यज्ञ अवतार: यज्ञपुरुष और धर्म स्थापना
परिचय
सनातन धर्म में 'यज्ञ' को परम पवित्र कर्म माना गया है तथा स्वयं भगवान विष्णु को यज्ञपुरुष कहा जाता है। श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित २४ अवतारों में "यज्ञ" नामक अवतार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यज्ञ अवतार वह रूप है जिसमें भगवान ने सृष्टि के प्रारंभिक काल में धर्म की रक्षा हेतु स्वयं को एक राजऋषि और इंद्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसे भगवान का साक्षात यज्ञस्वरूप अवतरण माना जाता है, जहाँ उन्होंने शरीर धारण कर यज्ञीय जीवन (त्याग और कर्तव्यपरायणता) का आदर्श रखा।
जन्म एवं परिवार
भगवान विष्णु का यह यज्ञ अवतार स्वायंभुव मन्वंतर (प्रथम मन्वंतर) के समय प्रकट हुआ। स्वायंभुव मनु (सृष्टि के प्रथम मनु) की पुत्री आकूति का विवाह प्रजापति ऋषि रुचि से हुआ था। देवी आकूति ने भगवान के आह्वान पर जुड़वाँ संतान को जन्म दिया – पुत्र का नाम यज्ञ और कन्या का नाम दक्षिणा रखा गया। वास्तव में ये जुड़वा भाई-बहन स्वयं विष्णु तथा उनकी शक्ति (लक्ष्मी) के अंश थे। शास्त्रों में आता है कि स्वायंभुव मनु ने अपने दामाद रुचि को वचन दिया था कि वे उनकी संतान को गोद लेंगे; अतः जन्म के बाद यज्ञ और दक्षिणा को मनु को समर्पित कर दिया गया।
यज्ञ ने युवा होने पर अपनी सहोदर शक्ति दक्षिणा से विवाह किया (जिसे प्रतीकात्मक माना जा सकता है, क्योंकि यज्ञ और दक्षिणा अनिवार्य रूप से युग्म अवधारणा हैं – यज्ञ बिना दक्षिणा के पूर्ण नहीं होता)। इस प्रकार यज्ञ ने मन्वंतर के देवताओं का नेतृत्व संभाला। मान्यता है कि उस काल में इंद्र का पद रिक्त हो गया था, तो भगवान यज्ञ ने स्वयं इंद्र (देवराज) का दायित्व निभाया। उनके शासनकाल में धर्म की अभूतपूर्व स्थापना हुई।
ऋषियों ने वेण के शरीर का मंथन किया जिससे पृथु प्रकट हुए, और उनके साथ ही एक दिव्य स्त्री भी प्रकट हुईं जो लक्ष्मीस्वरूपा थीं। उन्हें पृथु की पत्नी 'अर्चि' के नाम से स्वीकार किया गया। पृथु-अर्चि को देवराज इंद्र ने स्वयं राज्याभिषेक किया और पृथ्वी देवी ने आकर उन्हें शुभकामनाएँ दीं। इस प्रकार पृथु को अपना खोया राज्य प्रजा सहित प्राप्त हुआ और उनका राजतिलक संपन्न हुआ।
उद्देश्य एवं लीलाएँ
यज्ञ अवतार का प्रमुख उद्देश्य प्रारंभिक सृष्टि में देवताओं को मार्गदर्शन देना और अधर्मियों का संहार कर सृष्टि को संतुलित रखना था। स्वायंभुव मन्वंतर में दो प्रबल असुर – उत्क्षेप (उत्तथ्य) और भव – ने देवों पर अत्याचार शुरू किए थे (कुछ पुराणों के अनुसार)। तब भगवान यज्ञ ने इंद्र रूप में देवताओं का नेतृत्व करके उन असुरों का नाश किया और पुनः देवलोक में शांति स्थापित की। उनके साथ उस समय के मरुद्गण (वायु देव समूह) तथा पुत्र यम और अन्य देवताओं ने सहयोग दिया। यज्ञदेव ने विविध यज्ञों के माध्यम से प्रजा में समृद्धि और पुण्य को बढ़ाया। उन्होंने राजा के रूप में प्रजा का पालन धर्म के अनुसार किया, जिससे स्वायंभुव मन्वंतर 'कृतयुग' की भाँति पवित्र एवं संतुष्टिमय रहा।
भगवान यज्ञ की एक विशेष लीला यह मानी जाती है कि उन्होंने स्वयं यज्ञ करके स्थूल और आध्यात्मिक – दोनों प्रकार से लोक का हित साधा। एक कथा में आता है कि यज्ञदेव ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया जिसके द्वारा समस्त भूमंडल को पोषण प्राप्त हुआ और पापों का विनाश हुआ। स्वयं यज्ञपुरुष होने के कारण उन्होंने सभी देवताओं को यज्ञ-भाग उचित रीति से वितरित किए, और अंत में स्वयं यज्ञ-भुक् विष्णु रूप में प्रकट होकर हवि को ग्रहण किया। इस अलौकिक घटना ने सभी को अनुभूति करा दी कि राजा यज्ञ कोई और नहीं, स्वयं विष्णु हैं।
स्वायंभुव मन्वंतर के अंत में भगवान यज्ञदेव वैकुण्ठ धाम लौट गए, और इंद्र पद फिर अन्य देव को दे दिया गया। उनके अवसान के साथ सृष्टि के इस प्रथम मन्वंतर का संधिकाल पूरा हुआ। इसके बाद अगले मन्वंतर में नए इंद्र और देवगण नियुक्त हुए।
शास्त्रों में विवरण
यज्ञ अवतार का संक्षिप्त वर्णन भागवतपुराण (स्कंध 1 अध्याय 3) के श्लोकों में है जहाँ उन्हें विष्णु के सातवें अवतार के रूप में गिनते हुए कहा गया: "सप्तमम अक्षुतीपुत्रयाम् तु यज्ञोऽभूद् अच्युताश्रयः" – अर्थात स्वायंभुव मनु की पुत्री आकूति से भगवान ने यज्ञ रूप में अवतार लिया। आगे भागवत (स्कंध 4 अध्याय 1) में यज्ञ के वंश और कर्मों का संक्षेप उल्लेख है। विष्णु पुराण तथा मत्स्य पुराण में भी इस कथा का समर्थन मिलता है कि स्वायंभुव मन्वंतर में विष्णु ने यज्ञ नाम से अवतार लेकर इंद्र का कार्य संभाला था। ऋग्वेद में भी विष्णु को 'यज्ञरत्न' और 'यज्ञ का भोक्ता' कहा गया है, जो इसी भाव को पुष्ट करता है।
गीता में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं – "सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिḥ। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्" – प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला कामधेनु होगा । देवताओं को यज्ञ से तृप्त करो और वे देवता तुम्हें संपन्न करेंगे – इस परस्पर सहयोग से तुम्हारा परम कल्याण होगा। शास्त्रों में यज्ञ को 'विष्णुमय' कहा गया है – "यज्ञो वै विष्णुः". इसीलिए भगवान विष्णु स्वयं यज्ञ रूप में अवतरित हुए।
भक्ति भाव एवं प्रतीकात्मक अर्थ
यज्ञ अवतार का चरित्र प्रतीकात्मक रूप से सिखाता है कि परमात्मा को प्रसन्न करने का मार्ग निष्काम कर्मयोग है। यज्ञ अर्थात कर्मों का उत्सर्ग – भगवान ने स्वयं राजा बनकर अपना संपूर्ण जीवन लोकहित में अर्पित किया, जो दर्शाता है कि आदर्श नेता वही है जो अपने सुख के लिए नहीं बल्कि प्रजा के कल्याण हेतु कर्म करे। उन्होंने किसी व्यक्तिगत युद्ध-लीला के बजाय यज्ञ द्वारा धर्म-स्थापन पर ज़ोर दिया, जिससे पता चलता है कि सत्ययुगीन जीवन में हिंसा नहीं, धर्मपूर्ण कृत्यों (यज्ञों) द्वारा ही दुष्टों का नाश होता था।
भक्तजन भगवान यज्ञ को नमस्कार करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि हम भी अपने जीवन को एक यज्ञ की भाँति जी सकें – सभी कर्म परमेश्वर को अर्पित करते हुए, बिना फल की आसक्ति के अपना कर्तव्य निभाएँ। दैनिक संध्या-वंदन आदि में जो "यज्ञोऽहं कर्मस्मि" मंत्र आता है, वह याद दिलाता है कि प्रत्येक शुभ कर्म एक यज्ञ है और भगवान उसमें उपस्थित हैं। भक्त यह भी मानते हैं कि कलियुग में भौतिक यज्ञ कठिन हो गए हैं, अतः भगवान ने नाम संकीर्तन रूपी यज्ञ को प्रतिष्ठित किया – जिसमें हरि-नाम का जप ही महान यज्ञ है। यह भी यज्ञ अवतार की शिक्षा से मेल खाता है कि युग के अनुरूप धर्मपालन करना चाहिए।
अतः यज्ञ अवतार प्रतिपादित करते हैं कि ईश्वर किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं – राजा, पुरोहित, या स्वयं यज्ञ के देवता – पर उनका एकमात्र उद्देश्य धर्म की रक्षा और विश्व का पोषण है। भगवान यज्ञ को स्मरण करके भक्त यह मंत्र जपते हैं: "स्वाहा" – अर्थात हम अपने आप को आपकी सेवा में समर्पित करते हैं, जैसा आपने किया था। इस प्रकार यज्ञ अवतार की कथा हमें निःस्वार्थ कर्म एवं ईश्वरार्पण की शिक्षा देती है।