पर्वतास्त्र
जब आकाश से हुई पर्वतों की वर्षा
खंड १: दिव्यास्त्रों का रहस्यमय संसार
प्राचीन भारत के महाकाव्यों, रामायण और महाभारत की कहानियाँ केवल राजाओं, रानियों और उनके धर्म-अधर्म के संघर्ष तक ही सीमित नहीं हैं। ये कथाएँ एक ऐसे संसार का द्वार खोलती हैं जहाँ युद्ध केवल बाहुबल और साधारण शस्त्रों से नहीं, बल्कि मंत्रों से अभिमंत्रित दिव्यास्त्रों से लड़े जाते थे। ये 'अस्त्र' केवल भौतिक हथियार नहीं थे, बल्कि वे देवताओं की शक्तियों के साकार रूप थे, जिन्हें विशेष मंत्रों के उच्चारण से जागृत किया जाता था। एक कुशल योद्धा किसी साधारण बाण को भी मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित करके एक विनाशकारी दिव्यास्त्र में बदल सकता था।
इन अस्त्रों का ज्ञान किसी पुस्तक में नहीं लिखा था। यह एक पवित्र परंपरा, गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता था। गुरु अपने शिष्य के चरित्र, संयम और निष्ठा की कठोर परीक्षा लेने के बाद ही उसे इन अस्त्रों का ज्ञान देते थे। यह परंपरा सुनिश्चित करती थी कि ऐसी विनाशकारी शक्ति केवल उन्हीं हाथों में जाए जो इसका महत्व और उत्तरदायित्व समझते हों। इसीलिए रामायण और महाभारत के महान योद्धा, जैसे श्रीराम, अर्जुन, कर्ण और भीष्म, न केवल अपने शौर्य के लिए, बल्कि उस आध्यात्मिक अनुशासन के लिए भी पूजनीय थे जिसने उन्हें इन दिव्यास्त्रों का अधिकारी बनाया। इसी रहस्यमयी और शक्तिशाली संसार का एक अद्भुत अस्त्र है - पर्वतास्त्र।
पर्वतास्त्र - परिचय, उत्पत्ति और अधिष्ठाता देवता
दिव्यास्त्रों के विशाल भंडार में, पर्वतास्त्र का नाम ही उसकी भयावह शक्ति का परिचय दे देता है। 'पर्वत' और 'अस्त्र' के मेल से बना यह नाम, "पर्वतों का हथियार" का अर्थ देता है। यह एक ऐसा विनाशकारी अस्त्र था जो शत्रु की विशाल सेनाओं को एक ही क्षण में कुचलकर उनकी प्रगति को रोकने की क्षमता रखता था।
अनेक दिव्यास्त्रों के अधिष्ठाता देवताओं के बारे में ग्रंथों में अस्पष्टता मिलती है, परंतु पर्वतास्त्र के विषय में शास्त्र स्पष्ट हैं। इस अस्त्र के अधिष्ठाता देवता 'वायु देव' हैं, यानी पवन के देवता। यह एक रोचक तथ्य है, जो इस अस्त्र की कार्यप्रणाली पर गहरा प्रकाश डालता है। वायु, जो स्वयं निराकार, अदृश्य और हल्की है, वह ऐसे अस्त्र को कैसे नियंत्रित करती है जो सबसे भारी, ठोस और विशाल पर्वतों को प्रकट करता है? यह विरोधाभास ही वायु देव की असीम शक्ति को दर्शाता है। उनका नियंत्रण केवल हवा के झोंकों तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण वायुमंडल और उसमें घटित होने वाली हर घटना पर है। यह संभव है कि पर्वतास्त्र पर्वतों का निर्माण नहीं करता, बल्कि वायु देव की शक्ति का आह्वान कर उन्हें किसी दिव्य लोक से उठाकर युद्धभूमि पर वर्षाता है। इस प्रकार, पर्वतास्त्र वायु देव के उस विराट स्वरूप का प्रतीक है जो साकार और निराकार, दोनों पर समान अधिकार रखता है।
पाठकों की सुविधा के लिए पर्वतास्त्र की मुख्य विशेषताओं को एक सारणी में प्रस्तुत किया गया है।
गुण | विवरण |
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अस्त्र का नाम | पर्वतास्त्र |
अधिष्ठाता देवता | वायु देव |
प्रभाव | आकाश से पर्वतों, शिलाओं और चट्टानों की वर्षा कर शत्रु सेना का विनाश करना। |
धारक योद्धा | अर्जुन, भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, कृपाचार्य, राजा शशिध्वज, आदि। |
प्रमुख प्रयोग | द्रोणाचार्य द्वारा (महाभारत, भीष्म पर्व), राजा शशिध्वज द्वारा (कल्कि पुराण)। |
प्रतिकार | वायव्यास्त्र, समान या अधिक शक्तिशाली अन्य दिव्यास्त्र। |
पर्वतास्त्र की अमोघ शक्ति और विनाशकारी प्रभाव
पर्वतास्त्र के प्रयोग की कल्पना ही मन में भय उत्पन्न कर देती है। जब कोई योद्धा इस अस्त्र का संधान करता था, तो युद्धभूमि का दृश्य पूरी तरह बदल जाता था। आकाश में बादल नहीं, बल्कि विशाल पर्वत और चट्टानें प्रकट होने लगती थीं और गुरुत्वाकर्षण के नियम को धता बताते हुए वे शत्रु सेना पर कहर बनकर टूट पड़ती थीं। यह केवल पत्थरों की वर्षा नहीं थी, यह एक प्रलय का दृश्य था जहाँ संपूर्ण पर्वत आकाश से गिरकर अपने नीचे आने वाली हर चीज को धूल में मिला देते थे। पैदल सैनिक, घुड़सार, रथ और यहाँ तक कि विशालकाय हाथी भी इन गिरते हुए पर्वतों के नीचे कुचलकर नष्ट हो जाते थे। यह आगे बढ़ती हुई किसी भी सेना के लिए एक पूर्ण विराम था। इसकी भौतिक क्षति से कहीं अधिक इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव था। शत्रु के लिए यह किसी मानवीय योद्धा का आक्रमण नहीं, बल्कि स्वयं प्रकृति का प्रकोप प्रतीत होता था। जब आकाश से ही पर्वत गिरने लगें, तो साधारण सैनिक का मनोबल टूट जाना स्वाभाविक था। यह एक ऐसा भय उत्पन्न करता था जिसका कोई पारंपरिक उत्तर नहीं था। अन्य दिव्यास्त्रों, जैसे नागास्त्र जो अचूक निशाना साधता था, या सम्मोहनास्त्र जो सेना को भ्रमित करता था, के विपरीत पर्वतास्त्र एक अंधाधुंध विनाश का हथियार था।
दिव्यास्त्रों की प्राप्ति - तप, गुरु-कृपा और वरदान
"इसे कैसे प्राप्त करें?" यह प्रश्न स्वाभाविक है। ऐसे विनाशकारी अस्त्र किसी बाजार में नहीं मिलते थे और न ही किसी शस्त्रशाला में गढ़े जाते थे। इन्हें प्राप्त करने का मार्ग तपस्या, अनुशासन और गुरु-कृपा से होकर गुजरता था। दिव्यास्त्रों को पाने का सबसे प्रमुख मार्ग था कठोर 'तपस्या'। एक योद्धा वर्षों तक कठिन तप करके संबंधित देवता को प्रसन्न करता था। जब देवता उसकी निष्ठा, दृढ़ संकल्प और आत्म-नियंत्रण से संतुष्ट हो जाते, तब वे उसे वरदान (वरदान) के रूप में अस्त्र प्रदान करते थे। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण अर्जुन द्वारा पाशुपतास्त्र की प्राप्ति है। उन्होंने इंद्रकील पर्वत पर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। भगवान शिव ने एक किरात (शिकारी) का वेश धरकर उनकी परीक्षा ली और जब अर्जुन उस परीक्षा में खरे उतरे, तब जाकर उन्हें वह महाविनाशक अस्त्र प्राप्त हुआ। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती थी कि अस्त्र पाने वाला योद्धा न केवल शक्तिशाली हो, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी परिपक्व हो। दूसरा मार्ग था गुरु की कृपा। द्रोणाचार्य और परशुराम जैसे गुरुओं के पास सभी दिव्यास्त्रों का ज्ञान था। वे अपने शिष्यों की योग्यता और चरित्र को परखकर उन्हें इन अस्त्रों की दीक्षा देते थे। यह ज्ञान केवल मंत्रों का ज्ञान नहीं था, बल्कि उस अस्त्र को धारण करने, चलाने और सबसे महत्वपूर्ण, उसे वापस लेने की विधि का संपूर्ण ज्ञान था। अस्त्र प्राप्त करना एक सम्मान के साथ-साथ एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व भी था। भगवान शिव ने अर्जुन को पाशुपतास्त्र देते हुए चेतावनी दी थी कि इसका प्रयोग कभी भी साधारण शत्रुओं पर न किया जाए, अन्यथा यह पूरी सृष्टि का विनाश कर सकता है। इस प्रकार, दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने की यह कठिन प्रक्रिया एक नैतिक फिल्टर का काम करती थी, जो यह सुनिश्चित करती थी कि केवल सबसे योग्य और जिम्मेदार योद्धा ही इन शक्तियों के धारक बनें।
महाकाव्यों और पुराणों में पर्वतास्त्र - प्रयोग के ऐतिहासिक क्षण
यद्यपि पर्वतास्त्र का ज्ञान महाभारत के कई महारथियों को था, लेकिन इसका प्रयोग बहुत ही दुर्लभ अवसरों पर किया गया है। इसका कारण संभवतः इसकी विनाशकारी और अनियंत्रित प्रकृति थी, जो इसे अंतिम उपाय का हथियार बनाती थी।
कुरुक्षेत्र का महासमर: द्रोणाचार्य का पर्वतास्त्र
महाभारत के भीष्म पर्व के 102वें अध्याय में पर्वतास्त्र के प्रयोग का एक अनूठा वर्णन मिलता है। युद्ध के दौरान, जब कौरव सेनापति गुरु द्रोणाचार्य ने इस अस्त्र का संधान किया, तो इसका प्रभाव विनाशकारी होने के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी था। ग्रंथ के अनुसार,
"नरेश्वर! द्रोणाचार्य के द्वारा युद्ध में पर्वतास्त्र का प्रयोग होने पर वायु शान्त और सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयी।"
यह वर्णन बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ पर्वतास्त्र ने केवल पर्वत नहीं बरसाए, बल्कि पहले युद्धभूमि के वातावरण को ही बदल दिया। अशांत और धूल भरे माहौल में अचानक हवा का शांत हो जाना और दिशाओं का स्वच्छ हो जाना यह दर्शाता है कि यह अस्त्र अपने अधिष्ठाता देवता वायु की शक्तियों का प्रयोग करके पहले एक विशेष परिस्थिति का निर्माण करता था और फिर अपना विनाशकारी प्रभाव दिखाता था।
कल्कि पुराण का महायुद्ध: राजा शशिध्वज बनाम भगवान कल्कि
भविष्य की घटनाओं का वर्णन करने वाले कल्कि पुराण में भी पर्वतास्त्र का एक महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। जब भगवान विष्णु के अंतिम अवतार, भगवान कल्कि और भल्लाट नगर के धर्मात्मा राजा शशिध्वज के बीच भयंकर युद्ध हुआ, तो दोनों पक्षों ने दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। इस युद्ध के वर्णन में स्पष्ट रूप से कहा गया है,
"ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र पर, पर्वतास्त्र से वायव्यास्त्र पर हमले होने लगे"।
यह प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सीधे तौर पर पर्वतास्त्र के प्रतिकार का नाम बताता है और यह पुष्टि करता है कि वायव्यास्त्र ही इसका स्वाभाविक जवाब था।
अन्य योद्धा और पौराणिक संदर्भ
कर्ण, अर्जुन और भीष्म: महाभारत के कई महान योद्धाओं जैसे कर्ण, अर्जुन और भीष्म के शस्त्रागार में पर्वतास्त्र शामिल था। किसी योद्धा के पास इस अस्त्र का होना ही उसे 'महारथी' की श्रेणी में स्थापित करता था।
देवी भद्रकाली: इसका उल्लेख केवल मानव योद्धाओं तक ही सीमित नहीं है। देवी भागवत पुराण के अनुसार, जब देवी भद्रकाली असुर शंखचूड़ से युद्ध की तैयारी कर रही थीं, तो उनके दिव्य शस्त्रागार में पर्वतास्त्र भी उपस्थित था। यह इस अस्त्र को एक दैवीय स्तर प्रदान करता है।
कृपाचार्य: गर्ग संहिता में एक प्रसंग आता है जहाँ कृपाचार्य ने भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध पर पर्वतास्त्र का प्रयोग किया था।
इन सभी संदर्भों से यह स्पष्ट होता है कि पर्वतास्त्र एक अत्यंत उच्च कोटि का दिव्यास्त्र था, जिसका ज्ञान केवल श्रेष्ठ योद्धाओं और स्वयं देवताओं को ही था।
पर्वतास्त्र का प्रतिकार - इस विनाश को कैसे रोका गया?
प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है, और दिव्यास्त्रों के संसार में हर अस्त्र का कोई न कोई प्रतिकार अवश्य था। पर्वतास्त्र जैसे विनाशकारी हथियार को रोकने के भी तरीके थे। इसका सबसे प्रमुख और तार्किक प्रतिकार था 'वायव्यास्त्र' - यानी वायु का अस्त्र। वायव्यास्त्र का प्रभाव भयंकर आंधी और बवंडर उत्पन्न करना था, जो सेनाओं को उड़ा ले जाने की क्षमता रखता था। कल्कि पुराण का प्रसंग इसी की पुष्टि करता है, जहाँ राजा शशिध्वज के पर्वतास्त्र का सामना भगवान कल्कि ने वायव्यास्त्र से किया। इसकी सुंदरता इसके तात्विक संतुलन में है - पर्वतों के तूफान को हवा का तूफान ही शांत कर सकता है।
यहाँ एक गहरा दार्शनिक संकेत भी छिपा है। पर्वतास्त्र (आक्रमण) और वायव्यास्त्र (बचाव), दोनों के ही अधिष्ठाता देवता वायु देव हैं। इसका अर्थ है कि जिस दिव्य स्रोत से विनाश की शक्ति उत्पन्न होती है, उसी स्रोत से उसे शांत करने का ज्ञान भी प्राप्त होता है। यह सृष्टि के संतुलन को दर्शाता है, जहाँ संहार और रक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक सच्चा योद्धा केवल आक्रमण करना नहीं, बल्कि उस आक्रमण से रक्षा करने का ज्ञान भी रखता है।
निष्कर्ष - शक्ति और उत्तरदायित्व का पौराणिक प्रतीक
पर्वतास्त्र केवल एक पौराणिक हथियार की कहानी नहीं है, यह शक्ति के स्वरूप और उसके साथ आने वाले उत्तरदायित्व का एक शक्तिशाली प्रतीक है। यह प्रकृति की उस आदिम और अनियंत्रित शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जिसे मंत्रों द्वारा एक हथियार में बदल दिया गया था। वायु देव द्वारा शासित यह अस्त्र हमें याद दिलाता है कि कैसे अदृश्य शक्तियाँ भी सबसे ठोस और विनाशकारी परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं। महाभारत जैसे महायुद्ध में भी इसका दुर्लभ प्रयोग यह दर्शाता है कि हमारे पूर्वज और महाकाव्यों के नायक ऐसी शक्तियों का उपयोग करने में कितना संयम बरतते थे। वे जानते थे कि सच्ची वीरता केवल शक्ति प्राप्त करने में नहीं, बल्कि यह जानने में है कि उस शक्ति का उपयोग कब, कहाँ और कितना करना है। पर्वतास्त्र की गाथा हमें यही सिखाती है कि महानतम शक्ति महानतम उत्तरदायित्व की मांग करती है, और कभी-कभी सबसे बड़ा शौर्य किसी अस्त्र को चलाने में नहीं, बल्कि उसे अपने तरकश में ही रखे रहने में होता है।