✨ ॐ नमः शिवाय | जय श्री राम | हरे कृष्ण ✨
Pauranik|5 Min Read

श्रीरुद्राष्टकम्: मूल पाठ, हिंदी अर्थ और रचयिता की कथा !

AI सारांश (Summary)

यदि आप पूरा लेख नहीं पढ़ना चाहते, तो AI द्वारा तैयार संक्षिप्त सारांश देख सकते हैं। यह आपके लिए उपयोगी रहेगा।

श्रीरुद्राष्टकम्: मूल पाठ, हिंदी अर्थ और रचयिता की कथा !AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

श्रीरुद्राष्टकम्: एक गहन धार्मिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक विश्लेषण

1. मूल संस्कृत पाठ

श्रद्धालु की जिज्ञासा और परम्परानुसार, सर्वप्रथम श्रीरुद्राष्टकम् का मूल संस्कृत पाठ यहाँ पूर्ण शुद्धता के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह स्तोत्र गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड से उद्धृत है।

॥ अथ श्रीरुद्राष्टकम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ॥ निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं । चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥ निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं । गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ॥ करालं महाकालकालं कृपालं । गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥२॥ तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं । मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ॥ स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा । लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥३॥ चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं । प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ॥ मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥४॥ प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं । अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ॥ त्रयःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥ कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी । सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ॥ चिदानन्दसंदोह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥६॥ न यावद् उमानाथपादारविन्दं । भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ॥ न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥७॥ न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ॥ जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥ ॥ फलश्रुति ॥ रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥९॥ ॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरामचरितमानसे उत्तरकाण्डे श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥

2. प्रस्तावना: भारतीय भक्ति साहित्य में रुद्राष्टकम् का स्थान

श्रीरुद्राष्टकम् न केवल भगवान शिव की स्तुति है, अपितु यह अद्वैत वेदांत और सगुण भक्ति का एक अद्वितीय संगम है। यह स्तोत्र भारतीय जनमानस में अत्यंत श्रद्धा और पवित्रता के साथ बसा हुआ है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी दार्शनिक गहराई और संगीतात्मक लय है, जो भक्त को निर्गुण ब्रह्म (निराकार ईश्वर) और सगुण शिव (साकार ईश्वर) दोनों के साथ एक साथ जोड़ती है। जहाँ एक ओर यह स्तोत्र शिव को "महाकाल का भी काल" बताता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें "कृपालु" और "शरणदाता" के रूप में भी चित्रित करता है, जो विरोधाभासों के समन्वय की भारतीय दार्शनिक परंपरा का उत्कृष्ट उदाहरण है।

यह रिपोर्ट इस स्तोत्र के रचयिता, इसके ऐतिहासिक और पौराणिक उद्गम, इसकी साहित्यिक संरचना, और इसकी विधिवत उपासना पद्धति का व्यापक विश्लेषण प्रदान करती है। इसमें श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड की उस कथा का भी विस्तृत वर्णन किया गया है जो इस स्तोत्र की रचना का आधार बनी।

3. रचनाकार एवं ऐतिहासिक संदर्भ

3.1 रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास

इस कालजयी स्तोत्र की रचना गोस्वामी तुलसीदास द्वारा की गई थी । तुलसीदास जी मध्यकालीन भारत के भक्ति आंदोलन के सबसे प्रमुख संतों में से एक थे। यद्यपि वे मुख्य रूप से भगवान राम के अनन्य भक्त (रामभक्त) माने जाते हैं, तथापि उनकी शिव के प्रति निष्ठा भी उतनी ही प्रगाढ़ थी। 'श्रीरुद्राष्टकम्' इस बात का प्रमाण है कि तुलसीदास जी हरि (विष्णु) और हर (शिव) में कोई भेद नहीं मानते थे।

3.2 रचना का समय और स्थान

इस स्तोत्र की रचना का सटीक वर्ष निर्धारित करना कठिन है, परन्तु इसे 'श्रीरामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड का अभिन्न अंग माना जाता है, जिसकी रचना 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई थी। अधिकांश विद्वान मानते हैं कि श्रीरामचरितमानस का लेखन अयोध्या में प्रारंभ हुआ और बाद में काशी (वाराणसी) में पूर्ण हुआ।
काशी, जो भगवान शिव की नगरी है, तुलसीदास जी की कर्मभूमि रही है। यह अत्यंत संभव है कि रुद्राष्टकम् का सृजन काशी के पवित्र वातावरण में, विश्वनाथ मंदिर के सानिध्य में हुआ हो, जहाँ तुलसीदास जी ने शिव और राम के अभेद स्वरूप का साक्षात्कार किया था।

4. पाठन विधि और श्रद्धा

रुद्राष्टकम् का पाठ केवल शब्दों का उच्चारण नहीं है, अपितु यह एक साधना है। धर्मग्रंथों और परंपरा के अनुसार इसे श्रद्धापूर्वक करने की विधि निम्नलिखित है:

4.1 उपयुक्त समय

  • प्रदोष काल: त्रयोदशी तिथि की संध्या (सूर्यास्त के समय) को शिव पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस समय रुद्राष्टकम् का पाठ विशेष फलदायी होता है।
  • महाशिवरात्रि: इस रात्रि को किया गया पाठ पापों का नाश करने वाला माना जाता है।
  • सोमवार: भगवान शिव का दिन होने के कारण, प्रत्येक सोमवार को इसका पाठ करना शुभ है।
  • श्रावण मास: श्रावण के महीने में नित्य पाठ करने का विधान है।

4.2 शारीरिक और मानसिक शुद्धि

  • पाठ करने से पूर्व स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। श्वेत वस्त्र धारण करना सात्विकता और शिवत्व का प्रतीक है।
  • भस्म (विभूति) का त्रिपुंड मस्तक पर लगाना शिव की ऊर्जा से जुड़ने में सहायक होता है।
  • मुख पूर्व या उत्तर (ईशान) दिशा की ओर होना चाहिए।

4.3 पूजा विधि

  • जलाभिषेक: शिवलिंग पर जल या दूध चढ़ाते समय (अभिषेक करते समय) इस स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत प्रभावशाली माना जाता है।
  • बिल्व पत्र: पाठ के प्रत्येक श्लोक के बाद या पाठ पूर्ण होने पर शिवलिंग पर बिल्व पत्र अर्पित करना चाहिए।
  • भाव: जैसा कि 5वें श्लोक में कहा गया है - भावगम्यम् (वे केवल भाव से प्राप्त होते हैं)। अतः शब्दों के उच्चारण से अधिक महत्व हृदय की पुकार का है। भक्त को यह महसूस करना चाहिए कि वह जन्म-मरण के चक्र से त्रस्त होकर शिव की शरण में आया है।

4.4 फलश्रुति

स्तोत्र के अंतिम ९वें श्लोक में इसके फल का वर्णन है:

  • शिव प्रसन्नता: जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करते हैं, उन पर शम्भु विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं (तेषां शम्भुः प्रसीदति).
  • दुःख निवारण: यह पाठ 'जरा-जन्म' के दुःखों और जीवन के संतापों को नष्ट करता है।
  • ग्रह दोष शांति: ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार, यह पाठ कुंडली के कई दोषों, विशेषकर शनि और राहु के दुष्प्रभावों को शांत करने में सहायक है।

5. निष्कर्ष

श्रीरुद्राष्टकम् भारतीय आध्यात्मिकता का एक अनमोल रत्न है। यह एक साथ तीन कार्य करता है:
1. दार्शनिक शिक्षण: यह बताता है कि ईश्वर निराकार और साकार दोनों है。
2. साहित्यिक आनंद: इसका भुजंगप्रयात छंद मन को संगीतात्मक शांति देता है。
3. आत्म-निवेदन: यह दुखी मन को अपनी पीड़ा ईश्वर के समक्ष रखने का एक माध्यम देता है।

काकभुशुण्डि के गुरु द्वारा गाया गया यह स्तोत्र हमें सिखाता है कि 'गुरु-कृपा' और 'ईश्वर-समर्पण' से बड़े से बड़ा शाप (प्रारब्ध) भी वरदान में बदला जा सकता है। आज के तनावपूर्ण जीवन में, जहाँ मनुष्य मानसिक अशांति (संताप) से घिरा है, रुद्राष्टकम् का पाठ "न जानामि योगं" (मैं योग नहीं जानता) के भाव के साथ करना, उसे परम शांति और शिवत्व की ओर ले जाने का सबसे सरल और सशक्त मार्ग है।


रुद्राष्टकम् नमामीशमीशान शिवस्तोत्र शिवभक्ति स्तोत्रपाठ अर्थ इतिहास रचयिता पूजनविधि साधना