श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन का दर्पण है। इसमें कर्म , धर्म, भक्ति और ज्ञान का गूढ़ रहस्य छिपा है।
अध्याय 1: अर्जुन विषाद योग
"मानसिक संघर्ष और नैतिक दुविधा का परिचय।"
प्रमुख बिंदु:
- अर्जुन अपने संबंधियों और गुरुजनों को युद्धभूमि में देखकर मानसिक रूप से विचलित हो जाते हैं।
- वह अपने धर्म (क्षत्रिय धर्म) और मानवता के बीच संघर्ष में उलझ जाते हैं।
"न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।" (1.31)
अर्थ: "हे कृष्ण, न मुझे विजय चाहिए, न राज्य और न ही सुख।"
अध्याय की शिक्षा:
यह अध्याय बताता है कि जीवन में मानसिक दुविधा स्वाभाविक है, लेकिन उसका समाधान ज्ञान और गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है।
अध्याय 2: सांख्य योग
"आत्मा का अमरत्व और कर्तव्य का महत्व।"
प्रमुख बिंदु:
- भगवान श्रीकृष्ण आत्मा का अमरत्व बताते हुए कहते हैं:
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।" (2.22)
अर्थ: "जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है।"
- कर्म के सिद्धांत पर जोर देते हुए कहते हैं:
"योगः कर्मसु कौशलम्।" (2.50)
अर्थ: "योग का अर्थ है कर्म में कुशलता।"
अध्याय की शिक्षा:
यह अध्याय जीवन में कर्म की महत्ता और आत्मा की अमरता को समझाता है। हमें अपने कर्तव्यों को बिना किसी आसक्ति के करना चाहिए।
अध्याय 3: कर्म योग
"कर्तव्य ही पूजा है।"
प्रमुख बिंदु:
- भगवान कर्म को जीवन का आधार बताते हैं:
"सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।" (3.10)
अर्थ: "सृष्टि की रचना के साथ ही यज्ञ (कर्तव्य) का विधान किया गया।"
- निष्काम कर्म का महत्व:
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।" (3.22)
अर्थ: "हे पार्थ, तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूं।"
अध्याय की शिक्षा:
अपने कर्तव्यों को निष्काम भाव से करना ही सच्ची पूजा है। फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना चाहिए।
अध्याय 4: ज्ञान योग
"सच्चा ज्ञान आत्मा को शुद्ध करता है।"
प्रमुख बिंदु:
- भगवान कहते हैं:
"अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।" (4.6)
अर्थ: "हालांकि मैं अजन्मा हूं और अविनाशी आत्मा हूं, फिर भी मैं अपनी योगमाया से अवतार लेता हूं।"
- ज्ञान की महिमा:
"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।" (4.39)
अर्थ: "श्रद्धा रखने वाला, इंद्रियों को संयमित करने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है।"
अध्याय की शिक्षा:
ज्ञान केवल पढ़ने से नहीं, बल्कि अनुभव और श्रद्धा से प्राप्त होता है। यह आत्मा को शुद्ध करने और मुक्ति का मार्ग दिखाने का साधन है।
अध्याय 18: मोक्ष संन्यास योग
"समर्पण ही मोक्ष का मार्ग है।"
प्रमुख बिंदु:
- भगवान कहते हैं:
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।" (18.66)
अर्थ: "सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ।"
ज्ञान, कर्म और भक्ति का सार:
भगवान को कैसे पता चलता है जब भक्त भगवान का नाम लेता है?"तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।" (18.5)
अर्थ: "वही कर्म और ज्ञान उचित हैं जो बंधन से मुक्त करें।"
अध्याय की शिक्षा:
संपूर्ण समर्पण से ही जीवन में मोक्ष और शांति प्राप्त हो सकती है। यह अध्याय गीता का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण संदेश देता है।