ॐ जय शिव ओंकारा: मूल पाठ, विधि और रचयिता का इतिहास !
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1. प्रस्तावना एवं मूल पाठ
भारतीय सनातन परंपरा में, 'आरती' केवल एक संगीतमय गायन नहीं, बल्कि एक पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है जो पूजा की पूर्णता का प्रतीक है। भगवान शिव को समर्पित आरतियों में, "ओम जय शिव ओमकारा" का स्थान सर्वोपरि है। यह आरती न केवल उत्तर भारत के मंदिरों में गूंजती है, बल्कि यह शैव, वैष्णव और शाक्त परंपराओं के बीच एक दार्शनिक सेतु का कार्य भी करती है। उपयोगकर्ता के अनुरोध के अनुसार, शोध-आधारित विश्लेषण में प्रवेश करने से पूर्व, इस आरती का प्रामाणिक और पूर्ण मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
मूल पाठ: शिव आरती
ॐ जय शिव ओंकारा, स्वामी जय शिव ओंकारा। ब्रह्मा विष्णु सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥ ॐ जय शिव...॥ एकानन चतुरानन पंचानन राजे। हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे॥ ॐ जय शिव...॥ दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे। त्रिगुण रूप निरखता, त्रिभुवन जन मोहे॥ ॐ जय शिव...॥ अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी। चन्दन मृगमद सोहै, भाले शशि धारी॥ ॐ जय शिव...॥ श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे। सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥ ॐ जय शिव...॥ कर के मध्य कमण्डलु चक्र त्रिशूल धर्ता। जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता॥ ॐ जय शिव...॥ ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका। प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका॥ ॐ जय शिव...॥ काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी। नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी॥ ॐ जय शिव...॥ त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावे। कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पत्ति पावे॥ ॐ जय शिव...॥
2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं रचयिता का विस्तृत विश्लेषण
किसी भी साहित्यिक या धार्मिक कृति के मर्म को समझने के लिए उसके रचयिता और उस कालखंड की सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियों को समझना अनिवार्य है। "ओम जय शिव ओमकारा" आरती के संदर्भ में, इसके रचयिता को लेकर जनमानस में कई भ्रांतियां व्याप्त हैं, जिनका निवारण ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर करना इस शोध का प्राथमिक उद्देश्य है।
2.1 रचयिता की पहचान: भ्रांति और यथार्थ
आधुनिक समय में, इंटरनेट और मौखिक परंपराओं के माध्यम से यह भ्रांति फैल गई है कि इस आरती के रचयिता 20वीं सदी के ऋषिकेश स्थित स्वामी शिवानन्द सरस्वती (दिव्य जीवन संघ के संस्थापक) या रामकृष्ण मिशन के स्वामी शिवानन्द (महापुरुष महाराज) हैं। यद्यपि ये दोनों महान संत थे, किंतु भाषाई विश्लेषण और ऐतिहासिक दस्तावेज यह सिद्ध करते हैं कि यह आरती इनके जन्म से कई शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी।
शोध और ऐतिहासिक दस्तावेजों के गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि इस आरती के वास्तविक रचयिता शिवानन्द वामदेव पांड्या थे, जो 17वीं शताब्दी के एक गुजराती नागर ब्राह्मण कवि और संत थे। बाद में संन्यास ग्रहण करने के उपरांत वे 'स्वामी शिवानन्द' के नाम से विख्यात हुए।
2.2 शिवानन्द वामदेव पांड्या: जीवन और कालखंड
स्वामी शिवानन्द का जन्म संवत 1600 के आसपास (लगभग 1541 ईस्वी) सूरत, गुजरात के 'नागर फलिया' क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता का नाम वामदेव हरिहर पांड्या था। यह परिवार पीढ़ियों से नर्मदा नदी के तट पर स्थित मार्कंडेय मुनि आश्रम और अम्बाजी मंदिर (मांडवा बुजुर्ग, अंकलेश्वर के निकट) की सेवा में संलग्न था।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, स्वामी शिवानन्द एक उच्च कोटि के विद्वान और 'कर्मकांडी' ब्राह्मण थे। 1601 ईस्वी (संवत 1657) के आसपास, उन्होंने नर्मदा तट पर देवी अंबा को प्रसन्न करने के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। मान्यता है कि इस यज्ञ की पूर्णाहुति पर उन्हें देवी के दर्शन प्राप्त हुए, और उसी दिव्य प्रेरणा के क्षणों में उन्होंने प्रसिद्ध आरती "जय आद्य शक्ति" की रचना की, जो आज भी नवरात्रि के दौरान गुजरात और पूरे विश्व में गरबा का अभिन्न अंग है।
शैलीगत समानताएं: "ओम जय शिव ओमकारा" और "जय आद्य शक्ति" आरतियों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि दोनों की छंद रचना, लय और शब्दावली में अद्भुत समानता है। दोनों आरतियों के अंत में रचयिता का नाम (भणिता) "कहत शिवानन्द स्वामी" के रूप में आता है। यह शैलीगत प्रमाण इस बात की पुष्टि करता है कि शिव आरती भी उसी कालखंड (17वीं शताब्दी के प्रारंभ) में उसी रचयिता द्वारा लिखी गई थी।
2.3 भाषाई विकास और हिंदीकरण
मूल रूप से गुजरात के होने के बावजूद, स्वामी शिवानन्द ने इस आरती की रचना उस समय की प्रचलित ब्रज-मिश्रित हिंदी (खड़ी बोली के पूर्वज) में की थी, जो उस काल में संतों की संपर्क भाषा थी। हालांकि, आरती में प्रयुक्त वाक्य विन्यास, जैसे "अर्द्धांगी धारा" या "प्रणवाक्षर के मध्ये", गुजराती व्याकरण के प्रभाव को दर्शाते हैं। सदियों से उत्तर भारत की मौखिक परंपरा में यात्रा करते हुए, इस आरती का स्वरूप परिष्कृत होकर मानक हिंदी के निकट आ गया है, जिसे हम आज गाते हैं।
तालिका 1: रचयिता के दावों का तुलनात्मक विश्लेषण
| रचयिता/दावेदार | कालखंड | स्थान | संभावना | प्रमाण/तर्क |
|---|---|---|---|---|
| स्वामी शिवानन्द (वामदेव पांड्या) | 17वीं शताब्दी (1601 ई.) | सूरत/नर्मदा तट | अत्यधिक (सिद्ध) | 'जय आद्य शक्ति' के रचयिता; ऐतिहासिक दस्तावेज; छंद और शैली में समानता। |
| स्वामी शिवानन्द (ऋषिकेश) | 20वीं शताब्दी (1887-1963) | ऋषिकेश | नगण्य | आरती इनके जन्म से पूर्व से प्रचलित थी; उनकी लेखन शैली भिन्न थी। |
| स्वामी शिवानन्द (रामकृष्ण मिशन) | 19वीं-20वीं शताब्दी | बंगाल/वाराणसी | निम्न | वे अद्वैत वेदांत के विद्वान थे, ब्रज/भक्ति गीतों की रचना उनकी मुख्य शैली नहीं थी। |
4. गायन विधि, अनुष्ठान और श्रद्धा
आरती केवल शब्दों का उच्चारण नहीं है, बल्कि एक विशिष्ट विधि है जिसका उद्देश्य देवता के साथ तादात्म्य स्थापित करना है। "ओम जय शिव ओमकारा" को गाने की परंपरा सदियों से विकसित हुई है।
4.2 गायन की विधि और समय
- समय : शास्त्रों के अनुसार, शिव आरती के लिए सबसे पवित्र समय प्रदोष काल (सूर्यास्त के तुरंत बाद) माना जाता है। मान्यता है कि इस समय भगवान शिव कैलाश पर आनंद तांडव करते हैं। इसके अतिरिक्त, सोमवार को और विशेष रूप से महाशिवरात्रि या सावन के महीने में इसका गायन अत्यंत फलदायी माना जाता है।
- वाद्य यंत्र : इस आरती का गायन लयबद्ध तरीके से होना चाहिए। पारंपरिक रूप से इसके साथ घंटा, घड़ियाल, शंख, और डमरू का वादन अनिवार्य माना जाता है। डमरू का नाद 'नादब्रह्म' का प्रतीक है, जो आरती के 'ओमकारा' शब्द के साथ गूंजता है।
- दीप प्रज्ज्वलन: आरती की थाली में विषम संख्या में (1, 5, 7, 11) बत्तियां होनी चाहिए। शिव पूजा में कपूर की आरती का विशेष महत्व है। कपूर जलने पर पूरी तरह लुप्त हो जाता है और कोई राख नहीं बचती; यह इस बात का प्रतीक है कि भक्त का अहंकार भी ईश्वर में विलीन होकर समाप्त हो जाना चाहिए।
4.3 श्रद्धा और भाव
आरती गाते समय भक्त को यह भाव रखना चाहिए कि वह केवल मूर्ति की पूजा नहीं कर रहा, बल्कि उस विराट चेतना का आह्वान कर रहा है जो कण-कण में व्याप्त है। "त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई नर गावे" पंक्ति गाते समय, भक्त यह कामना करता है कि वह सत्व, रज और तम—इन तीनों गुणों के बंधन से मुक्त होकर परमानंद (सुख-संपत्ति) को प्राप्त करे। यहाँ 'संपत्ति' का अर्थ केवल भौतिक धन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ऐश्वर्य है।
5. संगीत और सांस्कृतिक प्रभाव
यह आरती भारतीय शास्त्रीय संगीत और लोक परंपरा का एक अद्भुत संगम है।
5.1 राग और संगीत संरचना
यद्यपि इसे लोक शैली में गाया जाता है, किंतु संगीत मर्मज्ञों के अनुसार, इसका प्रचलित स्वर राग बिलावल या कल्याण के ठाठ पर आधारित है, जो भक्ति और शांति का रस उत्पन्न करता है। इसकी लय मध्यम होती है, जो 'दादरा' या 'कहहरवा' ताल के समान चलती है, जिससे भक्तों को तालियां बजाकर सामूहिक रूप से गाने में आसानी होती है।
अनुराधा पौडवाल, सुरेश वाडकर, और हरिहरन जैसे प्रख्यात गायकों ने इस आरती को स्वरबद्ध किया है, जिससे इसका एक मानक रूप पूरे भारत में स्थापित हो गया है।
5.2 सांस्कृतिक एकीकरण
यह आरती भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। गुजरात के एक संत द्वारा रची गई यह आरती आज काशी (उत्तर प्रदेश), ओंकारेश्वर (मध्य प्रदेश) से लेकर रामेश्वरम (तमिलनाडु) तक गूंजती है। सावन के महीने में जब कांवड़िए गंगा जल लेकर चलते हैं, तो यह आरती उनके यात्रा गीतों का मुख्य हिस्सा होती है। यह हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित न रहकर, अब वैश्विक स्तर पर हिंदू मंदिरों की पहचान बन चुकी है।
6. निष्कर्ष
"ओम जय शिव ओमकारा" मात्र एक धार्मिक गीत नहीं है, बल्कि यह अद्वैत वेदांत, भक्ति आंदोलन और भारतीय संस्कृति का एक अमूल्य दस्तावेज है। 17वीं शताब्दी में स्वामी शिवानन्द वामदेव पांड्या द्वारा रचित यह आरती, सांप्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर शिव को परब्रह्म के रूप में स्थापित करती है।
इस शोध प्रतिवेदन के माध्यम से हमने देखा कि कैसे यह आरती:
- ऐतिहासिक रूप से: 400 वर्षों से अधिक पुरानी है और गुजरात की भक्ति परंपरा से निकली है।
- दार्शनिक रूप से: ब्रह्मा, विष्णु और महेश की एकता (त्रिमूर्ति सिद्धांत) का प्रतिपादन करती है।
- व्यावहारिक रूप से: एक सुलभ साधना है जो सामान्य गृहस्थ को समाधि और मोक्ष के गूढ़ सिद्धांतों से जोड़ती है।
अतः, जब एक भक्त श्रद्धापूर्वक "ओम जय शिव ओमकारा" का उच्चारण करता है, तो वह केवल एक देवता को नहीं पुकारता, बल्कि वह उस आदि नाद 'ॐ' के साथ एकरूप होने का प्रयास करता है, जो संपूर्ण अस्तित्व का मूल है।