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श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन: अर्थ, महत्व और जप की विधि !

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भगवान श्रीराम की आरती: ऐतिहासिक उद्भव, साहित्यिक विश्लेषण एवं अनुष्ठानिक विधि पर विस्तृत शोध प्रतिवेदन

1. भगवान श्रीराम की आरती का प्रामाणिक पाठ

इस शोध प्रतिवेदन के प्राथमिक खंड में उपयोगकर्ता के मूल अनुरोध के अनुसार, भगवान श्रीराम की उपासना में सर्वाधिक प्रचलित और शास्त्रसम्मत दो प्रमुख रचनाओं का पूर्ण पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है। शोध में यह स्पष्ट हुआ है कि यद्यपि "श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन" तकनीकी रूप से एक 'स्तुति' है, तथापि भारतीय मंदिरों और घरेलू पूजा में इसे ही मुख्य आरती के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके साथ ही दीप-प्रज्ज्वलन के विशिष्ट समय पर "आरती कीजै श्री रामचन्द्र की" का गायन किया जाता है।

1.1 श्री राम स्तुति (मुख्य आरती के रूप में मान्य)

यह रचना गोस्वामी तुलसीदास कृत 'विनय पत्रिका' से ली गई है और इसे श्रीराम के स्वरूप के ध्यान और आरती दोनों के लिए प्रयोग किया जाता है।

।। श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन ।। श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन, हरण भव भय दारुणम्। नवकंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणम्।। कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुन्दरम्। पट पीत मानहु तडित रूचि शुचि, नौमि जनक सुतावरम्।। भजु दीनबंधु दिनेश दानव, दैत्यवंश निकन्दनम्। रघुनंद आनन्दकंद कौशल, चंद दशरथ नन्दनम्।। सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु, उदार अंग विभूषणम्। आजानुभुज शर चाप धर, संग्राम जित खर-दूषणम्।। इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष मुनि मन रंजनम्। मम हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्।।

१.२ पारंपरिक आरती (दीप-दान के समय)

यह आरती विशेष रूप से उस समय गाई जाती है जब पुजारी या भक्त थाली में दीपक सजाकर भगवान के विग्रह के समक्ष गोलाकार मुद्रा में घुमाते हैं।

।। आरती कीजै श्री रामचन्द्र की ।। आरती कीजै श्री रामचन्द्र की। ललित, कलित, छबि, सिय-पिय की।। आरती कीजै... गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक विग्यान बिसारद।। सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी।। आरती कीजै... गावत वेद पुरान अष्टदस। छयो सास्त्र सब ग्रंथन को रस।। मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस सम्मत सबही की।। आरती कीजै... गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।। ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड़ के हिय की।। आरती कीजै... कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।। दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की।। आरती कीजै... आरती कीजै श्री रामचन्द्र की। ललित, कलित, छबि, सिय-पिय की।।

4. रचयिता और ऐतिहासिक संदर्भ

4.1 रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास

दोनों ही प्रमुख आरतियों का श्रेय 16वीं शताब्दी के महान संत-कवि गोस्वामी तुलसीदास (1532–1623 ई.) को जाता है। तुलसीदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि थे।

  • रचना का स्रोत: 'श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन' स्तुति उनकी कृति 'विनय पत्रिका' (अर्जा 45) में संकलित है। 'आरती कीजै श्री रामचन्द्र की' भी पारंपरिक रूप से उन्हीं की रचना मानी जाती है, यद्यपि यह विभिन्न संकलनों में थोड़े फेरबदल के साथ मिलती है।

4.2 रचना काल और ऐतिहासिक परिस्थिति

  • इन आरतियों की रचना का काल 16वीं शताब्दी का उत्तरार्ध (लगभग 1580-1600 ईस्वी) माना जाता है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: उस समय भारत में मुगल सम्राट अकबर का शासन था। काशी (वाराणसी) में, जहाँ तुलसीदास निवास करते थे, एक भीषण महामारी (प्लेग या जिसे तत्कालीन भाषा में 'मीन की बीमारी' कहा गया) का प्रकोप हुआ था। जनश्रुति और शोध बताते हैं कि तुलसीदास ने 'विनय पत्रिका' की रचना एक 'याचिका' के रूप में की थी, जिसे वे भगवान राम के दरबार में प्रस्तुत कर कलयुग के प्रकोप से मुक्ति की मांग कर रहे थे।
  • भावनात्मक स्थिति: 'विनय पत्रिका' के पदों में एक आर्तनाद है। 'श्री रामचन्द्र कृपालु' में यद्यपि राम के सौंदर्य का वर्णन है, लेकिन इसका उद्देश्य 'हरण भव भय दारुणम्' (भयानक भय का नाश) है। यह उस कठिन समय की उपज है जब समाज को एक रक्षक की आवश्यकता थी।

4.3 भाषा शैली

  • इन आरतियों की भाषा संस्कृतनिष्ठ अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण है।
  • 'श्री रामचन्द्र कृपालु' में संस्कृत की विभक्तियों (जैसे -म् अंत वाले शब्द) का प्रयोग है, जो इसे वेदों के सूक्तों जैसी गंभीरता देता है।
  • 'आरती कीजै' में ब्रजभाषा की मिठास है (जैसे - कीजै, गावत, नीकी), जो इसे जन-सामान्य के लिए गाने योग्य बनाती है।

5. आरती की विधि और श्रद्धापूर्वक गायन

5.1 पूर्व तैयारी

आरती केवल एक गीत नहीं, एक अनुष्ठान है। इसके लिए वातावरण और मन की पवित्रता आवश्यक है।

  • शुद्धि: स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा स्थल को साफ करें और गंगाजल छिड़कें।
  • दीपक की व्यवस्था: आरती के लिए विषम संख्या में बत्तियों (1, 5, 7) वाला दीपक प्रयोग करें।
  • द्रव्य: गाय का शुद्ध घी या कपूर का प्रयोग करें। कपूर का विशेष महत्व है क्योंकि यह जलने पर पूर्णतः लुप्त हो जाता है और कोई अवशेष (राख) नहीं छोड़ता। यह 'अहंकार के पूर्ण विलय' का प्रतीक है।
  • पुष्प और नैवेद्य: आरती से पूर्व भगवान को पुष्प और भोग (नैवेद्य) अर्पित करें, ताकि आरती के बाद वह प्रसाद बन जाए।

5.2 मानसिक भाव

विधि से अधिक महत्वपूर्ण 'भाव' है। तुलसीदास जी स्वयं लिखते हैं - "भाव कुभाव अनख आलस हूँ, नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ"। फिर भी, आरती के समय 'आत्म-निवेदन' का भाव होना चाहिए।

  • गाते समय यह भावना होनी चाहिए कि "हे प्रभु, मैं अज्ञानी हूँ, आप मेरे हृदय में निवास करें (मम हृदय कंज निवास कुरु)।"
  • दीपक की लौ को आत्मा का प्रतीक मानकर, उसे परमात्मा (राम) में विलीन करने का भाव रखना चाहिए।

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