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अघोरास्त्र स्तोत्र: बड़े से बड़े 'काले जादू' और तंत्र-मंत्र की 100% काट !

AI सारांश (Summary)

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अघोरास्त्र स्तोत्र: बड़े से बड़े 'काले जादू' और तंत्र-मंत्र की 100% काट !AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्रम्

पौराणिक आधार, तांत्रिक पाठ और अनुष्ठान की शुद्धि

खंड I: नीलकंठ तत्व का पौराणिक और दार्शनिक आधार

भगवान शिव का 'नीलकंठ' स्वरूप उनकी परम करुणा, त्याग, और जगत कल्याण के लिए स्वयं विष धारण करने की अद्वितीय क्षमता को दर्शाता है। यह स्वरूप केवल एक उपाधि नहीं, बल्कि शिव के 'महेश्वर' और 'सदाशिव' पद की निर्णायक अभिव्यक्ति है। यह दिव्य प्रार्थना (नीलकंठ स्तोत्र) इसी मौलिक तत्व पर आधारित है, जिसे समझना स्तोत्र की शक्ति के गूढ़ार्थ को समझने के लिए अनिवार्य है।

I.A. कालकूट विषपान: परम करुणा का चरम

नीलकंठ स्वरूप की उत्पत्ति का वर्णन शिवपुराण, स्कंदपुराण और अन्य पारंपरिक ग्रंथों में समुद्र मंथन की महान गाथा में मिलता है। जब देवता और असुर अमृत प्राप्ति के लिए क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे, तो सबसे पहले हलाहल नामक भयंकर विष प्रकट हुआ। यह विष इतना तीव्र और विनाशकारी था कि उसकी ज्वाला से संपूर्ण सृष्टि जलने लगी, और सभी लोक, यहाँ तक कि देवता और असुर भी, भयभीत होकर पीछे हट गए।

जब इस प्रलयंकारी संकट से बचने का कोई उपाय नहीं सूझा, तो समस्त देवगण और ऋषिगण भगवान शिव की शरण में पहुँचे। भगवान शिव, जो विश्व-कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, ने बिना किसी भय के, सृष्टि की रक्षा हेतु उस संपूर्ण कालकूट विष को अपने हाथ में लेकर पान कर लिया। विष की यह तीव्रता इतनी अधिक थी कि यदि वह शिव के शरीर में चला जाता तो प्रलय हो सकती थी। विष को कंठ से नीचे न जाने देने के उद्देश्य से, देवी पार्वती ने उनका कंठ दबा दिया। विष कंठ में ही रुक गया और उसका रंग नीला हो गया, जिससे भगवान शिव 'नीलकंठ' कहलाए। यह घटना यह स्थापित करती है कि भगवान शिव का सर्वोच्च देवत्व उनकी शक्ति (महाकाल) में नहीं, बल्कि उनके आत्म-त्याग और परोपकार (नीलकंठ) में निहित है।

इस विषपान के तीव्र प्रभाव को शांत करने के लिए देवताओं ने भगवान शिव से दूध ग्रहण करने का निवेदन किया। इसी घटना के कारण शिवलिंग पर दूध चढ़ाने की परंपरा का आरंभ हुआ, जो नीलकंठ की साधना का एक विशिष्ट अंग है, और यह विष तथा तीव्र व्याधियों के शमन का प्रतीक भी है।

एक महत्त्वपूर्ण आख्यान (रामचरितमानस में वर्णित) यह भी है कि विषपान करते समय भगवान शिव ने अपने इष्ट श्रीराम के नाम का स्मरण किया था। कहा जाता है कि नाम के प्रभाव से ही भयंकर कालकूट विष शिव के लिए अमृत सदृश हो गया था (नाम प्रभाउ जान सिव नीको, कालकूट फलु दीन्ह अमी को)। यह संदर्भ यह स्थापित करता है कि नीलकंठ स्वरूप की शक्ति केवल तांत्रिक बीजों या मंत्रों पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा, विश्वास और नाम-स्मरण के समन्वय से भी सिद्ध होती है।

I.B. नीलकंठ स्वरूप का तात्विक निहितार्थ

नीलकंठ महादेव का चरित्र मानवीय संवेदनाओं के पोषण और अनुरंजन के लिए देवताओं के अवतरण का सर्वोच्च उदाहरण है। यह स्वरूप भक्तों को यह प्रेरणा देता है कि दूसरों के कष्टों को स्वयं पर धारण करना ही सच्चा 'शिवत्व' है।

नीलकंठ की आराधना का मुख्य उद्देश्य विषदोषों और ज्वरों का निवारण है। विषदोष न केवल भौतिक विष (जैसे सर्पविष) के रूप में होते हैं, बल्कि यह ज्योतिषीय योग (शनि-चंद्रमा का संयोजन) या जीवन में व्याप्त तीव्र मानसिक तनाव और आत्मविश्वास की कमी के रूप में भी प्रकट हो सकते हैं। विष को कंठ में धारण करने का उनका कार्य ही उन्हें सभी ज्वरों और व्याधियों का विनाशक बनाता है।

इस स्तोत्र की शक्ति का बल ज्वर, रोग और विभिन्न प्रकार की नकारात्मक ऊर्जाओं के शमन पर केंद्रित है। विष के घातक प्रभाव को निष्क्रिय करने की शिव की क्षमता के कारण, उनकी प्रार्थना सभी प्रकार के रोगों (शीत ज्वर, ताप ज्वर) और यहाँ तक कि अदृश्य नकारात्मकता को भी दूर कर देती है।

खंड II: पाठ्य समालोचना: पुराण बनाम तंत्र

उपयोगकर्ता की माँग के अनुसार, स्तोत्र की प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए इसके मूल पाठ की पहचान आवश्यक है। प्रचलित रूप में जिसे 'नीलकंठ स्तोत्र' कहा जाता है, वह वास्तव में एक तांत्रिक पाठ है जो शिव के अघोर/रुद्र स्वरूप की उग्र शक्ति को आह्वान करता है, और इस पाठ का नाम 'श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र' है।

II.A. स्तोत्र की वास्तविक पहचान और स्रोत

'नीलकंठ स्तोत्र' की फलश्रुति और अंतिम छंद यह स्पष्ट करते हैं कि यह स्तोत्र किसी पुराण का सीधा पद्य नहीं है, बल्कि इसका उल्लेख तांत्रिक साहित्य में मिलता है। स्तोत्र के पाठ के अंत में स्पष्ट रूप से यह अंकित है: 'इति श्री रामेश्वर तंत्रे श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्रम् संपूर्णम्' ।

यह पाठ्य समालोचना महत्वपूर्ण है: नीलकंठ तत्व का आधार यद्यपि शिवपुराण (रुद्र संहिता) और अन्य पुराणों में वर्णित है, लेकिन इस विशेष स्तोत्र की संरचना और बीज मंत्रों की प्रकृति शुद्ध रूप से तांत्रिक है। यह दर्शाता है कि नीलकंठ के पौराणिक तत्व (त्याग, विष शमन) को तांत्रिक परंपरा ने ग्रहण किया और उसे असाध्य रोगों, विषों, और शत्रु बाधाओं को नष्ट करने के लिए 'अघोरास्त्र' (एक आध्यात्मिक हथियार) के रूप में रूपांतरित किया। इसलिए, यह स्तोत्र पौराणिक लक्ष्य (शिवलोकं स गच्छति) की प्राप्ति के साथ-साथ तांत्रिक त्वरित फल (रोग निवारण, शत्रु नाश) भी प्रदान करता है।

II.B. नीलकंठ स्तोत्र बनाम नीलकंठ कवच

साधना साहित्य में नीलकंठ की स्तुति के लिए दो प्रमुख पाठ मिलते हैं: नीलकंठ कवच और नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र। इनके कार्यात्मक भेद को समझना साधक के लिए आवश्यक है:

  • नीलकंठ कवच: यह मुख्य रूप से रक्षणात्मक प्रकृति का होता है। कवच के श्लोकों में भगवान नीलकंठ से शरीर के विभिन्न अंगों (जैसे जंघा, गुल्फ, पाद) की रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है। इसका फल भूत-प्रेत और पिशाचों के नाश और सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला बताया गया है। इसका उद्देश्य नकारात्मक प्रभाव से संरक्षण देना है।
  • नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र: यह तांत्रिक पाठ केवल रक्षात्मक नहीं, बल्कि अत्यंत उग्र और आक्रामक है। इसमें 'हन हन' (मारो), 'दह दह' (जला दो), 'छिंदी छिंदी' (काट डालो) जैसे उग्र बीज मंत्रों और शब्दों का प्रयोग होता है। यह विष, ज्वर, और परविद्या (दूसरों द्वारा किए गए तांत्रिक प्रयोग) को उन्मूलन करने के लिए प्रयुक्त होता है, जिसे 'अघोरास्त्र' नाम की सार्थकता सिद्ध होती है।
स्तुति पाठ प्राथमिक स्रोत उद्देश्य की प्रकृति प्रमुख क्रियाएँ
नीलकंठ कवच अज्ञात तंत्र / कवच परंपरा रक्षणात्मक (शरीर की रक्षा) पातु (रक्षा करें)
श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र श्री रामेश्वर तंत्र उग्र और उन्मूलनकारी (रोग/तंत्र-बाधा का नाश) हन हन, दह दह, छिंदी छिंदी

खंड III: श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्रम्: अक्षरशः संपूर्ण संस्कृत पाठ

साधक की आवश्यकतानुसार, स्तोत्र का पाठ शुद्ध और अक्षरशः प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें संपूर्ण विनियोग और न्यास का क्रम शामिल है, जो तांत्रिक साधना के लिए अनिवार्य है।

III.A. प्रारंभिक अनुष्ठान क्रम: विनियोग और न्यास

अघोरास्त्र स्तोत्र एक तांत्रिक मंत्र-समूह है। इसका पाठ शुरू करने से पहले साधक को अपनी शुद्धि और संकल्प के लिए विनियोग और न्यास करना अनिवार्य है, अन्यथा मंत्र की उग्र ऊर्जा को धारण करना कठिन हो सकता है।

विनियोग
(जप से पूर्व जल लेकर पाठ करें):
ॐ अस्य श्री भगवान् नीलकंठ सदा-शिव-स्तोत्र मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री नीलकंठ सदाशिवो देवता, ब्रह्म बीजं, पार्वती शक्तिः, मम समस्त पाप क्षयार्थं क्षेम-स्थै-आर्यु-आरोग्य-अभिवृद्धयर्थं मोक्षादि-चतुर्वर्ग-साधनार्थं च श्री नीलकंठ-सदाशिव-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥

ऋष्यादि न्यास

(विनियोग के बाद न्यास करें):

न्यास स्थान मंत्र
ऋषि शिरसि (सिर पर) श्री ब्रह्मा ऋषये नमः
छन्द मुखे (मुख पर) अनुष्टुप छन्दसे नमः
देवता हृदि (हृदय पर) श्री नीलकंठ सदाशिव देवतायै नमः
बीज लिंगे (गुह्य भाग पर) ब्रह्म बीजाय नमः
शक्ति नाभौ (नाभि पर) पार्वती शक्त्यै नमः
विनियोग सर्वांगे (संपूर्ण शरीर पर) मम समस्त पाप क्षयार्थं... श्री नीलकंठ-सदाशिव-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः

III.B. नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्रम्: मूल संस्कृत पाठ

प्रथम खंड: ध्यान और उग्र रूप वर्णन
ॐ नमो नीलकंठाय, श्वेत-शरीराय, सर्पा लंकार भूषिताय, भुजंग परिकराय, नागयज्ञो पवीताय, अनेक मृत्यु विनाशाय नमः।
युग युगांत काल प्रलय-प्रचंडाय, प्र ज्वाल-मुखाय नमः। दंष्ट्राकराल घोर रूपाय हूं हूं फट् स्वाहा। ज्वालामुखाय, मंत्र करालाय, प्रचंडार्क सहस्त्रांशु चंडाय नमः। कर्पूर मोद परिमलांगाय नमः॥
द्वितीय खंड: नाग विष और आभूषण मंत्र
ॐ इंद्र नील महानील वज्र वैलक्ष्य मणि माणिक्य मुकुट भूषणाय हन हन हन दहन दहनाय ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोर तनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बंध बंध घातय घातय हूं फट् जरा मरण भय हूं हूं फट्‍ स्वाहा। आत्म मंत्र संरक्षणाय नम:॥
स्वाहा अनंत वासुकी तक्षक करकोटक शंखपाल विजय पद्म महापद्म। एलापत्र नाना नागानाम कुलकादिषम छिंदी छिंदी भिन्न भिन्न प्रवेशय प्रवेशय शीघ्रम शीघ्रम हुम हुम फट स्वाहा॥
तृतीय खंड: भूत-प्रेत-डाकिनी शमन और ज्वर विनाश
ॐ ह्रां ह्रीं हौं नमो भूत डामरी ज्वालवश भूतानां द्वादश भूतांत्रे दश शोडस प्रेतानां पंचदश डाकिनी शाकिनीनां हन हन। दहन दारनाथ!
एकाहिक द्वयाहिक त्र्याहिक चातुर्थिक पंचाहिक व्याघ्य पादांत वातादि वात सरिक कफ पित्तक काश श्वास श्लेष्मादिकं दह छिंदी छिंदी श्री महादेव निर्मित स्तंभन मोहन वश्याकर्षण उच्चाटन कीलना द्वेषण। इति कर्माण वृत्त फट स्वाहा॥
चतुर्थ खंड: समस्त व्याधि और अंतिम स्तुति
वात ज्वर मरण भया छिन्न छिन्न हन हन भूत ज्वर प्रेत ज्वर पिशाच ज्वर रात्रि ज्वर शीत ज्वर सन्निपात ज्वर बाल ज्वर ग्रह ज्वर कुमार ज्वर ताप ज्वर ब्रह्म ज्वर विष्णु ज्वर महेश ज्वर आवश्यक ज्वर कामाग्नि विषम ज्वर मारी ज्वरादि प्रचंड घराय। प्रमथेश्वर आवेश शीघ्रम शीघ्रम हुम हुम फट स्वाहा।
प्रथम दंड धराय नमः परमेश्वराय नमः चौर मृत्यु ग्रह व्याग्र सर्पादि विषभयं विनाशनाय नमः मोहन मंत्राणा आकर्षण मंत्राणा परविद्या छेदन मंत्राणा ओम राम ह्रीम रूम क्लीम क्लीम क्लीम हुम हुम फट। स्वाहा।
नमो नीलकंठाय नमः दक्षज्वर हराय नमः श्री नीलकंठाय नमः॥

III.C. श्लोकवार विस्तृत हिंदी गूढ़ार्थ

यह स्तोत्र भगवान नीलकंठ के स्वरूप का ध्यान करते हुए प्रारंभ होता है, उन्हें श्वेत शरीर वाला, सर्पों से अलंकृत, नागों को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करने वाला और अनेक मृत्यु का विनाश करने वाला बताया गया है।

अगला भाग शिव के उग्र, प्रलयंकारी स्वरूप का आह्वान करता है, जो युगों के अंत में काल के समान प्रचंड है। उन्हें प्रचंड ज्वालारूपी मुख वाला और दांतों से भयंकर घोर रूप वाला बताया गया है, और 'हूं हूं फट् स्वाहा' जैसे बीज मंत्रों के माध्यम से उनकी शक्ति को क्रियाशील किया जाता है। उन्हें हजारों सूर्य के समान तेजस्वी (प्रचंडार्क सहस्त्रांशु चंडाय) और कर्पूर (कपूर) की सुगंध से युक्त शरीर वाला बताया गया है।

सर्प विष विनाश खंड में, आठ प्रमुख नागों (अनंत, वासुकी, तक्षक, करकोटक, शंखपाल, विजय, पद्म, महापद्म, एलापत्र) के नाम का उल्लेख करते हुए, उनसे उत्पन्न होने वाले विषों और कुलकादि दोषों को तुरंत 'छिंदी छिंदी' (काटने) और 'भिन्न भिन्न' (विखंडित करने) की प्रार्थना की जाती है। यह पाठ विशेष रूप से सर्प-दंश और ज्योतिषीय विष दोष के निवारण के लिए शक्तिशाली माना जाता है।

भूत-प्रेत-डाकिनी शमन खंड में, भगवान को भूत-डामरी की ज्वाला के वश में बारह प्रकार के भूत, तेरह-सोलह प्रकार के प्रेत, और पंद्रह प्रकार की डाकिनी-शाकिनी को 'हन हन' (मार डालने) और 'दहन' (जलाने) का निर्देश देते हुए उनका आह्वान किया जाता है।

ज्वर विनाश खंड सबसे विस्तृत है, जहाँ सभी प्रकार के शारीरिक और आध्यात्मिक रोगों के शमन की शक्ति मांगी गई है। इसमें न केवल त्रिदोष (वात, कफ, पित्त) से उत्पन्न रोगों को उल्लेख है, बल्कि एकाहिक से लेकर पंचाहिक तक के चक्रीय ज्वरों का भी उल्लेख है। स्तोत्र का यह भाग षट्कर्मों (स्तम्भन, मोहन, वश्याकर्षण, उच्चाटन, कीलन, द्वेषण) के तांत्रिक प्रयोगों को नष्ट करने का आदेश देता है, जिससे साधक को पर-विद्या (काला जादू) के प्रभाव से मुक्ति मिलती है।

अंतिम खंड में, सभी प्रकार के ज्वर (सन्निपात, बाल, कुमार, ताप ज्वर) और यहाँ तक कि अत्यंत तीव्र 'ब्रह्म ज्वर, विष्णु ज्वर, रुद्र ज्वर' को भी नष्ट करने का आदेश दिया जाता है। स्तोत्र परमेश्वर को दण्डधारी के रूप में नमन करता है और उनसे चोर, मृत्यु, ग्रह बाधा, व्याघ्र (हिंसक पशु) और सर्प आदि के विष भय को विनाश करने की प्रार्थना करता है। यह अंत में स्पष्ट करता है कि यह स्तोत्र मोहन, आकर्षण और परविद्या को काटने वाला है।

खंड IV: गूढ़ार्थ और मंत्र-विज्ञान: अघोरास्त्र का क्रियान्वयन

श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र को मात्र एक प्रार्थना के रूप में नहीं, बल्कि शिव की उग्र शक्ति को क्रियान्वित करने वाले मंत्रों का एक समूह माना जाता है। इसकी शक्ति तांत्रिक बीज मंत्रों के सटीक संयोजन और शिव के संहारक रूपों के आह्वान पर निर्भर करती है।

IV.A. बीज मंत्रों का विश्लेषण

इस स्तोत्र में कई तांत्रिक बीज मंत्रों का प्रयोग किया गया है, जो इसकी प्रभावकारिता को बढ़ाते हैं:

  • हूं: यह बीज मंत्र संरक्षण, क्रोध और शिव के भैरव स्वरूप की ऊर्जा का प्रतीक है। इसका प्रयोग विघ्न-बाधाओं को नष्ट करने और साधक की रक्षा करने के लिए होता है।
  • फट्: इसे 'अस्त्र' बीज कहा जाता है। इसका अर्थ है "भेदो" या "नाश करो"। यह तीव्र आक्रामकता और शत्रु या नकारात्मक शक्तियों के त्वरित उन्मूलन के लिए आवश्यक है। अघोरास्त्र नाम की सार्थकता इसी बीज के बार-बार प्रयोग से सिद्ध होती है।
  • ह्रीं और क्लीं: ह्रीं बीज माया, शक्ति और आकर्षण से संबंधित है, जबकि क्लीं बीज वशीकरण और कामना पूर्ति के लिए प्रयुक्त होता है। इन बीजों का समावेश यह सुनिश्चित करता है कि स्तोत्र न केवल नकारात्मक शक्तियों को नष्ट करे, बल्कि साधक को मोहन और आकर्षण जैसे तांत्रिक प्रयोगों से भी बचाए।

इन उग्र बीजों का बार-बार प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि यह पाठ रक्षात्मक मंत्रों के विपरीत, एक आध्यात्मिक हथियार (अस्त्र) की तरह काम करता है, जो सीधे रोग और शत्रुतापूर्ण तांत्रिक प्रयोगों पर प्रहार करता है। इस स्तोत्र का मुख्य कार्य पर-विद्या छेदन (अन्य के तांत्रिक प्रयोगों को काटना) और आत्म-मंत्र संरक्षण है।

IV.B. ज्वर-चिकित्सा और विष-चिकित्सा

स्तोत्र में ज्वरों (रोगों) का अत्यंत व्यापक और वर्गीकृत उल्लेख किया गया है, जो प्राचीन भारतीय चिकित्सा और कर्म सिद्धांत की गहरी समझ को दर्शाता है।

ज्वरों का वर्गीकरण

  • दैहिक ज्वर (शारीरिक): वात ज्वर, कफ पित्तक, सन्निपात ज्वर। ये ज्वर त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) के असंतुलन से उत्पन्न होते हैं।
  • कालजन्य ज्वर: एकाहिक (एक दिन का), द्वयाहिक, त्र्याहिक, चातुर्थिक, पंचाहिक ज्वर। ये ज्वर चक्रिय प्रकृति के होते हैं, जो प्रायः असाध्य माने जाते हैं।
  • अदृश्य एवं तांत्रिक ज्वर: भूत ज्वर, प्रेत ज्वर, पिशाच ज्वर, डाकिनी ज्वर, शाकिनी ज्वर। ये मानसिक व्याधियाँ, मनोग्रस्तियाँ और नकारात्मक ऊर्जाओं के प्रभाव को दर्शाते हैं।
  • आध्यात्मिक/कर्मजन्य ज्वर: ब्रह्म ज्वर, विष्णु ज्वर, रुद्र ज्वर। इन ज्वरों का उल्लेख असाध्य, अत्यंत तीव्र, या देवता/कर्म से उत्पन्न रोगों की ओर संकेत करता है। चूँकि नीलकंठ स्वरूप स्वयं त्रिमूर्ति से भी परे सदाशिव का प्रतीक है, अतः केवल इसी स्वरूप के हस्तक्षेप से इन उच्चतम स्तर के रोगों का निवारण संभव माना जाता है।

सर्प दोष निवारण

स्तोत्र में प्रमुख नागों (अनंत, वासुकी, तक्षक आदि) के नामों का समावेश यह सुनिश्चित करता है कि यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष सर्प विष के प्रभाव को भी शांत करने की क्षमता रखता है। इस क्षमता के कारण, यह स्तोत्र ज्योतिषीय विष दोष (जैसे शनि और चंद्रमा के संयोजन से उत्पन्न) के दुष्प्रभावों को कम करने या नष्ट करने में भी अत्यंत प्रभावी माना जाता है, जो मानसिक अशांति और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का कारण बनता है।

IV.C. षट्कर्म विनाश

अघोरास्त्र स्तोत्र की सबसे विशिष्ट शक्ति तांत्रिक षट्कर्मों (छह कर्म) को नष्ट करने की क्षमता है। स्तोत्र में स्पष्ट रूप से स्तम्भन, मोहन, वश्याकर्षण, उच्चाटन, कीलन, द्वेषण का उल्लेख है।

यह स्तोत्र इन कर्मों का दुरुपयोग करने की शिक्षा नहीं देता, बल्कि जब कोई शत्रु इन उग्र कर्मों का प्रयोग साधक के विरुद्ध करता है, तो स्तोत्र में निहित शक्ति इन "श्री महादेव निर्मित" कर्मों को "दह छिंदी छिंदी" (जलाकर और काटकर) ध्वस्त कर देती है। यह सुरक्षा का उच्चतम स्तर है। इति कर्माण वृत्त फट् स्वाहा (इस प्रकार कर्मों के समूह को ध्वस्त करो) यह दर्शाता है कि स्तोत्र का प्राथमिक लक्ष्य साधक को नकारात्मक तांत्रिक प्रयोगों से बचाना और उन्हें विखंडित करना है।

खंड V: अनुष्ठान विधि, फलश्रुति और साधना के नियम

श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र के पाठ का पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए शुद्ध अनुष्ठान विधि, सही समय, और साधक के लिए नैतिक नियमों का पालन करना अनिवार्य है।

V.A. अनुष्ठान क्रम और विशिष्ट अर्पण

  • 1. साधना का समय और आरंभ: यह स्तोत्र उग्र और त्वरित फलदायी है। इसका अनुष्ठान आरंभ करने के लिए सावन (श्रावण मास) का महीना अत्यंत शुभ माना जाता है, क्योंकि इससे भगवान शिव की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। दैनिक पाठ के लिए, प्रदोष काल (सूर्यास्त के आसपास का समय) सबसे उपयुक्त है, जो शिव पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। साधक को सुबह स्नान करके, स्वच्छ धुले हुए कपड़े पहनकर, लाल रंग के आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए।
  • 2. पाठ संख्या और संकल्प: फलश्रुति (स्तोत्र के अंत में दिए गए लाभ) में स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि स्तोत्र का पाठ सप्तवारं पठेत् स्तोत्रम् (एक बार में सात बार) करना चाहिए। साधक को पाठ करते समय मनसा चिन्तितम् (मन में संकल्पित चिंता या दुःख) को ध्यान में रखना चाहिए। यदि यह साधना किसी असाध्य बीमारी या बड़े संकट के निवारण के लिए की जा रही है, तो श्रद्धापूर्वक संकल्प लेना आवश्यक है। मंत्र को पूर्णतः सिद्ध करने के लिए 108 पाठ करने का विधान भी शास्त्रों में मिलता है।
  • 3. अभिषेक सामग्री: नीलकंठ स्वरूप की साधना में अभिषेक सामग्री का विशिष्ट महत्व है, जो विष के शमन और शीतलता प्रदान करने से जुड़ा है:
    • दूध: समुद्र मंथन के पश्चात शिव को शांत करने के लिए दूध अर्पित किया गया था। शिवलिंग पर दूध चढ़ाना विष के प्रभाव को कम करने का प्रतीक है।
    • गन्ने का रस (इक्षु रस): यह विशेष रूप से तांत्रिक बाधाओं, नकारात्मक ऊर्जा, और ग्रह दोषों को दूर करने के लिए अनुशंसित है। शिवलिंग पर गन्ने के रस की धारा अर्पित करने के बाद जल अवश्य अर्पित करना चाहिए ।
    • अन्य सामग्री: घी का दीपक जलाना , और शिव के अन्य पूजा विधानों (जैसे अक्षत, गंध, पुष्प) का प्रयोग किया जाना चाहिए।

V.B. फलश्रुति और सिद्धियाँ

नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्र के पाठ से प्राप्त होने वाले फलों को व्यापक रूप से वर्णित किया गया है। इसका पाठ करने वाला साधक भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त करता है:

  • रोग एवं विष शमन: सभी रोग नष्ट हो जाते हैं (रोगाह सर्वे प्रणश्यंती), और किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव समाप्त हो जाता है (विषं विद्रवते)। असाध्य रोगों का भी विनाश हो जाता है।
  • नकारात्मकता का नाश: दुष्ट भूत, प्रेत और पिशाच भाग जाते हैं। साधक को सभी प्रकार के ग्रह दोषों, तंत्र-मंत्र की बाधाओं और मृत्यु भय से मुक्ति मिलती है।
  • विजय और सिद्धि: साधक को सर्वत्र विजय प्राप्त होती है (सर्वत्र विजय भवेत), और धीरे-धीरे व्यक्ति सिद्धि की ओर बढ़ने लगता है।
  • परम लक्ष्य: इसका सर्वोच्च फल है: मनसा चिंतितम् जपने के साथ ही, शिवलोकं स गच्छति (साधक मृत्यु के पश्चात शिवलोक को प्राप्त होता है)। यह इस उग्र तांत्रिक स्तोत्र के अंतिम सात्विक और मोक्षदायक उद्देश्य को स्थापित करता है।

V.C. नैतिक अनिवार्यताएँ और साधना में निषेध

चूँकि यह स्तोत्र 'अघोरास्त्र' है और उग्र शक्ति से युक्त है, इसलिए साधक के लिए उच्च स्तर की पवित्रता और नैतिक अनुशासन आवश्यक है। साधना की सफलता के लिए कुछ विशिष्ट सावधानियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:

  • 1. भक्त-अपराध से बचाव: साधना के मार्ग पर सबसे बड़ा अवरोध भक्त-अपराध माना जाता है। किसी भी वैष्णव, संत, उपासक, या भक्त की निंदा या अपमान करना सभी सुकृतों (पुण्यों) को नष्ट कर देता है, भले ही साधक कितनी भी उच्च पदवी पर क्यों न हो। भगवान शिव स्वयं मर्यादाओं और सिद्धांतों का उल्लंघन पसंद नहीं करते। अतः, इस उग्र मंत्र की साधना करते समय मन में दंभ, पाखंड, या दूसरों के प्रति द्वेष (जिसका नाश स्तोत्र स्वयं करता है) नहीं होना चाहिए। साधक को अपने हृदय को शुद्ध रखना अनिवार्य है।
  • 2. श्रापित दोष और मन्नत: साधना शुरू करने से पहले साधक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके या उसके परिवार के पूर्वजों द्वारा मांगी गई कोई मन्नत अधूरी तो नहीं रह गई है। अधूरी मन्नतें या किसी व्यक्ति का श्राप (बद्दुआ) उग्र साधना के दौरान नकारात्मक ऊर्जा या 'श्रापित दोष' के रूप में प्रकट हो सकते हैं, जिससे साधना में बाधा आती है। इन दोषों का निवारण या कमिटमेंट पूरा करना साधना की सफलता के लिए आवश्यक है।
  • 3. पवित्रता और सात्विक लक्ष्य: यह स्तोत्र षट्कर्मों को नष्ट करने के लिए है, न कि उनके तामसिक प्रयोग के लिए। साधक को इस मंत्र का प्रयोग केवल कल्याणकारी, रोग निवारक, और रक्षात्मक उद्देश्यों के लिए ही करना चाहिए।

निष्कर्ष

श्री नीलकंठ अघोरास्त्र स्तोत्रम्, जिसे सामान्यतः नीलकंठ स्तोत्र के नाम से जाना जाता है, भगवान शिव के परम त्याग (नीलकंठ तत्व) पर आधारित एक अत्यंत शक्तिशाली तांत्रिक पाठ है, जिसका मूल स्रोत 'श्री रामेश्वर तंत्र' है। यह पाठ असाध्य रोगों, विषों, ज्वरों, और पर-विद्या (तांत्रिक बाधाओं) के उन्मूलन के लिए एक अचूक आध्यात्मिक 'अस्त्र' के रूप में कार्य करता है।

इस स्तोत्र की प्रामाणिकता इसके व्यापक ज्वर-नाशक और विष-विनाशक मंत्रों, साथ ही इसकी फलश्रुति में निहित भौतिक (आरोग्य, विजय) और आध्यात्मिक (शिवलोक की प्राप्ति) दोनों लक्ष्यों के संयोजन में निहित है। साधक के लिए यह अनिवार्य है कि वह इस उग्र पाठ का अनुष्ठान केवल शुद्ध उच्चारण, निर्दिष्ट विधि (सात बार पाठ), और पूर्ण नैतिक पवित्रता के साथ करे, क्योंकि शिवत्व की शक्ति करुणा और त्याग पर आधारित है, न कि दंभ और अनाचार पर। इस प्रकार, यह स्तोत्र साधक को सभी प्रकार के संकटों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करता है।


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