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वज्रास्त्र की अद्भुत कहानी: महर्षि दधीचि का महान बलिदान, इंद्र की विजय और पौराणिक धर्मयुद्ध का अनोखा रहस्य

वज्रास्त्र की अद्भुत कहानी: महर्षि दधीचि का महान बलिदान, इंद्र की विजय और पौराणिक धर्मयुद्ध का अनोखा रहस्यAI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

वज्रास्त्र

त्याग, शक्ति और धर्म की गाथा

परिचय: देवताओं का वज्र

हिन्दू पौराणिक कथाओं में, 'अस्त्र' केवल युद्ध के हथियार नहीं हैं; वे दिव्य शक्ति का विस्तार हैं, जो ब्रह्मांडीय नियमों (धर्म) द्वारा शासित होते हैं। इन दिव्य अस्त्रों में, एक अस्त्र ऐसा है जिसका नाम ही भय और सम्मान दोनों पैदा करता है - वज्र, जिसे वज्रास्त्र के रूप में भी जाना जाता है। यह देवों के राजा इंद्र का व्यक्तिगत आयुध है, जो उनके अधिकार और अदम्य शक्ति का प्रतीक है। लेकिन इस महान अस्त्र का जन्म कैसे हुआ? किस ब्रह्मांडीय संकट ने इसके निर्माण को आवश्यक बना दिया? वह कौन सा परम बलिदान था जिसने इसे जन्म दिया? और इसकी शक्ति ने देवताओं, असुरों और मनुष्यों की नियति को कैसे आकार दिया? आइए, त्याग, शक्ति और धर्म की इस गाथा में गहराई से उतरें।

एक किंवदंती का जन्म: महर्षि दधीचि का परम बलिदान

वृत्रासुर का ब्रह्मांडीय आतंक

वज्र की कहानी एक भयानक असुर वृत्रासुर के आतंक से शुरू होती है। यह कथा इंद्र द्वारा त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरूप का वध करने से आरंभ होती है। अपने पुत्र की मृत्यु से दुखी होकर, त्वष्टा ने इंद्र से प्रतिशोध लेने के लिए एक महायज्ञ किया। उस यज्ञ की अग्नि से एक विशालकाय और भयानक असुर का जन्म हुआ, जिसका नाम था वृत्र। वृत्र ने जल्द ही अपनी अपार शक्ति से देवों को पराजित कर दिया, इंद्र को उनके सिंहासन से हटा दिया और स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसका सबसे भयानक कृत्य था संसार के समस्त जल को निगल लेना, जिससे पूरे ब्रह्मांड में सूखा पड़ गया और जीवन समाप्त होने के कगार पर आ गया। वृत्र को ब्रह्मा से एक वरदान भी प्राप्त था, जिसके अनुसार उसे किसी भी ज्ञात धातु, लकड़ी या पत्थर से बने अस्त्र से, चाहे वह सूखा हो या गीला, दिन में या रात में, नहीं मारा जा सकता था। इस वरदान ने उसे लगभग अजेय बना दिया था, और देवताओं के सामने एक ऐसी समस्या खड़ी कर दी जिसका कोई समाधान नहीं दिख रहा था।

1.2 दिव्य भविष्यवाणी और ऋषि का संकल्प

पराजित और हताश देवता, इंद्र के नेतृत्व में, सहायता के लिए पहले सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और फिर संरक्षक भगवान विष्णु के पास पहुँचे। तब भगवान विष्णु ने इस संकट का एकमात्र समाधान बताया: वृत्र को केवल एक ऐसे अस्त्र से मारा जा सकता है जो पारंपरिक सामग्रियों से न बना हो। यह अस्त्र एक महान ऋषि की अस्थियों से बनाया जाना था, जिनकी अस्थियों में अपार तपस्या का तेज समाहित हो - और वे ऋषि थे महर्षि दधीचि। महर्षि दधीचि की अस्थियाँ इतनी शक्तिशाली क्यों थीं, इसके बारे में विभिन्न कथाएँ प्रचलित हैं। एक संस्करण के अनुसार, देवताओं ने एक बार अपने अस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए महर्षि दधीचि को सौंपा था। लंबे समय तक जब देवता वापस नहीं आए, तो ऋषि ने उन अस्त्रों की शक्ति को अपनी अस्थियों में समाहित करने के लिए उन्हें घोलकर पी लिया। एक अन्य कथा के अनुसार, उनकी अस्थियों की शक्ति उनकी कठोर तपस्या और भगवान शिव से प्राप्त वरदानों का परिणाम थी । कारण जो भी हो, यह स्पष्ट था कि ब्रह्मांड का भाग्य अब एक ऋषि के संकल्प पर टिका था।

1.3 परम उपहार: "यदि यह शरीर किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सके, तो ऐसा ही हो।"

जब देवता महर्षि दधीचि के आश्रम पहुँचे, तो उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के उनकी प्रार्थना सुनी। यह वही इंद्र थे जिन्होंने, कुछ कथाओं के अनुसार, एक बार दधीचि का सिर काट दिया था। इसके बावजूद, महर्षि दधीचि ने परोपकार के सर्वोच्च सिद्धांत को अपनाते हुए, तुरंत अपनी देह का त्याग करने का निर्णय लिया। उनके प्रसिद्ध शब्द आज भी त्याग की भावना को परिभाषित करते हैं:

"यह शरीर तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाएगा। यदि यह किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सके, तो ऐसा ही हो"।

यह कहकर, महर्षि दधीचि गहरे ध्यान में चले गए और योग शक्ति से अपने प्राण त्याग दिए। उनके शरीर को त्यागने के बाद, देवशिल्पी विश्वकर्मा ने उनकी रीढ़ की हड्डी से उस दिव्य अस्त्र का निर्माण किया, जिसे 'वज्र' नाम दिया गया। इस प्रकार, वज्र का जन्म किसी धातु या पत्थर से नहीं, बल्कि एक महान ऋषि के आत्म-बलिदान से हुआ। यह इस बात का प्रतीक है कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ी शक्ति पाशविक बल नहीं, बल्कि निस्वार्थ त्याग है। देवताओं की संयुक्त शक्ति जहाँ विफल हो गई थी, वहाँ एक ऋषि के आत्म-त्याग ने विजय का मार्ग प्रशस्त किया।

खंड 2: एक दिव्य अस्त्र की संरचना: शक्ति, स्वरूप और भिन्नता

2.1 वज्र: इंद्र का तड़ित दंड

'वज्र' इंद्र का व्यक्तिगत, भौतिक अस्त्र है। इसे अक्सर दो सिरों वाले गदा या राजदंड के रूप में चित्रित किया जाता है। इसके नाम के दो अर्थ हैं - 'हीरा' और 'आकाशीय बिजली', जो इसके दोहरे गुणों का प्रतीक हैं: हीरे जैसी अविनाश्यता और बिजली जैसी अदम्य शक्ति। यह इंद्र के राजत्व का प्रतीक है, जिसे वे पापियों और अज्ञानियों का नाश करने के लिए धारण करते हैं। यह एक अनूठी दिव्य कलाकृति है, जिसे किसी और को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।

2.3 शक्तियाँ और क्षमताएँ

वज्र और वज्रास्त्र की शक्तियाँ लगभग समान और विनाशकारी हैं: अत्यधिक विनाशकारी बल: यह किसी भी लक्ष्य को भेदने और नष्ट करने में सक्षम है। बिजली और गरज पर नियंत्रण: यह मौसम को नियंत्रित कर सकता है और विनाशकारी बिजली के तूफान पैदा कर सकता है। अभेद्य संरचनाओं को नष्ट करना: इसने वृत्रासुर के 99 किलों को तोड़ा और पहाड़ों को भी खंडित करने की क्षमता रखता है। माया को भेदना: अर्जुन ने इसका उपयोग राक्षसों द्वारा बनाए गए शक्तिशाली भ्रम और माया को नष्ट करने के लिए किया था। यह देवताओं के लिए अक्सर अंतिम उपाय का हथियार माना जाता है, जिसका उपयोग तब किया जाता है जब अन्य सभी साधन विफल हो जाते हैं।

खंड 3: वज्र का प्रयोग: ब्रह्मांडीय घटनाओं का एक वृत्तांत

वज्र का उपयोग पौराणिक कथाओं में कई महत्वपूर्ण क्षणों में किया गया है। नीचे दी गई तालिका इन प्रमुख घटनाओं का संक्षिप्त विवरण प्रदान करती है।

घटना प्रयोगकर्ता लक्ष्य/विरोधी संदर्भ परिणाम और महत्व
वृत्रासुर का वध इंद्र वृत्रासुर ब्रह्मांडीय सूखा और देवों पर संकट वृत्र का वध हुआ, जल मुक्त हुआ, इंद्र की सर्वोच्चता स्थापित हुई।
पर्वतों को स्थिर करना इंद्र उड़ने वाले पर्वत पर्वत अपनी इच्छा से उड़कर पृथ्वी पर अव्यवस्था फैला रहे थे पर्वतों के पंख काट दिए गए, जिससे पृथ्वी स्थिर हो गई।
हनुमान का नामकरण इंद्र बाल हनुमान हनुमान द्वारा सूर्य को फल समझकर निगलने का प्रयास हनुमान की ठोड़ी (हनु) टूट गई, वायुदेव रुष्ट हुए, और हनुमान को सभी देवों से अजेय होने का वरदान मिला।
निवातकवचों का संहार अर्जुन निवातकवच (3 करोड़ राक्षस) इंद्र को अर्जुन की गुरुदक्षिणा संपूर्ण राक्षस जाति का विनाश हुआ, स्वर्ग सुरक्षित हुआ और अर्जुन की योग्यता सिद्ध हुई।

3.1 प्रथम प्रयोग: वृत्रासुर का वध

वज्र के निर्माण के तुरंत बाद, इंद्र ने वृत्रासुर को युद्ध के लिए ललकारा। यह एक महायुद्ध था। युद्ध के दौरान वृत्र ने इंद्र के जबड़े तोड़ दिए, लेकिन अंत में इंद्र ने उस वरदान की काट खोज निकाली। इंद्र ने संधि की शर्तों (न धातु/लकड़ी, न सूखा/गीला, न दिन/रात) को ध्यान में रखते हुए, गोधूलि के समय (जो न दिन था न रात) समुद्र के फेन (जो न सूखा था न गीला) में वज्र को छिपाकर वृत्र पर प्रहार किया। वज्र के प्रहार से वृत्र का अंत हो गया और ब्रह्मांड में रुका हुआ जल फिर से नदियों के रूप में बहने लगा। यह वज्र का पहला और सबसे प्रसिद्ध प्रयोग था, जिसने धर्म की स्थापना की।

3.3 एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रहार: हनुमान का नामकरण

यह वज्र के अनपेक्षित परिणामों की कहानी है। बाल्यकाल में, हनुमान ने उगते हुए सूर्य को एक पका हुआ फल समझ लिया और उसे खाने के लिए आकाश में छलांग लगा दी। सूर्य को इस तरह निगले जाने से रोकने के लिए, इंद्र ने क्रोध में आकर हनुमान पर वज्र से प्रहार किया। यह प्रहार उनकी ठोड़ी (हनु) पर लगा, जिससे वह टूट गई और वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इसी घटना के कारण उनका नाम 'हनुमान' पड़ा। अपने पुत्र को इस अवस्था में देखकर, उनके पिता वायुदेव अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने संसार से वायु का प्रवाह रोक दिया, जिससे सभी प्राणियों का जीवन संकट में पड़ गया। अंत में, सभी देवताओं ने हनुमान को पुनर्जीवित किया और उन्हें अनेक वरदान दिए। स्वयं इंद्र ने यह वरदान दिया कि भविष्य में उनका वज्र हनुमान को कभी कोई हानि नहीं पहुँचा सकेगा।

3.4 अंतिम प्रमुख दर्ज उपयोग: अर्जुन द्वारा निवातकवचों का संहार

महाभारत में वज्रास्त्र के अंतिम महत्वपूर्ण उपयोग का वर्णन मिलता है। स्वर्ग में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, इंद्र ने अर्जुन से गुरुदक्षिणा के रूप में निवातकवचों का वध करने के लिए कहा। निवातकवच समुद्र के नीचे एक अभेद्य किले में रहने वाले तीन करोड़ मायावी राक्षस थे, जो देवताओं के लिए एक बड़ा खतरा बन गए थे। अर्जुन ने इंद्र के सारथी मातलि के साथ उन पर आक्रमण किया। राक्षसों ने अपनी मायावी शक्तियों से अर्जुन को घेर लिया। जब अर्जुन पर उनके बाणों की वर्षा अप्रभावी होने लगी, तो मातलि ने उन्हें वज्रास्त्र का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। अर्जुन ने वज्रास्त्र का आह्वान किया, जिसने बिजली के प्रचंड प्रहारों से सभी निवातकवचों का क्षण भर में संहार कर दिया। यह किसी नश्वर द्वारा वज्र की शक्ति का सबसे विनाशकारी और सफल प्रयोग था। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रावण के पुत्र मेघनाद, जिसने इंद्र को पराजित किया था और 'इंद्रजीत' कहलाया, ने कभी भी वज्र का प्रयोग नहीं किया। उसका नाम इंद्र पर उसकी विजय का प्रतीक है, न कि उनके अस्त्र पर अधिकार का। उसने अपनी विजय ब्रह्मास्त्र और नागपाश जैसे अन्य शक्तिशाली अस्त्रों से प्राप्त की थी।

खंड 4: प्राप्ति का मार्ग: एक वरदान, विजय नहीं

वज्र या वज्रास्त्र को जीता, चुराया या बनाया नहीं जा सकता। यह एक दिव्य वरदान है जिसे केवल योग्यता और धर्म के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसके प्राथमिक धारक देवराज इंद्र हैं, जो अपने पद के कारण इसे धारण करते हैं। मानवों में इसकी शक्ति प्राप्त करने वाले एकमात्र योद्धा अर्जुन थे।


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वृत्रासुर का ब्रह्मांडीय आतंक

वज्र की कहानी एक भयानक असुर वृत्रासुर के आतंक से शुरू होती है। यह कथा इंद्र द्वारा त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरूप का वध करने से आरंभ होती है। अपने पुत्र की मृत्यु से दुखी होकर, त्वष्टा ने इंद्र से प्रतिशोध लेने के लिए एक महायज्ञ किया। उस यज्ञ की अग्नि से एक विशालकाय और भयानक असुर का जन्म हुआ, जिसका नाम था वृत्र। वृत्र ने जल्द ही अपनी अपार शक्ति से देवों को पराजित कर दिया, इंद्र को उनके सिंहासन से हटा दिया और स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसका सबसे भयानक कृत्य था संसार के समस्त जल को निगल लेना, जिससे पूरे ब्रह्मांड में सूखा पड़ गया और जीवन समाप्त होने के कगार पर आ गया। वृत्र को ब्रह्मा से एक वरदान भी प्राप्त था, जिसके अनुसार उसे किसी भी ज्ञात धातु, लकड़ी या पत्थर से बने अस्त्र से, चाहे वह सूखा हो या गीला, दिन में या रात में, नहीं मारा जा सकता था। इस वरदान ने उसे लगभग अजेय बना दिया था, और देवताओं के सामने एक ऐसी समस्या खड़ी कर दी जिसका कोई समाधान नहीं दिख रहा था।

1.2 दिव्य भविष्यवाणी और ऋषि का संकल्प

पराजित और हताश देवता, इंद्र के नेतृत्व में, सहायता के लिए पहले सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और फिर संरक्षक भगवान विष्णु के पास पहुँचे। तब भगवान विष्णु ने इस संकट का एकमात्र समाधान बताया: वृत्र को केवल एक ऐसे अस्त्र से मारा जा सकता है जो पारंपरिक सामग्रियों से न बना हो। यह अस्त्र एक महान ऋषि की अस्थियों से बनाया जाना था, जिनकी अस्थियों में अपार तपस्या का तेज समाहित हो - और वे ऋषि थे महर्षि दधीचि। महर्षि दधीचि की अस्थियाँ इतनी शक्तिशाली क्यों थीं, इसके बारे में विभिन्न कथाएँ प्रचलित हैं। एक संस्करण के अनुसार, देवताओं ने एक बार अपने अस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए महर्षि दधीचि को सौंपा था। लंबे समय तक जब देवता वापस नहीं आए, तो ऋषि ने उन अस्त्रों की शक्ति को अपनी अस्थियों में समाहित करने के लिए उन्हें घोलकर पी लिया। एक अन्य कथा के अनुसार, उनकी अस्थियों की शक्ति उनकी कठोर तपस्या और भगवान शिव से प्राप्त वरदानों का परिणाम थी । कारण जो भी हो, यह स्पष्ट था कि ब्रह्मांड का भाग्य अब एक ऋषि के संकल्प पर टिका था।

1.3 परम उपहार: "यदि यह शरीर किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सके, तो ऐसा ही हो।"

जब देवता महर्षि दधीचि के आश्रम पहुँचे, तो उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के उनकी प्रार्थना सुनी। यह वही इंद्र थे जिन्होंने, कुछ कथाओं के अनुसार, एक बार दधीचि का सिर काट दिया था। इसके बावजूद, महर्षि दधीचि ने परोपकार के सर्वोच्च सिद्धांत को अपनाते हुए, तुरंत अपनी देह का त्याग करने का निर्णय लिया। उनके प्रसिद्ध शब्द आज भी त्याग की भावना को परिभाषित करते हैं:

"यह शरीर तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाएगा। यदि यह किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सके, तो ऐसा ही हो"।

यह कहकर, महर्षि दधीचि गहरे ध्यान में चले गए और योग शक्ति से अपने प्राण त्याग दिए। उनके शरीर को त्यागने के बाद, देवशिल्पी विश्वकर्मा ने उनकी रीढ़ की हड्डी से उस दिव्य अस्त्र का निर्माण किया, जिसे 'वज्र' नाम दिया गया। इस प्रकार, वज्र का जन्म किसी धातु या पत्थर से नहीं, बल्कि एक महान ऋषि के आत्म-बलिदान से हुआ। यह इस बात का प्रतीक है कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ी शक्ति पाशविक बल नहीं, बल्कि निस्वार्थ त्याग है। देवताओं की संयुक्त शक्ति जहाँ विफल हो गई थी, वहाँ एक ऋषि के आत्म-त्याग ने विजय का मार्ग प्रशस्त किया।

खंड 2: एक दिव्य अस्त्र की संरचना: शक्ति, स्वरूप और भिन्नता

2.1 वज्र: इंद्र का तड़ित दंड

'वज्र' इंद्र का व्यक्तिगत, भौतिक अस्त्र है। इसे अक्सर दो सिरों वाले गदा या राजदंड के रूप में चित्रित किया जाता है। इसके नाम के दो अर्थ हैं - 'हीरा' और 'आकाशीय बिजली', जो इसके दोहरे गुणों का प्रतीक हैं: हीरे जैसी अविनाश्यता और बिजली जैसी अदम्य शक्ति। यह इंद्र के राजत्व का प्रतीक है, जिसे वे पापियों और अज्ञानियों का नाश करने के लिए धारण करते हैं। यह एक अनूठी दिव्य कलाकृति है, जिसे किसी और को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।

2.3 शक्तियाँ और क्षमताएँ

वज्र और वज्रास्त्र की शक्तियाँ लगभग समान और विनाशकारी हैं: अत्यधिक विनाशकारी बल: यह किसी भी लक्ष्य को भेदने और नष्ट करने में सक्षम है। बिजली और गरज पर नियंत्रण: यह मौसम को नियंत्रित कर सकता है और विनाशकारी बिजली के तूफान पैदा कर सकता है। अभेद्य संरचनाओं को नष्ट करना: इसने वृत्रासुर के 99 किलों को तोड़ा और पहाड़ों को भी खंडित करने की क्षमता रखता है। माया को भेदना: अर्जुन ने इसका उपयोग राक्षसों द्वारा बनाए गए शक्तिशाली भ्रम और माया को नष्ट करने के लिए किया था। यह देवताओं के लिए अक्सर अंतिम उपाय का हथियार माना जाता है, जिसका उपयोग तब किया जाता है जब अन्य सभी साधन विफल हो जाते हैं।

खंड 3: वज्र का प्रयोग: ब्रह्मांडीय घटनाओं का एक वृत्तांत

वज्र का उपयोग पौराणिक कथाओं में कई महत्वपूर्ण क्षणों में किया गया है। नीचे दी गई तालिका इन प्रमुख घटनाओं का संक्षिप्त विवरण प्रदान करती है।

घटना प्रयोगकर्ता लक्ष्य/विरोधी संदर्भ परिणाम और महत्व
वृत्रासुर का वध इंद्र वृत्रासुर ब्रह्मांडीय सूखा और देवों पर संकट वृत्र का वध हुआ, जल मुक्त हुआ, इंद्र की सर्वोच्चता स्थापित हुई।
पर्वतों को स्थिर करना इंद्र उड़ने वाले पर्वत पर्वत अपनी इच्छा से उड़कर पृथ्वी पर अव्यवस्था फैला रहे थे पर्वतों के पंख काट दिए गए, जिससे पृथ्वी स्थिर हो गई।
हनुमान का नामकरण इंद्र बाल हनुमान हनुमान द्वारा सूर्य को फल समझकर निगलने का प्रयास हनुमान की ठोड़ी (हनु) टूट गई, वायुदेव रुष्ट हुए, और हनुमान को सभी देवों से अजेय होने का वरदान मिला।
निवातकवचों का संहार अर्जुन निवातकवच (3 करोड़ राक्षस) इंद्र को अर्जुन की गुरुदक्षिणा संपूर्ण राक्षस जाति का विनाश हुआ, स्वर्ग सुरक्षित हुआ और अर्जुन की योग्यता सिद्ध हुई।

3.1 प्रथम प्रयोग: वृत्रासुर का वध

वज्र के निर्माण के तुरंत बाद, इंद्र ने वृत्रासुर को युद्ध के लिए ललकारा। यह एक महायुद्ध था। युद्ध के दौरान वृत्र ने इंद्र के जबड़े तोड़ दिए, लेकिन अंत में इंद्र ने उस वरदान की काट खोज निकाली। इंद्र ने संधि की शर्तों (न धातु/लकड़ी, न सूखा/गीला, न दिन/रात) को ध्यान में रखते हुए, गोधूलि के समय (जो न दिन था न रात) समुद्र के फेन (जो न सूखा था न गीला) में वज्र को छिपाकर वृत्र पर प्रहार किया। वज्र के प्रहार से वृत्र का अंत हो गया और ब्रह्मांड में रुका हुआ जल फिर से नदियों के रूप में बहने लगा। यह वज्र का पहला और सबसे प्रसिद्ध प्रयोग था, जिसने धर्म की स्थापना की।

3.3 एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रहार: हनुमान का नामकरण

यह वज्र के अनपेक्षित परिणामों की कहानी है। बाल्यकाल में, हनुमान ने उगते हुए सूर्य को एक पका हुआ फल समझ लिया और उसे खाने के लिए आकाश में छलांग लगा दी। सूर्य को इस तरह निगले जाने से रोकने के लिए, इंद्र ने क्रोध में आकर हनुमान पर वज्र से प्रहार किया। यह प्रहार उनकी ठोड़ी (हनु) पर लगा, जिससे वह टूट गई और वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इसी घटना के कारण उनका नाम 'हनुमान' पड़ा। अपने पुत्र को इस अवस्था में देखकर, उनके पिता वायुदेव अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने संसार से वायु का प्रवाह रोक दिया, जिससे सभी प्राणियों का जीवन संकट में पड़ गया। अंत में, सभी देवताओं ने हनुमान को पुनर्जीवित किया और उन्हें अनेक वरदान दिए। स्वयं इंद्र ने यह वरदान दिया कि भविष्य में उनका वज्र हनुमान को कभी कोई हानि नहीं पहुँचा सकेगा।

3.4 अंतिम प्रमुख दर्ज उपयोग: अर्जुन द्वारा निवातकवचों का संहार

महाभारत में वज्रास्त्र के अंतिम महत्वपूर्ण उपयोग का वर्णन मिलता है। स्वर्ग में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, इंद्र ने अर्जुन से गुरुदक्षिणा के रूप में निवातकवचों का वध करने के लिए कहा। निवातकवच समुद्र के नीचे एक अभेद्य किले में रहने वाले तीन करोड़ मायावी राक्षस थे, जो देवताओं के लिए एक बड़ा खतरा बन गए थे। अर्जुन ने इंद्र के सारथी मातलि के साथ उन पर आक्रमण किया। राक्षसों ने अपनी मायावी शक्तियों से अर्जुन को घेर लिया। जब अर्जुन पर उनके बाणों की वर्षा अप्रभावी होने लगी, तो मातलि ने उन्हें वज्रास्त्र का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। अर्जुन ने वज्रास्त्र का आह्वान किया, जिसने बिजली के प्रचंड प्रहारों से सभी निवातकवचों का क्षण भर में संहार कर दिया। यह किसी नश्वर द्वारा वज्र की शक्ति का सबसे विनाशकारी और सफल प्रयोग था। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रावण के पुत्र मेघनाद, जिसने इंद्र को पराजित किया था और 'इंद्रजीत' कहलाया, ने कभी भी वज्र का प्रयोग नहीं किया। उसका नाम इंद्र पर उसकी विजय का प्रतीक है, न कि उनके अस्त्र पर अधिकार का। उसने अपनी विजय ब्रह्मास्त्र और नागपाश जैसे अन्य शक्तिशाली अस्त्रों से प्राप्त की थी।

खंड 4: प्राप्ति का मार्ग: एक वरदान, विजय नहीं

वज्र या वज्रास्त्र को जीता, चुराया या बनाया नहीं जा सकता। यह एक दिव्य वरदान है जिसे केवल योग्यता और धर्म के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसके प्राथमिक धारक देवराज इंद्र हैं, जो अपने पद के कारण इसे धारण करते हैं। मानवों में इसकी शक्ति प्राप्त करने वाले एकमात्र योद्धा अर्जुन थे।


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