नारद मुनि सनातन धर्म के सबसे विख्यात ऋषियों में से एक हैं, जिन्हें देवर्षि (देवताओं में ऋषि) की उपाधि प्राप्त है। वे भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में गिने जाते हैं और समस्त लोकों में भगवान के संदेश वाहक एवं कीर्तनकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। नारदजी सदा त्रिभुवन में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं, अपने हाथ में वीणा धारण किए "नारायण, नारायण" का पवित्र संकीर्तन करते हुए। उनका स्वरूप एक तपस्वी ऋषि का है: लम्बी जटा, हाथों में महती वीणा, कमर में कमंडलु, और शरीर पर पीत वस्त्र। लेकिन उनके मुख पर मधुर मुस्कान एवं आँखों में ईश्वरीय भक्ति की चमक सदा विराजमान रहती है। वे जहाँ भी जाते हैं, भगवान के गुणगान और भक्ति का प्रचार करते हैं। उनकी विशिष्टता यह है कि वे देवलोक, मृत्युलोक एवं पाताललोक सहित सभी लोकों में अविरोध विचरण कर सकते हैं। इस प्रकार नारद मुनि को भगवान का 'चलता-फिरता दूत' और 'भक्तों का मित्र' कहा जाता है। वे समय-समय पर विभिन्न कथाओं में प्रकट होकर ईश्वरीय लीला को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं।
नारद मुनि की उत्पत्ति पौराणिक दृष्टि से ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से एक के रूप में मानी गई है। परन्तु श्रीमद्भागवत महापुराण में स्वयं नारदजी ने अपने पूर्वजन्म की मार्मिक कथा सुनाई है (स्कंध 1, अध्याय 6)। पिछले कल्प में नारदजी एक निम्नवर्ण (शूद्र) दासी-पुत्र थे। उनकी माता एक भक्ति-परायण स्त्री थीं जो ऋषि-मुनियों की सेवा किया करती थीं। बालक नारद ने अपनी माता के साथ रहकर बचपन से ही उन महान संतों की सेवा का अवसर पाया। वर्षाकाल के चार माह जब साधुजन एक स्थान पर ठहरते थे, तब उस पाँच-वर्षीय बालक ने उनकी भक्ति-भाव से सेवा की। प्रसन्न होकर साधुओं ने उसे आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया और प्रसाद स्वरूप भगवान के नाम-जप की दीक्षा दी। बालक नारद ने श्रद्धापूर्वक वह प्रसाद (उच्छिष्ट भोजन) ग्रहण किया और मुनियों की वाणियों को हृदय में धारण किया, जिससे उसके हृदय में भक्ति का बीज अंकुरित हो गया।
वर्षा ऋतु पूर्ण होने पर साधुजन वहाँ से विदा हो गए। कुछ समय बाद बालक नारद की माता का सर्पदंश से देहांत हो गया। अब नारद के सामने एकाकी जीवन था, किंतु उसके हृदय में संसार की आसक्ति पहले ही समाप्त हो चुकी थी। उसने उस परिस्थिति को प्रभु की इच्छा माना और उत्तर दिशा की ओर पैदल ही प्रस्थान किया। चलते-चलते वह वन, पर्वत, नदियों को पार करते हुए एक एकांत स्थान पर जा पहुँचा। वहाँ मन को एकाग्र कर जिस इष्टदेव का बालक ने चिंतन किया था उसी परम भगवान विष्णु का ध्यान कर वह पद्मासन में बैठ गया। पूर्व सेवाकाल में प्राप्त मंत्रों और उपदेशों का स्मरण कर उसने पूरे मनोयोग से भगवान का ध्यान लगाया। बालक की निष्कपट भक्ति से प्रसन्न होकर कुछ ही समय में उसके हृदय में दिव्य प्रकाश हुआ और भगवान नारायण ने क्षण भर के लिए उसे दर्शन दिए। उस दिव्य स्वरूप को देखकर बालक नारद भाव-विभोर हो गए। आँखों से अश्रुधारा बह चली और रोमांच हो आया। वे पुनः उस स्वरूप का अवलोकन करने के लिए व्याकुल हो उठे। लेकिन भगवान तत्काल अंतर्धान हो गए। उनकी वाणी आकाश से गर्जित हुई: "हे नारद! इस जन्म में तुम मुझे फिर प्रत्यक्ष नहीं देख पाओगे। मैंने तुम्हें एक बार दर्शन देकर तुम्हारी लालसा बढ़ाई है, ताकि तुम जीवन भर मेरा स्मरण करते रहो और अगले जन्म में मेरी निष्कपट सेवा का फल प्राप्त करो।"
बालक नारद ने भगवान की वाणी सुनी और उसे हृदय में धारण कर लिया। इसके बाद उन्होंने आजीवन एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते हुए भगवन्नाम का गान किया और लोक-जड़ता से निर्लिप्त जीवन बिताया। अंततः ब्रह्माण्ड प्रलय (कल्पांत) के समय उन्होंने अपने स्थूल शरीर का परित्याग किया। अगले सृजन (नवकल्प) में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की गोद से नारद मुनि के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ – इस बा र दिव्य ऋषि के रूप में, जिन्हें कल्पों पूर्व श्रीहरि ने अपना पार्षद बनने का वरदान प्रदान किया था। इस प्रकार नारद मुनि का आविर्भाव एक महान भक्त के रूप में हुआ।
नारद मुनि के अवतार का परम उद्देश्य विश्व में भक्ति का प्रसार करना और धर्म की स्थापना में सहायता देना है। देवर्षि नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं और वे जहां भी जाते हैं, ईश्वर-भक्ति की ध्वजा लहराते हैं। वे अदृश्य रूप से अनेक घटनाओं को संचालित करते हैं जिससे भगवान की लीला प्रकट हो। श्रीमद्भागवत (स्कंध 1, अध्याय 3) में उन्हें भगवान का एक शक्तिसंपन्न अवतार बताया गया है जिसने भक्ति से संबंधित वेदान्त सूक्तियों का संग्रह किया एवं कर्मयोग को निष्काम भाव से करने की प्रेरणा दी। वास्तव में नारदजी द्वारा रचित 'नारद भक्ति सूत्र' भक्ति संबंधी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें उन्होंने प्रेमभाव से भगवान की उपासना को सर्वोच्च मार्ग बताया है। वे स्वयं प्रेमानंद में निमग्न रहकर उसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। नारदजी बिना किसी बंधन के सभी लोकों में भ्रमण कर सकते हैं – इस अलौकिक शक्ति का प्रयोग वे भक्ति का संदेश फैलाने हेतु करते हैं। उनका व्रत है "लोकेषु ब्रह्म-निर्देशु अपि पठन्, ब्रह्मगीतः प्रचारयन्" अर्थात लोक-कल्याण हेतु निरंतर भगवन्नाम का प्रचार करना। देवताओं में, मनुष्यों में और असुरों में – सभी के बीच उन्होंने कभी न कभी प्रवचन या उदाहरण द्वारा धर्म की ज्योति जगाई है। भगवान विष्णु की प्रेरणा से वे विभिन्न युगों में अलग-अलग पात्रों को मार्गदर्शन देते हैं ताकि धर्म की रक्षा हो सके।
नारद मुनि से जुड़े अनेक प्रसंग हैं, जहाँ उन्होंने किसी भक्त को सत्पथ दिखाया या भगवान की लीला में सहायक की भूमिका निभाई। कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ इस प्रकार हैं:
बाल ध्रुव को मार्गदर्शन: उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव जब बालक थे, तब सौतेली माता के तिरस्कार से आहत होकर वन में भगवान को खोजने निकल पड़े। मार्ग में नारद मुनि प्रकट हुए और बालक की दृढ़ तप-इच्छा देखकर उनको एक शक्तिशाली मंत्र ("ॐ नमो भगवते वासुदेवाय") प्रदान किया तथा ध्यान की विधि बताई। पाँच वर्ष के बालक ध्रुव ने नारद के उपदेश का पालन कर कठोर तप किया और भगवान विष्णु के दर्शन कर अनंत ध्रुवलोक (नक्षत्र) को प्राप्त किया। इस प्रकार नारद गुरु बनकर ध्रुव जैसे बालभक्त की परीक्षा भी लेते हैं और उसे सफल भी बनाते हैं।
प्रह्लाद की शिक्षा: नारदजी ने स्वयं कहा है कि हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु जब गर्भवती थीं, तब उन्हें देवताओं ने अपने आश्रय में रखा था। उस समय नारद मुनि ने कयाधु को कई माह तक भगवद्भक्ति और ज्ञान की कथाएँ सुनाईं। गर्भ में स्थित बालक प्रह्लाद ने वे बातें सुनकर गर्भावस्था में ही भक्ति का संस्कार पा लिया। बाद में जन्म लेकर प्रह्लाद महान भक्त बने और उनके पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने जब उन्हें मारने की चेष्टा की तो स्वयं भगवान नृसिंह ने अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। इस कथा में नारद का अप्रत्यक्ष योगदान एक शिशु को भक्त बनाने की प्रेरणा देना था।
महर्षि व्यास को भगवतकथा की प्रेरणा: महाभारत रचयिता महर्षि वेदव्यास ने वेदों का विभाजन और अनेक पुराणों का संकलन किया था, फिर भी उनके मन में कुछ अशांति थी। तभी देवर्षि नारद उनके आश्रम में आए। व्यासजी ने अपनी असंतुष्टि का कारण पूछा तो नारद ने समझाया कि "आपने अब तक धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि विषय तो लिखे, परंतु भगवान के निष्कपट प्रेम और लीलाओं का गान विस्तार से नहीं किया, इसी कारण आपके मन को शांति नहीं मिली है।" नारद मुनि ने महर्षि व्यास को श्रीकृष्ण की महिमा और भक्ति पर आधारित ग्रंथ रचने को कहा। इस प्रेरणा से श्रीव्यास ने भगवद्भक्तिरस से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की जिसे पाँचवें वेद के समान माना जाता है। इस प्रकार नारद ने संसार को भक्ति-साहित्य का अनुपम उपहार दिलवाने में अहम भूमिका निभाई।
भगवान के अवतारों का मार्ग प्रशस्त करना: नारद मुनि कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बनाते हैं जिससे अधर्म बढ़े और भगवान अवतार लेकर उसे मिटाएँ। यद्यपि प्रथम दृष्टि में उन्हें कभी-कभी "कलहप्रिय" कहा जाता है (जैसे वह विभिन्न राजाओं के दरबार में कोई सूचना दे आते हैं जिससे कुछ संघर्ष उत्पन्न हो), किन्तु वह संघर्ष अंततः धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक होता है। उदाहरणस्वरूप, श्रीकृष्णावतार से पूर्व नारद ही थे जिन्होंने कंस के पास जाकर बताया कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही उसका वध करेगा। इस सूचना से कंस ने देवकी-वसुदेव के शिशुओं को मारना शुरू किया और भगवान को अवतार लेने के लिए परिस्थिति तीव्र हुई। अंततः कृष्ण ने अवतरित होकर कंस का संहार किया और पृथ्वी का भार हरण किया। इसी तरह प्रभु राम के अवतार से पहले नारद ने ही देवताओं को सलाह दी थी कि रावण-वध हेतु विष्णु मानव रूप में अवतार लें। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ नारद घटनाओं के सूत्रधार बनकर भगवान की लीला को फलीभूत करते हैं। उनका उद्देश्य सदा धर्म की रक्षा और भक्तों का कल्याण होता है।
अन्य प्रसंग: नारदजी अनेक भक्तों के जीवन में निर्णायक क्षणों पर प्रकट होते हैं। उन्होंने राजा अम्बरीष और ऋषि दुर्वासा के प्रसंग में दुर्वासा को भगवान की शरण जाने की सीख दी (कुछ कथाओं में), हस्तिनापुर में पांडवों को दिव्य नारायण-कवच प्राप्त करने की विधि बताई, तथा तुलसीदास रचित रामचरितमानस में वे ही हैं जिन्होंने राम-सीता के विवाह से पूर्व परशुराम और लक्ष्मण के बीच संवाद को चतुराई से शांत कराया (ये विवरण विभिन्न स्रोतों में मिलते हैं)। नारद पुराण नामक अठारह महापुराणों में से एक पुराण भी उनके नाम पर है, जिसमें विभिन्न तीर्थों, व्रतों और उपासना का वर्णन है।
नारद मुनि का उल्लेख लगभग सभी प्रमुख हिन्दू ग्रंथों में आदरपूर्वक हुआ है। भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियाँ गिनाते हुए कहा – "देवर्षीणां च नारदः" (देवर्षियों में मैं नारद हूँ) – इससे स्पष्ट होता है कि नारदजी का स्थान देवों और ऋषियों में कितना ऊँचा है। श्रीमद्भागवत में उन्हें दिव्य अवतार मानकर प्रणाम किया गया है। भागवत के सप्तम स्कंध में यमराज द्वारा गिनाए गए बारह महाजनों (प्रामाणिक भक्तों) में नारद का नाम दूसरे स्थान पर है (प्रथम ब्रह्मा, द्वितीय नारद, तृतीय शिव आदि)। वेदों में नारद को वीणापाणि ऋषि के रूप में संबोधित किया गया है। नारद भक्ति सूत्र के माध्यम से भक्ति सिद्धांतों को सूत्ररूप में प्रस्तुत करने का श्रेय भी उन्हें है।
नारदजी की भक्ति-महारस में तन्मयता का वर्णन अनेक भजनों और कथाओं में मिलता है। माना जाता है कि वे आज भी लोकों में भ्रमण कर सच्चे भक्तों की सहायता करते हैं। कई भक्त कवियों ने उनकी वंदना की है: "नारद मुनि नारायण नारायण..." इत्यादि, जिसमें उन्हें नृत्य करते, वीणा बजाते और हरि-नाम गाते चित्रित किया गया है। भक्त प्रह्लाद, ध्रुव आदि उनके शिष्यों के उदाहरण से भक्तजन प्रेरणा लेते हैं कि गुरु-कृपा और सत्संगति से कैसी अद्भुत प्रगति की जा सकती है।
नारद मुनि निरंतर हरिनाम संकीर्तन एवं भक्ति में लीन रहने वाले आदर्श महात्मा हैं। उनकी चर्या से यह सीख मिलती है कि संसार में रहते हुए भी मन को भगवान में लगाकर हरि-कीर्तन करते रहना चाहिए। वे स्वयं कहते हैं: "नारदस्तु तदर्पित अखिलाचरता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता च" – अर्थात नारद के मत में सच्ची भक्ति वही है जिसमें सारे कर्म भगवान को अर्पित हों और क्षण मात्र के लिए भी भगवान का विस्मरण हो तो हृदय व्याकुल हो उठे। वे प्रेम को भक्ति का स्वरूप बताते हैं और ज्ञान, योग, कर्म से उसे श्रेष्ठ ठहराते हैं। नारदजी का जीवन इस सिद्धांत का जीवंत उदाहरण है – वे निष्काम भाव से अनवरत ईश्वर की आराधना करते चलते हैं।
भक्तों के हृदय में नारदजी के प्रति विशेष सम्मान होता है क्योंकि उन्होंने अनेकों भक्ति मार्ग के पथिकों का मार्गदर्शन किया है। भक्ति साहित्य में उन्हें 'भक्ति के आचार्य' कहा गया है, यानी भक्ति रूपी राज्य के मंत्री। उनका संकीर्तन जहां भी गूंजता है, वहाँ भगवान की उपस्थिति मानी जाती है। अतः नारद पुराण में कहा गया है कि जो भक्त नारदजी को स्मरण कर भजन करता है उसे भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है। स्वयं नारदजी भी कहते हैं – "जो भगवान के गुणगान में लीन रहता है, वह मुझे प्रिय है और मैं उसे अपना समझ पाता हूँ।"
नारद मुनि का चरित्र भक्तों को निःस्वार्थ, निरंतर और आनंदमय भक्ति करने की प्रेरणा देता है। उनकी वीणा से निःसृत नारायण-नाम की ध्वनि त्रैलोक्य को पवित्र करती है। वे हर युग में भक्ति की मशाल जलाए रखते हैं। इसीलिए भक्त समुदाय जय-जयकार करता है – "नारद मुनि की जय!" – और उनकी भक्ति-सेवा को आदरपूर्वक नमन करता है।
अंततः नारद मुनि का संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व यह सिद्ध करता है कि काल और स्थान चाहे जो हों, भगवद्भक्ति की ज्योति कभी मंद नहीं पड़ती। वे युगों-युगों तक भक्ति की मशाल जलाए रखते हैं और जड़-चेतन सभी को भगवान के प्रेममय आलिंगन की ओर प्रेरित करते हैं। भक्त उनके चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना करते हैं कि "हे देवर्षि, जैसे आप अनवरत नारायण-नाम में निमग्न हैं, वैसा ही प्रेम हमें भी प्राप्त हो।" नारदजी की कृपा से संसार में भक्ति का संगीत निरंतर गूंजता रहे – यही हर भक्त का अभिलाष है।
नारद मुनि सनातन धर्म के सबसे विख्यात ऋषियों में से एक हैं, जिन्हें देवर्षि (देवताओं में ऋषि) की उपाधि प्राप्त है। वे भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में गिने जाते हैं और समस्त लोकों में भगवान के संदेश वाहक एवं कीर्तनकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। नारदजी सदा त्रिभुवन में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं, अपने हाथ में वीणा धारण किए "नारायण, नारायण" का पवित्र संकीर्तन करते हुए। उनका स्वरूप एक तपस्वी ऋषि का है: लम्बी जटा, हाथों में महती वीणा, कमर में कमंडलु, और शरीर पर पीत वस्त्र। लेकिन उनके मुख पर मधुर मुस्कान एवं आँखों में ईश्वरीय भक्ति की चमक सदा विराजमान रहती है। वे जहाँ भी जाते हैं, भगवान के गुणगान और भक्ति का प्रचार करते हैं। उनकी विशिष्टता यह है कि वे देवलोक, मृत्युलोक एवं पाताललोक सहित सभी लोकों में अविरोध विचरण कर सकते हैं। इस प्रकार नारद मुनि को भगवान का 'चलता-फिरता दूत' और 'भक्तों का मित्र' कहा जाता है। वे समय-समय पर विभिन्न कथाओं में प्रकट होकर ईश्वरीय लीला को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं।
नारद मुनि की उत्पत्ति पौराणिक दृष्टि से ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से एक के रूप में मानी गई है। परन्तु श्रीमद्भागवत महापुराण में स्वयं नारदजी ने अपने पूर्वजन्म की मार्मिक कथा सुनाई है (स्कंध 1, अध्याय 6)। पिछले कल्प में नारदजी एक निम्नवर्ण (शूद्र) दासी-पुत्र थे। उनकी माता एक भक्ति-परायण स्त्री थीं जो ऋषि-मुनियों की सेवा किया करती थीं। बालक नारद ने अपनी माता के साथ रहकर बचपन से ही उन महान संतों की सेवा का अवसर पाया। वर्षाकाल के चार माह जब साधुजन एक स्थान पर ठहरते थे, तब उस पाँच-वर्षीय बालक ने उनकी भक्ति-भाव से सेवा की। प्रसन्न होकर साधुओं ने उसे आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया और प्रसाद स्वरूप भगवान के नाम-जप की दीक्षा दी। बालक नारद ने श्रद्धापूर्वक वह प्रसाद (उच्छिष्ट भोजन) ग्रहण किया और मुनियों की वाणियों को हृदय में धारण किया, जिससे उसके हृदय में भक्ति का बीज अंकुरित हो गया।
वर्षा ऋतु पूर्ण होने पर साधुजन वहाँ से विदा हो गए। कुछ समय बाद बालक नारद की माता का सर्पदंश से देहांत हो गया। अब नारद के सामने एकाकी जीवन था, किंतु उसके हृदय में संसार की आसक्ति पहले ही समाप्त हो चुकी थी। उसने उस परिस्थिति को प्रभु की इच्छा माना और उत्तर दिशा की ओर पैदल ही प्रस्थान किया। चलते-चलते वह वन, पर्वत, नदियों को पार करते हुए एक एकांत स्थान पर जा पहुँचा। वहाँ मन को एकाग्र कर जिस इष्टदेव का बालक ने चिंतन किया था उसी परम भगवान विष्णु का ध्यान कर वह पद्मासन में बैठ गया। पूर्व सेवाकाल में प्राप्त मंत्रों और उपदेशों का स्मरण कर उसने पूरे मनोयोग से भगवान का ध्यान लगाया। बालक की निष्कपट भक्ति से प्रसन्न होकर कुछ ही समय में उसके हृदय में दिव्य प्रकाश हुआ और भगवान नारायण ने क्षण भर के लिए उसे दर्शन दिए। उस दिव्य स्वरूप को देखकर बालक नारद भाव-विभोर हो गए। आँखों से अश्रुधारा बह चली और रोमांच हो आया। वे पुनः उस स्वरूप का अवलोकन करने के लिए व्याकुल हो उठे। लेकिन भगवान तत्काल अंतर्धान हो गए। उनकी वाणी आकाश से गर्जित हुई: "हे नारद! इस जन्म में तुम मुझे फिर प्रत्यक्ष नहीं देख पाओगे। मैंने तुम्हें एक बार दर्शन देकर तुम्हारी लालसा बढ़ाई है, ताकि तुम जीवन भर मेरा स्मरण करते रहो और अगले जन्म में मेरी निष्कपट सेवा का फल प्राप्त करो।"
बालक नारद ने भगवान की वाणी सुनी और उसे हृदय में धारण कर लिया। इसके बाद उन्होंने आजीवन एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते हुए भगवन्नाम का गान किया और लोक-जड़ता से निर्लिप्त जीवन बिताया। अंततः ब्रह्माण्ड प्रलय (कल्पांत) के समय उन्होंने अपने स्थूल शरीर का परित्याग किया। अगले सृजन (नवकल्प) में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की गोद से नारद मुनि के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ – इस बा र दिव्य ऋषि के रूप में, जिन्हें कल्पों पूर्व श्रीहरि ने अपना पार्षद बनने का वरदान प्रदान किया था। इस प्रकार नारद मुनि का आविर्भाव एक महान भक्त के रूप में हुआ।
नारद मुनि के अवतार का परम उद्देश्य विश्व में भक्ति का प्रसार करना और धर्म की स्थापना में सहायता देना है। देवर्षि नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं और वे जहां भी जाते हैं, ईश्वर-भक्ति की ध्वजा लहराते हैं। वे अदृश्य रूप से अनेक घटनाओं को संचालित करते हैं जिससे भगवान की लीला प्रकट हो। श्रीमद्भागवत (स्कंध 1, अध्याय 3) में उन्हें भगवान का एक शक्तिसंपन्न अवतार बताया गया है जिसने भक्ति से संबंधित वेदान्त सूक्तियों का संग्रह किया एवं कर्मयोग को निष्काम भाव से करने की प्रेरणा दी। वास्तव में नारदजी द्वारा रचित 'नारद भक्ति सूत्र' भक्ति संबंधी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें उन्होंने प्रेमभाव से भगवान की उपासना को सर्वोच्च मार्ग बताया है। वे स्वयं प्रेमानंद में निमग्न रहकर उसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। नारदजी बिना किसी बंधन के सभी लोकों में भ्रमण कर सकते हैं – इस अलौकिक शक्ति का प्रयोग वे भक्ति का संदेश फैलाने हेतु करते हैं। उनका व्रत है "लोकेषु ब्रह्म-निर्देशु अपि पठन्, ब्रह्मगीतः प्रचारयन्" अर्थात लोक-कल्याण हेतु निरंतर भगवन्नाम का प्रचार करना। देवताओं में, मनुष्यों में और असुरों में – सभी के बीच उन्होंने कभी न कभी प्रवचन या उदाहरण द्वारा धर्म की ज्योति जगाई है। भगवान विष्णु की प्रेरणा से वे विभिन्न युगों में अलग-अलग पात्रों को मार्गदर्शन देते हैं ताकि धर्म की रक्षा हो सके।
नारद मुनि से जुड़े अनेक प्रसंग हैं, जहाँ उन्होंने किसी भक्त को सत्पथ दिखाया या भगवान की लीला में सहायक की भूमिका निभाई। कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ इस प्रकार हैं:
बाल ध्रुव को मार्गदर्शन: उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव जब बालक थे, तब सौतेली माता के तिरस्कार से आहत होकर वन में भगवान को खोजने निकल पड़े। मार्ग में नारद मुनि प्रकट हुए और बालक की दृढ़ तप-इच्छा देखकर उनको एक शक्तिशाली मंत्र ("ॐ नमो भगवते वासुदेवाय") प्रदान किया तथा ध्यान की विधि बताई। पाँच वर्ष के बालक ध्रुव ने नारद के उपदेश का पालन कर कठोर तप किया और भगवान विष्णु के दर्शन कर अनंत ध्रुवलोक (नक्षत्र) को प्राप्त किया। इस प्रकार नारद गुरु बनकर ध्रुव जैसे बालभक्त की परीक्षा भी लेते हैं और उसे सफल भी बनाते हैं।
प्रह्लाद की शिक्षा: नारदजी ने स्वयं कहा है कि हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु जब गर्भवती थीं, तब उन्हें देवताओं ने अपने आश्रय में रखा था। उस समय नारद मुनि ने कयाधु को कई माह तक भगवद्भक्ति और ज्ञान की कथाएँ सुनाईं। गर्भ में स्थित बालक प्रह्लाद ने वे बातें सुनकर गर्भावस्था में ही भक्ति का संस्कार पा लिया। बाद में जन्म लेकर प्रह्लाद महान भक्त बने और उनके पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने जब उन्हें मारने की चेष्टा की तो स्वयं भगवान नृसिंह ने अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। इस कथा में नारद का अप्रत्यक्ष योगदान एक शिशु को भक्त बनाने की प्रेरणा देना था।
महर्षि व्यास को भगवतकथा की प्रेरणा: महाभारत रचयिता महर्षि वेदव्यास ने वेदों का विभाजन और अनेक पुराणों का संकलन किया था, फिर भी उनके मन में कुछ अशांति थी। तभी देवर्षि नारद उनके आश्रम में आए। व्यासजी ने अपनी असंतुष्टि का कारण पूछा तो नारद ने समझाया कि "आपने अब तक धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि विषय तो लिखे, परंतु भगवान के निष्कपट प्रेम और लीलाओं का गान विस्तार से नहीं किया, इसी कारण आपके मन को शांति नहीं मिली है।" नारद मुनि ने महर्षि व्यास को श्रीकृष्ण की महिमा और भक्ति पर आधारित ग्रंथ रचने को कहा। इस प्रेरणा से श्रीव्यास ने भगवद्भक्तिरस से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की जिसे पाँचवें वेद के समान माना जाता है। इस प्रकार नारद ने संसार को भक्ति-साहित्य का अनुपम उपहार दिलवाने में अहम भूमिका निभाई।
भगवान के अवतारों का मार्ग प्रशस्त करना: नारद मुनि कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बनाते हैं जिससे अधर्म बढ़े और भगवान अवतार लेकर उसे मिटाएँ। यद्यपि प्रथम दृष्टि में उन्हें कभी-कभी "कलहप्रिय" कहा जाता है (जैसे वह विभिन्न राजाओं के दरबार में कोई सूचना दे आते हैं जिससे कुछ संघर्ष उत्पन्न हो), किन्तु वह संघर्ष अंततः धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक होता है। उदाहरणस्वरूप, श्रीकृष्णावतार से पूर्व नारद ही थे जिन्होंने कंस के पास जाकर बताया कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही उसका वध करेगा। इस सूचना से कंस ने देवकी-वसुदेव के शिशुओं को मारना शुरू किया और भगवान को अवतार लेने के लिए परिस्थिति तीव्र हुई। अंततः कृष्ण ने अवतरित होकर कंस का संहार किया और पृथ्वी का भार हरण किया। इसी तरह प्रभु राम के अवतार से पहले नारद ने ही देवताओं को सलाह दी थी कि रावण-वध हेतु विष्णु मानव रूप में अवतार लें। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ नारद घटनाओं के सूत्रधार बनकर भगवान की लीला को फलीभूत करते हैं। उनका उद्देश्य सदा धर्म की रक्षा और भक्तों का कल्याण होता है।
अन्य प्रसंग: नारदजी अनेक भक्तों के जीवन में निर्णायक क्षणों पर प्रकट होते हैं। उन्होंने राजा अम्बरीष और ऋषि दुर्वासा के प्रसंग में दुर्वासा को भगवान की शरण जाने की सीख दी (कुछ कथाओं में), हस्तिनापुर में पांडवों को दिव्य नारायण-कवच प्राप्त करने की विधि बताई, तथा तुलसीदास रचित रामचरितमानस में वे ही हैं जिन्होंने राम-सीता के विवाह से पूर्व परशुराम और लक्ष्मण के बीच संवाद को चतुराई से शांत कराया (ये विवरण विभिन्न स्रोतों में मिलते हैं)। नारद पुराण नामक अठारह महापुराणों में से एक पुराण भी उनके नाम पर है, जिसमें विभिन्न तीर्थों, व्रतों और उपासना का वर्णन है।
नारद मुनि का उल्लेख लगभग सभी प्रमुख हिन्दू ग्रंथों में आदरपूर्वक हुआ है। भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियाँ गिनाते हुए कहा – "देवर्षीणां च नारदः" (देवर्षियों में मैं नारद हूँ) – इससे स्पष्ट होता है कि नारदजी का स्थान देवों और ऋषियों में कितना ऊँचा है। श्रीमद्भागवत में उन्हें दिव्य अवतार मानकर प्रणाम किया गया है। भागवत के सप्तम स्कंध में यमराज द्वारा गिनाए गए बारह महाजनों (प्रामाणिक भक्तों) में नारद का नाम दूसरे स्थान पर है (प्रथम ब्रह्मा, द्वितीय नारद, तृतीय शिव आदि)। वेदों में नारद को वीणापाणि ऋषि के रूप में संबोधित किया गया है। नारद भक्ति सूत्र के माध्यम से भक्ति सिद्धांतों को सूत्ररूप में प्रस्तुत करने का श्रेय भी उन्हें है।
नारदजी की भक्ति-महारस में तन्मयता का वर्णन अनेक भजनों और कथाओं में मिलता है। माना जाता है कि वे आज भी लोकों में भ्रमण कर सच्चे भक्तों की सहायता करते हैं। कई भक्त कवियों ने उनकी वंदना की है: "नारद मुनि नारायण नारायण..." इत्यादि, जिसमें उन्हें नृत्य करते, वीणा बजाते और हरि-नाम गाते चित्रित किया गया है। भक्त प्रह्लाद, ध्रुव आदि उनके शिष्यों के उदाहरण से भक्तजन प्रेरणा लेते हैं कि गुरु-कृपा और सत्संगति से कैसी अद्भुत प्रगति की जा सकती है।
नारद मुनि निरंतर हरिनाम संकीर्तन एवं भक्ति में लीन रहने वाले आदर्श महात्मा हैं। उनकी चर्या से यह सीख मिलती है कि संसार में रहते हुए भी मन को भगवान में लगाकर हरि-कीर्तन करते रहना चाहिए। वे स्वयं कहते हैं: "नारदस्तु तदर्पित अखिलाचरता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता च" – अर्थात नारद के मत में सच्ची भक्ति वही है जिसमें सारे कर्म भगवान को अर्पित हों और क्षण मात्र के लिए भी भगवान का विस्मरण हो तो हृदय व्याकुल हो उठे। वे प्रेम को भक्ति का स्वरूप बताते हैं और ज्ञान, योग, कर्म से उसे श्रेष्ठ ठहराते हैं। नारदजी का जीवन इस सिद्धांत का जीवंत उदाहरण है – वे निष्काम भाव से अनवरत ईश्वर की आराधना करते चलते हैं।
भक्तों के हृदय में नारदजी के प्रति विशेष सम्मान होता है क्योंकि उन्होंने अनेकों भक्ति मार्ग के पथिकों का मार्गदर्शन किया है। भक्ति साहित्य में उन्हें 'भक्ति के आचार्य' कहा गया है, यानी भक्ति रूपी राज्य के मंत्री। उनका संकीर्तन जहां भी गूंजता है, वहाँ भगवान की उपस्थिति मानी जाती है। अतः नारद पुराण में कहा गया है कि जो भक्त नारदजी को स्मरण कर भजन करता है उसे भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है। स्वयं नारदजी भी कहते हैं – "जो भगवान के गुणगान में लीन रहता है, वह मुझे प्रिय है और मैं उसे अपना समझ पाता हूँ।"
नारद मुनि का चरित्र भक्तों को निःस्वार्थ, निरंतर और आनंदमय भक्ति करने की प्रेरणा देता है। उनकी वीणा से निःसृत नारायण-नाम की ध्वनि त्रैलोक्य को पवित्र करती है। वे हर युग में भक्ति की मशाल जलाए रखते हैं। इसीलिए भक्त समुदाय जय-जयकार करता है – "नारद मुनि की जय!" – और उनकी भक्ति-सेवा को आदरपूर्वक नमन करता है।
अंततः नारद मुनि का संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व यह सिद्ध करता है कि काल और स्थान चाहे जो हों, भगवद्भक्ति की ज्योति कभी मंद नहीं पड़ती। वे युगों-युगों तक भक्ति की मशाल जलाए रखते हैं और जड़-चेतन सभी को भगवान के प्रेममय आलिंगन की ओर प्रेरित करते हैं। भक्त उनके चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना करते हैं कि "हे देवर्षि, जैसे आप अनवरत नारायण-नाम में निमग्न हैं, वैसा ही प्रेम हमें भी प्राप्त हो।" नारदजी की कृपा से संसार में भक्ति का संगीत निरंतर गूंजता रहे – यही हर भक्त का अभिलाष है।