ओम जय जगदीश हरे: मूल पाठ, विधि और रचयिता का इतिहास !
AI सारांश (Summary)
यदि आप पूरा लेख नहीं पढ़ना चाहते, तो AI द्वारा तैयार संक्षिप्त सारांश देख सकते हैं। यह आपके लिए उपयोगी रहेगा।
AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।शोध प्रतिवेदन: 'ओम जय जगदीश हरे' — महाआरती का ऐतिहासिक, दार्शनिक एवं अनुष्ठानिक महाभाष्य
1. मूल पाठ: श्री जगदीश जी की आरती
उपयोगकर्ता की प्राथमिक मांग के अनुसार, सर्वप्रथम भगवान विष्णु को समर्पित इस सार्वभौमिक आरती का पूर्ण और शुद्ध मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत है। यह पाठ विभिन्न पारंपरिक स्रोतों और मंदिर नियमावलियों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित है 1।
1.1 आरती के उपरांत गाये जाने वाले पारंपरिक मंत्र
वैष्णव और सनातन परंपरा में आरती के पूर्ण होने पर कर्पूर आरती और पुष्पांजलि का विधान है। यह मंत्र भगवान शिव और विष्णु दोनों के स्वरूपों का समन्वय करते हैं, जो भारतीय पूजा पद्धति की 'स्मार्त' परंपरा (पंचदेव पूजा) को दर्शाता है 1।
- कर्पूर आरती मंत्र:
कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदावसंतं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥ - मंगल श्लोक:
मंगलम् भगवान विष्णुः, मंगलम् गरुड़ध्वजः।
मंगलम् पुण्डरीकाक्षः, मंगलाय तनो हरिः॥ - क्षमा प्रार्थना:
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥
2. ऐतिहासिक उद्गम एवं रचयिता: 19वीं शताब्दी का परिदृश्य
सामान्य जनमानस में यह भ्रांति व्याप्त है कि 'ओम जय जगदीश हरे' वेदों या पुराणों से उद्धृत कोई प्राचीन रचना है। गहन शोध यह स्थापित करता है कि यह आरती वस्तुतः 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध की एक आधुनिक कृति है, जिसका जन्म पंजाब के सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण काल में हुआ।
2.1 रचयिता: पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी
इस कालजयी आरती के रचयिता पंडित श्रद्धाराम शर्मा (फिल्लौरी) थे। उनका जन्म 1837 में पंजाब के जालंधर जिले के सतलज नदी के किनारे स्थित 'फिल्लौर' नामक कस्बे में एक परम्परागत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता जयदयालु स्वयं एक ज्योतिषी थे और शक्ति (देवी) के उपासक थे。
पंडित श्रद्धाराम का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे केवल एक कर्मकांडी ब्राह्मण नहीं थे, अपितु उन्हें आधुनिक पंजाबी गद्य का जनक माना जाता है। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में 'सिखां दे राज दी विथिया' (सिख शासन का इतिहास) और 'पंजाबी बातचीत' सम्मिलित हैं, जिनका उपयोग ब्रिटिश अधिकारी पंजाबी भाषा और संस्कृति सीखने के लिए करते थे।
2.2 रचना काल और संदर्भ: 1870 का दशक
शोध दस्तावेजों के अनुसार, इस आरती की रचना लगभग 1870 ई. में हुई थी। पंडित फिल्लौरी ने इसे अपनी पुस्तक 'सत्यामृत प्रवाह' में सम्मिलित किया था。
इस रचना के पीछे का ऐतिहासिक संदर्भ अत्यंत महत्वपूर्ण है:
- सनातन धर्म की रक्षा: 19वीं सदी के मध्य में पंजाब, ब्रिटिश शासन के अधीन आ चुका था। 1857 की क्रांति के पश्चात, ईसाई मिशनरियों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था और वे स्थानीय निवासियों, विशेषकर निम्न आय वर्ग, को धर्मांतरित कर रहे थे। दूसरी ओर, ब्रह्म समाज और बाद में आर्य समाज जैसे सुधारवादी आंदोलन मूर्ति पूजा और अवतारवाद का खंडन कर रहे थे।
- सरल भक्ति का माध्यम: पंडित श्रद्धाराम ने अनुभव किया कि आम जनता क्लिष्ट संस्कृत श्लोकों को समझने या उच्चारण करने में असमर्थ है। उन्हें एक ऐसी प्रार्थना की आवश्यकता थी जो खड़ी बोली (जनभाषा) में हो, जिसे एक अनपढ़ किसान से लेकर विद्वान तक, सभी आसानी से गा सकें। 'ओम जय जगदीश हरे' इसी आवश्यकता की पूर्ति थी।
- क्रांतिकारी चेतना: पंडित जी ने महाभारत की कथाओं के माध्यम से लोगों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाभिमान जगाने का कार्य किया, जिसके कारण उन्हें कुछ समय के लिए अपने गृह नगर से निष्कासित भी किया गया था। यह आरती लोगों को एकत्रित करने और सामूहिक स्वर में ईश्वर का आह्वान करने का एक माध्यम बनी।
निष्कर्ष
पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित 'ओम जय जगदीश हरे' केवल एक पूजा गीत नहीं, अपितु भारतीय जनमानस की सामूहिक चेतना का एक अभिन्न अंग है। इसमें वैदिक ज्ञान, उपनिषदों का अद्वैत दर्शन, और गीता का कर्मयोग — सब कुछ अत्यंत सरल हिंदी में समाहित है। जब एक भक्त पूरी श्रद्धा के साथ, विधि-विधान से दीपक घुमाते हुए इस आरती का गान करता है, तो वह केवल एक अनुष्ठान नहीं करता, अपितु 19वीं सदी के उस ऋषि (पंडित श्रद्धाराम) की तपस्या को नमन करता है जिसने सनातन धर्म को जन-जन तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया था।