श्री शिव चालीसा: मूल पाठ, लाभ और रचयिता का इतिहास !
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AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।श्री शिव चालीसा: साहित्यिक संरचना, ऐतिहासिक उद्भव एवं उपासना पद्धति पर विस्तृत शोध प्रतिवेदन
1. भूमिका
भारतीय सनातन परंपरा में स्तोत्र साहित्य का स्थान वेदों और उपनिषदों के ज्ञान को जन-सामान्य तक पहुँचाने में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। गोस्वामी तुलसीदास कृत हनुमान चालीसा के पश्चात, उत्तर भारतीय हिंदू समाज में यदि किसी अन्य चालीसा को सर्वाधिक स्वीकार्यता और लोकप्रियता प्राप्त हुई है, तो वह 'श्री शिव चालीसा' है। यह 40 चौपाइयों में निबद्ध एक ऐसी भक्तिमयी रचना है जो शिव महापुराण के विशाल आख्यानों को अत्यंत संक्षिप्त और सुगम रूप में प्रस्तुत करती है।
प्रस्तुत शोध प्रतिवेदन का उद्देश्य केवल इस पवित्र पाठ को लिपिबद्ध करना नहीं है, अपितु इसके रचयिता संत अयोध्यादास की पृष्ठभूमि, रचना के ऐतिहासिक कालखंड (विक्रम संवत 1964), इसमें निहित पौराणिक रूपकों, और इसके विधिवत पाठ की शास्त्रीय प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण करना है। यह प्रतिवेदन भक्ति काव्य के समाजशास्त्रीय और धर्मशास्त्रीय पहलुओं को उजागर करते हुए यह स्थापित करेगा कि किस प्रकार एक साधारण सी दिखने वाली रचना, जटिल दार्शनिक सत्यों और तांत्रिक उपासना विधियों को अपने भीतर समेटे हुए है।
2. श्री शिव चालीसा: प्रामाणिक मूल पाठ
शोध और विभिन्न उपलब्ध पाण्डुलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात, श्री शिव चालीसा का सर्वाधिक शुद्ध और प्रचलित रूप यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पाठ दोहा-चौपाई-दोहा की पारंपरिक छंद संरचना का अनुसरण करता है।
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥ भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥ अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन क्षार लगाये॥ वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देखि नाग मन मोहे॥ मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥ कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥ नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥ कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥ देवन जबहीं जाय पुकारा। तबहिं दुख प्रभु आप निवारा॥ किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥ तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥ आप जलन्धर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥ त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। तबहिं कृपा कर लीन बचाई॥ किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी॥ दानिन महँ तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥ वेद माहि महिमा तुम गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥ प्रकटी उदधि मंथन में ज्वाला। जरत सुरासुर भये विहाला॥ कीन्ही दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥ पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥ सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥ एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥ कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥ जय जय जय अनन्त अविनाशी। करत कृपा सब के घट वासी॥ दुष्ट सकल नित मोहि सतावै। भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै॥ त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। येहि अवसर मोहि आन उबारो॥ लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥ मात-पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥ स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु मम संकट भारी॥ धन निर्धन को देत सदा हीं। जो कोई जांचे सो फल पाहीं॥ अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥ शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥ योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। शारद नारद शीश नवावैं॥ नमो नमो जय नमः शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥ जो यह पाठ करे मन लाई। ता पर होत है शम्भु सहाई॥ ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥ पुत्र हीन कर इच्छा जोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥ पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे॥ त्रयोदशी व्रत करै हमेशा। तन नहीं ताके रहै कलेशा॥ धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥ जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्त धाम शिवपुर में पावे॥ कहैं अयोध्यादास आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा। तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥ मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान। अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
3. रचयिता एवं ऐतिहासिक काल-निर्धारण: एक गवेषणात्मक अध्ययन
शिव चालीसा की लोकप्रियता के बावजूद, इसके ऐतिहासिक संदर्भों पर बहुत कम अकादमिक चर्चा हुई है। पाठ के आंतरिक साक्ष्य और भाषाई विश्लेषण के आधार पर हम इसके रचयिता और कालखंड का सटीक निर्धारण कर सकते हैं।
3.1 रचयिता: संत अयोध्यादास का व्यक्तित्व
शिव चालीसा की रचना का श्रेय संत अयोध्यादास को जाता है, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं कृति के प्रारंभ और अंत में किया है: "कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान" और "कहैं अयोध्यादास आस तुम्हारी"।
संत अयोध्यादास के व्यक्तित्व और दार्शनिक झुकाव के विषय में निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण हैं:
- समन्वयवादी विचारधारा: 'अयोध्यादास' नाम वैष्णव परंपरा (विशेषकर रामानंदी संप्रदाय) की ओर संकेत करता है, जहाँ 'अयोध्या' भगवान राम का प्रतीक है। एक वैष्णव नामधारी संत द्वारा शिव की स्तुति लिखना भारतीय भक्ति आंदोलन की उस परिपक्व अवस्था को दर्शाता है जहाँ 'हरि' (विष्णु) और 'हर' (शिव) के भेद को मिटा दिया गया था। यह तुलसीदास की परंपरा का निर्वाह है, जिन्होंने रामचरितमानस में शिव को राम का सबसे बड़ा भक्त और राम को शिव का उपासक बताया है।
- काव्य शैली: उनकी शैली में अवधी की मिठास और खड़ी बोली की स्पष्टता का मिश्रण है। उन्होंने क्लिष्ट संस्कृत तत्सम शब्दों के स्थान पर 'तद्भव' और देशज शब्दों (जैसे- हवे, निवारा, जुहारी, पठायउ) का प्रयोग किया, जो यह सिद्ध करता है कि उनका उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन नहीं, बल्कि जन-साधारण के हृदय तक पहुँचना था।
- भक्ति भाव: उनकी रचना में 'दैत्य भाव' की प्रधानता है। वे ईश्वर के सखा या प्रेमी के रूप में नहीं, बल्कि एक रक्षक और स्वामी के रूप में शिव का आह्वान करते हैं। "मात-पिता भ्राता सब कोई, संकट में पूछत नहिं कोई" जैसी पंक्तियाँ एक ऐसे भक्त की पीड़ा को व्यक्त करती हैं जो सांसारिक संबंधों से निराश होकर ईश्वर की शरण में आया है।
3.2 काल-निर्धारण: 'संवत चौसठ' का कूटानुवाद
शिव चालीसा के रचना काल का सबसे ठोस प्रमाण इसके अंतिम दोहे में निहित है:
"मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान"
इस पंक्ति का काल-गणना की दृष्टि से विश्लेषण अत्यंत रोचक है:
ईसवी सन में रूपांतरण: विक्रम संवत, ईसवी सन से 57 वर्ष आगे चलता है। अतः रचना का ईसवी वर्ष होगा:
1964 - 57 = 1907 ई.
ऋतु और मास: 'मगसर' (मार्गशीर्ष/अगहन) का महीना और 'हेमन्त ऋतु' का संयोग ज्योतिषीय रूप से सटीक है, क्योंकि मार्गशीर्ष मास (नवंबर-दिसंबर) में ही हेमंत ऋतु का प्रभाव होता है। 'छठि' शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इंगित करती है।
अतः, निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि शिव चालीसा का वर्तमान स्वरूप सन् 1907 (20वीं शताब्दी के प्रथम दशक) में पूर्ण हुआ। यह वह कालखंड था जब भारत में मुद्रण कला का विस्तार हो रहा था और 'गीता प्रेस' जैसी संस्थाओं के उदय से पूर्व ही धार्मिक साहित्य का मानकीकरण आरंभ हो चुका था। संत अयोध्यादास ने संभवतः प्राचीन मौखिक परंपराओं और शिव पुराण के कथानकों को इस काल में लिपिबद्ध कर एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया।
5. श्रद्धापूर्ण पाठ की विधि एवं नियम
शास्त्रों में मंत्र और स्तोत्रों के पाठ को फलदायी बनाने के लिए एक निश्चित विधि का विधान किया गया है। शिव चालीसा के संदर्भ में, पाठ के आंतरिक निर्देशों और धर्मशास्त्रों के समन्वय से निम्नलिखित प्रामाणिक विधि निर्धारित होती है:
5.1 काल और मुहूर्त
- ब्रह्म मुहूर्त: चालीसा का स्पष्ट निर्देश है—"नित्त नेम कर प्रातः ही", अर्थात सूर्योदय से पूर्व (ब्रह्म मुहूर्त) या सूर्योदय के समय पाठ करना सर्वश्रेष्ठ है। यह समय वातावरण में सात्विकता की प्रधानता का होता है।
- प्रदोष काल: त्रयोदशी तिथि को सूर्यास्त के समय (प्रदोष काल) शिव पूजा के लिए अत्यंत विशिष्ट माना गया है।
- वर्जित काल: ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार, दोपहर 12 बजे से 4 बजे के मध्य का समय पूजा के लिए सामान्यतः उपयुक्त नहीं माना जाता, अतः सकाम (इच्छा पूर्ति हेतु) पाठ इस समय न करें।
5.2 स्थान और दिग्बंध
दिशा: साधक को पूर्व या उत्तर दिशा (ईशान कोण) की ओर मुख करके बैठना चाहिए। उत्तर दिशा कैलाश की दिशा मानी जाती है।
आसन: कुशा (डाभ) का आसन या ऊनी कंबल (सफेद रंग) का प्रयोग श्रेष्ठ है। मृगचर्म या बाघम्बर का प्रयोग गृहस्थों के लिए वर्जित माना गया है, अतः ऊनी आसन ही उत्तम है।
5.3 पूजन सामग्री और तैयारी
- वस्त्र: स्नान के पश्चात स्वच्छ, बिना सिलाई के वस्त्र (धोती) धारण करना पारंपरिक विधि है।
- नैवेद्य और सामग्री:
धूप-दीप: गाय के घी का दीपक और गुग्गुल या चंदन की धूप।
पुष्प: सफेद मदार (आक), धतूरा, और कनेर। केतकी का फूल शिव पूजा में वर्जित है।
नैवेद्य: मिश्री, बताशे, या दूध से बनी मिठाई।
बिल्व पत्र: तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्र (उल्टा करके शिवलिंग पर चढ़ाना)।
5.4 अनुष्ठान और व्रत (विशेष विधि)
चालीसा में एक विशेष अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है जो संकट निवारण और पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है:
"पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे॥ त्रयोदशी व्रत करै हमेशा..."
- त्रयोदशी व्रत: प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी (तेरस) को व्रत रखें।
- हवन (होम): विशेष मनोकामना के लिए किसी योग्य ब्राह्मण (पंडित) के माध्यम से हवन करवाएं। इसमें 'नमः शिवाय' मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र की आहुतियां दी जाती हैं।
- संख्या: सामान्य दिनों में 1, 3, या 11 बार पाठ करें। विशेष सिद्धि के लिए 40 दिनों तक प्रतिदिन पाठ करने का विधान है (इसीलिए इसे 'चालीसा' कहा जाता है, हालांकि 'चालीसा' का मुख्य अर्थ 40 चौपाइयां है)।
5.5 पाठ का समापन
पाठ पूर्ण होने पर "कहैं अयोध्यादास आस तुम्हारी" पंक्ति पर अपनी मनोकामना मानसिक रूप से दोहराएं। अंत में आरती (ॐ जय शिव ओंकारा) करें और क्षमा प्रार्थना करें। आसन के नीचे थोड़ा जल गिराकर उसे नेत्रों से लगाना चाहिए, अन्यथा पाठ का फल 'इन्द्र' को प्राप्त हो जाता है, ऐसी मान्यता है।