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नारायण कवच: संस्कृत पाठ, न्यास और इंद्र-विश्वरूप कथा !

AI सारांश (Summary)

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श्रीमद्भागवत पुराणान्तर्गत श्रीनारायणकवच: एक विस्तृत शोध प्रतिवेदन

भाग 1: संपूर्ण मूल संस्कृत पाठ

शोध के इस प्रथम खंड में, उपयोगकर्ता के प्राथमिक अनुरोध के अनुसार, श्रीनारायणकवच का संपूर्ण मूल संस्कृत पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पाठ श्रीमद्भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध, अष्टम अध्याय से लिया गया है। वैदिक परंपरा में कवच पाठ से पूर्व 'विनियोग' और 'न्यास' की अनिवार्यता होती है, अतः मूल श्लोकों से पूर्व प्रामाणिक न्यास विधि भी यहाँ संस्कृत में दी जा रही है ताकि पाठ की पूर्णता बनी रहे।

॥ अथ श्रीनारायणकवचम् ॥
॥ विनियोगः ॥ ॐ अस्य श्रीनारायणकवचस्तोत्रमन्त्रस्य विश्वरूप ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमान् नारायणो देवता, ॐ बीजं, नमः शक्तिः, नारायणायेति कीलकम्, मम सर्वरक्षार्थं पाठे विनियोगः। ॥ करन्यासः ॥ ॐ ॐ नमः दक्षिणतर्जन्याम् । ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम् । ॐ मों नमः दक्षिणानामिकायाम् । ॐ भं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम् । ॐ गं नमः वामकनिष्ठिकायाम् । ॐ वं नमः वामानामिकायाम् । ॐ तें नमः वाममध्यमायाम् । ॐ वां नमः वामतर्जन्याम् । ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि । ॐ दें नमः दक्षिणांगुष्ठाय पर्वणि । ॐ वां नमः वामांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि । ॐ यं नमः वामांगुष्ठाय पर्वणि ॥ ॥ अंगन्यासः ॥ ॐ ॐ नमः हृदयाय । ॐ नं नमः शिरसे । ॐ मों नमः शिखायै । ॐ नां नमः कवचाय । ॐ रां नमः नेत्रत्रयाय । ॐ यं नमः अस्त्राय । ॐ णां नमः - इति दिग्बन्धः ॥ (मूल पाठ प्रारम्भ) राजोवाच यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान् । क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥ १॥ भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् । यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ॥ २॥ श्रीशुक उवाच वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते । नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥ ३॥ विश्वरूप उवाच धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः । कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ॥ ४॥ नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते । पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ॥ ५॥ मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोङ्कारादीनि विन्यसेत् । ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥ ६॥ करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया । प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ॥ ७॥ न्यसेद्धृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि । षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ॥ 8॥ वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु । मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ॥ ९॥ सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् । ॐ विष्णवे नम इति ॥ १०॥ आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् । विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ॥ ११॥ ॥ मूल मन्त्र पाठ ॥ ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे । दरारिचर्मासिगदेषुचाप-पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥ १२॥ जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् । स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥ १३॥ दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः । विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥ १४॥ रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः । रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् ॥ १५॥ मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-न्नारायणः पातु नरश्च हासात् । दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥ १६॥ सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् । देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥ १७॥ धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या- द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा । यज्ञश्च लोकादवताञ्जनान्ता-द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ॥ १८॥ द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात् । कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥ १९॥ मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः । नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥ २०॥ देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् । दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥ २१॥ श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः । दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥ २२॥ चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् । दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥ २३॥ गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ठ्यजितप्रियासि । कुष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥ २४॥ त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् । दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ॥ २५॥ त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि । चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥ २६॥ यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च । सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योऽंहोभ्य एव च ॥ २७॥ सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपानुकीर्तनात् । प्रयान्तु सङ्क्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपाः ॥ २८॥ गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः । रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥ २९॥ सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः । बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ॥ ३०॥ यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् । सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥ ३१॥ यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् । भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥ ३२॥ तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः । पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥ ३३॥ विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः । प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥ ३४॥ मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् । विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥ ३५॥ एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा । पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसाद्विमुच्यते ॥ ३६॥ न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् । राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥ ३७॥ इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः । योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ॥ ३८॥ तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा । ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ॥ ३९॥ गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः । स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ॥ ४०॥ प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् । श्रीशुक उवाच य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः । तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ४१॥ एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतकतुः । त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ॥ ४२॥ ॥ इति श्रीभागवते महापुराणे षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥

भाग 2: नारायण कवच का ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भ

नारायण कवच का अध्ययन केवल इसके शाब्दिक अर्थ तक सीमित नहीं रह सकता; इसके ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भ को समझना अनिवार्य है। यह संदर्भ हमें यह समझने में सहायता करता है कि यह कवच किन परिस्थितियों में प्रकट हुआ और इसकी शक्ति का मूल स्रोत क्या है। श्रीमद्भागवत पुराण, जो वैष्णव दर्शन का मुकुटमणि माना जाता है, के षष्ठ स्कंध का अष्टम अध्याय पूरी तरह से इस कवच को समर्पित है।

2.1 श्रीमद्भागवत पुराण में स्थान

श्रीमद्भागवत पुराण, जिसे 'अमल पुराण' भी कहा जाता है, महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में सबसे प्रमुख है। इसके षष्ठ स्कंध को 'पोषण स्कंध' कहा जाता है, जिसका अर्थ है - "भक्तों पर भगवान की अनुग्रह शक्ति"। नारायण कवच इसी 'पोषण' का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ भगवान अपनी शक्ति से भक्त को चारों ओर से घेरकर सुरक्षित कर देते हैं।

  • ग्रंथ: श्रीमद्भागवत पुराण
  • स्कंध: 06 (षष्ठ स्कंध)
  • अध्याय: 08 (अष्टम अध्याय)
  • कुल श्लोक: 42 (विनियोग आदि को छोड़कर मूल भागवत के श्लोक)
  • संवाद: श्रीशुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित के मध्य, तथा कथा के भीतर विश्वरूप और देवराज इन्द्र के मध्य।

2.2 उद्गम की कथा: देवासुर संग्राम और गुरु का महत्व

नारायण कवच के प्रकटीकरण की पृष्ठभूमि अत्यंत नाटकीय और शिक्षाप्रद है। यह कथा गुरु-शिष्य परंपरा, अपराध, प्रायश्चित और दैवीय सुरक्षा के सिद्धांतों को उजागर करती है。

  • इन्द्र का प्रमाद और बृहस्पति का त्याग: स्वर्ग के राजा इन्द्र एक बार अपनी सभा में अप्सराओं के नृत्य और गंधर्वों के गायन में मग्न थे। उसी समय देवताओं के गुरु बृहस्पति सभा में पधारे। ऐश्वर्य के मद में चूर इन्द्र ने अपने गुरु के सम्मान में न तो आसन छोड़ा और न ही उनका उचित स्वागत किया। इस अपमान को देखकर बृहस्पति चुपचाप वहाँ से चले गए और अंतर्धान हो गए। गुरु के चले जाने के बाद इन्द्र को अपनी भूल का आभास हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
  • असुरों का आक्रमण और देवताओं की पराजय: गुरु की अनुपस्थिति से देवताओं का 'तेज' क्षीण हो गया। इस अवसर का लाभ उठाकर असुरों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। गुरु के आध्यात्मिक संरक्षण के बिना देवता युद्ध में बुरी तरह पराजित हुए। हताश होकर वे ब्रह्मा जी के पास गए।
  • विश्वरूप की नियुक्ति: ब्रह्मा जी ने देवताओं को फटकार लगाई कि उन्होंने अपने गुरु का अपमान किया है। ब्रह्मा जी ने सुझाव दिया कि वे त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरूप को अपना नया पुरोहित बनाएं। विश्वरूप अत्यंत तपस्वी और ज्ञानी थे, लेकिन वे असुरों के भांजे (दौहित्र) भी थे। देवताओं ने विनती की, और विश्वरूप ने पुरोहित बनना स्वीकार किया।
  • कवच का उपदेश: जब इन्द्र ने विश्वरूप को अपना गुरु स्वीकार कर लिया, तब विश्वरूप ने इन्द्र को वह विद्या सिखाई जिससे असुरों की विशाल सेना को पराजित किया जा सके। इसी विद्या का नाम 'नारायण कवच' है। विश्वरूप ने कहा: "हे इन्द्र! तुम इस नारायणमय कवच को धारण करो। इससे सुरक्षित होकर तुम खेल-खेल में ही शत्रु सेना को जीत लोगे।"

शोध अंतर्दृष्टि: यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि कवच केवल 'शब्द' नहीं है, बल्कि 'दीक्षा' है। इन्द्र को यह कवच एक गुरु (विश्वरूप) से प्राप्त हुआ। इससे सिद्ध होता है कि मंत्रों की शक्ति गुरु-मुख से प्राप्त होने पर ही पूर्णता को प्राप्त होती है। नारायण कवच विपत्ति काल में ईश्वरीय हस्तक्षेप का प्रतीक है।

भाग 3: कवच पाठ की विधि और श्रद्धा

उपयोगकर्ता ने विशेष रूप से पूछा है कि "इसे किस प्रकार श्रद्धा से पाठ किया जाता है"। नारायण कवच अन्य स्तोत्रों से भिन्न है क्योंकि यह एक 'तांत्रिक प्रक्रिया' से युक्त वैदिक प्रार्थना है। इसमें शरीर, मन और वाणी का त्रिवेणी संगम आवश्यक है।

३.१ बाह्य और आंतरिक शुद्धि

भागवत के श्लोक ४ में स्पष्ट निर्देश दिया गया है: “धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः”।

प्रक्रिया विवरण वैज्ञानिक/आध्यात्मिक तर्क
धौताङ्घ्रिपाणि हाथ और पैर धोना शरीर की विद्युतीय तरंगों का संतुलन बनाना और स्वच्छता।
आचमन जल पीना (केशवाय नमः, आदि) कंठ और आंतरिक अंगों की शुद्धि, वाणी की स्पष्टता।
सपवित्र कुश की अंगूठी (पवित्री) धारण करना कुश को ऊर्जा का सुचालक और अशुद्धि नाशक माना जाता है।
उदङ्मुखः उत्तर दिशा की ओर मुख करना उत्तर दिशा चुंबकीय ध्रुव है, जो ध्यान और स्थिरता में सहायक है।
वाग्यतः मौन धारण करना मंत्रोच्चार से पूर्व वाणी की ऊर्जा को संचित करना।

3.2 न्यास विधि: शरीर को मंत्रमय बनाना

नारायण कवच का सबसे तकनीकी पक्ष 'न्यास' है। न्यास का अर्थ है 'स्थापित करना'। साधक यह भावना करता है कि भगवान विष्णु उसके शरीर के रोम-रोम में स्थित हो रहे हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक 'बख्तरबंद' प्रक्रिया है。

  • (क) अंगन्यास: इसमें अष्टाक्षर मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) का प्रयोग होता है。
    ॐ - पैरों पर (साधक भगवान के चरणों में स्थित है)。
    न - घुटनों पर。
    मो - जांघों पर。
    ना - उदर (पेट) पर。
    रा - हृदय पर (आत्मा का स्थान)。
    य - वक्षस्थल पर。
    णा - मुख पर。
    य - सिर पर。
  • (ख) करन्यास: इसमें द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रयोग होता है。
    इसे उंगलियों के पोरों पर स्थापित किया जाता है。
    दाहिने हाथ की तर्जनी से शुरू करके बाएँ हाथ की तर्जनी तक, और अंत में दोनों अंगूठों के पर्वों पर।
  • (ग) दिग्बंधन: अंत में "ॐ विष्णवे नमः" मंत्र के अक्षरों (ॐ, वि, ष, ण, वे, न, मः) को हृदय, सिर, भौहें, शिखा, नेत्र और सभी जोड़ों पर स्थापित करके "मः अस्त्राय फट्" मंत्र से दशों दिशाओं में चुटकी बजाई जाती है। यह साधक के चारों ओर एक अभेद्य सुरक्षा घेरा बनाता है।

3.3 श्रद्धा और मनोदशा

केवल यांत्रिक रूप से पाठ करना पर्याप्त नहीं है। 'श्रद्धा' का अर्थ है - अटूट विश्वास। पाठ करते समय साधक के मन में ये भाव होने चाहिए:

  • दैन्य भाव: "हे प्रभु! मैं असमर्थ हूँ, केवल आप ही रक्षक हैं।"
  • तादात्म्य भाव: न्यास के बाद साधक को अनुभव करना चाहिए कि "मैं अब साधारण मनुष्य नहीं हूँ, मेरा शरीर नारायण-मय हो गया है।" (श्लोक 11: आत्मानं परमं ध्यायेद्...)
  • निर्भयता: कवच पाठ के बाद डर का लेशमात्र भी रहना श्रद्धा की कमी का संकेत है।

भाग 4: फलश्रुति और आधुनिक संदर्भ

4.1 कौशिक ब्राह्मण की कथा: कवच की शक्ति का प्रमाण

श्लोक 38-40 में एक अद्भुत आख्यान है जो इस कवच की शक्ति को स्थापित करता है。
एक बार 'कौशिक' गोत्र के एक ब्राह्मण ने इस कवच को सिद्ध किया और योग-धारणा से मरुभूमि में अपना शरीर त्याग दिया। कालांतर में गंधर्वराज चित्ररथ अपनी पत्नियों के साथ विमान से वहाँ से गुजरे। जैसे ही उनका विमान उस मृत ब्राह्मण की अस्थियों के ऊपर आया, वह शक्तिहीन होकर नीचे गिर गया。
वालखिल्य ऋषियों ने बताया कि "नीचे नारायण कवच से सिद्ध महापुरुष की अस्थियां हैं, उनके प्रभाव से तुम्हारा विमान गिरा है।"

निष्कर्ष: नारायण कवच इतना शक्तिशाली है कि यह स्थूल शरीर के नष्ट होने के बाद भी सूक्ष्म रूप से अस्थियों में विद्यमान रहता है। यह आधुनिक रेडियोधर्मी प्रभाव की तरह है, लेकिन आध्यात्मिक और सकारात्मक रूप में।

4.2 लाभ

  • सर्वत्र-विजय: जैसे इन्द्र ने असुरों को जीता, साधक जीवन के संघर्षों में विजयी होता है।
  • भय-मुक्ति: “न कुतश्चिद्भयं तस्य” - उसे राजा, चोर, ग्रह, या हिंसक जीवों से कभी भय नहीं होता।
  • दृष्टि-प्रभाव: साधक जिसे भी प्रेम या दया से देखता है, वह भी भयमुक्त हो जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

श्रीमद्भागवत पुराण का नारायण कवच भारतीय अध्यात्म विज्ञान की एक अनमोल धरोहर है। यह केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्म-रक्षा का एक पूर्ण विज्ञान है। इसमें ध्वनि-विज्ञान, न्यास-विज्ञान, और देवता-विज्ञान का अद्भुत समन्वय है।

॥ ॐ नमो नारायणाय ॥

नारायणकवच श्रीमद्भागवत विश्वरूप इन्द्र विष्णुभक्ति वैष्णवकवच न्यासविधि देवासुरसंग्राम रक्षास्तोत्र भगवद्कवच