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सबसे शक्तिशाली रक्षा कवच: शरभेश्वर मंत्र साधना (शत्रु और तंत्र बाधा नाश)!

AI सारांश (Summary)

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श्री शरभेश्वर महामंत्र विधान: नृसिंह-शांति, उग्र-दोष निवारण और तांत्रिक सुरक्षा हेतु प्रामाणिक साधना-पद्धति

(एक विशेषज्ञ-स्तरीय शास्त्रीय-तांत्रिक शोध संकलन)

खंड 1: शरभेश्वर स्वरूप का शास्त्रीय अधिष्ठान एवं तात्विक सिद्धांत

भगवान शिव का शरभ (शरभेश्वर) स्वरूप हिंदू धर्म के गूढ़ तांत्रिक और पौराणिक आख्यानों में एक अद्वितीय स्थान रखता है। यह अवतार न केवल शिव की सर्वोच्च शक्ति को स्थापित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि ब्रह्मांडीय संतुलन को बहाल करने के लिए परम देव को उग्रता को भी शांत करना पड़ता है। यह संपूर्ण साधना इसी संतुलन और परम सुरक्षा के सिद्धांत पर आधारित है।

1.1. शरभ स्वरूप की उत्पत्ति: शिव और नृसिंह लीला का शाब्दिक विवेचन

शरभेश्वर के प्राकट्य का वर्णन मुख्य रूप से शैव महापुराणों और उपनिषदों में मिलता है, जहाँ उनका कार्य किसी राक्षस का वध करना नहीं, अपितु स्वयं नृसिंह अवतार की अनियंत्रित उग्रता को शांत करना था।

1.1.1. उत्पत्ति का कारण और शिवपुराण में वर्णन

दैत्यराज हिरण्यकशिपु का संहार करने के उपरान्त भी, भगवान विष्णु का नृसिंह रूप अत्यंत क्रोधित रहा। उनका प्रचंड स्वरूप, जिसके तेज से तीनों लोकों में प्रलय की आशंका उत्पन्न हो गई थी, किसी भी देवता या देवी द्वारा शांत नहीं किया जा सका। इस गंभीर संकट के निवारण हेतु, देवताओं ने परम शिव का आह्वान किया। शिव ने तब वीरभद्र को भेजा, किन्तु नृसिंह के प्रचंड बल के समक्ष जब वीरभद्र भी अप्रभावी हुए, तब स्वयं भगवान शिव ने शरभ रूप धारण करने का निर्णय लिया।

शिवपुराण की शतरुद्र संहिता, अध्याय 12 में इस अवतार का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। नंदीश्वर द्वारा सनत्कुमार को दिए गए उपदेश के अनुसार, उस समय शिव का जो महातेज प्रकट हुआ, वह अपनी प्रकृति में अद्वितीय था। उस तेज को न तो स्वर्णिम कहा जा सकता था, न वह अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, अथवा बिजली के समान था; वह उपमा से परे था। सभी प्रकार की दीप्ति (तेज) उस परम शिव-तेज में विलीन हो गई थी।

1.1.2. शरभ स्वरूप का विलक्षण प्राकट्य

तत्पश्चात, उस महातेज के मध्य भाग से रुद्र का एक विलक्षण, विकृत स्वरूप प्रकट हुआ, जिसे शरभेश्वर कहा गया। इस स्वरूप की विशेषताएँ असाधारण थीं:

  • बहुरूपता: यह स्वरूप एक पक्षी जैसा था जिसमें चोंच और पंख थे, किन्तु इसमें सिंह और मनुष्य के गुण भी समाहित थे। शरभ को प्रायः आठ पैरों वाला सिंह-पक्षी कहा जाता है।
  • शारीरिक संरचना: शरभेश्वर के हजार हाथ थे, उनके मस्तक पर जटाएँ थीं जो चंद्रकला से सुशोभित थीं। उनके दाँत अत्यंत तीखे और नख वज्र के समान दृढ़ थे—यही वज्र-नख उनके प्रमुख तांत्रिक शस्त्र बने। उनका कंठ नीलवर्ण का था।
  • उद्देश्य: शरभेश्वर का प्राकट्य किसी दैत्य-संहार के लिए नहीं, बल्कि शांतित्व और संतुलन स्थापित करने के लिए था। शरभ का स्वरूप, जो सिंह (पार्थिव बल), पक्षी (आकाशीय गति), और मानव (चेतना) का मिश्रण है, शिव के सभी लोकों पर प्रभुत्व को दर्शाता है। शरभ ही वह शक्ति हैं जो अनियंत्रित क्रोध, भय, या किसी भी उग्रता को 'जब्त' करने और 'शांत' करने की क्षमता रखती है।

1.2. शरभोपनिषद् और तांत्रिक प्रमाण

शरभ स्वरूप का तात्विक आधार केवल पुराणों तक सीमित नहीं है, अपितु शरभोपनिषद् जैसे प्रमुख उपनिषदीय ग्रंथों द्वारा भी प्रमाणित है।

  • शरभोपनिषद् का महत्व: यह उपनिषद्, जो अथर्ववेद से संबद्ध है , शैव परंपरा में रुद्र (शिव) को परमेश्वर घोषित करती है। इस ग्रंथ में ब्रह्मा ऋषि पिप्पलाद को शरभ के इस शक्तिशाली स्वरूप का उपदेश देते हैं।
  • तात्विक अधिष्ठान: शरभोपनिषद् में शरभेश्वर को अणोरणीयान् (अणु में भी सूक्ष्म), महत्तो महीयान् (स्थूल में भी स्थूल), और सभी प्राणियों के हृदय में छिपे हुए आत्मन के रूप में वर्णित किया गया है। जो साधक इस देव को जानता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  • शाक्त समागम का सिद्धांत: शरभेश्वर को परम शिव-शक्ति का समन्वित रूप माना जाता है। शैव शास्त्रों में यह मान्यता है कि शरभ के दो पंखों में शक्ति के दो उग्र रूप—शूलिनी देवी और प्रत्यंगिरा देवी—निवास करते हैं । इसलिए, शरभ साधना शिव और शक्ति (प्रत्यंगिरा/शूलिनी) दोनों के पूर्ण संरक्षण का प्रतीक बन जाती है।

1.3. शरभ साधना का प्रयोजन और सुरक्षा सिद्धांत

यह साधना विनाश से कहीं अधिक प्रतिबंध और रूपांतरण के लिए है। शरभ माला मंत्र की संरचना में प्रयुक्त क्रिया-पद इसका प्रमाण हैं।

  • प्रतिबंध और नाशन: शरभ माला मंत्र का मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के आध्यात्मिक और भौतिक विघ्नों को बांधना (बन्धय), नियंत्रित करना और समूल नष्ट (नाशय) करना है।
  • विघ्न निवारण: इस मंत्र के उपयोग से भूत-प्रेत, वेताल, ब्रह्मराक्षस जैसी नकारात्मक ऊर्जाएँ दूर होती हैं, और यह सभी प्रकार के ग्रह दोषों (विशेष रूप से शनि, राहु, केतु के उग्र प्रभाव) से भी सुरक्षा प्रदान करता है।
  • आंतरिक सुरक्षा और स्थिरीकरण: यह साधना केवल बाहरी शत्रुओं को ही नहीं हटाती, बल्कि मानसिक विकृतियों, गहन भय , चिंता, और अस्थिर मन को भी दूर करती है। साधना के दौरान यह साधक की आभा को शुद्ध रखता है, जिससे उच्च ऊर्जाओं के साथ कार्य करते समय साधक सुरक्षित रहता है।

खंड 2: प्रमुख शरभेश्वर मंत्र और उनकी तांत्रिक संरचना

शरभेश्वर की साधना में दो प्रमुख मंत्रों का विधान है: माला मंत्र (दीर्घ तांत्रिक शक्ति के प्रयोग हेतु) और गायत्री मंत्र (दैनिक जप और शांति हेतु)।

2.1. शरभेश्वर माला मंत्र

यह मंत्र तांत्रिक परंपराओं में अत्यंत गोपनीय और शक्तिशाली माना जाता है, जिसका प्रयोग शत्रुओं (आंतरिक या बाहरी) के बन्धन, मारण (शक्ति का नाशन) और नाशन के लिए किया जाता है।

क. मंत्र विनियोग :

किसी भी तांत्रिक मंत्र के जप से पूर्व उसके विनियोग का उच्चारण अनिवार्य है, जो मंत्र की शक्ति को साधक, देवता और उद्देश्य के साथ जोड़ता है。

  • ऋषि: ब्रह्मा या पिप्पलाद (शरभोपनिषद् अनुसार)।
  • छन्द: अनुष्टुप् या तांत्रिक छन्द।
  • देवता: श्री शरभेश्वर महा-रुद्र।
  • बीज: क्ष्रौं या हौं ।
  • शक्ति: शूलिनी/प्रत्यंगिरा।
  • कीलक: हुं फट् स्वाहा।

ख. मूल माला मंत्र का शुद्ध पाठ :

ॐ क्ष्रौं जूं हौं शरभ-शालुवाय पक्षिराजाय वज्र-नखाय सहस्रबाहवे महा-भैरवाय
अमुकं (शत्रु/दोष) बन्धय बन्धय मारय मारय नाशय नाशय हुं फट् स्वाहा॥

ग. तात्विक व्याख्या एवं गूढ़ अर्थ:

यह माला मंत्र एक क्रमबद्ध तांत्रिक आज्ञा है जो परम देव की शक्ति को विशिष्ट उद्देश्य की ओर निर्देशित करती है।

  • बीजाक्षरों का संयोजन: : प्रणव, ब्रह्मांडीय ध्वनि और शक्ति का आह्वान। क्ष्रौं: यह नृसिंह बीज है। शरभ साधना में इस बीज का प्रयोग एक गहन तात्विक सत्य को उजागर करता है: साधक नृसिंह की शक्ति को स्वयं शिव के शरभ रूप के माध्यम से नियंत्रित कर रहा है। यह तांत्रिक प्रक्रिया में 'विष का नाश विष से, किन्तु उच्च नियंत्रण के साथ' के सिद्धांत का पालन है। जूं हौं : जूं भैरव का बीज और हौं शिव का शक्तिशाली बीज है। यह मंत्र को परम उग्रता (भैरव) और परम नियंत्रण (शिव) प्रदान करता है।
  • देवता का आह्वान: शरभ-शालुवाय पक्षिराजाय: शरभेश्वर को शालुव (एक अन्य शक्तिशाली पौराणिक प्राणी) के साथ, पक्षियों का राजा (आकाशीय प्रभुत्व) और सभी लोकों का शासक माना गया है। वज्र-नखाय सहस्रबाहवे महा-भैरवाय: यह उनकी प्रचंड शक्ति का वर्णन है, जिनके नख वज्र के समान कठोर हैं, जिनकी हजार भुजाएँ हैं (असीमित कार्य क्षमता) और जो भैरव रूप में प्रकट हैं।
  • क्रिया पद: अमुकं: यहाँ लक्ष्य (व्यक्ति, ग्रहदोष, रोग, भय, शत्रु शक्ति) का नाम या उद्देश्य मानसिक रूप से स्थापित किया जाता है। बन्धय बन्धय: विघ्नकारी शक्ति को बाँधने, नियंत्रित करने, और क्रियाशील होने से रोकने का निर्देश। यह एक अदृश्य ऊर्जा-जाल बनाने का कार्य करता है। मारय मारय नाशय नाशय: विघ्न की शक्ति को पूर्णतः नष्ट करने और उसे जड़ से उखाड़ फेंकने का उग्र निर्देश। हुं फट् स्वाहा: उग्र तांत्रिक आवरण और ऊर्जा को पूर्ण समर्पण के साथ स्थापित करने का कार्य करता है।

2.2. शरभेश्वर गायत्री मंत्र

शरभ गायत्री मंत्र दैनिक पूजा, ध्यान और शांतिकरण हेतु अत्यधिक शुभ और सरल है।

ॐ शरभेशाय विद्महे पक्षिराजाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥

अर्थ: हम शरभेश (शरभ रूपधारी ईश्वर) को जानते हैं; हम पक्षियों के राजा (पक्षिराज) का ध्यान करते हैं। वह रुद्र (शिव) हमें सद्बुद्धि और प्रेरणा प्रदान करें।

खंड 3: साधना-पद्धति: जप विधि और षडांग न्यास

शरभेश्वर साधना की शक्ति को सुरक्षित रूप से ग्रहण करने और उसका उपयोग करने के लिए शास्त्र-सम्मत विधि (पद्धति) का पालन अनिवार्य है। यह पद्धति साधक के शरीर को दिव्य ऊर्जा के लिए उपयुक्त पात्र बनाती है।

3.1. संकल्प, गुरु-दीक्षा, और शुद्धता का महत्व

3.1.1. गुरु उपदेश की अनिवार्यता

शरभ साधना उग्र विद्या के अंतर्गत आती है। तांत्रिक परंपरा में ऐसी महाशक्तियों की साधना बिना योग्य गुरु-उपदेश और दीक्षा के निषिद्ध मानी गई है। गुरु ही मंत्र के सही स्वरूप, विनियोग, और साधना के दौरान उत्पन्न होने वाली उच्च ऊर्जा को नियंत्रित करने का ज्ञान प्रदान करते हैं। गुरु के मार्गदर्शन के अभाव में, साधक मंत्र की उग्र शक्ति से स्वयं को हानि पहुँचा सकता है।

3.1.2. सात्त्विक उद्देश्य और दक्षिणाचार

इस साधना का उद्देश्य केवल आंतरिक शुद्धि, भय-निवारण और धार्मिक बाधाओं का शमन होना चाहिए। इसे दक्षिणाचार मार्ग के अनुरूप सात्त्विक उद्देश्यों के लिए ही प्रयोग किया जाना चाहिए। किसी भी तामसिक या हानिकारक प्रयोग का प्रयास साधक के लिए अत्यंत कठोर कर्मफल (विपरीत परिणाम) उत्पन्न कर सकता है, इसलिए ऐसा प्रयोग पूर्णतः निषिद्ध है।

3.2. ध्यान विधान

साधना से पूर्व शरभेश्वर के स्वरूप का मानसिक चित्रण (ध्यान) आवश्यक है।

ध्यान स्वरूप: साधक को शिव का स्मरण वज्र जैसे नखों वाले, सर्पों से अलंकृत, मुंडमाला धारण करने वाले, और असंख्य ब्रह्मा की शक्ति से युक्त के रूप में करना चाहिए। इस ध्यान में, उन्हें हजार भुजाओं वाले, चंद्रकला से सुसज्जित, उग्र और भयंकर पक्षी-सिंह रूप में देखना चाहिए।

3.3. षडांग न्यास विधान

न्यास मंत्र के अक्षरों (या बीजाक्षरों) को शरीर के विभिन्न अंगों में स्थापित करने की क्रिया है, जिससे साधक का शरीर मंत्र की शक्ति से अभेद्य दैवी कवच बन जाता है। माला मंत्र के उग्र स्वरूप के लिए षडांग न्यास अनिवार्य है। न्यास के लिए माला मंत्र के छह खंडों या बीजाक्षरों का उपयोग किया जाता है, जो शरीर के छः प्रमुख अंगों (हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र, अस्त्र) को सक्रिय करते हैं।

न्यास का अंग विनियोग स्पर्श अंग तात्विक कार्य
1. हृदयाय नमः ॐ क्ष्रौं हृदयाय नमः हृदय शक्ति और चैतन्य का केंद्रण।
2. शिरसे स्वाहा जूं हौं शिरसे स्वाहा शिर ज्ञान और नियंत्रण का आरोहण।
3. शिखायै वषट् शरभ-शालुवाय शिखायै वषट् शिखा मंत्र शक्ति का स्थिरीकरण और आकाशीय संबंध।
4. कवचाय हुम् पक्षिराजाय कवचाय हुम् दोनों कंधे दैवी कवच का निर्माण।
5. नेत्रत्रयाय वौषट् मारय नाशय नेत्रत्रयाय वौषट् तीन नेत्र दृष्टि द्वारा विघ्नों का भेदन और अंतर्ज्ञान।
6. अस्त्राय फट् हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट् दसों दिशाओं में अस्त्र द्वारा सभी ओर से विघ्नों का निवारण।

3.4. पुरश्चरण विधान और जप नियम

(पुरश्चरण) मंत्र सिद्धि के लिए एक व्यवस्थित अनुष्ठान है, जिसमें मंत्र का एक निर्धारित संख्या में जप किया जाता है।

3.4.1. जप संख्या और काल गणना

प्रत्येक मंत्र की सिद्धि के लिए शास्त्रों द्वारा निर्धारित जप संख्या होती है। शरभ माला मंत्र की शक्ति के अनुपात में, साधक को गुरु के निर्देशानुसार 5 लाख, 10 लाख, या 12.5 लाख जप का संकल्प लेना चाहिए।

जप की तीव्रता: उदाहरणार्थ, यदि 5 लाख जप का संकल्प 15 दिनों में पूरा करना है, तो साधक को प्रतिदिन लगभग 340 माला (4000 माला को 15 दिन से विभाजित करने पर) करनी होगी। इसके लिए प्रतिदिन 1 से 10 घंटे का जप आवश्यक हो सकता है।

माला और दिशा: जप रुद्राक्ष की माला से किया जाना चाहिए। दिशा का निर्धारण सामान्यतः उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके किया जाता है, यद्यपि तांत्रिक प्रयोगों में उद्देश्य के अनुसार दिशा (जैसे शत्रु नाश हेतु दक्षिण या नैऋत्य) बदल सकती है।

3.4.2. नियम और आहार शुद्धि

शरभ साधना की सफलता केवल संख्या पर निर्भर नहीं करती, बल्कि तीव्रता और चित्तशुद्धि पर निर्भर करती है。

  • आहार नियम: पुरश्चरण काल में साधक को अत्यंत कठोर सत्त्विक आहार लेना चाहिए। इसमें केवल फल, दूध, और उबली हुई सब्जियाँ शामिल हो सकती हैं। अनाज, मांस, मछली, अंडे, लहसुन, प्याज, और सभी तामसिक खाद्य पदार्थ पूर्णतः वर्जित हैं। यह कठोर संयम शरीर की ऊर्जा को संरक्षित करता है और मन को एकाग्रता के लिए तैयार करता है।
  • अन्य नियम: साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन, भूमि पर शयन, और मौन रहने का नियम आवश्यक है।

खंड 4: विशिष्ट तांत्रिक क्रियाएँ और प्रयोग

शरभेश्वर साधना का अंतिम चरण उसके विशिष्ट प्रयोग और हवन प्रक्रिया में निहित है, जो साधना के फल को सिद्ध और स्थिर करता है।

4.1. आवाहन, अभिषेक और षोडशोपचार पूजा

साधना से पूर्व और प्रतिदिन पूजा में षोडशोपचार विधि का प्रयोग किया जाता है。

  • आवाहन: संकल्प के बाद, शरभेश्वर (शिव) का आह्वान करते हुए उन्हें यंत्र, चित्र, या शिवलिंग पर स्थापित किया जाता है。
  • अंग न्यास: षडांग न्यास (खंड 3.3) के माध्यम से साधक स्वयं को सुरक्षित करता है。
  • अभिषेक: शुद्ध जल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, चीनी), और सुगंधित पदार्थों से अभिषेक किया जाता है。
  • अर्पण और नैवेद्य: सात्त्विक धूप-दीप, चंदन, और विशेष रूप से लाल रंग के पुष्प (रक्त पुष्प) शरभेश्वर को अर्पित किए जाते हैं, जो उनके उग्र स्वरूप को शांत रखने में सहायक होते हैं。

4.2. होम और पूर्णाहुति विधान

पुरश्चरण के उपरान्त मंत्र सिद्धि की पूर्णता हेतु होम (हवन) अनिवार्य है。

  • दशांश हवन: कुल जप संख्या का दसवाँ भाग (1/10) होम किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि 5 लाख जप किए गए हैं, तो 50,000 आहुतियाँ अनिवार्य हैं。
  • तर्पण और मार्जन: हवन का दशांश (1/100 भाग) तर्पण (जल या दुग्ध से) और तर्पण का दशांश (1/1000 भाग) मार्जन किया जाता है。
  • हव्य सामग्री: होम में धान्य, यव (जौ), तिल, चावल, दूध, दही, और घी का उपयोग प्रमुखता से किया जाता है । पूर्णाहुति के बाद, साधक शेष बचे हुए जप की त्रुटियों को दूर करने के लिए विशेष प्रायश्चित्त जप (जैसे गायत्री जप) भी कर सकता है।

4.3. विशेष प्रयोग: उग्र बाधाओं का निवारण

शरभेश्वर की शक्ति विशेष रूप से उन समस्याओं के समाधान के लिए प्रयुक्त होती है जो अत्यंत उग्र और दुर्जेय होती हैं。

क. उग्र ग्रहदोष और ज्योतिषीय बाधा निवारण

शरभेश्वर की शक्ति काल और कर्म दोनों के अधिपति शिव से जुड़ी है। यह साधना क्रूर ग्रहों (जैसे राहु, केतु, शनि) द्वारा उत्पन्न सभी प्रकार के ग्रह दोषों को बांधने और उन्हें निष्क्रिय करने में सक्षम है। प्रयोग विधि: किसी ग्रहण काल, मंगलवार या शनिवार को विशेष रूप से संकल्प लेकर शरभ माला मंत्र का 10,000 या 21,000 जप करना विशेष फलदायी होता है。

ख. नकारात्मक ऊर्जा और अदृश्य शत्रु का बन्धन

यह मंत्र प्रचंड सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है, जो अदृश्य आध्यात्मिक आक्रमणों और तांत्रिक प्रयोगों से रक्षा करता है। निवारण योग्य बाधाएं: भूत-प्रेत, वेताल, ब्रह्मराक्षस, काला जादू और अनदेखे आध्यात्मिक हमले। प्रयोग: जब कोई साधक या व्यक्ति किसी अज्ञात नकारात्मक शक्ति से पीड़ित हो, तब माला मंत्र में 'अमुकं' के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम या 'सर्व बाधक शक्तिम्' स्थापित कर, विशेष रूप से बन्धय बन्धय, मारय मारय, और नाशय नाशय क्रियाओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह मंत्र उस ऊर्जा को नष्ट करने से पहले बांध देता है, जिससे उसका पलायन या प्रत्याक्रमण असंभव हो जाता है。

ग. आंतरिक उथल-पुथल, क्रोध और भय-निवारण

शरभेश्वर ने स्वयं नृसिंह के अनियंत्रित क्रोध को शांत किया था। यह क्षमता इस मंत्र को साधक के भीतर के अनियंत्रित तत्वों को शांत करने के लिए एक उत्कृष्ट उपकरण बनाती है。 आंतरिक लाभ: यह साधना साधक के गहन भय , अत्यधिक क्रोध, मानसिक विक्षिप्तता , और अंतर्निहित अस्थिर मन को शांत करने में अद्वितीय रूप से प्रभावी है। यह मन को शुद्ध करता है, स्थिरता प्रदान करता है, और साहस भरता है。

: शरभेश्वर साधना प्रयोग और फल

बाधा का स्वरूप विनियोग उद्देश्य मंत्र की मुख्य क्रिया शास्त्रीय/तांत्रिक आधार
उग्र ग्रहदोष काल-विकृति का स्थिरीकरण बन्धन एवं शांतिकरण शरभ, काल के अधिपति रुद्र का रूप हैं।
अदृश्य शत्रु/तान्त्रिक प्रहार समूल उच्च निष्कासन मारय, नाशय प्रत्यंगिरा और शूलिनी शक्ति का बल पंखों में स्थित है।
गहन भय, मानसिक अस्थिरता चित्त शुद्धि और आंतरिक संतुलन क्रोध का दमन नृसिंह के उग्र क्रोध को शांत करने की क्षमता।
तीव्र साधना के दौरान आध्यात्मिक आभा सुरक्षा कवचाय हुम् न्यास द्वारा शरीर को दिव्य आवरण में लपेटना।

खंड 5: सावधानियाँ, निषेध और निष्कर्ष

5.1. साधना के कठोर नियम और निषेध

शरभेश्वर साधना अत्यंत तीव्र और त्वरित परिणाम देने वाली मानी जाती है। इसलिए, इसके अभ्यास में असाधारण सावधानी और शास्त्रीय नियमों का पालन आवश्यक है。

  • गुरु-निर्देशन: यह साधना पूर्णतः गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के अधीन ही करनी चाहिए। गुरु के बिना जप या तांत्रिक प्रयोग से साधक की ऊर्जा दूषित हो सकती है。
  • सात्त्विक लक्ष्य: इस विद्या का उपयोग केवल आत्म-रक्षा, धर्म की रक्षा, और आंतरिक शुद्धि के लिए ही किया जाना चाहिए। धन, यश या किसी को अकारण हानि पहुँचाने जैसे तामसिक या अनैतिक उद्देश्यों के लिए इसका प्रयोग करने वाले साधक को स्वयं ही विपरीत फल का सामना करना पड़ता है ।
  • शुद्धि और आचार: साधना काल में शारीरिक और मानसिक शुद्धता सर्वोच्च होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य, सत्यनिष्ठा, और अहिंसा का पालन अनिवार्य है。

5.2. संदर्भ और शास्त्रीय प्रमाण

इस संकलन में वर्णित शरभेश्वर मंत्र और विधियों का आधार प्रमुख शैव और तांत्रिक ग्रंथ हैं:

  • शिवपुराण: शतरुद्र संहिता, अध्याय 12 (शरभ अवतार और वर्णन)।
  • शरभोपनिषद्: (रुद्र की परम सत्ता और मोक्षदायी ज्ञान)।
  • कालिकापुराण: (शरभ लीला का तांत्रिक आख्यान)।
  • तांत्रिक सिद्धांत: शरभ माला मंत्र का विनियोग, षडांग न्यास, और बीजाक्षरों (हौं, क्ष्रौं, जूं) की शक्ति परंपरा से प्राप्त है。

5.3. निष्कर्ष

भगवान शिव का शरभेश्वर स्वरूप चरम उग्रता के संतुलन और परम सुरक्षा का प्रतीक है। यह संकलन शरभ महामंत्र (माला मंत्र) और उसकी साधना-विधि को पूर्ण शास्त्रीय शुद्धता के साथ प्रस्तुत करता है। यह साधना केवल बाहरी नकारात्मक शक्तियों (जैसे भूत-प्रेत, तांत्रिक बाधाएँ) और उग्र ग्रह दोषों के निवारण हेतु ही नहीं, बल्कि साधक के भीतर व्याप्त गहन भय, अनियंत्रित क्रोध, और मानसिक अस्थिरता को शांत करने के लिए भी एक अकाट्य तांत्रिक उपाय है。

जो साधक गुरु-निर्देशन में, शुद्ध चित्त और सात्त्विक उद्देश्य से इस महामंत्र का पुरश्चरण करता है, वह भगवान शरभ शिव की कृपा से दुर्जेय बाधाओं, आंतरिक उथल-पुथल और भय से मुक्त होकर न केवल दैवीय सुरक्षा प्राप्त करता है, बल्कि स्थिरता और आध्यात्मिक साहस की प्राप्ति कर मोक्ष के मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर होता है। शरभ साधना ब्रह्मांडीय शांतित्व के सिद्धांत का चरम उदाहरण है。