आनंद-घन और चिदात्मा-स्वरूप हैं। जो अणु से भी सूक्ष्म (अणोरणीयान्) हैं, और एक होकर भी अपार शक्ति (उरुशक्ति) वाले हैं, वे ईश्वर सभी भयों से मेरी रक्षा करें।"
3.4 फलश्रुति एवं विशेष प्रयोग
'अमोघ' नाम के अनुरूप, यह कवच एक 'आत्यंतिक-आपदा-निवारण' और 'अभिचार-नाशक' स्तोत्र है। इसका "स्वयं-सिद्ध" स्वभाव इसे एक 'आपातकालीन-उपयोग' कवच बनाता है。
- रोग-रक्षा एवं अकाल-मृत्यु-निवारण: यह इसका सबसे प्रमुख और विशिष्ट लाभ है। जैसा कि स्तोत्र में वर्णित है: "जिसकी आयु क्षीण हो गई है, जो मरणासन्न है, अथवा महान रोग से ग्रस्त है, वह भी इस कवच को धारण करने (या पाठ करने) से तत्काल सुखी होता है और दीर्घ आयु पाता है।"
- दुष्ट-शक्ति-निवारण: यह साधक की भूत, प्रेत और पिशाचों से रक्षा करता है।
- तंत्र-बाधा-निवारण: यह कवच 'अभिचार' , 'तंत्र-बाधा' अथवा 'जन्म-पत्रिका' के असाध्य दोषों से भी रक्षा करने में सक्षम है।
- आर्थिक-स्थिरता: यह साधक के वित्तीय संघर्षों को दूर करता है और धन-धान्य प्रदान करता है।
- पाप-मुक्ति एवं मोक्ष: इस कवच के प्रभाव से मनुष्य 'महापातकों' के समूहों और उपपातकों से भी छुटकारा पा जाता है तथा देह का अंत होने पर 'शिव-लोक' (या शिव-भाव) को प्राप्त करता है।
खण्ड 4: रुद्रयामल-तन्त्रोक्त दुर्लभ तांत्रिक-शिव-कवच
4.1 तांत्रोक्त कवच-भेद: एक परिचय
अब तक वर्णित कवच 'पौराणिक' श्रेणी के थे, जो 'स्कन्द पुराण' जैसे महापुराणों से लिए गए हैं। वे सात्त्विक, जन-कल्याणकारी और सामान्यतः (उचित श्रद्धा के साथ) किसी के भी द्वारा पठनीय हैं।
किन्तु, अब हम 'तांत्रिक' श्रेणी के कवचों की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जिनका स्रोत 'रुद्रयामल तंत्र' जैसे गुह्य 'आगम' या 'यामल' ग्रन्थ हैं。
पौराणिक और तांत्रिक कवचों में मूल-भूत भेद होता है। तांत्रिक कवच प्रायः अत्यंत शक्तिशाली बीज-मंत्रों (जैसे ह्रीं, क्लीं, श्रीं, क्रीं, हूं) से युक्त होते हैं। ये कवच केवल 'रक्षा' के लिए नहीं, अपितु 'सिद्धि', 'शक्ति-जागरण' और विशिष्ट 'उद्देश्यों' (जैसे वशीकरण, उच्चाटन, मारण, या अभिचार-खंडन) के लिए भी प्रयोग में लाये जाते हैं。
यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझ लेना अनिवार्य है कि तांत्रिक साधना 'गुरु-गम्य' (गुरु के द्वारा ही प्राप्य) होती है। इन कवचों की साधना के नियम अत्यंत कठोर होते हैं:
- गुरु-दीक्षा: बिना योग्य 'गुरु' की दीक्षा और अनुमति के तांत्रिक कवच की साधना करना 'निषेध' है। यह साधक के लिए अत्यंत 'गलत हो सकता है'।
- गोपनीयता: तांत्रिक साधना को 'पूरी तरह से गोपनीय रखना' अनिवार्य है। इसे प्रकट करने से 'कार्य की सिद्धि में हानि होती है'।
- निषेध: तांत्रिक मार्ग का दुरुपयोग (जैसे निम्न-स्तरीय यक्षिणी, पिशाचिनी, आदि की साधना) स्पष्ट रूप से 'निषेध' है।
4.2 तुलनात्मक सारणी: पौराणिक एवं तांत्रोक्त कवचों में भेद
साधक की स्पष्टता के लिए दोनों प्रकार के कवचों में मुख्य भेद यहाँ सारणीबद्ध किये गए हैं:
| विषय | पौराणिक कवच | तांत्रोक्त कवच |
|---|---|---|
| स्रोत | पुराण, स्मृति (उदा. स्कन्द पुराण) | आगम, यामल, तंत्र (उदा. रुद्रयामल) |
| उद्देश्य | सात्त्विक (कल्याण, रक्षा, आरोग्य, मोक्ष) | गुह्य (सिद्धि, शक्ति, रक्षा, अभिचार-खंडन) |
| बीज-मन्त्र | प्रायः कम या सौम्य (जैसे ह्रां) | बीज-मंत्रों की प्रधानता ( ह्रीं, हूं, क्रीं, फट्) |
| गुरु-दीक्षा | अनुशंसित , पर अनिवार्य नहीं | अपरिहार्य |
| गोपनीयता | सार्वजनिक, कल्याण हेतु पठनीय | अत्यंत गोपनीय (प्रकट करने पर सिद्धि-हानि) |
| आहार/आचार | कठोर सात्त्विक (शाकाहार, ब्रह्मचर्य) | गुरु-निर्देशानुसार (इसमें पञ्च-मकार जैसी वामाचार साधना भी शामिल हो सकती है) |
| जोखिम (Risk) | न्यूनतम (अशुद्ध उच्चारण से हानि) | अत्यधिक (बिना गुरु के करने पर विनाशकारी) |
नोट: निम्नलिखित तांत्रिक कवच केवल 'शोध' और 'ज्ञान' की दृष्टि से प्रस्तुत कि��े जा रहे हैं। इनका प्रयोग बिना योग्य गुरु की दीक्षा और व्यक्तिगत मार्गदर्शन के कदापि नहीं किया जाना चाहिए।
4.3 (अ) श्री महामृत्युञ्जय कवचम् (रुद्रयामल-तंत्रोक्त)
संदर्भ एवं प्रामाणिकता:
यह कवच 'रुद्रयामल तंत्र' का एक अत्यंत गोपनीय और शक्तिशाली कवच है। इसका आधार ऋग्वेद में वर्णित प्रसिद्ध 'त्र्यम्बकम् मंत्र' (महामृत्युञ्जय मंत्र) है। जहाँ मूल मंत्र 'अकाल-मृत्यु' को टालने के लिए है, वहीं यह कवच उस मंत्र की शक्ति को साधक के शरीर के अंग-प्रत्यंग पर स्थापित करके उसे एक अभेद्य 'मृत्यु-विजयी' दुर्ग बना देता है। इसका विशेष प्रयोग 'आपदा-निवारण' और असाध्य 'रोग-रक्षा' के लिए किया जाता है。
(पूर्ण संस्कृत पाठ: विनियोग, ध्यान एवं मूल कवच)
ॐ अस्य श्री महामृत्युञ्जय-कवचस्य श्रीभैरव ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्री महामृत्युञ्जय-रुद्रो देवता, ॐ बीजम्, जूं शक्तिः, सः कीलकम्, हौं-हौं-हौं इति तत्त्वम्, चतुर्वर्ग-साधने जपे विनियोगः।
ध्यायेत् पञ्चमुखं देवं, श्वेत-पद्मासन-स्थितम्।
त्रिनेत्रं चन्द्र-मुकुटं, जटा-जूट-विराजितम्॥
नाग-यज्ञोपवीतं च, व्याघ्र-चर्म-उत्तरीयम्।
दश-बाहुं महा-भीमं, मृत्यु-नाशन-कारणम्॥
अक्ष-मालां मृगं पाशं, शक्तिं डमरुकं तथा।
खट्वाङ्गं च कपालं च, वरदं चाभयं करे॥
ॐ जूं सः हौं ॐ भूर्भुवः स्वः।
ॐ त्र्यम्बकं मे शिरः पातु, ललाटं पातु शङ्करः।
यजामहे भ्रुवौ पातु, दृशौ पातु महेश्वरः॥
सुगन्धिं नासिकां पातु, मुखं मे पातु पार्वतीपतिः।
पुष्टिदं मे कपोलौ पातु, कर्णौ पातु सदाशिवः॥
वर्धनं मे गलां पातु, ग्रीवां पातु वृषभध्वजः।
उरु-कण्ठं च मे पातु, बाहु-मूलं वृष-ध्वजः॥
... (इत्यादि... संपूर्ण कवच का पाठ)...
इत्येतत् कवचं पुण्यं, महा-मृत्युञ्जयस्य च।
रुद्रयामल-तन्त्रोक्तं, गोपितं परमाद्भुतम्॥
4.4 (ब) श्री अघोर कवचम् (रुद्रयामल-तंत्रोक्त)
संदर्भ एवं प्रामाणिकता:
यह 'रुद्रयामल तंत्र' से प्राप्त 23 एक अन्य उग्र एवं तांत्रिक कवच है। 'अघोर' भगवान शिव के पञ्च-मुखों में से एक हैं—वह मुख जो दक्षिण दिशा का प्रतिनिधित्व करता है और 'संहार' (नकारात्मकता का विनाश) का प्रतीक है。
यह कवच उन साधकों के लिए है, जो किसी भी प्रकार की तांत्रिक-बाधा, अभिचार-प्रयोग , या दुष्ट शक्तियों (जैसे भूत, प्रेत, पिशाच, जिनका उल्लेख और में किया गया है) से पीड़ित हैं। यह कवच ऐसे तांत्रिक खतरों से निपटने के लिए एक प्रत्यक्ष-तांत्रिक-प्रतिउत्तर है। इसका विशेष प्रयोग दुष्ट-शक्ति-नाशन और अभिचार-खंडन है。
(पूर्ण संस्कृत पाठ: विनियोग, ध्यान एवं मूल कवच)
ॐ अस्य श्री अघोर-कवचस्य, श्री महा-भैरव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री अघोर-मूर्ति-रुद्रो देवता, हूं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, फट् कीलकम्, सर्व-शत्रु-क्षयार्थे, सकल-प्रेत-बाध��-उन्मूलनार्थे च जपे विनियोगः।
ॐ हूं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः अघोराय हृदयाय नमः।
(... इत्यादि... संपूर्ण षडङ्गन्यास...)
वन्दे शम्भुं अघोरेशं, श्मशान-अग्नि-सम-प्रभम्।
खड्गं खर्परं च त्रिशूलं, डमरुं धारिणं करे॥
नील-मेघ-प्रतीकाशं, व्याघ्र-चर्माम्बर-धरम्।
महा-रौद्रं महा-भीमं, शत्रु-नाश-करं परम्॥
ॐ हूं अघोर-मूर्तिः मे शिरः पातु, ललाटं पातु हूं शिवः।
ह्रीं-कारः मे भ्रुवौ पातु, नेत्रे पातु भय-अपहः॥
श्मशान-वासी मे घ्राणं, मुखं पातु महा-कालः।
क्रीं-कारः मे रसां पातु, कण्ठं पातु जगत्-पतिः॥
फट्-कारः मे भुजौ पातु, खड्ग-हस्तः करौ तथा।
वक्षः पातु महा-रुद्रः, उदरं पातु कृपानिधिः॥
... (इत्यादि... संपूर्ण कवच का पाठ)...
इति ते कथितं देव, कवचं परमाद्भुतम्।
रुद्रयामल-तन्त्रस्थं, गोपनीयं प्रयत्नतः॥
खण्ड 5: उपसंहार एवं साधक-हेतु अनिवार्य सावधानियाँ
यह शोध-संकलन भगवान शिव के दिव्य संरक्षण-कवचों को प्रस्तुत करता है। किन्तु, इन शक्तियों को धारण करने के लिए साधक को भी विशिष्ट नियमों का पालन करना अनिवार्य है। पौराणिक और तांत्रिक साधना के नियम भिन्न हैं, और उनका पालन न करने से साधना निष्फल या हानिकारक हो सकती है。
5.1 सात्त्विक (पौराणिक) कवच-पाठ के नियम (रुद्र कवच, अमोघ कवच)
पौराणिक कवच सात्त्विक ऊर्जा पर आधारित हैं। इनकी सिद्धि के लिए निम्नलिखित नियम अनिवार्य हैं:
- आहार-शुद्धि: पाठ की अवधि में, या यदि नित्य पाठ करते हैं, तो साधक को मांस, मदिरा का पूर्णतः त्याग करना चाहिए। यहाँ तक कि प्याज, लहसुन और किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन (बासी, उत्तेजक) का भी निषेध है।
- आचार-शुद्धि: ब्रह्मचर्य का पालन 'आवश्यक' माना गया है 1। साधक को अपने मन और शरीर को शुद्ध रखना चाहिए।
- मानसिक-शुद्धि: कवच का पाठ करते समय मन में किसी के प्रति छल, कपट, लोभ, लालच या अहित का भाव नहीं होना चाहिए। सात्त्विक कवच का प्रयोग तामसिक उद्देश्य (किसी का अहित करने) के लिए नहीं किया जा सकता।
- उच्चारण-शुद्धि (अत्यंत महत्वपूर्ण): कवच के संस्कृत श्लोकों का 'गलत उच्चारण से इसका पाठ कभी ना करें'। अशुद्ध उच्चारण से अर्थ का अनर्थ हो जाता है और मंत्र-शक्ति खंडित हो जाती है। यदि साधक शुद्ध संस्कृत उच्चारण में सक्षम नहीं है, तो एक महत्वपूर्ण विकल्प यह है कि वह 'हिन्दी में पाठ कर सकता है'। भाव और शुद्धता, अशुद्ध संस्कृत-पाठ से अधिक महत्वपूर्ण है。
5.2 तांत्रोक्त कवच-साधना के विशेष निषेध (महामृत्युञ्जय, अघोर कवच)
तांत्रिक कवच अत्यंत शक्तिशाली और 'दो-धारी-तलवार' के समान होते हैं। इनके लिए नियम और भी कठोर हैं:
- गुरु-अनिवार्यता: तांत्रिक साधना के लिए 'योग्य गुरु' का होना अपरिहार्य है। बिना गुरु-दीक्षा के इन कवचों की साधना करना स्पष्ट रूप से 'निषेध' है। कवच का 'विधान' और 'यंत्र' 'एडवांस लेवल' की साधना है, जिसे किसी वीडियो या पुस्तक से नहीं सीखा जा सकता।
- गोपनीयता: तांत्रिक साधना को गुप्त रखना अनिवार्य है। इसे प्रकट करने से सिद्धि में हानि होती है।
- धैर्य: तांत्रिक परिणाम '10 दिन' में प्राप्त नहीं होते । साधना एक 'जिम' (व्यायाम) की तरह है; करते समय 'आनंद' या कष्ट हो सकता है, पर परिणाम (शक्ति) बाद में प्रकट होता है।
- निषेध: तांत्रिक मार्ग का उपयोग कभी भी निम्न-स्तरीय शक्तियों (जैसे यक्षिणी, पिशाचिनी) की साधना के लिए नहीं करना चाहिए, यह साधक का पतन करता है।
5.3 अंतिम निष्कर्ष: कवच-साधना का सार
कवच-साधना का प्रारम्भ 'रक्षा' की कामना से होता है, जो भय पर आधारित है। किन्तु इसका अंतिम लक्ष्य 'अभेद' है, जो प्रेम और अनन्यता पर आधारित है。
जब कवच सिद्ध हो जाता है, तब साधक को उसका 'पाठ' करने की आवश्यकता नहीं रहती; साधक स्वयं 'कवच' बन जाता है। वह स्वयं वही 'शिव-रूप' हो जाता है, जिसका वह अपने शरीर पर प्रतिदिन न्यास कर रहा था। तब न कोई शत्रु रहता है, न कोई भय。
जैसा कि एक भक्त का भाव होता है: 'मैं शिव का हूँ, शिव मेरे हैं' —यह 'अनन्यता'की भावना ही वास्तविक, अभेद्य और अमोघ कवच है。