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पढ़ें: भगवान विष्णु के अवतार नर-नारायण और भक्त प्रह्लाद के बीच क्यों हुआ था वो भीषण युद्ध?

पढ़ें: भगवान विष्णु के अवतार नर-नारायण और भक्त प्रह्लाद के बीच क्यों हुआ था वो भीषण युद्ध?AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

जब भक्त प्रह्लाद ने ललकारा नर-नारायण को

अहंकार पर भक्ति की विजय की अद्भुत कथा

प्रस्तावना: भक्त प्रह्लाद की तीर्थयात्रा और नैमिषारण्य का रहस्यमय दृश्य

भारतीय पुराणों के पन्ने अद्भुत कथाओं और गहन आध्यात्मिक रहस्यों से भरे पड़े हैं। ऐसी ही एक ज्ञानवर्धक और रहस्यमयी कथा वामन पुराण और अन्य ग्रंथों में मिलती है, जिसमें भगवान विष्णु के परम भक्त, असुरराज प्रह्लाद का सामना स्वयं भगवान के ही अवतार, नर-नारायण ऋषियों से होता है। प्रह्लाद, जिनका नाम ही भक्ति और अटूट विश्वास का पर्याय है, जिन्होंने बचपन में अपने पिता हिरण्यकशिपु के अत्याचारों को सहते हुए भी नारायण की भक्ति नहीं छोड़ी थी। वही प्रह्लाद, बड़े होकर एक शक्तिशाली और धर्मात्मा असुर राजा बने, जिनके सुशासन में तीनों लोकों ने शांति का अनुभव किया।

धर्म और सत्य के प्रति अपनी निष्ठा के कारण, प्रह्लाद अक्सर तीर्थाटन पर निकलते थे। ऐसी ही एक यात्रा पर, संभवतः महर्षि च्यवन की सलाह पर, वे संसार के श्रेष्ठ तीर्थों में से एक, नैमिषारण्य पहुँचे। नैमिषारण्य, वह पवित्र भूमि जहाँ ऋषियों-मुनियों का वास था और जहाँ ज्ञान की धाराएँ बहती थीं। प्रह्लाद अपने असुर साथियों के साथ इस पुण्य क्षेत्र में पहुँचे और पवित्र सरस्वती नदी के तट पर विचरण करने लगे।

वहीं, उनकी दृष्टि एक ऐसे दृश्य पर पड़ी जिसने उन्हें चकित और भ्रमित कर दिया। उन्होंने देखा कि दो तेजस्वी तपस्वी, जिनके शरीर पर मृगचर्म (हिरण की खाल) थी, सिर पर जटाजूट सुशोभित था, गहन तपस्या में लीन थे। किन्तु, आश्चर्य की बात यह थी कि उन शांत तपस्वियों के पास ही, या किसी वृक्ष पर टंगे हुए, दो विशाल और दिव्य धनुष (संभवतः शार्ङ्ग और अजगव जैसे नाम कुछ स्रोतों में वर्णित हैं) तथा बाणों से भरे तरकश रखे थे। कुछ वर्णनों में तो यह भी आता है कि पास का एक वृक्ष बाणों से बिंधा हुआ प्रतीत हो रहा था।

प्रह्लाद, जो स्वयं एक राजा थे और धर्म के ज्ञाता भी, इस विरोधाभास को समझ नहीं पाए। उनके मन में प्रश्न उठा – तपस्वी, जो शांति और अहिंसा के प्रतीक होते हैं, वे युद्ध के शस्त्र क्यों धारण करेंगे? क्या यह कोई पाखंड (दम्भपूर्ण कार्य) है? क्या यह तपस्या का ढोंग है? उन्हें लगा कि यह पवित्र तीर्थ की मर्यादा के विरुद्ध है और संभवतः ये तपस्वी वेश में कोई दुष्ट हैं जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रह्लाद की यह दुविधा, जो उनके राजधर्म और भक्ति के द्वंद्व से उपजी थी, एक अभूतपूर्व संघर्ष का मंच तैयार कर रही थी। वे नहीं जानते थे कि उनका सामना स्वयं भगवान विष्णु के ही दो रूपों, नर और नारायण से होने वाला है। यह स्थिति धर्म की विभिन्न धारणाओं के टकराव को दर्शाती है - एक राजा की दृष्टि में तपस्वी और योद्धा की भूमिकाएँ अलग-अलग थीं, जबकि नर-नारायण उस दिव्य संश्लेषण का प्रतिनिधित्व करते थे जहाँ आध्यात्मिक शक्ति और धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र धारण करना विरोधाभासी नहीं था।

नर-नारायण: तपस्या और शस्त्रों का रहस्यमय संयोग

जिन दो तपस्वियों को देखकर भक्तराज प्रह्लाद भ्रमित हुए थे, वे कोई साधारण ऋषि नहीं थे। वे स्वयं भगवान विष्णु के चौथे अवतार, नर और नारायण थे। ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म और उनकी पत्नी मूर्ति (जो दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं) के यहाँ श्रीहरि ने जुड़वां ऋषियों के रूप में जन्म लिया था। उनका अवतार पृथ्वी पर धर्म और सत्य का विस्तार करने, सुख-शांति स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ था।

जन्म से ही नर और नारायण का मन धर्म, साधना और भक्ति में रमा हुआ था। शीघ्र ही वे अपनी माता से आज्ञा लेकर तपस्या हेतु हिमालय की पवित्र भूमि, बदरिकाश्रम (वर्तमान बद्रीनाथ) चले गए। कहा जाता है कि आज भी बद्रीनाथ धाम के पास स्थित दो पर्वत उन्हीं के नाम पर नर और नारायण पर्वत कहलाते हैं और वे वहां अदृश्य रूप में तपस्यारत हैं।

उनकी तपस्या अत्यंत कठोर और अद्भुत थी, हजारों वर्षों तक चली इस तपस्या के तेज से देवलोक भी प्रभावित था। इसी तपस्या के बल पर उन्होंने असीम आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की थी। वे केवल तपस्वी ही नहीं थे, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने में भी सक्षम थे। उनका स्वरूप आध्यात्मिक ऊर्जा (तप) और दिव्य शक्ति (शस्त्र) के पूर्ण संतुलन का प्रतीक था।

इसलिए, जब प्रह्लाद ने तपस्वियों के पास शस्त्र देखकर प्रश्न किया, तो यह उनके लिए कोई विरोधाभास नहीं था। यह उनकी दिव्य प्रकृति का हिस्सा था। वे सांसारिक नियमों या भूमिकाओं से बंधे नहीं थे। उनके शस्त्र (जैसे अजगव और शार्ङ्ग) भी दिव्य थे, साधारण नहीं। प्रह्लाद के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने अत्यंत शांत भाव से अपनी क्षमता का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि सामर्थ्यवान व्यक्ति जो भी कर्म करता है, वही उसे शोभा देता है, या कि वे तपस्या और युद्ध दोनों में समान रूप से समर्थ हैं, और प्रह्लाद को व्यर्थ चिंता नहीं करनी चाहिए। यह उत्तर, जिसे प्रह्लाद ने अहंकार या उपेक्षा के रूप में लिया, वास्तव में उनकी दिव्य स्थिति का कथन था, जो मानवीय वर्गीकरणों से परे थी।

अहंकार की चुनौती: जब प्रह्लाद ने नर-नारायण को ललकारा

नर-नारायण ऋषियों का शांत किन्तु दृढ़ उत्तर भक्तराज प्रह्लाद को संतुष्ट नहीं कर सका। असुरराज होने के नाते, शक्ति और शासन के अभ्यस्त प्रह्लाद ने उनके शब्दों को अपने अधिकार और बल के प्रति चुनौती के रूप में देखा। उनका अहंकार, जो संभवतः उनकी राजसी पृष्ठभूमि और अपार शक्ति के कारण अभी भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान था, आहत हो गया। उन्हें लगा कि ये तपस्वी व्यर्थ ही अपनी शक्ति का दंभ भर रहे हैं।

क्रोध से भरकर (क्रुद्ध होकर), प्रह्लाद ने उन दोनों ऋषियों को युद्ध के लिए ललकार दिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे युद्ध में किसी भी प्रकार से उन दोनों को पराजित करेंगे ("मैं युद्ध में जिस किसी भी प्रकार आप दोनों को जीतूँगा")। उन्होंने ऋषियों की क्षमता पर प्रश्न उठाया और उन्हें युद्ध के मैदान में अपनी शक्ति सिद्ध करने को कहा।

यह स्थिति प्रह्लाद की भक्ति की एक कठिन परीक्षा भी थी। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे, और अनजाने में वे स्वयं भगवान के ही अवतारों को चुनौती दे रहे थे। क्या उनकी भक्ति उनके क्षत्रिय राजा वाले अहंकार पर विजय पा सकेगी? नर और नारायण का शांत रहना, फिर भी अपनी क्षमता पर दृढ़ रहना, और प्रह्लाद का इसे अहंकार समझकर क्रोधित हो जाना, यह सब जैसे एक दिव्य योजना का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसका उद्देश्य प्रह्लाद के भीतर छिपे अहंकार को सतह पर लाना और उनकी भक्ति को और अधिक निर्मल करना था।

प्रह्लाद की चुनौती के उत्तर में, पहले ऋषि नर युद्ध के लिए सहमत हुए। नारायण संभवतः इस दौरान अपनी तपस्या में लीन रहे या स्थिति का अवलोकन करते रहे। इस प्रकार, नैमिषारण्य की पवित्र भूमि एक अभूतपूर्व युद्ध की साक्षी बनने वाली थी, जहाँ एक ओर थे असुरराज भक्त प्रह्लाद और दूसरी ओर थे स्वयं भगवान के अवतार, ऋषि नर।

शताब्दियों तक चला महासंग्राम: दिव्यास्त्रों का प्रयोग

प्रह्लाद की चुनौती स्वीकार होते ही, असुरराज और ऋषि नर के बीच भयंकर युद्ध आरंभ हो गया। दोनों ही योद्धा अपनी-अपनी कला में निपुण थे। प्रह्लाद ने अपने असुर बल और युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया, तो ऋषि नर ने अपने तपोबल से अर्जित दिव्य शक्तियों का। प्रारंभ में बाणों का आदान-प्रदान हुआ। कुछ वर्णनों के अनुसार, प्रह्लाद ने अपने स्वर्ण-जड़ित बाणों से नर पर प्रहार किया, तो कुछ के अनुसार नर ने साधारण सींक (घास के तिनकों) को ही मंत्रों से अभिमंत्रित कर ऐसे अस्त्र बना दिया जिसने प्रह्लाद के आक्रमण को विफल कर दिया और उन्हें चकित कर दिया।

जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, उसकी भयंकरता बढ़ती गई और साधारण अस्त्रों के स्थान पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। जब प्रह्लाद ने अजय ब्रह्मास्त्र का संधान किया, तो ऋषि नर ने उसका प्रतिकार करने के लिए भगवान शिव के माहेश्वरास्त्र का आह्वान किया। कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार, प्रह्लाद के ब्रह्मास्त्र के उत्तर में नारायण ऋषि ने नारायणअस्त्र का प्रयोग किया। आकाश में इन महाविनाशक अस्त्रों की टक्कर हुई और वे एक-दूसरे को निष्प्रभावी करते हुए शांत हो गए।

ब्रह्मास्त्र के विफल होने पर, प्रह्लाद गदा लेकर ऋषि नर पर झपटे। इसी समय, ऋषि नारायण भी युद्ध में सम्मिलित हो गए। अब प्रह्लाद का सामना दोनों तपस्वियों से था। उन्होंने अपनी गदा से नारायण पर प्रहार करने का प्रयास किया, परन्तु या तो उनकी गदा टूट गई या निष्प्रभावी हो गई।

यह युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था। यह अत्यंत दीर्घकाल तक चला। विभिन्न पुराणों और कथाओं में इसकी अवधि अलग-अलग बताई गई है। कुछ इसे सौ वर्षों का बताते हैं, तो कुछ इसे एक हजार दिव्य वर्षों तक चलने वाला महासंग्राम कहते हैं। अवधि चाहे जो भी रही हो, यह स्पष्ट था कि असुरराज प्रह्लाद अपनी पूरी शक्ति और पराक्रम के बावजूद उन तपस्वियों को पराजित करने में असमर्थ थे।

यह लंबा और अनिर्णायक युद्ध वास्तव में एक महत्वपूर्ण सत्य को उजागर कर रहा था – अहंकार और बाहुबल से प्रेरित होकर दिव्य शक्ति को चुनौती देना व्यर्थ है। प्रह्लाद का ब्रह्मास्त्र जैसे महाअस्त्र का प्रयोग भी नर-नारायण के तपोबल और धर्मनिष्ठा के सामने विफल हो गया। यह दर्शाता है कि सच्ची शक्ति केवल शस्त्रों में नहीं, बल्कि धर्म और ईश्वर के प्रति निष्ठा में निहित है, और जब कोई अहंकारवश धर्म के विरुद्ध जाता है, तो उसकी बड़ी से बड़ी शक्ति भी निरर्थक हो जाती है।

वैकुंठ का मार्गदर्शन: भगवान विष्णु का हस्तक्षेप और सत्य का उद्घाटन

शताब्दियों (या दिव्य वर्षों) तक चले युद्ध के बाद भी जब विजय का कोई चिह्न नहीं दिखा, तो असुरराज प्रह्लाद की आशा निराशा में बदलने लगी। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वे अपनी शक्ति और पराक्रम से इन तेजस्वी ऋषियों को पराजित नहीं कर सकते। उनकी सारी युद्धकला, उनके दिव्यास्त्र, सब निष्फल सिद्ध हो रहे थे।

इस गहन निराशा और विवशता के क्षण में, प्रह्लाद को अपने आराध्य, अपने अंतिम आश्रय, भगवान विष्णु का स्मरण हुआ। उन्होंने मन ही मन श्रीहरि से प्रार्थना की, इस विषम परिस्थिति से निकलने का मार्ग पूछा। कुछ वृत्तांतों के अनुसार, वे स्वयं वैकुंठ लोक गए, यह जानने के लिए कि वे नारायण ऋषि को क्यों नहीं जीत पा रहे हैं।

तब भक्तवत्सल भगवान विष्णु ने अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद का मार्गदर्शन किया। वे प्रह्लाद के समक्ष प्रकट हुए या उन्हें दिव्य वाणी द्वारा संबोधित किया। भगवान ने उस रहस्य का उद्घाटन किया जिसने प्रह्लाद को भ्रमित कर रखा था। उन्होंने बताया कि जिन नर और नारायण ऋषियों से वे युद्ध कर रहे हैं, वे कोई और नहीं, बल्कि स्वयं उन्हीं (विष्णु) के स्वरूप हैं ("वस्तुतः नारायण रूप में वहाँ मैं ही हूँ")। वे जगत के कल्याण और धर्म की स्थापना के लिए ("जगत की भलाई की इच्छा से धर्म-प्रवर्तन के लिए") उस रूप में तपस्या कर रहे हैं।

भगवान विष्णु ने स्पष्ट किया कि नर-नारायण युद्ध में किसी भी देवता या असुर द्वारा पराजित नहीं किए जा सकते, वे अजेय हैं। उन्होंने प्रह्लाद को समझाया कि उन्हें 'जीतने' का एकमात्र मार्ग युद्ध नहीं, बल्कि भक्ति है ("तुम उन्हें भक्ति से जीत सकोगे, युद्ध से कदापि नहीं")। श्रीहरि ने प्रह्लाद को युद्ध त्यागकर उनके नर-नारायण स्वरूप की आराधना करने का उपदेश दिया ("मेरे उस रूप की आराधना करो")।

भक्ति की शक्ति: प्रह्लाद का ह्रदय परिवर्तन और शरणागति

भगवान विष्णु के मुख से सत्य जानकर प्रह्लाद का सारा भ्रम और क्रोध शांत हो गया। उनका अहंकार, जो उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा था, भक्ति की निर्मल धारा में विलीन हो गया। उन्हें अपनी भूल का गहरा पश्चाताप हुआ कि उन्होंने अनजाने में अपने ही आराध्य के स्वरूपों को चुनौती दे डाली थी। वे समझ गए कि नर-नारायण तपस्वी वेश में ढोंगी नहीं, बल्कि स्वयं उनके प्रभु के ही दिव्य और शक्तिशाली रूप थे।

तत्काल, प्रह्लाद ने युद्ध रोक दिया। कुछ कथाओं के अनुसार, उन्होंने उसी क्षण राजपाट का त्याग करने का निर्णय लिया और हिरण्याक्ष के पुत्र अंधकासुर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। इसके पश्चात, वे बदरिकाश्रम गए (या वहीं नैमिषारण्य में ऋषियों के समीप पहुँचे) और नर-नारायण के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर क्षमा याचना करने लगे।

ऋषि नारायण ने, संभवतः लीला को जारी रखते हुए, पहले आश्चर्य व्यक्त किया या विनोद में कहा कि बिना युद्ध जीते प्रह्लाद प्रणाम क्यों कर रहे हैं। परन्तु प्रह्लाद के हृदय परिवर्तन और उनकी शरणागति को देखकर वे प्रसन्न हुए।

तब प्रह्लाद ने अत्यंत विनम्रता और भक्तिभाव से नर-नारायण की स्तुति की। उन्होंने स्वीकार किया कि नारायण ही परब्रह्म हैं, वे ही ब्रह्मा, शिव, इंद्र और समस्त देवों के रूप में विद्यमान हैं, वे ही सृष्टि के आधार हैं और उन्हें केवल भक्ति से ही जीता जा सकता है, युद्ध या शक्ति से नहीं। यह स्तुति प्रह्लाद के पूर्ण आत्मसमर्पण और उनकी स्वाभाविक भक्त-प्रकृति की पुनर्स्थापना का प्रमाण थी। उनका राजसी अहंकार अब पूरी तरह से भक्त-हृदय की विनम्रता में परिवर्तित हो चुका था।

अनन्य भक्ति का पुरस्कार: वरदान और कथा का सार

भक्त प्रह्लाद की स्तुति और उनके अनन्य भक्ति भाव को देखकर मुनिवर नारायण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने घोषणा की कि यद्यपि प्रह्लाद उन्हें युद्ध में परास्त नहीं कर सके, तथापि अपनी अनन्य भक्ति के द्वारा उन्होंने वास्तव में उन्हें 'जीत' लिया है ("अनन्य भक्ति से तुमने मुझे जीत लिया है")। यह कथन विजय की पारंपरिक परिभाषा को पलट देता है और भक्ति की सर्वोच्चता को स्थापित करता है।

प्रसन्न होकर, नारायण ने प्रह्लाद को वरदान मांगने को कहा। प्रह्लाद ने सांसारिक सुख या शक्ति की कामना नहीं की। उनके द्वारा मांगे गए वरदान उनकी शुद्ध भक्ति और आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा को दर्शाते हैं:

  • पहला वरदान था कि नर-नारायण के साथ युद्ध करते समय उनके मन, वचन और शरीर से जो भी पाप हुआ हो, वह नष्ट हो जाए।
  • दूसरा वरदान था कि उनकी बुद्धि सदैव नारायण के ही ध्यान और चिंतन में लगी रहे।
  • तीसरा वरदान था कि संसार में उनकी पहचान केवल नारायण के भक्त के रूप में ही हो।

मुनिवर नारायण ने प्रसन्नतापूर्वक "ऐसा ही होगा" कहकर ये तीनों वरदान दिए। साथ ही, उन्होंने प्रह्लाद को अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर होने का आशीर्वाद भी दिया और निर्देश दिया कि वे अपने राज्य लौटकर धर्मपूर्वक शासन करें, असुरों को कल्याणकारी उपदेश दें और अपना मन सदैव नारायण में स्थिर रखें, जिससे वे कर्म बंधन से मुक्त रहेंगे।

प्रह्लाद अत्यंत आनंदित होकर अपने लोक लौटे और भगवान के निर्देशानुसार जीवन व्यतीत करने लगे, सदैव श्रीहरि का स्मरण करते हुए और अपने असुर प्रजाजनों को धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए।

नर-नारायण और प्रह्लाद की यह अद्भुत कथा हमें कई गहरे संदेश देती है। यह दर्शाती है कि अहंकार, चाहे वह कितने भी बड़े भक्त या शक्तिशाली राजा में क्यों न हो, पतन का कारण बन सकता है। दूसरी ओर, सच्ची और अनन्य भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि वह स्वयं भगवान को भी 'जीत' सकती है। यह कथा स्थापित करती है कि आध्यात्मिक मार्ग पर सच्ची विजय शस्त्रों से या शक्ति प्रदर्शन से नहीं, बल्कि विनम्रता, शरणागति और ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम से प्राप्त होती है। प्रह्लाद का जीवन, विशेषकर यह प्रसंग, भक्ति मार्ग की महिमा और अहंकार पर भक्ति की अंतिम विजय का एक शाश्वत उदाहरण है।


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अहंकार पर भक्ति की विजय की अद्भुत कथा

प्रस्तावना: भक्त प्रह्लाद की तीर्थयात्रा और नैमिषारण्य का रहस्यमय दृश्य

भारतीय पुराणों के पन्ने अद्भुत कथाओं और गहन आध्यात्मिक रहस्यों से भरे पड़े हैं। ऐसी ही एक ज्ञानवर्धक और रहस्यमयी कथा वामन पुराण और अन्य ग्रंथों में मिलती है, जिसमें भगवान विष्णु के परम भक्त, असुरराज प्रह्लाद का सामना स्वयं भगवान के ही अवतार, नर-नारायण ऋषियों से होता है। प्रह्लाद, जिनका नाम ही भक्ति और अटूट विश्वास का पर्याय है, जिन्होंने बचपन में अपने पिता हिरण्यकशिपु के अत्याचारों को सहते हुए भी नारायण की भक्ति नहीं छोड़ी थी। वही प्रह्लाद, बड़े होकर एक शक्तिशाली और धर्मात्मा असुर राजा बने, जिनके सुशासन में तीनों लोकों ने शांति का अनुभव किया।

धर्म और सत्य के प्रति अपनी निष्ठा के कारण, प्रह्लाद अक्सर तीर्थाटन पर निकलते थे। ऐसी ही एक यात्रा पर, संभवतः महर्षि च्यवन की सलाह पर, वे संसार के श्रेष्ठ तीर्थों में से एक, नैमिषारण्य पहुँचे। नैमिषारण्य, वह पवित्र भूमि जहाँ ऋषियों-मुनियों का वास था और जहाँ ज्ञान की धाराएँ बहती थीं। प्रह्लाद अपने असुर साथियों के साथ इस पुण्य क्षेत्र में पहुँचे और पवित्र सरस्वती नदी के तट पर विचरण करने लगे।

वहीं, उनकी दृष्टि एक ऐसे दृश्य पर पड़ी जिसने उन्हें चकित और भ्रमित कर दिया। उन्होंने देखा कि दो तेजस्वी तपस्वी, जिनके शरीर पर मृगचर्म (हिरण की खाल) थी, सिर पर जटाजूट सुशोभित था, गहन तपस्या में लीन थे। किन्तु, आश्चर्य की बात यह थी कि उन शांत तपस्वियों के पास ही, या किसी वृक्ष पर टंगे हुए, दो विशाल और दिव्य धनुष (संभवतः शार्ङ्ग और अजगव जैसे नाम कुछ स्रोतों में वर्णित हैं) तथा बाणों से भरे तरकश रखे थे। कुछ वर्णनों में तो यह भी आता है कि पास का एक वृक्ष बाणों से बिंधा हुआ प्रतीत हो रहा था।

प्रह्लाद, जो स्वयं एक राजा थे और धर्म के ज्ञाता भी, इस विरोधाभास को समझ नहीं पाए। उनके मन में प्रश्न उठा – तपस्वी, जो शांति और अहिंसा के प्रतीक होते हैं, वे युद्ध के शस्त्र क्यों धारण करेंगे? क्या यह कोई पाखंड (दम्भपूर्ण कार्य) है? क्या यह तपस्या का ढोंग है? उन्हें लगा कि यह पवित्र तीर्थ की मर्यादा के विरुद्ध है और संभवतः ये तपस्वी वेश में कोई दुष्ट हैं जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रह्लाद की यह दुविधा, जो उनके राजधर्म और भक्ति के द्वंद्व से उपजी थी, एक अभूतपूर्व संघर्ष का मंच तैयार कर रही थी। वे नहीं जानते थे कि उनका सामना स्वयं भगवान विष्णु के ही दो रूपों, नर और नारायण से होने वाला है। यह स्थिति धर्म की विभिन्न धारणाओं के टकराव को दर्शाती है - एक राजा की दृष्टि में तपस्वी और योद्धा की भूमिकाएँ अलग-अलग थीं, जबकि नर-नारायण उस दिव्य संश्लेषण का प्रतिनिधित्व करते थे जहाँ आध्यात्मिक शक्ति और धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र धारण करना विरोधाभासी नहीं था।

नर-नारायण: तपस्या और शस्त्रों का रहस्यमय संयोग

जिन दो तपस्वियों को देखकर भक्तराज प्रह्लाद भ्रमित हुए थे, वे कोई साधारण ऋषि नहीं थे। वे स्वयं भगवान विष्णु के चौथे अवतार, नर और नारायण थे। ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म और उनकी पत्नी मूर्ति (जो दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं) के यहाँ श्रीहरि ने जुड़वां ऋषियों के रूप में जन्म लिया था। उनका अवतार पृथ्वी पर धर्म और सत्य का विस्तार करने, सुख-शांति स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ था।

जन्म से ही नर और नारायण का मन धर्म, साधना और भक्ति में रमा हुआ था। शीघ्र ही वे अपनी माता से आज्ञा लेकर तपस्या हेतु हिमालय की पवित्र भूमि, बदरिकाश्रम (वर्तमान बद्रीनाथ) चले गए। कहा जाता है कि आज भी बद्रीनाथ धाम के पास स्थित दो पर्वत उन्हीं के नाम पर नर और नारायण पर्वत कहलाते हैं और वे वहां अदृश्य रूप में तपस्यारत हैं।

उनकी तपस्या अत्यंत कठोर और अद्भुत थी, हजारों वर्षों तक चली इस तपस्या के तेज से देवलोक भी प्रभावित था। इसी तपस्या के बल पर उन्होंने असीम आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की थी। वे केवल तपस्वी ही नहीं थे, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने में भी सक्षम थे। उनका स्वरूप आध्यात्मिक ऊर्जा (तप) और दिव्य शक्ति (शस्त्र) के पूर्ण संतुलन का प्रतीक था।

इसलिए, जब प्रह्लाद ने तपस्वियों के पास शस्त्र देखकर प्रश्न किया, तो यह उनके लिए कोई विरोधाभास नहीं था। यह उनकी दिव्य प्रकृति का हिस्सा था। वे सांसारिक नियमों या भूमिकाओं से बंधे नहीं थे। उनके शस्त्र (जैसे अजगव और शार्ङ्ग) भी दिव्य थे, साधारण नहीं। प्रह्लाद के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने अत्यंत शांत भाव से अपनी क्षमता का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि सामर्थ्यवान व्यक्ति जो भी कर्म करता है, वही उसे शोभा देता है, या कि वे तपस्या और युद्ध दोनों में समान रूप से समर्थ हैं, और प्रह्लाद को व्यर्थ चिंता नहीं करनी चाहिए। यह उत्तर, जिसे प्रह्लाद ने अहंकार या उपेक्षा के रूप में लिया, वास्तव में उनकी दिव्य स्थिति का कथन था, जो मानवीय वर्गीकरणों से परे थी।

अहंकार की चुनौती: जब प्रह्लाद ने नर-नारायण को ललकारा

नर-नारायण ऋषियों का शांत किन्तु दृढ़ उत्तर भक्तराज प्रह्लाद को संतुष्ट नहीं कर सका। असुरराज होने के नाते, शक्ति और शासन के अभ्यस्त प्रह्लाद ने उनके शब्दों को अपने अधिकार और बल के प्रति चुनौती के रूप में देखा। उनका अहंकार, जो संभवतः उनकी राजसी पृष्ठभूमि और अपार शक्ति के कारण अभी भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान था, आहत हो गया। उन्हें लगा कि ये तपस्वी व्यर्थ ही अपनी शक्ति का दंभ भर रहे हैं।

क्रोध से भरकर (क्रुद्ध होकर), प्रह्लाद ने उन दोनों ऋषियों को युद्ध के लिए ललकार दिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे युद्ध में किसी भी प्रकार से उन दोनों को पराजित करेंगे ("मैं युद्ध में जिस किसी भी प्रकार आप दोनों को जीतूँगा")। उन्होंने ऋषियों की क्षमता पर प्रश्न उठाया और उन्हें युद्ध के मैदान में अपनी शक्ति सिद्ध करने को कहा।

यह स्थिति प्रह्लाद की भक्ति की एक कठिन परीक्षा भी थी। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे, और अनजाने में वे स्वयं भगवान के ही अवतारों को चुनौती दे रहे थे। क्या उनकी भक्ति उनके क्षत्रिय राजा वाले अहंकार पर विजय पा सकेगी? नर और नारायण का शांत रहना, फिर भी अपनी क्षमता पर दृढ़ रहना, और प्रह्लाद का इसे अहंकार समझकर क्रोधित हो जाना, यह सब जैसे एक दिव्य योजना का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसका उद्देश्य प्रह्लाद के भीतर छिपे अहंकार को सतह पर लाना और उनकी भक्ति को और अधिक निर्मल करना था।

प्रह्लाद की चुनौती के उत्तर में, पहले ऋषि नर युद्ध के लिए सहमत हुए। नारायण संभवतः इस दौरान अपनी तपस्या में लीन रहे या स्थिति का अवलोकन करते रहे। इस प्रकार, नैमिषारण्य की पवित्र भूमि एक अभूतपूर्व युद्ध की साक्षी बनने वाली थी, जहाँ एक ओर थे असुरराज भक्त प्रह्लाद और दूसरी ओर थे स्वयं भगवान के अवतार, ऋषि नर।

शताब्दियों तक चला महासंग्राम: दिव्यास्त्रों का प्रयोग

प्रह्लाद की चुनौती स्वीकार होते ही, असुरराज और ऋषि नर के बीच भयंकर युद्ध आरंभ हो गया। दोनों ही योद्धा अपनी-अपनी कला में निपुण थे। प्रह्लाद ने अपने असुर बल और युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया, तो ऋषि नर ने अपने तपोबल से अर्जित दिव्य शक्तियों का। प्रारंभ में बाणों का आदान-प्रदान हुआ। कुछ वर्णनों के अनुसार, प्रह्लाद ने अपने स्वर्ण-जड़ित बाणों से नर पर प्रहार किया, तो कुछ के अनुसार नर ने साधारण सींक (घास के तिनकों) को ही मंत्रों से अभिमंत्रित कर ऐसे अस्त्र बना दिया जिसने प्रह्लाद के आक्रमण को विफल कर दिया और उन्हें चकित कर दिया।

जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, उसकी भयंकरता बढ़ती गई और साधारण अस्त्रों के स्थान पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। जब प्रह्लाद ने अजय ब्रह्मास्त्र का संधान किया, तो ऋषि नर ने उसका प्रतिकार करने के लिए भगवान शिव के माहेश्वरास्त्र का आह्वान किया। कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार, प्रह्लाद के ब्रह्मास्त्र के उत्तर में नारायण ऋषि ने नारायणअस्त्र का प्रयोग किया। आकाश में इन महाविनाशक अस्त्रों की टक्कर हुई और वे एक-दूसरे को निष्प्रभावी करते हुए शांत हो गए।

ब्रह्मास्त्र के विफल होने पर, प्रह्लाद गदा लेकर ऋषि नर पर झपटे। इसी समय, ऋषि नारायण भी युद्ध में सम्मिलित हो गए। अब प्रह्लाद का सामना दोनों तपस्वियों से था। उन्होंने अपनी गदा से नारायण पर प्रहार करने का प्रयास किया, परन्तु या तो उनकी गदा टूट गई या निष्प्रभावी हो गई।

यह युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था। यह अत्यंत दीर्घकाल तक चला। विभिन्न पुराणों और कथाओं में इसकी अवधि अलग-अलग बताई गई है। कुछ इसे सौ वर्षों का बताते हैं, तो कुछ इसे एक हजार दिव्य वर्षों तक चलने वाला महासंग्राम कहते हैं। अवधि चाहे जो भी रही हो, यह स्पष्ट था कि असुरराज प्रह्लाद अपनी पूरी शक्ति और पराक्रम के बावजूद उन तपस्वियों को पराजित करने में असमर्थ थे।

यह लंबा और अनिर्णायक युद्ध वास्तव में एक महत्वपूर्ण सत्य को उजागर कर रहा था – अहंकार और बाहुबल से प्रेरित होकर दिव्य शक्ति को चुनौती देना व्यर्थ है। प्रह्लाद का ब्रह्मास्त्र जैसे महाअस्त्र का प्रयोग भी नर-नारायण के तपोबल और धर्मनिष्ठा के सामने विफल हो गया। यह दर्शाता है कि सच्ची शक्ति केवल शस्त्रों में नहीं, बल्कि धर्म और ईश्वर के प्रति निष्ठा में निहित है, और जब कोई अहंकारवश धर्म के विरुद्ध जाता है, तो उसकी बड़ी से बड़ी शक्ति भी निरर्थक हो जाती है।

वैकुंठ का मार्गदर्शन: भगवान विष्णु का हस्तक्षेप और सत्य का उद्घाटन

शताब्दियों (या दिव्य वर्षों) तक चले युद्ध के बाद भी जब विजय का कोई चिह्न नहीं दिखा, तो असुरराज प्रह्लाद की आशा निराशा में बदलने लगी। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वे अपनी शक्ति और पराक्रम से इन तेजस्वी ऋषियों को पराजित नहीं कर सकते। उनकी सारी युद्धकला, उनके दिव्यास्त्र, सब निष्फल सिद्ध हो रहे थे।

इस गहन निराशा और विवशता के क्षण में, प्रह्लाद को अपने आराध्य, अपने अंतिम आश्रय, भगवान विष्णु का स्मरण हुआ। उन्होंने मन ही मन श्रीहरि से प्रार्थना की, इस विषम परिस्थिति से निकलने का मार्ग पूछा। कुछ वृत्तांतों के अनुसार, वे स्वयं वैकुंठ लोक गए, यह जानने के लिए कि वे नारायण ऋषि को क्यों नहीं जीत पा रहे हैं।

तब भक्तवत्सल भगवान विष्णु ने अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद का मार्गदर्शन किया। वे प्रह्लाद के समक्ष प्रकट हुए या उन्हें दिव्य वाणी द्वारा संबोधित किया। भगवान ने उस रहस्य का उद्घाटन किया जिसने प्रह्लाद को भ्रमित कर रखा था। उन्होंने बताया कि जिन नर और नारायण ऋषियों से वे युद्ध कर रहे हैं, वे कोई और नहीं, बल्कि स्वयं उन्हीं (विष्णु) के स्वरूप हैं ("वस्तुतः नारायण रूप में वहाँ मैं ही हूँ")। वे जगत के कल्याण और धर्म की स्थापना के लिए ("जगत की भलाई की इच्छा से धर्म-प्रवर्तन के लिए") उस रूप में तपस्या कर रहे हैं।

भगवान विष्णु ने स्पष्ट किया कि नर-नारायण युद्ध में किसी भी देवता या असुर द्वारा पराजित नहीं किए जा सकते, वे अजेय हैं। उन्होंने प्रह्लाद को समझाया कि उन्हें 'जीतने' का एकमात्र मार्ग युद्ध नहीं, बल्कि भक्ति है ("तुम उन्हें भक्ति से जीत सकोगे, युद्ध से कदापि नहीं")। श्रीहरि ने प्रह्लाद को युद्ध त्यागकर उनके नर-नारायण स्वरूप की आराधना करने का उपदेश दिया ("मेरे उस रूप की आराधना करो")।

भक्ति की शक्ति: प्रह्लाद का ह्रदय परिवर्तन और शरणागति

भगवान विष्णु के मुख से सत्य जानकर प्रह्लाद का सारा भ्रम और क्रोध शांत हो गया। उनका अहंकार, जो उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा था, भक्ति की निर्मल धारा में विलीन हो गया। उन्हें अपनी भूल का गहरा पश्चाताप हुआ कि उन्होंने अनजाने में अपने ही आराध्य के स्वरूपों को चुनौती दे डाली थी। वे समझ गए कि नर-नारायण तपस्वी वेश में ढोंगी नहीं, बल्कि स्वयं उनके प्रभु के ही दिव्य और शक्तिशाली रूप थे।

तत्काल, प्रह्लाद ने युद्ध रोक दिया। कुछ कथाओं के अनुसार, उन्होंने उसी क्षण राजपाट का त्याग करने का निर्णय लिया और हिरण्याक्ष के पुत्र अंधकासुर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। इसके पश्चात, वे बदरिकाश्रम गए (या वहीं नैमिषारण्य में ऋषियों के समीप पहुँचे) और नर-नारायण के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर क्षमा याचना करने लगे।

ऋषि नारायण ने, संभवतः लीला को जारी रखते हुए, पहले आश्चर्य व्यक्त किया या विनोद में कहा कि बिना युद्ध जीते प्रह्लाद प्रणाम क्यों कर रहे हैं। परन्तु प्रह्लाद के हृदय परिवर्तन और उनकी शरणागति को देखकर वे प्रसन्न हुए।

तब प्रह्लाद ने अत्यंत विनम्रता और भक्तिभाव से नर-नारायण की स्तुति की। उन्होंने स्वीकार किया कि नारायण ही परब्रह्म हैं, वे ही ब्रह्मा, शिव, इंद्र और समस्त देवों के रूप में विद्यमान हैं, वे ही सृष्टि के आधार हैं और उन्हें केवल भक्ति से ही जीता जा सकता है, युद्ध या शक्ति से नहीं। यह स्तुति प्रह्लाद के पूर्ण आत्मसमर्पण और उनकी स्वाभाविक भक्त-प्रकृति की पुनर्स्थापना का प्रमाण थी। उनका राजसी अहंकार अब पूरी तरह से भक्त-हृदय की विनम्रता में परिवर्तित हो चुका था।

अनन्य भक्ति का पुरस्कार: वरदान और कथा का सार

भक्त प्रह्लाद की स्तुति और उनके अनन्य भक्ति भाव को देखकर मुनिवर नारायण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने घोषणा की कि यद्यपि प्रह्लाद उन्हें युद्ध में परास्त नहीं कर सके, तथापि अपनी अनन्य भक्ति के द्वारा उन्होंने वास्तव में उन्हें 'जीत' लिया है ("अनन्य भक्ति से तुमने मुझे जीत लिया है")। यह कथन विजय की पारंपरिक परिभाषा को पलट देता है और भक्ति की सर्वोच्चता को स्थापित करता है।

प्रसन्न होकर, नारायण ने प्रह्लाद को वरदान मांगने को कहा। प्रह्लाद ने सांसारिक सुख या शक्ति की कामना नहीं की। उनके द्वारा मांगे गए वरदान उनकी शुद्ध भक्ति और आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा को दर्शाते हैं:

  • पहला वरदान था कि नर-नारायण के साथ युद्ध करते समय उनके मन, वचन और शरीर से जो भी पाप हुआ हो, वह नष्ट हो जाए।
  • दूसरा वरदान था कि उनकी बुद्धि सदैव नारायण के ही ध्यान और चिंतन में लगी रहे।
  • तीसरा वरदान था कि संसार में उनकी पहचान केवल नारायण के भक्त के रूप में ही हो।

मुनिवर नारायण ने प्रसन्नतापूर्वक "ऐसा ही होगा" कहकर ये तीनों वरदान दिए। साथ ही, उन्होंने प्रह्लाद को अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर होने का आशीर्वाद भी दिया और निर्देश दिया कि वे अपने राज्य लौटकर धर्मपूर्वक शासन करें, असुरों को कल्याणकारी उपदेश दें और अपना मन सदैव नारायण में स्थिर रखें, जिससे वे कर्म बंधन से मुक्त रहेंगे।

प्रह्लाद अत्यंत आनंदित होकर अपने लोक लौटे और भगवान के निर्देशानुसार जीवन व्यतीत करने लगे, सदैव श्रीहरि का स्मरण करते हुए और अपने असुर प्रजाजनों को धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए।

नर-नारायण और प्रह्लाद की यह अद्भुत कथा हमें कई गहरे संदेश देती है। यह दर्शाती है कि अहंकार, चाहे वह कितने भी बड़े भक्त या शक्तिशाली राजा में क्यों न हो, पतन का कारण बन सकता है। दूसरी ओर, सच्ची और अनन्य भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि वह स्वयं भगवान को भी 'जीत' सकती है। यह कथा स्थापित करती है कि आध्यात्मिक मार्ग पर सच्ची विजय शस्त्रों से या शक्ति प्रदर्शन से नहीं, बल्कि विनम्रता, शरणागति और ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम से प्राप्त होती है। प्रह्लाद का जीवन, विशेषकर यह प्रसंग, भक्ति मार्ग की महिमा और अहंकार पर भक्ति की अंतिम विजय का एक शाश्वत उदाहरण है।


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