श्रीमद्भागवत महापुराण हिन्दू धर्म के मुकुटमणि सदृश ग्रंथों में से एक है, जिसे भक्ति का सार और निगम-कल्पतरु का पका हुआ फल माना जाता है। इसका प्रत्येक स्कन्ध, प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक श्लोक अमृत तुल्य है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे जीवों को शाश्वत आनंद का मार्ग दिखाता है। इसी महापुराण का षष्ठ स्कन्ध विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसे 'पोषण स्कन्ध' की संज्ञा भी दी गई है । यह स्कन्ध दर्शाता है कि कैसे करुणासिंधु भगवान अपनी अहैतुकी कृपा से पतित से पतित जीवों का भी पोषण और उद्धार करते हैं।
इसी पोषण स्कन्ध के आरंभ में एक ऐसी कथा आती है जो हज़ारों वर्षों से भक्तों के हृदयों को आशा, विश्वास और भक्ति से सींचती आ रही है – यह है अजामिल के उद्धार की कथा। यह केवल एक कहानी नहीं, बल्कि भगवन्नाम की अचिन्त्य महिमा, कर्म और कृपा के गूढ़ रहस्य, सत्संग की परिवर्तनकारी शक्ति और भक्ति मार्ग की सर्वोच्चता का एक ज्वलंत दृष्टांत है । यह कथा घोर कलियुग में, जहाँ पाप और अधर्म का बोलबाला है, एक प्रकाश स्तंभ की तरह है, जो हमें विश्वास दिलाती है कि भगवन्नाम के आश्रय से अत्यंत पतित व्यक्ति का भी उद्धार संभव है ।
आइए, हम सब मिलकर इस अद्भुत कथा की गहराइयों में उतरें और समझें कि कैसे कान्यकुब्ज का एक सदाचारी ब्राह्मण पाप के गर्त में गिरा, कैसे मृत्यु के क्षणों में यमदूतों और विष्णुदूतों के बीच अभूतपूर्व संवाद हुआ, कैसे अनजाने में लिए गए भगवन्नाम (नामाभास) ने अपना प्रभाव दिखाया और कैसे पश्चाताप की अग्नि में तपकर अजामिल ने अंततः परम पद प्राप्त किया। यह कथा केवल अजामिल की नहीं, यह हम सबकी है – हमारे संघर्षों की, हमारी कमजोरियों की, और मुक्ति की हमारी गहरी आकांक्षा की प्रतिध्वनि है।
प्राचीन भारत की पुण्यभूमि पर स्थित कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज) नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसका जन्म एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में हुआ था और अपने माता-पिता द्वारा उसे वेदों का ज्ञाता, सदाचारी, विनम्र और अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित होने की शिक्षा मिली थी । वह शास्त्रों का ज्ञाता था, इंद्रियों पर संयम रखता था और अपने परिवार – माता-पिता, पत्नी और बच्चों – का भली-भांति पालन करता था । उसका जीवन धर्म और सदाचार की एक शांत धारा की तरह बह रहा था।
किन्तु, विधि का विधान कहें या पूर्व जन्मों के संस्कारों का प्रभाव, एक दिन उसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जिसने सब कुछ बदल दिया। वह यज्ञ के लिए आवश्यक समिधा, पुष्प और कुश लेने वन गया था। लौटते समय उसकी दृष्टि एक मदिरा पिए हुए व्यक्ति और एक वेश्या पर पड़ी, जो निर्लज्जतापूर्वक कामुक क्रीड़ा में लिप्त थे । उस दृश्य ने अजामिल के मन पर गहरा आघात किया। यद्यपि उसने स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास किया, पर वह उस वेश्या के प्रति आकर्षित हो गया ।
इसके बाद अजामिल का जीवन पूरी तरह बदल गया। उसने अपनी कुलीन, पतिव्रता पत्नी का त्याग कर दिया और उसी वेश्या को अपने घर ले आया । अब उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य उस वेश्या और उससे उत्पन्न होने वाले परिवार का भरण-पोषण बन गया। इसके लिए उसने न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म सब भुला दिया। वह लोगों को बंदी बनाने, जुए में छल करने, चोरी करने और लूटपाट करने जैसे घृणित कार्यों से धन कमाने लगा । उसका ब्राह्मणोचित तेज नष्ट हो गया, उसने अपने समस्त वैदिक कर्तव्यों और संस्कारों को तिलांजलि दे दी । इस प्रकार पाप और कदाचार के मार्ग पर चलते हुए उसके जीवन के अट्ठासी (88) वर्ष बीत गए ।
इस पापमय जीवन के दौरान उस वेश्या से अजामिल के दस पुत्र हुए। अपने सबसे छोटे पुत्र, जिसका नाम 'नारायण' था, से उसे अत्यधिक मोह था । यह एक विचित्र विडंबना थी। जहाँ एक ओर यह मोह उसके सांसारिक बंधन और पतन का प्रतीक था, वहीं दूसरी ओर, अनजाने में ही यह उसके उद्धार का हेतु भी बन रहा था। वह हर समय, खाते-पीते, उठते-बैठते, अपने पुत्र नारायण को ही पुकारता रहता, उसी के बाल-सुलभ खेलों में रमा रहता । उसे इस बात का किंचित भी आभास नहीं था कि मृत्यु उसके द्वार पर दस्तक दे रही है और उसके मुख से बार-बार निकलने वाला 'नारायण' नाम, जो पुत्र मोह वश लिया जा रहा था, वास्तव में भगवान का पवित्र नाम था, जो चुपचाप अपना दिव्य कार्य कर रहा था। यह दर्शाता है कि भगवान की कृपा कितने रहस्यमय ढंग से कार्य करती है; कैसे घोर पतन के बीच भी, एक सांसारिक मोह के माध्यम से भगवन्नाम का उच्चारण उसके उद्धार का मार्ग प्रशस्त कर रहा था।
अट्ठासी वर्ष का पापपूर्ण जीवन जीने के बाद, अंततः अजामिल के जीवन का अंतिम क्षण आ पहुँचा। जब वह मृत्यु शय्या पर पड़ा अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था, तभी उसने देखा कि उसे ले जाने के लिए तीन अत्यंत भयानक यमदूत प्रकट हुए हैं । उनके मुख विकराल थे, शरीर के रोंगटे खड़े हुए थे, नेत्र क्रोध से लाल थे और हाथों में भयानक पाश (फंदा) थे ।
उन विकराल यमदूतों को अपनी ओर आते देख अजामिल का हृदय भय से काँप उठा। वह अत्यंत व्याकुल हो गया । मृत्यु का ऐसा भयावह स्वरूप देखकर, जीवन भर के पापों का बोझ और आने वाले दंड की कल्पना मात्र से वह थरथराने लगा। उस चरम भय और पीड़ा के क्षण में, उसे अपने सबसे प्रिय, सबसे छोटे पुत्र 'नारायण' का स्मरण हो आया, जो पास ही खेल रहा था। अपने पुत्र के मोह और मृत्यु के भय से अभिभूत होकर, उसने पूरी शक्ति से चीत्कार किया – "नारायण! अरे नारायण! मेरी रक्षा करो!" ।
यह पुकार यद्यपि अपने पुत्र के लिए थी, भगवान के स्मरण या भक्ति भाव से प्रेरित नहीं थी, तथापि मुख से निकला नाम तो स्वयं भगवान श्रीहरि का ही था – 'नारायण'। और यही वह क्षण था जब नियति ने एक अद्भुत मोड़ लिया।
जैसे ही मृत्यु के भय से त्रस्त अजामिल के कंठ से करुण स्वर में 'नारायण' नाम की ध्वनि निकली, उसी क्षण एक चमत्कार हुआ। नाम की ध्वनि सुनते ही, वैकुण्ठ लोक से भगवान विष्णु के चार दिव्य पार्षद तीव्र गति से वहाँ प्रकट हो गए ।
वे पार्षद अलौकिक तेज से युक्त थे। उनके स्वरूप का वर्णन अत्यंत मनोहारी है – सुंदर दिव्य शरीर, चार भुजाएँ, पीताम्बर धारण किये हुए, हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित थे, सिर पर रत्नजड़ित किरीट और गले में वनमाला थी । उनका आगमन उस अंधकारमय, भयावह वातावरण में प्रकाश की किरण की तरह था।
उन्होंने देखा कि यमदूत अजामिल के सूक्ष्म शरीर को बलपूर्वक खींचकर अपने पाश में बांध रहे हैं। विष्णुदूतों ने तत्काल आगे बढ़कर यमदूतों को ऐसा करने से दृढ़तापूर्वक रोक दिया । उन्होंने यमदूतों के पाश को काट दिया और अजामिल की रक्षा के लिए खड़े हो गए।
अपने कार्य में इस प्रकार का अप्रत्याशित हस्तक्षेप देखकर यमदूत अत्यंत आश्चर्यचकित और क्रुद्ध हुए। उन्होंने विष्णुदूतों से पूछा, "तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? और धर्मराज यम के न्यायपूर्ण शासन में बाधा क्यों डाल रहे हो? यह अजामिल घोर पापी है, इसने जीवन भर अधर्म किया है, इसे इसके कर्मों का दंड भोगने के लिए यमपुरी ले जाना हमारा कर्तव्य है। तुम इस पापी का पक्ष लेकर धर्म के कार्य में विघ्न क्यों डाल रहे हो?" ।
इस पर विष्णुदूतों और यमदूतों के बीच धर्म, कर्म, पाप, पुण्य, दंड, कृपा और भगवन्नाम की महिमा को लेकर एक गहन और महत्वपूर्ण संवाद आरंभ हुआ।
यमदूतों ने कर्म के अकाट्य सिद्धांत का पक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा:
विष्णुदूतों ने कर्म के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी, भगवन्नाम की असीम शक्ति और भगवान की शरणागत वत्सलता का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा:
संवाद का परिणाम: विष्णुदूतों के इन अकाट्य तर्कों, भगवन्नाम की महिमा के वर्णन और उनके दिव्य तेज के समक्ष यमदूत निस्तेज और निरुत्तर हो गए । वे समझ गए कि भगवन्नाम के सामने उनका अधिकार नहीं चल सकता।
विष्णुदूतों द्वारा परास्त और निरुत्तर होने के बाद, यमदूत लज्जित होकर अजामिल को वहीं छोड़कर यमपुरी लौट गए । अजामिल यमदूतों के भयानक पाश से मुक्त हो गया । वह अभी जीवित था, मृत्यु के मुख से वापस लौट आया था।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान, अजामिल ने यमदूतों और विष्णुदूतों के बीच हुए उस गहन संवाद को सुना था – धर्म, कर्म, दंड, नरक के भय, भगवत्कृपा और नाम की असीम महिमा के बारे में । यद्यपि वह स्वयं उस संवाद में भागीदार नहीं था, तथापि उन दिव्य वाणियों का श्रवण उसके लिए किसी शक्तिशाली औषधि से कम नहीं था।
उस संवाद को सुनकर और अपनी चमत्कारी मुक्ति का अनुभव करके अजामिल के हृदय में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। उसे अपने पूरे जीवन के पाप कर्म एक-एक करके याद आने लगे। उसे तीव्र पश्चाताप हुआ कि कैसे उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी इंद्रियों के वशीभूत होकर इतना निकृष्ट जीवन जिया । उसे ज्ञान हुआ कि वह कितना अधम और पतित था, और केवल भगवान 'नारायण' के नाम ने ही, जिसे उसने अनजाने में लिया था, उसे इस भयानक संकट से बचाया था ।
हृदय परिवर्तन और तीव्र वैराग्य के साथ, अजामिल ने एक दृढ़ संकल्प लिया। उसने निश्चय किया कि अब वह अपने शेष जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देगा। वह अपने मन, वाणी और समस्त इंद्रियों को वश में करके केवल भगवान की भक्ति में ही लगाएगा, जिन्होंने अकारण कृपा करके उसे मृत्यु और नरक से बचाया था ।
इसी संकल्प के साथ, अजामिल ने अपने घर, परिवार, संपत्ति – उस समस्त मोह-बंधन को, जिसके कारण उसका पतन हुआ था – तत्काल त्याग दिया। वह पवित्र पावनी गंगा के तट पर स्थित मुक्तिदायिनी नगरी हरिद्वार चला गया ।
हरिद्वार पहुँचकर उसने एक विष्णु मंदिर में आश्रय लिया। वहाँ उसने पूर्णतः भक्तिमय जीवन अपनाया। उसने अपनी इंद्रियों को सांसारिक विषयों से खींचकर, अपने मन को भगवान के मंगलमय स्वरूप में एकाग्र कर दिया । उसने भक्ति योग का अनुष्ठान आरंभ किया – निरंतर भगवान का ध्यान, उनके पवित्र नामों का कीर्तन और श्रवण ।
पश्चाताप की अग्नि में तपकर और भक्ति के शीतल जल में स्नान करके अजामिल का हृदय निर्मल होता गया। उसकी बुद्धि, जो पहले त्रिगुणमयी माया (सत्त्व, रज, तम) के प्रभाव में थी, अब उससे ऊपर उठकर भगवान के शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित हो गई । वह पूर्ण रूप से शुद्ध और भक्ति में परिपक्व हो गया।
जब अजामिल भक्ति की साधना में पूर्णता प्राप्त कर चुका, तब एक दिन वही चारों दिव्य विष्णुदूत, जिन्होंने पहले उसे यमदूतों से बचाया था, पुनः उसके समक्ष प्रकट हुए । इस बार वे उसे डराने या बचाने नहीं, बल्कि सम्मानपूर्वक वैकुण्ठ ले जाने आए थे।
उन भगवत्पार्षदों का पुनः दर्शन पाकर अजामिल का हृदय आनंद से भर गया। उसने उन्हें प्रणाम किया। फिर उसने योग द्वारा गंगा के पवित्र तट पर अपने उस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया, जो कभी पाप का आधार था ।
शरीर छोड़ते ही, तत्काल उसे भगवान के पार्षदों जैसा ही दिव्य, चिन्मय, आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो गया । अब वह साधारण अजामिल नहीं रहा, वह भगवान का पार्षद बन चुका था। वह उन विष्णुदूतों के साथ एक स्वर्णमय, तेजोमय विमान पर आरूढ़ हुआ और देखते ही देखते आकाश मार्ग से भगवान श्रीहरि नारायण के नित्य, आनंदमय, परमधाम वैकुण्ठ लोक को चला गया । इस बार यमदूत उसके पास फटकने का भी साहस नहीं कर सके । इस प्रकार, एक घोर पापी का भी भगवन्नाम और भक्ति के प्रभाव से अंतिम उद्धार हो गया।
श्रीमद्भागवत महापुराण हिन्दू धर्म के मुकुटमणि सदृश ग्रंथों में से एक है, जिसे भक्ति का सार और निगम-कल्पतरु का पका हुआ फल माना जाता है। इसका प्रत्येक स्कन्ध, प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक श्लोक अमृत तुल्य है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे जीवों को शाश्वत आनंद का मार्ग दिखाता है। इसी महापुराण का षष्ठ स्कन्ध विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसे 'पोषण स्कन्ध' की संज्ञा भी दी गई है । यह स्कन्ध दर्शाता है कि कैसे करुणासिंधु भगवान अपनी अहैतुकी कृपा से पतित से पतित जीवों का भी पोषण और उद्धार करते हैं।
इसी पोषण स्कन्ध के आरंभ में एक ऐसी कथा आती है जो हज़ारों वर्षों से भक्तों के हृदयों को आशा, विश्वास और भक्ति से सींचती आ रही है – यह है अजामिल के उद्धार की कथा। यह केवल एक कहानी नहीं, बल्कि भगवन्नाम की अचिन्त्य महिमा, कर्म और कृपा के गूढ़ रहस्य, सत्संग की परिवर्तनकारी शक्ति और भक्ति मार्ग की सर्वोच्चता का एक ज्वलंत दृष्टांत है । यह कथा घोर कलियुग में, जहाँ पाप और अधर्म का बोलबाला है, एक प्रकाश स्तंभ की तरह है, जो हमें विश्वास दिलाती है कि भगवन्नाम के आश्रय से अत्यंत पतित व्यक्ति का भी उद्धार संभव है ।
आइए, हम सब मिलकर इस अद्भुत कथा की गहराइयों में उतरें और समझें कि कैसे कान्यकुब्ज का एक सदाचारी ब्राह्मण पाप के गर्त में गिरा, कैसे मृत्यु के क्षणों में यमदूतों और विष्णुदूतों के बीच अभूतपूर्व संवाद हुआ, कैसे अनजाने में लिए गए भगवन्नाम (नामाभास) ने अपना प्रभाव दिखाया और कैसे पश्चाताप की अग्नि में तपकर अजामिल ने अंततः परम पद प्राप्त किया। यह कथा केवल अजामिल की नहीं, यह हम सबकी है – हमारे संघर्षों की, हमारी कमजोरियों की, और मुक्ति की हमारी गहरी आकांक्षा की प्रतिध्वनि है।
प्राचीन भारत की पुण्यभूमि पर स्थित कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज) नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसका जन्म एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में हुआ था और अपने माता-पिता द्वारा उसे वेदों का ज्ञाता, सदाचारी, विनम्र और अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित होने की शिक्षा मिली थी । वह शास्त्रों का ज्ञाता था, इंद्रियों पर संयम रखता था और अपने परिवार – माता-पिता, पत्नी और बच्चों – का भली-भांति पालन करता था । उसका जीवन धर्म और सदाचार की एक शांत धारा की तरह बह रहा था।
किन्तु, विधि का विधान कहें या पूर्व जन्मों के संस्कारों का प्रभाव, एक दिन उसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जिसने सब कुछ बदल दिया। वह यज्ञ के लिए आवश्यक समिधा, पुष्प और कुश लेने वन गया था। लौटते समय उसकी दृष्टि एक मदिरा पिए हुए व्यक्ति और एक वेश्या पर पड़ी, जो निर्लज्जतापूर्वक कामुक क्रीड़ा में लिप्त थे । उस दृश्य ने अजामिल के मन पर गहरा आघात किया। यद्यपि उसने स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास किया, पर वह उस वेश्या के प्रति आकर्षित हो गया ।
इसके बाद अजामिल का जीवन पूरी तरह बदल गया। उसने अपनी कुलीन, पतिव्रता पत्नी का त्याग कर दिया और उसी वेश्या को अपने घर ले आया । अब उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य उस वेश्या और उससे उत्पन्न होने वाले परिवार का भरण-पोषण बन गया। इसके लिए उसने न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म सब भुला दिया। वह लोगों को बंदी बनाने, जुए में छल करने, चोरी करने और लूटपाट करने जैसे घृणित कार्यों से धन कमाने लगा । उसका ब्राह्मणोचित तेज नष्ट हो गया, उसने अपने समस्त वैदिक कर्तव्यों और संस्कारों को तिलांजलि दे दी । इस प्रकार पाप और कदाचार के मार्ग पर चलते हुए उसके जीवन के अट्ठासी (88) वर्ष बीत गए ।
इस पापमय जीवन के दौरान उस वेश्या से अजामिल के दस पुत्र हुए। अपने सबसे छोटे पुत्र, जिसका नाम 'नारायण' था, से उसे अत्यधिक मोह था । यह एक विचित्र विडंबना थी। जहाँ एक ओर यह मोह उसके सांसारिक बंधन और पतन का प्रतीक था, वहीं दूसरी ओर, अनजाने में ही यह उसके उद्धार का हेतु भी बन रहा था। वह हर समय, खाते-पीते, उठते-बैठते, अपने पुत्र नारायण को ही पुकारता रहता, उसी के बाल-सुलभ खेलों में रमा रहता । उसे इस बात का किंचित भी आभास नहीं था कि मृत्यु उसके द्वार पर दस्तक दे रही है और उसके मुख से बार-बार निकलने वाला 'नारायण' नाम, जो पुत्र मोह वश लिया जा रहा था, वास्तव में भगवान का पवित्र नाम था, जो चुपचाप अपना दिव्य कार्य कर रहा था। यह दर्शाता है कि भगवान की कृपा कितने रहस्यमय ढंग से कार्य करती है; कैसे घोर पतन के बीच भी, एक सांसारिक मोह के माध्यम से भगवन्नाम का उच्चारण उसके उद्धार का मार्ग प्रशस्त कर रहा था।
अट्ठासी वर्ष का पापपूर्ण जीवन जीने के बाद, अंततः अजामिल के जीवन का अंतिम क्षण आ पहुँचा। जब वह मृत्यु शय्या पर पड़ा अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था, तभी उसने देखा कि उसे ले जाने के लिए तीन अत्यंत भयानक यमदूत प्रकट हुए हैं । उनके मुख विकराल थे, शरीर के रोंगटे खड़े हुए थे, नेत्र क्रोध से लाल थे और हाथों में भयानक पाश (फंदा) थे ।
उन विकराल यमदूतों को अपनी ओर आते देख अजामिल का हृदय भय से काँप उठा। वह अत्यंत व्याकुल हो गया । मृत्यु का ऐसा भयावह स्वरूप देखकर, जीवन भर के पापों का बोझ और आने वाले दंड की कल्पना मात्र से वह थरथराने लगा। उस चरम भय और पीड़ा के क्षण में, उसे अपने सबसे प्रिय, सबसे छोटे पुत्र 'नारायण' का स्मरण हो आया, जो पास ही खेल रहा था। अपने पुत्र के मोह और मृत्यु के भय से अभिभूत होकर, उसने पूरी शक्ति से चीत्कार किया – "नारायण! अरे नारायण! मेरी रक्षा करो!" ।
यह पुकार यद्यपि अपने पुत्र के लिए थी, भगवान के स्मरण या भक्ति भाव से प्रेरित नहीं थी, तथापि मुख से निकला नाम तो स्वयं भगवान श्रीहरि का ही था – 'नारायण'। और यही वह क्षण था जब नियति ने एक अद्भुत मोड़ लिया।
जैसे ही मृत्यु के भय से त्रस्त अजामिल के कंठ से करुण स्वर में 'नारायण' नाम की ध्वनि निकली, उसी क्षण एक चमत्कार हुआ। नाम की ध्वनि सुनते ही, वैकुण्ठ लोक से भगवान विष्णु के चार दिव्य पार्षद तीव्र गति से वहाँ प्रकट हो गए ।
वे पार्षद अलौकिक तेज से युक्त थे। उनके स्वरूप का वर्णन अत्यंत मनोहारी है – सुंदर दिव्य शरीर, चार भुजाएँ, पीताम्बर धारण किये हुए, हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित थे, सिर पर रत्नजड़ित किरीट और गले में वनमाला थी । उनका आगमन उस अंधकारमय, भयावह वातावरण में प्रकाश की किरण की तरह था।
उन्होंने देखा कि यमदूत अजामिल के सूक्ष्म शरीर को बलपूर्वक खींचकर अपने पाश में बांध रहे हैं। विष्णुदूतों ने तत्काल आगे बढ़कर यमदूतों को ऐसा करने से दृढ़तापूर्वक रोक दिया । उन्होंने यमदूतों के पाश को काट दिया और अजामिल की रक्षा के लिए खड़े हो गए।
अपने कार्य में इस प्रकार का अप्रत्याशित हस्तक्षेप देखकर यमदूत अत्यंत आश्चर्यचकित और क्रुद्ध हुए। उन्होंने विष्णुदूतों से पूछा, "तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? और धर्मराज यम के न्यायपूर्ण शासन में बाधा क्यों डाल रहे हो? यह अजामिल घोर पापी है, इसने जीवन भर अधर्म किया है, इसे इसके कर्मों का दंड भोगने के लिए यमपुरी ले जाना हमारा कर्तव्य है। तुम इस पापी का पक्ष लेकर धर्म के कार्य में विघ्न क्यों डाल रहे हो?" ।
इस पर विष्णुदूतों और यमदूतों के बीच धर्म, कर्म, पाप, पुण्य, दंड, कृपा और भगवन्नाम की महिमा को लेकर एक गहन और महत्वपूर्ण संवाद आरंभ हुआ।
यमदूतों ने कर्म के अकाट्य सिद्धांत का पक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा:
विष्णुदूतों ने कर्म के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी, भगवन्नाम की असीम शक्ति और भगवान की शरणागत वत्सलता का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा:
संवाद का परिणाम: विष्णुदूतों के इन अकाट्य तर्कों, भगवन्नाम की महिमा के वर्णन और उनके दिव्य तेज के समक्ष यमदूत निस्तेज और निरुत्तर हो गए । वे समझ गए कि भगवन्नाम के सामने उनका अधिकार नहीं चल सकता।
विष्णुदूतों द्वारा परास्त और निरुत्तर होने के बाद, यमदूत लज्जित होकर अजामिल को वहीं छोड़कर यमपुरी लौट गए । अजामिल यमदूतों के भयानक पाश से मुक्त हो गया । वह अभी जीवित था, मृत्यु के मुख से वापस लौट आया था।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान, अजामिल ने यमदूतों और विष्णुदूतों के बीच हुए उस गहन संवाद को सुना था – धर्म, कर्म, दंड, नरक के भय, भगवत्कृपा और नाम की असीम महिमा के बारे में । यद्यपि वह स्वयं उस संवाद में भागीदार नहीं था, तथापि उन दिव्य वाणियों का श्रवण उसके लिए किसी शक्तिशाली औषधि से कम नहीं था।
उस संवाद को सुनकर और अपनी चमत्कारी मुक्ति का अनुभव करके अजामिल के हृदय में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। उसे अपने पूरे जीवन के पाप कर्म एक-एक करके याद आने लगे। उसे तीव्र पश्चाताप हुआ कि कैसे उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी इंद्रियों के वशीभूत होकर इतना निकृष्ट जीवन जिया । उसे ज्ञान हुआ कि वह कितना अधम और पतित था, और केवल भगवान 'नारायण' के नाम ने ही, जिसे उसने अनजाने में लिया था, उसे इस भयानक संकट से बचाया था ।
हृदय परिवर्तन और तीव्र वैराग्य के साथ, अजामिल ने एक दृढ़ संकल्प लिया। उसने निश्चय किया कि अब वह अपने शेष जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देगा। वह अपने मन, वाणी और समस्त इंद्रियों को वश में करके केवल भगवान की भक्ति में ही लगाएगा, जिन्होंने अकारण कृपा करके उसे मृत्यु और नरक से बचाया था ।
इसी संकल्प के साथ, अजामिल ने अपने घर, परिवार, संपत्ति – उस समस्त मोह-बंधन को, जिसके कारण उसका पतन हुआ था – तत्काल त्याग दिया। वह पवित्र पावनी गंगा के तट पर स्थित मुक्तिदायिनी नगरी हरिद्वार चला गया ।
हरिद्वार पहुँचकर उसने एक विष्णु मंदिर में आश्रय लिया। वहाँ उसने पूर्णतः भक्तिमय जीवन अपनाया। उसने अपनी इंद्रियों को सांसारिक विषयों से खींचकर, अपने मन को भगवान के मंगलमय स्वरूप में एकाग्र कर दिया । उसने भक्ति योग का अनुष्ठान आरंभ किया – निरंतर भगवान का ध्यान, उनके पवित्र नामों का कीर्तन और श्रवण ।
पश्चाताप की अग्नि में तपकर और भक्ति के शीतल जल में स्नान करके अजामिल का हृदय निर्मल होता गया। उसकी बुद्धि, जो पहले त्रिगुणमयी माया (सत्त्व, रज, तम) के प्रभाव में थी, अब उससे ऊपर उठकर भगवान के शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित हो गई । वह पूर्ण रूप से शुद्ध और भक्ति में परिपक्व हो गया।
जब अजामिल भक्ति की साधना में पूर्णता प्राप्त कर चुका, तब एक दिन वही चारों दिव्य विष्णुदूत, जिन्होंने पहले उसे यमदूतों से बचाया था, पुनः उसके समक्ष प्रकट हुए । इस बार वे उसे डराने या बचाने नहीं, बल्कि सम्मानपूर्वक वैकुण्ठ ले जाने आए थे।
उन भगवत्पार्षदों का पुनः दर्शन पाकर अजामिल का हृदय आनंद से भर गया। उसने उन्हें प्रणाम किया। फिर उसने योग द्वारा गंगा के पवित्र तट पर अपने उस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया, जो कभी पाप का आधार था ।
शरीर छोड़ते ही, तत्काल उसे भगवान के पार्षदों जैसा ही दिव्य, चिन्मय, आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो गया । अब वह साधारण अजामिल नहीं रहा, वह भगवान का पार्षद बन चुका था। वह उन विष्णुदूतों के साथ एक स्वर्णमय, तेजोमय विमान पर आरूढ़ हुआ और देखते ही देखते आकाश मार्ग से भगवान श्रीहरि नारायण के नित्य, आनंदमय, परमधाम वैकुण्ठ लोक को चला गया । इस बार यमदूत उसके पास फटकने का भी साहस नहीं कर सके । इस प्रकार, एक घोर पापी का भी भगवन्नाम और भक्ति के प्रभाव से अंतिम उद्धार हो गया।