दत्तात्रेय अवतार का उद्देश्य मानवता को सहज योग, आत्मज्ञान और परम शांति का मार्ग दिखाना था। जहाँ कपिल मुनि ने ज्ञान और भक्ति का दर्शन दिया, वहीं भगवान दत्तात्रेय ने प्रत्यक्ष अपने जीवन द्वारा 'सर्वत्याग' (सब कुछ त्यागकर ईश्वर में लीन हो जाना) का आदर्श स्थापित किया। उन्हें त्रिमूर्ति का संयुक्त अवतार कहा जाता है, अर्थात वे सृष्टि, पालन और संहार – तीनों शक्तियों के प्रतीक थे, परंतु उन्होंने अपने को किसी एक संप्रदाय या विधि तक सीमित नहीं रखा। वे जिस युग में प्रकट हुए, उस समय कुछ स्थूल कर्मकांड और जड़ धार्मिक आडम्बरों का बोलबाला था। दत्तात्रेय जी ने इन बंधनों को तोड़ने के लिए अवधूत रूप धारण किया – वे नग्न या दिगम्बर रूप में घूमते थे, बाह्याचार की चिंता नहीं करते थे, और सीधे सत्य की अनुभूति पर जोर देते थे। उन्होंने बहुत लोगों को उपदेश नहीं दिए, बल्कि उनके जीवन से प्रेरणा लेकर शिष्यों ने ज्ञान प्राप्त किया। भागवत पुराण (स्कंध 1, अध्याय 3) में दत्तात्रेय को भगवान के छठे अवतार के रूप में उल्लेख किया गया है । वहाँ बताया गया है कि उन्होंने अलर्क, प्रह्लाद, यदु आदि महान व्यक्तियों को आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। वास्तव में एक कथा में आता है कि अयोध्या के प्राचीन राजा यदु ने वन में दत्तात्रेय अवधूत को देखा और उनसे उनके आनंद एवं स्वतंत्रता का रहस्य पूछा। तब दत्तात्रेय ने कहा कि उन्होंने प्रकृति के चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली है – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत (पक्षी), अजगर, समुद्र, पतंगा, मधुमक्खी, हाथी, मृग, मछली, पिंगला नामक गणिका, कुरर पक्षी, बालक, कुंवारी कन्या, सर्प, बाण बनाने वाला, मकड़ी और भ्रंगी कीड़ा। इन 24 गुरुओं से उन्होंने अलग-अलग गुण सीखे (उदाहरणस्वरूप उन्होंने बताया: 'पृथ्वी से मैंने सहनशीलता और उदारता सीखी; वायु से असंग रहकर सबमें विचरण करना; आकाश से आत्मा की सर्वव्यापी स्वतंत्रता; जल से निर्मलता और शीतलता; अग्नि से अपने में किसी को जलाए बिना प्रकाश देना; चंद्रमा से कलाओं का क्षय-वृद्धि सहते हुए भी शीतल प्रकाश देना; सूर्य से निष्काम कर्म से सबका पोषण करना; कपोत (पक्षी) से आसक्ति त्यागना; अजगर से जो मिलता है उसी में संतुष्ट रहना; समुद्र से गाम्भीर्य; पतंगे से विषय-प्रेम का विनाशकारी परिणाम; मधुमक्खी से श्रमपूर्वक थोड़ा-थोड़ा संचय करना और पुष्परस (ज्ञान) को समेटना; हाथी से कामभाव पर नियंत्रण; हिरण से इंद्रियों के मोहजाल से बचना; मछली से जाल (वासना) का त्याग; पिंगला वेश्या से निराशा में भी ईश्वर पर भरोसा रखना; कुरर पक्षी से आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना; बालक से निष्कपट सरलता; कुंवारी कन्या से अल्प साधनों में भी संतुष्ट रहना; सर्प से अकेले विहार करना; शरकार (बाण बनाने वाले) से एकाग्रता; मकड़ी से सृजन और अपने में ही संहार करना; और भृंगी कीड़े से ध्यान द्वारा रूपांतरण की शक्ति।') यह दत्तात्रेय द्वारा प्रतिपादित एक अत्यंत प्रसिद्ध शिक्षाप्रद प्रसंग है , जो बताता है कि एक ज्ञानी किसी से भी शिक्षा ग्रहण कर सकता है और सतत सीखते रहना चाहिए। राजा यदु ने इन उपदेशों को आत्मसात् किया और दत्तात्रेय को प्रणाम करके वापस लौट गए। इस तरह भगवान दत्तात्रेय ने बिना औपचारिक गुरु या ग्रन्थों का आश्रय लिए प्राकृतिक उदाहरणों के माध्यम से आत्मज्ञान का संदेश दिया।
दत्तात्रेय अवतार के साथ कई रोचक कथाएँ जुड़ी हैं। वे एक युग में नहीं, बल्कि युग-युगांतरों में प्रकट हुए ज्ञानी के रूप में माने जाते हैं। सतयुग में दत्तात्रेय ने अवधूत रूप में तपस्या की। त्रेतायुग में भगवान परशुराम को गुरु रूप में शिक्षा देने वाले दत्तात्रेय ही थे (मार्कण्डेय पुराण आदि में वर्णन है कि परशुराम ने शिवजी से दीक्षा पाने के बाद ज्ञानतृष्णा में दत्तात्रेय की शरण ली और तंत्र-ज्ञान तथा आत्मविद्या की दीक्षा ग्रहण की)। एक अन्य कथा में भगवान दत्तात्रेय के भक्त सहस्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) का प्रसंग आता है। कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय की उपासना कर उनसे वरदान प्राप्त किया जिसके फलस्वरूप उसे सहस्र भुजाएँ, अजेय शक्ति और संपन्न राज्य मिला। बाद में जब वह अधर्म के मार्ग पर चला तो भगवान परशुराम ने उसका संहार किया, किंतु प्रारंभ में उसकी शक्ति का आधार दत्तात्रेय का आशीष ही था। इससे स्पष्ट होता है कि दत्तात्रेय प्रसन्न होकर किसी को भी दिव्य सिद्धियाँ दे सकते थे, पर उनके सदुपयोग करना उस भक्त पर निर्भर था। दत्तात्रेय मुनि के संबंध में एक और प्रसिद्ध घटना प्रजापति दक्ष के यज्ञ में उनका उपस्थित होना है। कथाओं में आता है कि दक्ष द्वारा भगवान शिव का अपमान किए जाने पर जब महादेव वीरभद्र रूप में दक्ष-यज्ञ को विध्वंस करने पहुँचे, तब दत्तात्रेय ने अपने योगबल से सभी क्रोधित देवों को शांत कराया और तत्पश्चात भगवान शिव व प्रजापति दक्ष में सुलह कराई। हालांकि यह कथा विभिन्न पुराणों में भिन्न रूपों में मिलती है, पर दत्तात्रेयजी को सार्वभौमिक स्नेह रखने वाले और समन्वय स्थापित करने वाले महात्मा के रूप में दिखाती है। दत्तात्रेयजी के किसी एक आश्रम या तीर्थ पर स्थायी रूप से रहने का उल्लेख नहीं मिलता। वे सर्वत्र विचरण करते रहे। मान्यता है कि वे आज भी युग-युगांतर तक सूक्ष्म रूप में पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और ज्ञान की ज्योति जलाए रखते हैं। नाथ संप्रदाय समेत कई योग परंपराएँ दत्तात्रेय को आदिगुरु मानती हैं।
श्रीमद्भागवत में दत्तात्रेय का संक्षिप्त परिचय देने के बाद उनके उपदेशों का संकेत भर है (विशेषकर राजा यदु को चौबीस गुरुओं की शिक्षा) । परन्तु अन्य ग्रंथों ने दत्तात्रेय के व्यक्तित्व को विस्तार से बताया है।
'दत्तात्रेय उपनिषद' में उन्हें ब्रह्मविद्या के अधिष्ठाता रूप में वंदना की गई है। महर्षि वेदव्यास रचित 'दत्तात्रेय पुराण' (या दत्त संहिता) नामक ग्रंथ भी बताया जाता है जिसमें उनकी लीलाओं का वर्णन है। गुरुगीता आदि ग्रंथों में भी दत्तात्रेय के नाम का आदरपूर्वक उल्लेख मिलता है।
दत्तात्रेय की पूजा एक निरंकार अवधूत के रूप में की जाती है। महाराष्ट्र में श्री दत्तात्रेय जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा को धूमधाम से मनाई जाती है। उस दिन भक्त उपवास रखकर दत्तात्रेय भगवान के मंदिरों में तीन मुख वाली मूर्ति या चित्र की पूजा करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि कलियुग में भी जो सत्य की खोज में निकलते हैं, उन्हें सूक्ष्म रूप से दत्तात्रेय का मार्गदर्शन मिलता है। कई संतों (जैसे श्रीनरसिंह सरस्वती, स्वामी समर्थ) को दत्तात्रेय का अंशावतार माना गया है जिन्होंने मध्यकाल में भक्तों का मार्गदर्शन किया। भारत में पवित्र गिरनार पर्वत (गुजरात) और माहूर (महाराष्ट्र) को दत्तात्रेय का सिद्धपीठ कहा जाता है, जहाँ उनकी चरण पादुकाएँ स्थापित हैं।
भगवान दत्तात्रेय का अवतार हमें सिखाता है कि ईश्वर सर्वत्र हैं और सच्चा साधक हर स्थिति, हर जीव और हर घटना से कुछ न कुछ शिक्षा लेकर परमात्मा को पहचान सकता है। दत्तात्रेयजी ने अपने चौबीस गुरु प्रसंग से यही दिखाया कि प्रकृति के कण-कण में अध्यात्म की पाठशाला छिपी है। भक्तजन दत्तात्रेय को गुरु रूप में मानकर उनकी शरण जाते हैं ताकि उन्हें भी आत्मज्ञान प्राप्त हो। उनकी प्रार्थना की जाती है: "दिगम्बरं त्रिनयनं जय दत्तात्रेयमूर्तये" – हे दिगम्बर, त्रिनयन दत्तात्रेय मूर्ति, आपको जय हो। ऐसी मान्यता है कि जो सच्चे हृदय से दत्तात्रेय का स्मरण करता है, उसे सही गुरु, सही मार्ग और अंततः ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है। दत्तात्रेय अवतार भक्ति, योग और ज्ञान का अभिनव संगम है। वे योगियों के आराध्य, तांत्रिकों के सिद्धगुरु और भक्तों के परम देव हैं। उनके चरणों में प्रणाम कर भक्तगण प्रार्थना करते हैं कि "हे दत्तात्रेय प्रभो, हमें भी संसार के आकर्षण से ऊपर उठकर आपके जैसी मुक्त अवस्था का अनुभव करने का आशीर्वाद दीजिए।" दत्तात्रेय भगवान की जय!
माना जाता है कि कलियुग में भी भगवान दत्तात्रेय अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए संतों के रूप में अवतरित हुए। आंध्र प्रदेश में पिठापुरम के श्रीपाद श्रीवल्लभ (14वीं शताब्दी) और महाराष्ट्र में श्रीनृसिंह सरस्वती (15वीं शताब्दी) को दत्तात्रेय के पूर्ण अवतार माना गया, जिन्होंने दत्त संप्रदाय की नींव मज़बूत की। इसके पश्चात अनगिनत संत (जैसे अक्कलकोट के स्वामी समर्थ, मणिक प्रभु, वासुदानंद सरस्वती आदि) इस परंपरा में प्रकट हुए और समाज को आध्यात्मिक प्रकाश दिया। इन संतों की लीलाओं में कई बार स्वयं दत्तात्रेय के दर्शन की कथाएँ आती हैं, जिससे भक्तों का विश्वास दृढ़ होता है कि गुरु दत्तात्रेय आज भी सशरीर या सूक्ष्म रूप से कल्याण कर रहे हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, गुजरात, कर्नाटक में आज 'दत्त जयंती' बड़े उत्साह से मनाई जाती है। भक्त तीन दिन का उपवास रखकर दत्तमहात्म्य ग्रंथ का पाठ करते हैं और रात को जागरण कर दत्तनाम का कीर्तन करते हैं। उनका एक लोकप्रिय मंत्र है: "श्री गुरुदत्तात्रेयाय नमः", जिसे जपने से गुरु-कृपा शीघ्र प्राप्त होती है, ऐसा माना जाता है। इस तरह दत्तात्रेय अवतार युगों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर सनातन धर्म में गुरु-भक्ति और ज्ञान का अजस्र स्रोत बना हुआ है।
दत्तात्रेय अवतार का उद्देश्य मानवता को सहज योग, आत्मज्ञान और परम शांति का मार्ग दिखाना था। जहाँ कपिल मुनि ने ज्ञान और भक्ति का दर्शन दिया, वहीं भगवान दत्तात्रेय ने प्रत्यक्ष अपने जीवन द्वारा 'सर्वत्याग' (सब कुछ त्यागकर ईश्वर में लीन हो जाना) का आदर्श स्थापित किया। उन्हें त्रिमूर्ति का संयुक्त अवतार कहा जाता है, अर्थात वे सृष्टि, पालन और संहार – तीनों शक्तियों के प्रतीक थे, परंतु उन्होंने अपने को किसी एक संप्रदाय या विधि तक सीमित नहीं रखा। वे जिस युग में प्रकट हुए, उस समय कुछ स्थूल कर्मकांड और जड़ धार्मिक आडम्बरों का बोलबाला था। दत्तात्रेय जी ने इन बंधनों को तोड़ने के लिए अवधूत रूप धारण किया – वे नग्न या दिगम्बर रूप में घूमते थे, बाह्याचार की चिंता नहीं करते थे, और सीधे सत्य की अनुभूति पर जोर देते थे। उन्होंने बहुत लोगों को उपदेश नहीं दिए, बल्कि उनके जीवन से प्रेरणा लेकर शिष्यों ने ज्ञान प्राप्त किया। भागवत पुराण (स्कंध 1, अध्याय 3) में दत्तात्रेय को भगवान के छठे अवतार के रूप में उल्लेख किया गया है । वहाँ बताया गया है कि उन्होंने अलर्क, प्रह्लाद, यदु आदि महान व्यक्तियों को आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। वास्तव में एक कथा में आता है कि अयोध्या के प्राचीन राजा यदु ने वन में दत्तात्रेय अवधूत को देखा और उनसे उनके आनंद एवं स्वतंत्रता का रहस्य पूछा। तब दत्तात्रेय ने कहा कि उन्होंने प्रकृति के चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली है – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत (पक्षी), अजगर, समुद्र, पतंगा, मधुमक्खी, हाथी, मृग, मछली, पिंगला नामक गणिका, कुरर पक्षी, बालक, कुंवारी कन्या, सर्प, बाण बनाने वाला, मकड़ी और भ्रंगी कीड़ा। इन 24 गुरुओं से उन्होंने अलग-अलग गुण सीखे (उदाहरणस्वरूप उन्होंने बताया: 'पृथ्वी से मैंने सहनशीलता और उदारता सीखी; वायु से असंग रहकर सबमें विचरण करना; आकाश से आत्मा की सर्वव्यापी स्वतंत्रता; जल से निर्मलता और शीतलता; अग्नि से अपने में किसी को जलाए बिना प्रकाश देना; चंद्रमा से कलाओं का क्षय-वृद्धि सहते हुए भी शीतल प्रकाश देना; सूर्य से निष्काम कर्म से सबका पोषण करना; कपोत (पक्षी) से आसक्ति त्यागना; अजगर से जो मिलता है उसी में संतुष्ट रहना; समुद्र से गाम्भीर्य; पतंगे से विषय-प्रेम का विनाशकारी परिणाम; मधुमक्खी से श्रमपूर्वक थोड़ा-थोड़ा संचय करना और पुष्परस (ज्ञान) को समेटना; हाथी से कामभाव पर नियंत्रण; हिरण से इंद्रियों के मोहजाल से बचना; मछली से जाल (वासना) का त्याग; पिंगला वेश्या से निराशा में भी ईश्वर पर भरोसा रखना; कुरर पक्षी से आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना; बालक से निष्कपट सरलता; कुंवारी कन्या से अल्प साधनों में भी संतुष्ट रहना; सर्प से अकेले विहार करना; शरकार (बाण बनाने वाले) से एकाग्रता; मकड़ी से सृजन और अपने में ही संहार करना; और भृंगी कीड़े से ध्यान द्वारा रूपांतरण की शक्ति।') यह दत्तात्रेय द्वारा प्रतिपादित एक अत्यंत प्रसिद्ध शिक्षाप्रद प्रसंग है , जो बताता है कि एक ज्ञानी किसी से भी शिक्षा ग्रहण कर सकता है और सतत सीखते रहना चाहिए। राजा यदु ने इन उपदेशों को आत्मसात् किया और दत्तात्रेय को प्रणाम करके वापस लौट गए। इस तरह भगवान दत्तात्रेय ने बिना औपचारिक गुरु या ग्रन्थों का आश्रय लिए प्राकृतिक उदाहरणों के माध्यम से आत्मज्ञान का संदेश दिया।
दत्तात्रेय अवतार के साथ कई रोचक कथाएँ जुड़ी हैं। वे एक युग में नहीं, बल्कि युग-युगांतरों में प्रकट हुए ज्ञानी के रूप में माने जाते हैं। सतयुग में दत्तात्रेय ने अवधूत रूप में तपस्या की। त्रेतायुग में भगवान परशुराम को गुरु रूप में शिक्षा देने वाले दत्तात्रेय ही थे (मार्कण्डेय पुराण आदि में वर्णन है कि परशुराम ने शिवजी से दीक्षा पाने के बाद ज्ञानतृष्णा में दत्तात्रेय की शरण ली और तंत्र-ज्ञान तथा आत्मविद्या की दीक्षा ग्रहण की)। एक अन्य कथा में भगवान दत्तात्रेय के भक्त सहस्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) का प्रसंग आता है। कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय की उपासना कर उनसे वरदान प्राप्त किया जिसके फलस्वरूप उसे सहस्र भुजाएँ, अजेय शक्ति और संपन्न राज्य मिला। बाद में जब वह अधर्म के मार्ग पर चला तो भगवान परशुराम ने उसका संहार किया, किंतु प्रारंभ में उसकी शक्ति का आधार दत्तात्रेय का आशीष ही था। इससे स्पष्ट होता है कि दत्तात्रेय प्रसन्न होकर किसी को भी दिव्य सिद्धियाँ दे सकते थे, पर उनके सदुपयोग करना उस भक्त पर निर्भर था। दत्तात्रेय मुनि के संबंध में एक और प्रसिद्ध घटना प्रजापति दक्ष के यज्ञ में उनका उपस्थित होना है। कथाओं में आता है कि दक्ष द्वारा भगवान शिव का अपमान किए जाने पर जब महादेव वीरभद्र रूप में दक्ष-यज्ञ को विध्वंस करने पहुँचे, तब दत्तात्रेय ने अपने योगबल से सभी क्रोधित देवों को शांत कराया और तत्पश्चात भगवान शिव व प्रजापति दक्ष में सुलह कराई। हालांकि यह कथा विभिन्न पुराणों में भिन्न रूपों में मिलती है, पर दत्तात्रेयजी को सार्वभौमिक स्नेह रखने वाले और समन्वय स्थापित करने वाले महात्मा के रूप में दिखाती है। दत्तात्रेयजी के किसी एक आश्रम या तीर्थ पर स्थायी रूप से रहने का उल्लेख नहीं मिलता। वे सर्वत्र विचरण करते रहे। मान्यता है कि वे आज भी युग-युगांतर तक सूक्ष्म रूप में पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और ज्ञान की ज्योति जलाए रखते हैं। नाथ संप्रदाय समेत कई योग परंपराएँ दत्तात्रेय को आदिगुरु मानती हैं।
श्रीमद्भागवत में दत्तात्रेय का संक्षिप्त परिचय देने के बाद उनके उपदेशों का संकेत भर है (विशेषकर राजा यदु को चौबीस गुरुओं की शिक्षा) । परन्तु अन्य ग्रंथों ने दत्तात्रेय के व्यक्तित्व को विस्तार से बताया है।
'दत्तात्रेय उपनिषद' में उन्हें ब्रह्मविद्या के अधिष्ठाता रूप में वंदना की गई है। महर्षि वेदव्यास रचित 'दत्तात्रेय पुराण' (या दत्त संहिता) नामक ग्रंथ भी बताया जाता है जिसमें उनकी लीलाओं का वर्णन है। गुरुगीता आदि ग्रंथों में भी दत्तात्रेय के नाम का आदरपूर्वक उल्लेख मिलता है।
दत्तात्रेय की पूजा एक निरंकार अवधूत के रूप में की जाती है। महाराष्ट्र में श्री दत्तात्रेय जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा को धूमधाम से मनाई जाती है। उस दिन भक्त उपवास रखकर दत्तात्रेय भगवान के मंदिरों में तीन मुख वाली मूर्ति या चित्र की पूजा करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि कलियुग में भी जो सत्य की खोज में निकलते हैं, उन्हें सूक्ष्म रूप से दत्तात्रेय का मार्गदर्शन मिलता है। कई संतों (जैसे श्रीनरसिंह सरस्वती, स्वामी समर्थ) को दत्तात्रेय का अंशावतार माना गया है जिन्होंने मध्यकाल में भक्तों का मार्गदर्शन किया। भारत में पवित्र गिरनार पर्वत (गुजरात) और माहूर (महाराष्ट्र) को दत्तात्रेय का सिद्धपीठ कहा जाता है, जहाँ उनकी चरण पादुकाएँ स्थापित हैं।
भगवान दत्तात्रेय का अवतार हमें सिखाता है कि ईश्वर सर्वत्र हैं और सच्चा साधक हर स्थिति, हर जीव और हर घटना से कुछ न कुछ शिक्षा लेकर परमात्मा को पहचान सकता है। दत्तात्रेयजी ने अपने चौबीस गुरु प्रसंग से यही दिखाया कि प्रकृति के कण-कण में अध्यात्म की पाठशाला छिपी है। भक्तजन दत्तात्रेय को गुरु रूप में मानकर उनकी शरण जाते हैं ताकि उन्हें भी आत्मज्ञान प्राप्त हो। उनकी प्रार्थना की जाती है: "दिगम्बरं त्रिनयनं जय दत्तात्रेयमूर्तये" – हे दिगम्बर, त्रिनयन दत्तात्रेय मूर्ति, आपको जय हो। ऐसी मान्यता है कि जो सच्चे हृदय से दत्तात्रेय का स्मरण करता है, उसे सही गुरु, सही मार्ग और अंततः ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है। दत्तात्रेय अवतार भक्ति, योग और ज्ञान का अभिनव संगम है। वे योगियों के आराध्य, तांत्रिकों के सिद्धगुरु और भक्तों के परम देव हैं। उनके चरणों में प्रणाम कर भक्तगण प्रार्थना करते हैं कि "हे दत्तात्रेय प्रभो, हमें भी संसार के आकर्षण से ऊपर उठकर आपके जैसी मुक्त अवस्था का अनुभव करने का आशीर्वाद दीजिए।" दत्तात्रेय भगवान की जय!
माना जाता है कि कलियुग में भी भगवान दत्तात्रेय अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए संतों के रूप में अवतरित हुए। आंध्र प्रदेश में पिठापुरम के श्रीपाद श्रीवल्लभ (14वीं शताब्दी) और महाराष्ट्र में श्रीनृसिंह सरस्वती (15वीं शताब्दी) को दत्तात्रेय के पूर्ण अवतार माना गया, जिन्होंने दत्त संप्रदाय की नींव मज़बूत की। इसके पश्चात अनगिनत संत (जैसे अक्कलकोट के स्वामी समर्थ, मणिक प्रभु, वासुदानंद सरस्वती आदि) इस परंपरा में प्रकट हुए और समाज को आध्यात्मिक प्रकाश दिया। इन संतों की लीलाओं में कई बार स्वयं दत्तात्रेय के दर्शन की कथाएँ आती हैं, जिससे भक्तों का विश्वास दृढ़ होता है कि गुरु दत्तात्रेय आज भी सशरीर या सूक्ष्म रूप से कल्याण कर रहे हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, गुजरात, कर्नाटक में आज 'दत्त जयंती' बड़े उत्साह से मनाई जाती है। भक्त तीन दिन का उपवास रखकर दत्तमहात्म्य ग्रंथ का पाठ करते हैं और रात को जागरण कर दत्तनाम का कीर्तन करते हैं। उनका एक लोकप्रिय मंत्र है: "श्री गुरुदत्तात्रेयाय नमः", जिसे जपने से गुरु-कृपा शीघ्र प्राप्त होती है, ऐसा माना जाता है। इस तरह दत्तात्रेय अवतार युगों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर सनातन धर्म में गुरु-भक्ति और ज्ञान का अजस्र स्रोत बना हुआ है।