शिवमहिम्न स्तोत्र: संस्कृत पाठ, विधि और रचयिता की कथा !
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1. विषय-प्रवेश
भारतीय वाङ्मय में स्तोत्र साहित्य का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। वेद, उपनिषद और पुराणों के दार्शनिक और पौराणिक तत्त्वों को जब भक्ति और काव्य के रस में डुबोकर प्रस्तुत किया जाता है, तब 'स्तोत्र' का जन्म होता है। इन असंख्य स्तोत्रों के मध्य 'शिवमहिम्नस्तोत्रम्' एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र की भांति है, जो न केवल अपनी काव्यगत सुषमा के लिए अपितु अपने गंभीर दार्शनिक प्रतिपादन के लिए भी सहस्राब्दियों से विद्वानों और भक्तों के कंठ का हार बना हुआ है। 'महिम्न' शब्द का अर्थ है—महिमा। अतः, यह भगवान शिव की महिमा का गान है। किन्तु, यह गान सामान्य स्तुति से भिन्न है; यह उस परमसत्ता के वर्णन का प्रयास है जिसे वेद भी 'नेति-नेति' कहकर मौन हो जाते हैं।
2. श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम् — मूल संस्कृत पाठ
अनुसंधान के प्राथमिक चरण के रूप में, यहाँ शिवमहिम्नस्तोत्रम् का शुद्ध और सम्पूर्ण संस्कृत पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पाठ परम्परागत 43 श्लोकों के प्रारूप में है, जिसे 'पुष्पदंत विरचित' माना जाता है।
3. रचनाकार: गन्धर्वराज पुष्पदंत
शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना का श्रेय पुष्पदंत को दिया जाता है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में एक गंधर्व (स्वर्गीय संगीतकार) के रूप में वर्णित हैं। 'पुष्पदंत' नाम का शाब्दिक अर्थ है "पुष्प जैसे दाँतों वाला" (पुष्प = फूल, दंत = दाँत), जो उनके अत्यंत सुंदर और सौम्य स्वरूप का परिचायक है।
यद्यपि आधुनिक साहित्य समीक्षक इसे किसी उच्च कोटि के मानव कवि की रचना मान सकते हैं जिसने 'पुष्पदंत' उपनाम ग्रहण किया हो, परंतु भारतीय आस्तिक परंपरा में गंधर्वराज पुष्पदंत को ही इसका रचयिता माना जाता है। स्तोत्र के 37 वें श्लोक में स्वयं कवि अपना परिचय देते हैं:
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः...
अर्थात्, "कुसुमदशन (पुष्पदंत) नामक गंधर्वों का राजा, जो चंद्रमौलि भगवान शिव का दास है..."।
रचना की पृष्ठभूमि और दंतकथा
इस स्तोत्र की रचना के पीछे एक अत्यंत रोचक और शिक्षाप्रद कथा प्रचलित है, जो 'अपराध', 'दण्ड', और 'भक्ति द्वारा प्रायश्चित' की त्रिवेणी है। यह कथा बताती है कि कैसे एक अदृश्य शक्ति के दुरुपयोग और अनजाने में किए गए अपराध का निवारण केवल शिव की स्तुति से ही संभव हुआ।
- पुष्पों की चोरी : प्राचीन काल में चित्ररथ नामक एक शिवभक्त राजा थे। उन्होंने भगवान शिव की पूजा के लिए एक अत्यंत सुंदर उद्यान (बगीचा) बनवाया था, जिसमें दुर्लभ और सुगंधित पुष्प खिलते थे। राजा प्रतिदिन इन पुष्पों से शिव की पूजा करते थे। गंधर्वराज पुष्पदंत, जो आकाशमार्ग से विचरण करते थे, इस उद्यान के सौंदर्य से मोहित हो गए। अपनी अदृश्य रहने की शक्ति का उपयोग करते हुए, वे प्रतिदिन उद्यान में प्रवेश करते और राजा के आने से पहले ही सारे सुंदर पुष्प चुरा ले जाते थे। वे इन पुष्पों का उपयोग स्वयं शिव पूजा के लिए करते थे, जो उनकी भक्ति का परिचायक तो था, किन्तु विधि अनैतिक थी।
- राजा का संकट और जाल : राजा चित्ररथ अत्यंत दुखी हुए क्योंकि उन्हें अपनी पूजा के लिए पुष्प नहीं मिल पा रहे थे। पहरेदारों की नियुक्ति के बावजूद, चोर पकड़ में नहीं आ रहा था क्योंकि वह अदृश्य था। अंततः, राजा ने समझ लिया कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि कोई दैवीय शक्ति संपन्न जीव है। चोर को पकड़ने के लिए राजा ने एक धार्मिक युक्ति अपनाई। उन्होंने उद्यान के रास्तों पर शिव निर्माल्य (भगवान शिव को चढ़ाए जा चुके फूल और बेलपत्र) बिखेर दिए।
- शक्ति का ह्रास : शिव निर्माल्य को लांघना (पैर रखना) शास्त्रों में घोर पाप और अपमान माना जाता है। पुष्पदंत, पुष्प चुराने की धुन में, अनजाने में इस निर्माल्य पर पैर रख बैठे। शिव के पवित्र निर्माल्य का अपमान होते ही उनकी अदृश्य रहने की शक्ति तत्काल समाप्त हो गई। वे दृश्य हो गए और उनकी उड़ने की शक्ति भी क्षीण हो गई।
- स्तोत्र की रचना : अपनी दैवीय शक्तियों के खो जाने और शिव के कोप का भाजन बनने पर पुष्पदंत को गहरा पश्चाताप हुआ। उन्होंने राजा से क्षमा मांगने के बजाय सीधे महादेव की शरण ली। उसी क्षण, भय और भक्ति के मिश्रित भाव से, उनके मुख से अविरल धारा के रूप में यह 'महिम्न स्तोत्र' फूट पड़ा। उन्होंने शिव की महिमा, उनकी शक्ति, और उनके करुणामय स्वरूप का वर्णन 43 श्लोकों में किया।
- क्षमा और वरदान : पुष्पदंत की आर्त पुकार और स्तोत्र की अद्भुत काव्य-रचना से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने न केवल पुष्पदंत को क्षमा किया बल्कि उनकी खोई हुई शक्तियाँ भी लौटा दीं। भगवान ने वरदान दिया कि जो भी इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे शिव सायुज्य (मोक्ष) और लौकिक सुखों की प्राप्ति होगी ।
यह कथा यह स्थापित करती है कि यह स्तोत्र केवल शब्दों का संग्रह नहीं, अपितु एक 'प्रायश्चित-स्तोत्र' है, जो बड़े से बड़े पापों को धोने की क्षमता रखता है।
4. ऐतिहासिक काल-निर्धारण
यद्यपि परंपरा इसे पौराणिक काल का मानती है, आधुनिक ऐतिहासिक और साहित्यिक अनुसंधान के आधार पर इस स्तोत्र की रचना का एक निश्चित कालखंड निर्धारित किया जा सकता है। इसके लिए सबसे प्रबल प्रमाण संस्कृत काव्यशास्त्र से मिलता है।
राजशेखर और 'काव्यमीमांसा' का प्रमाण
प्रसिद्ध संस्कृत कवि और आलोचक राजशेखर, जो गुर्जर-प्रतिहार राजा महेंद्रपाल प्रथम और महिपाल प्रथम के दरबारी कवि थे, ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यमीमांसा' में शिवमहिम्न स्तोत्र का उल्लेख किया है।
- उद्धरण : राजशेखर ने शिवमहिम्न स्तोत्र के 5वें श्लोक (किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं...) को अपने ग्रंथ में उद्धृत किया है।
- काल-निर्णय : राजशेखर का समय 880 ईसवी से 920 ईसवी (9वीं-10वीं शताब्दी) के मध्य निश्चित है।
- निष्कर्ष: यदि 9वीं शताब्दी के अंत में राजशेखर इस स्तोत्र को एक 'मानक' और 'उत्कृष्ट' काव्य के रूप में उद्धृत कर रहे थे, तो इसका अर्थ है कि यह स्तोत्र उस समय तक अत्यंत प्रसिद्ध हो चुका था।
6. पाठ विधि और श्रद्धा
शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ केवल साहित्य पठन नहीं, बल्कि एक 'वाङ्मयी पूजा' (शब्दों द्वारा पूजा, श्लोक 40) है। शास्त्रों में इसके पाठ के लिए विशेष विधि और श्रद्धा का विधान है।
1. पाठ का समय
- प्रदोष काल: प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी तिथि को सूर्यास्त के समय (प्रदोष) शिव पूजा और इस स्तोत्र के पाठ का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है।
- महाशिवरात्रि: इस रात्रि के चारों प्रहरों में इसका पाठ विशेष फलदायी है।
- सोमवार: श्रावण मास के सोमवार को इसका पाठ शिव कृपा प्राप्ति का सुगम मार्ग है।
2. शास्त्रीय विधि
श्रद्धालु को निम्नलिखित क्रम का पालन करना चाहिए:
- शुद्धि: स्नान करके स्वच्छ (श्वेत) वस्त्र धारण करें।
- आसन: कुशा या ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर मुख होकर बैठें।
- संकल्प: मन में संकल्प लें कि "मैं अपने पापों के नाश और शिव-प्रीति हेतु इस स्तोत्र का पाठ कर रहा हूँ।"
- न्यास: यह एक तांत्रिक क्रिया है जिसमें शरीर के अंगों में देवताओं का आवाहन किया जाता है。
ऋषि: पुष्पदंत (सिर पर स्पर्श करें)।
छंद: शिखरिणी (मुख पर)।
देवता: श्री सदाशिव (हृदय पर)। - ध्यान: पाठ शुरू करने से पहले शिव के स्वरूप का ध्यान करना अनिवार्य है। इसके लिए ध्यान श्लोक का उच्चारण करें:
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं...
(अर्थ: जो चांदी के पर्वत (कैलाश) के समान श्वेत हैं, जिनके माथे पर सुंदर चंद्रमा है, जो रत्न-आभूषणों से उज्ज्वल हैं, उन्हें मैं नमन करता हूँ।)। - पाठ: स्पष्ट उच्चारण और अर्थ-चिंतन के साथ 43 श्लोकों का पाठ करें।
- समर्पण: अंत में "ॐ तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु" या श्लोक 40 (इत्येषा वाङ्मयी पूजा...) के साथ पाठ शिव के चरणों में समर्पित करें।
3. फलश्रुति
स्तोत्र के अंतिम श्लोकों (34-43) में इसके पाठ का फल बताया गया है, जिसे 'फलश्रुति' कहते हैं。
- पाप मुक्ति: श्लोक 42 के अनुसार, "जो मनुष्य दिन में एक, दो या तीन बार इसका पाठ करता है, वह सर्व पापों से मुक्त होकर शिवलोक में पूजित होता है" (सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते)।
- लौकिक सुख: श्लोक 34 में कहा गया है कि पाठक को "प्रचुर धन, दीर्घ आयु, पुत्र और कीर्ति" की प्राप्ति होती है।
- सर्वश्रेष्ठ साधना: श्लोक 36 घोषणा करता है कि दीक्षा, दान, तप, तीर्थ और यज्ञ—इनमें से कोई भी महिम्न स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश (1/16th) के बराबर भी नहीं है।
महिम्नः स्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ।
7. निष्कर्ष
शिवमहिम्नस्तोत्रम् केवल एक धार्मिक पाठ नहीं है; यह भारतीय आध्यात्मिकता का एक ऐसा दस्तावेज है जो भक्ति की पराकाष्ठा और ज्ञान की गहराई को एक साथ समेटे हुए है।
- साहित्यिक दृष्टि से: यह 'शिखरिणी' छंद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसकी भाषा प्रांजल और प्रवाहपूर्ण है।
- ऐतिहासिक दृष्टि से: राजशेखर (9वीं सदी) द्वारा इसका उल्लेख इसे संस्कृत साहित्य की एक प्राचीन और प्रमाणित निधि सिद्ध करता है।
- धार्मिक दृष्टि से: यह 'शिव' को केवल एक पौराणिक देवता नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय चेतना और परब्रह्म के रूप में स्थापित करता है।
गंधर्वराज पुष्पदंत की यह रचना हमें सिखाती है कि जब मानवीय बुद्धि और तर्क हार जाते हैं, तब समर्पण और स्तुति ही उस परम तत्त्व तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है। जैसा कि स्तोत्र स्वयं कहता है—भले ही हमारे पास ब्रह्मा जैसी वाणी न हो, परंतु यदि हृदय में शुद्ध भाव हो, तो हमारी तुतलाती वाणी भी "परमेश्वर" को स्वीकार्य होती है।
अतः, जो भी साधक शिवमहिम्नस्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह न केवल अपनी वाणी को पवित्र करता है, बल्कि शिव-सायुज्य की ओर एक सशक्त कदम बढ़ाता है।
शिवमहिम्नः: स्तोत्रसाहित्ये अद्वितीयं रत्नम् — एकं विस्तृतं अनुसंधानप्रतिवेदनम्
1. विषय-प्रवेश
भारतीय वाङ्मय में स्तोत्र साहित्य का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। वेद, उपनिषद और पुराणों के दार्शनिक और पौराणिक तत्त्वों को जब भक्ति और काव्य के रस में डुबोकर प्रस्तुत किया जाता है, तब 'स्तोत्र' का जन्म होता है। इन असंख्य स्तोत्रों के मध्य 'शिवमहिम्नस्तोत्रम्' एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र की भांति है, जो न केवल अपनी काव्यगत सुषमा के लिए अपितु अपने गंभीर दार्शनिक प्रतिपादन के लिए भी सहस्राब्दियों से विद्वानों और भक्तों के कंठ का हार बना हुआ है। 'महिम्न' शब्द का अर्थ है—महिमा। अतः, यह भगवान शिव की महिमा का गान है। किन्तु, यह गान सामान्य स्तुति से भिन्न है; यह उस परमसत्ता के वर्णन का प्रयास है जिसे वेद भी 'नेति-नेति' कहकर मौन हो जाते हैं।
2. श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम् — मूल संस्कृत पाठ
अनुसंधान के प्राथमिक चरण के रूप में, यहाँ शिवमहिम्नस्तोत्रम् का शुद्ध और सम्पूर्ण संस्कृत पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पाठ परम्परागत 43 श्लोकों के प्रारूप में है, जिसे 'पुष्पदंत विरचित' माना जाता है।
3. रचनाकार: गन्धर्वराज पुष्पदंत
शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना का श्रेय पुष्पदंत को दिया जाता है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में एक गंधर्व (स्वर्गीय संगीतकार) के रूप में वर्णित हैं। 'पुष्पदंत' नाम का शाब्दिक अर्थ है "पुष्प जैसे दाँतों वाला" (पुष्प = फूल, दंत = दाँत), जो उनके अत्यंत सुंदर और सौम्य स्वरूप का परिचायक है।
यद्यपि आधुनिक साहित्य समीक्षक इसे किसी उच्च कोटि के मानव कवि की रचना मान सकते हैं जिसने 'पुष्पदंत' उपनाम ग्रहण किया हो, परंतु भारतीय आस्तिक परंपरा में गंधर्वराज पुष्पदंत को ही इसका रचयिता माना जाता है। स्तोत्र के 37 वें श्लोक में स्वयं कवि अपना परिचय देते हैं:
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः...
अर्थात्, "कुसुमदशन (पुष्पदंत) नामक गंधर्वों का राजा, जो चंद्रमौलि भगवान शिव का दास है..."।
रचना की पृष्ठभूमि और दंतकथा
इस स्तोत्र की रचना के पीछे एक अत्यंत रोचक और शिक्षाप्रद कथा प्रचलित है, जो 'अपराध', 'दण्ड', और 'भक्ति द्वारा प्रायश्चित' की त्रिवेणी है। यह कथा बताती है कि कैसे एक अदृश्य शक्ति के दुरुपयोग और अनजाने में किए गए अपराध का निवारण केवल शिव की स्तुति से ही संभव हुआ।
- पुष्पों की चोरी : प्राचीन काल में चित्ररथ नामक एक शिवभक्त राजा थे। उन्होंने भगवान शिव की पूजा के लिए एक अत्यंत सुंदर उद्यान (बगीचा) बनवाया था, जिसमें दुर्लभ और सुगंधित पुष्प खिलते थे। राजा प्रतिदिन इन पुष्पों से शिव की पूजा करते थे। गंधर्वराज पुष्पदंत, जो आकाशमार्ग से विचरण करते थे, इस उद्यान के सौंदर्य से मोहित हो गए। अपनी अदृश्य रहने की शक्ति का उपयोग करते हुए, वे प्रतिदिन उद्यान में प्रवेश करते और राजा के आने से पहले ही सारे सुंदर पुष्प चुरा ले जाते थे। वे इन पुष्पों का उपयोग स्वयं शिव पूजा के लिए करते थे, जो उनकी भक्ति का परिचायक तो था, किन्तु विधि अनैतिक थी।
- राजा का संकट और जाल : राजा चित्ररथ अत्यंत दुखी हुए क्योंकि उन्हें अपनी पूजा के लिए पुष्प नहीं मिल पा रहे थे। पहरेदारों की नियुक्ति के बावजूद, चोर पकड़ में नहीं आ रहा था क्योंकि वह अदृश्य था। अंततः, राजा ने समझ लिया कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि कोई दैवीय शक्ति संपन्न जीव है। चोर को पकड़ने के लिए राजा ने एक धार्मिक युक्ति अपनाई। उन्होंने उद्यान के रास्तों पर शिव निर्माल्य (भगवान शिव को चढ़ाए जा चुके फूल और बेलपत्र) बिखेर दिए।
- शक्ति का ह्रास : शिव निर्माल्य को लांघना (पैर रखना) शास्त्रों में घोर पाप और अपमान माना जाता है। पुष्पदंत, पुष्प चुराने की धुन में, अनजाने में इस निर्माल्य पर पैर रख बैठे। शिव के पवित्र निर्माल्य का अपमान होते ही उनकी अदृश्य रहने की शक्ति तत्काल समाप्त हो गई। वे दृश्य हो गए और उनकी उड़ने की शक्ति भी क्षीण हो गई।
- स्तोत्र की रचना : अपनी दैवीय शक्तियों के खो जाने और शिव के कोप का भाजन बनने पर पुष्पदंत को गहरा पश्चाताप हुआ। उन्होंने राजा से क्षमा मांगने के बजाय सीधे महादेव की शरण ली। उसी क्षण, भय और भक्ति के मिश्रित भाव से, उनके मुख से अविरल धारा के रूप में यह 'महिम्न स्तोत्र' फूट पड़ा। उन्होंने शिव की महिमा, उनकी शक्ति, और उनके करुणामय स्वरूप का वर्णन 43 श्लोकों में किया।
- क्षमा और वरदान : पुष्पदंत की आर्त पुकार और स्तोत्र की अद्भुत काव्य-रचना से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने न केवल पुष्पदंत को क्षमा किया बल्कि उनकी खोई हुई शक्तियाँ भी लौटा दीं। भगवान ने वरदान दिया कि जो भी इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे शिव सायुज्य (मोक्ष) और लौकिक सुखों की प्राप्ति होगी ।
यह कथा यह स्थापित करती है कि यह स्तोत्र केवल शब्दों का संग्रह नहीं, अपितु एक 'प्रायश्चित-स्तोत्र' है, जो बड़े से बड़े पापों को धोने की क्षमता रखता है।
4. ऐतिहासिक काल-निर्धारण
यद्यपि परंपरा इसे पौराणिक काल का मानती है, आधुनिक ऐतिहासिक और साहित्यिक अनुसंधान के आधार पर इस स्तोत्र की रचना का एक निश्चित कालखंड निर्धारित किया जा सकता है। इसके लिए सबसे प्रबल प्रमाण संस्कृत काव्यशास्त्र से मिलता है।
राजशेखर और 'काव्यमीमांसा' का प्रमाण
प्रसिद्ध संस्कृत कवि और आलोचक राजशेखर, जो गुर्जर-प्रतिहार राजा महेंद्रपाल प्रथम और महिपाल प्रथम के दरबारी कवि थे, ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यमीमांसा' में शिवमहिम्न स्तोत्र का उल्लेख किया है।
- उद्धरण : राजशेखर ने शिवमहिम्न स्तोत्र के 5वें श्लोक (किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं...) को अपने ग्रंथ में उद्धृत किया है।
- काल-निर्णय : राजशेखर का समय 880 ईसवी से 920 ईसवी (9वीं-10वीं शताब्दी) के मध्य निश्चित है।
- निष्कर्ष: यदि 9वीं शताब्दी के अंत में राजशेखर इस स्तोत्र को एक 'मानक' और 'उत्कृष्ट' काव्य के रूप में उद्धृत कर रहे थे, तो इसका अर्थ है कि यह स्तोत्र उस समय तक अत्यंत प्रसिद्ध हो चुका था।
6. पाठ विधि और श्रद्धा
शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ केवल साहित्य पठन नहीं, बल्कि एक 'वाङ्मयी पूजा' (शब्दों द्वारा पूजा, श्लोक 40) है। शास्त्रों में इसके पाठ के लिए विशेष विधि और श्रद्धा का विधान है।
1. पाठ का समय
- प्रदोष काल: प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी तिथि को सूर्यास्त के समय (प्रदोष) शिव पूजा और इस स्तोत्र के पाठ का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है।
- महाशिवरात्रि: इस रात्रि के चारों प्रहरों में इसका पाठ विशेष फलदायी है।
- सोमवार: श्रावण मास के सोमवार को इसका पाठ शिव कृपा प्राप्ति का सुगम मार्ग है।
2. शास्त्रीय विधि
श्रद्धालु को निम्नलिखित क्रम का पालन करना चाहिए:
- शुद्धि: स्नान करके स्वच्छ (श्वेत) वस्त्र धारण करें।
- आसन: कुशा या ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर मुख होकर बैठें।
- संकल्प: मन में संकल्प लें कि "मैं अपने पापों के नाश और शिव-प्रीति हेतु इस स्तोत्र का पाठ कर रहा हूँ।"
- न्यास: यह एक तांत्रिक क्रिया है जिसमें शरीर के अंगों में देवताओं का आवाहन किया जाता है。
ऋषि: पुष्पदंत (सिर पर स्पर्श करें)।
छंद: शिखरिणी (मुख पर)।
देवता: श्री सदाशिव (हृदय पर)। - ध्यान: पाठ शुरू करने से पहले शिव के स्वरूप का ध्यान करना अनिवार्य है। इसके लिए ध्यान श्लोक का उच्चारण करें:
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं...
(अर्थ: जो चांदी के पर्वत (कैलाश) के समान श्वेत हैं, जिनके माथे पर सुंदर चंद्रमा है, जो रत्न-आभूषणों से उज्ज्वल हैं, उन्हें मैं नमन करता हूँ।)। - पाठ: स्पष्ट उच्चारण और अर्थ-चिंतन के साथ 43 श्लोकों का पाठ करें।
- समर्पण: अंत में "ॐ तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु" या श्लोक 40 (इत्येषा वाङ्मयी पूजा...) के साथ पाठ शिव के चरणों में समर्पित करें।
3. फलश्रुति
स्तोत्र के अंतिम श्लोकों (34-43) में इसके पाठ का फल बताया गया है, जिसे 'फलश्रुति' कहते हैं。
- पाप मुक्ति: श्लोक 42 के अनुसार, "जो मनुष्य दिन में एक, दो या तीन बार इसका पाठ करता है, वह सर्व पापों से मुक्त होकर शिवलोक में पूजित होता है" (सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते)।
- लौकिक सुख: श्लोक 34 में कहा गया है कि पाठक को "प्रचुर धन, दीर्घ आयु, पुत्र और कीर्ति" की प्राप्ति होती है।
- सर्वश्रेष्ठ साधना: श्लोक 36 घोषणा करता है कि दीक्षा, दान, तप, तीर्थ और यज्ञ—इनमें से कोई भी महिम्न स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश (1/16th) के बराबर भी नहीं है।
महिम्नः स्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ।
7. निष्कर्ष
शिवमहिम्नस्तोत्रम् केवल एक धार्मिक पाठ नहीं है; यह भारतीय आध्यात्मिकता का एक ऐसा दस्तावेज है जो भक्ति की पराकाष्ठा और ज्ञान की गहराई को एक साथ समेटे हुए है।
- साहित्यिक दृष्टि से: यह 'शिखरिणी' छंद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसकी भाषा प्रांजल और प्रवाहपूर्ण है।
- ऐतिहासिक दृष्टि से: राजशेखर (9वीं सदी) द्वारा इसका उल्लेख इसे संस्कृत साहित्य की एक प्राचीन और प्रमाणित निधि सिद्ध करता है।
- धार्मिक दृष्टि से: यह 'शिव' को केवल एक पौराणिक देवता नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय चेतना और परब्रह्म के रूप में स्थापित करता है।
गंधर्वराज पुष्पदंत की यह रचना हमें सिखाती है कि जब मानवीय बुद्धि और तर्क हार जाते हैं, तब समर्पण और स्तुति ही उस परम तत्त्व तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है। जैसा कि स्तोत्र स्वयं कहता है—भले ही हमारे पास ब्रह्मा जैसी वाणी न हो, परंतु यदि हृदय में शुद्ध भाव हो, तो हमारी तुतलाती वाणी भी "परमेश्वर" को स्वीकार्य होती है।
अतः, जो भी साधक शिवमहिम्नस्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह न केवल अपनी वाणी को पवित्र करता है, बल्कि शिव-सायुज्य की ओर एक सशक्त कदम बढ़ाता है।