चार कुमार सनातन धर्म के अत्यंत प्राचीन और पूजनीय बाल-संत हैं, जिन्हें भगवान विष्णु के प्रथम अवतारों में गिना जाता है। "चार कुमार" से तात्पर्य ब्रह्माजी के मानस-पुत्र चार दिव्य बालकों से है, जिनके नाम हैं – सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार। ये चारों सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए प्रथम ज्ञानयोगी हैं। इन कुमारों का स्वरूप पाँच वर्ष के बालकों जैसा है, परंतु उनकी आध्यात्मिक विभूति असीम है। उन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ से ही ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और तप एवं ज्ञान के मार्ग पर प्रशस्त हुए। शास्त्रों में कहा गया है कि इन चारों कुमारों ने कठोर तपस्या और आत्मचिंतन द्वारा परम सत्य (भगवान) का साक्षात्कार किया। अपने शैशव रूप में रहते हुए भी वे महान ज्ञानी और भक्त थे, जिनकी गणना बारह महाजन (ईश्वर के महान भक्तों) में होती है।
चारों कुमारों का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण है। यद्यपि उनकी आयु सदा एक बालक के समान प्रतीत होती है (लगभग पाँच वर्ष के शिशु), परन्तु उनकी चेतना पूर्णतः प्रबुद्ध और ईश्वरीय ज्ञान से पूरित है। वे दिगम्बर अवस्था में रहते थे – अर्थात शरीर पर वस्त्रों का त्याग, जिस प्रकार छोटे बच्चे निष्पाप होकर वस्त्र-लज्जा से अनजान रहते हैं। यह उनके पूर्ण वैराग्य और संसार के व्यवहारों से उदासीन रहने का प्रतीक है। उनके चेहरे पर सदैव परम शांति और प्रसन्नता का भाव रहता है। वे बालकों की भाँति दिखते अवश्य हैं, किंतु उनके नेत्रों में गहन ज्ञान की चमक और योगबल की गंभीरता विद्यमान है।
चारों कुमार सदैव साथ-साथ भ्रमण करते हैं। उनके हाथों में कभी कमंडलु तथा योगदंड (भिक्षापात्र एवं लाठी) का उल्लेख मिलता है, जो संन्यास जीवन के चिह्न हैं। वे निरंतर "ॐ" तथा नारायण नाम का जप करते हुए ध्यानमग्न रहते हैं। संसार की कोई भी मोह-माया उन्हें स्पर्श नहीं करती। उनका रोम-रोम ब्रह्मतेज से प्रकाशित है। इस प्रकार, इन बाल ऋषियों का स्वरूप निष्कलंक बालक और तेजस्वी ज्ञानवान ऋषि का अद्भुत सम्मिश्रण है, जो पहली दृष्टि में ही उनकी दिव्यता को प्रकट कर देता है।
चार कुमारों की उत्पत्ति सृष्टि-रचयिता भगवान ब्रह्मा की मानसकल्पना के फलस्वरूप हुई। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सृष्टि के शुरुआत में ब्रह्माजी ने संतान उत्पन्न कर सृष्टि विस्तार का विचार किया। उन्होंने सबसे पहले अपने मानस (चिंतन) से चार बालकों को प्रकट किया। ये ही प्रथम संतति थीं – सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार। ब्रह्माजी ने इन कुमारों को सृष्टि में प्रवर्तन (प्रजा-वृद्धि) करने का आदेश दिया, किंतु इन बाल ऋषियों ने संसार के भोग में प्रवृत्त होने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और भगवान के ज्ञान एवं ध्यान में लीन रहने की इच्छा प्रकट की।
कुमारों की इस तपस्वी वृत्ति को देख ब्रह्मा को क्षणभर क्रोध आया कि सृष्टि का कार्य कैसे पूरा होगा। उनके क्रोध से तत्क्षण भगवान शिव (रुद्र) का प्राकट्य हुआ, जो ब्रह्माजी के क्रोध से उत्पन्न देव हैं। परंतु शीघ्र ही ब्रह्माजी ने अपने क्रोध पर नियंत्रण पाकर कुमारों की प्रशंसा की और उन्हें सृष्टि में तप एवं ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करने की अनुमति दी। इस प्रकार चारों कुमार ज्ञानमार्ग के अग्रदूत बनकर जगत में विचरण करने लगे।
भगवान विष्णु ने चार कुमारों के रूप में अवतार लेकर प्रारम्भिक सृष्टि में वैराग्य, तप और ज्ञान का बीज बोया। इन बाल-संतों का उद्देश्य था जीवों को यह दिखाना कि ईश्वरीय सत्य की प्राप्ति के लिए सांसारिक कामनाओं का त्याग कर बालकों जैसी निष्कपटता एवं पवित्रता आवश्यक है। वे ज्ञानयोग एवं भक्तियोग के संयोग का उदाहरण थे – आरम्भ में उन्होंने केवल निराकार ब्रह्म का ध्यान किया, पर आगे चलकर उन्होंने भक्ति का महत्व समझा और स्वयं श्रीहरि के अनन्य भक्त बने।
भगवान ने इन कुमारों के रूप में अवतार लेकर यह संदेश दिया कि सच्चा ज्ञान वही है जो अंततः भक्ति तक ले जाए। इसके अतिरिक्त, चारों कुमारों के माध्यम से भगवान ने अनेक लीलाओं का सूत्रपात भी किया – जैसे इनके कारण भगवान के द्वारपालों को शाप मिला जो आगे चलकर विष्णु के अन्य अवतारों (नृसिंह, राम, कृष्ण आदि) में प्रमुख कथाओं का कारक बना। कुल मिलाकर, चार कुमार अवतार का भाव सांसारिक आसक्ति का परित्याग कर परमात्मा की ओर उन्मुख होने का आदर्श स्थापित करना था।
चारों कुमारों के जीवन में कई ऐसी घटनाएँ हैं जो भक्ति और ज्ञान की महिमा को उजागर करती हैं। उनमें से एक अत्यंत प्रसिद्ध घटना है वैष्णव-दर्शन और जय-विजय को शाप। सनकादिक कुमार ब्रह्माण्ड में सर्वत्र भ्रमण करते हुए वैकुण्ठ लोक तक जा पहुंचे। वैकुण्ठ भगवान विष्णु का परम धाम है, जहाँ द्वार पर जय और विजय नामक दो द्वारपाल प्रहरी थे। बालक-से दिखने के कारण द्वारपालों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। चारों कुमार, जो पूर्णतः आत्मज्ञानी थे, यह रोका जाना सहन न कर सके और क्रोधित हो गए। उन्होंने समझा कि ये द्वारपाल अहंकारवश भगवान के परम भक्तों का अपमान कर रहे हैं। अतः उन्होंने क्रोध में आकर जय-विजय को श्राप दिया कि "तुम्हें जन्म लेकर मृत्युलोक (पृथ्वी लोक) में असुर रूप में जाना पड़ेगा।"
इस घटना से तत्काल वैकुण्ठ में हलचल मच गई। भगवान विष्णु स्वयं द्वार पर प्रकट हुए ताकि स्थिति को संभालें। विष्णु को सम्मुख पाकर चारों कुमारों का क्रोध शांत हो गया और वे प्रभु के अद्भुत साकार सौंदर्य को निहारने लगे। पहले तक वे केवल निराकार ब्रह्म को ही परम सत्य मानते थे, किन्तु भगवान के दर्शन और उनके चरणकमलों की सुगंध ने उनके हृदय में भक्ति जगा दी। भागवत के अनुसार: "भगवान के कमल चरणों से सुगंधित तुलसी-दल की सुगंध जब वायु द्वारा उन कुमारों की नासिका में प्रवेश हुई, तब उनके शरीर और मन में परिवर्तन होने लगा" । इस दिव्य सुवास ने उनके भीतर गहन प्रेम और अनुराग उत्पन्न कर दिया और उनके ज्ञान का रूखापन प्रेम की कोमलता में बदल गया। तुरंत ही कुमारों ने भगवान को दण्डवत प्रणाम किया और जय-विजय को दिए गए अपने शाप के लिए क्षमा याचना करने लगे। भगवान विष्णु ने मंद मुस्कान के साथ उन्हें उठाकर हृदय से लगाया और कहा कि यह घटना उनकी इच्छा से ही हुई है ताकि वे पृथ्वी पर विभिन्न लीलाओं में अवतार लेकर अधर्म का नाश कर सकें। साथ ही, उन्होंने कुमारों को आशीर्वाद दिया कि उन्हें साक्षात नारायण-दर्शन का यह फल मिला है और वे हमेशा भगवान के धाम में आगमन कर सकते हैं।
इस घटना के बाद चारों कुमार पूरी तरह वैष्णव भक्त बन चुके थे। उन्होंने जगत में घूम-घूमकर भगवान के भक्ति मार्ग का प्रचार किया। विभिन्न पुराणों और शास्त्रों में इनके प्रवचन और शिक्षाओं का उल्लेख आता है। महाभारत में सनत्सुजात नामक प्रसंग में सनत कुमार ने धृतराष्ट्र को आत्मा की अमरता का ज्ञान दिया है। इसी प्रकार चतुर कुमारों ने राजा पृथु से भी भेंट की थी। भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध में आता है कि महाराज पृथु जब एक महान यज्ञ कर रहे थे, तब सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार वहाँ पधारे। राजा पृथु ने विनम्रतापूर्वक उनका स्वागत किया और आत्मज्ञान एवं भक्ति पर उपदेश देने का अनुरोध किया। तब सनत कुमार ने अध्यात्मयोग पर उत्कृष्ट उपदेश दिया, जिसे सुनकर राजा पृथु समेत वहाँ उपस्थित सभी जन मोहित हो गए और परमात्मा के प्रति उनकी भक्ति और प्रगाढ़ हो गई। इस प्रकार चारों कुमार समय-समय पर महत्वपूर्ण राजाओं व भक्तों को उपदेश देकर धर्म और ज्ञान की रक्षा करते रहे।
चारों कुमारों से जुड़ी एक और रोचक लीला हंस अवतार से संबंधित है। भागवत के अनुसार एक समय सनकादि ऋषिगण परम तत्व (भगवान) की महिमा और माया के रहस्य पर विचार कर रहे थे। उनकी जिज्ञासा बढ़ी तो उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी से प्रश्न किए, पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। तब वे भगवान श्रीहरि की उपासना करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर श्रीविष्णु ने हंस (राजहंस) का रूप धर प्रकट होकर उनके प्रश्नों का समाधान किया। इस हंस अवतार के उपदेश से कुमारों को परम आनंद की अनुभूति हुई और उनकी भगवान के प्रति भक्ति और भी गहरी हो गई।
चार कुमारों का चरित्र अनेक ग्रंथों में अंकित है। श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 3 अध्याय 15-16) में वैकुण्ठ की घटना का विस्तृत वर्णन है, वहीं स्कंध 4 में पृथु से संवाद का उल्लेख मिलता है। भागवत के प्रथम स्कंध (1.3.6) में उन्हें विष्णु के प्रथम अवतारों में गिनते हुए कहा गया है कि उन्होंने कठोर तप द्वारा ब्रह्मसाक्षात्कार किया। उपनिषदों में (छांदोग्य उपनिषद) सनत कुमार का उल्लेख है जहाँ देवर्षि नारद ने उनसे आत्मविद्या सीखी। विष्णु पुराण तथा पद्म पुराण आदि में भी चारों कुमारों की स्तुति मिलती है। उन्हें चिरंजीवी (अमर) कहा जाता है – अर्थात कलियुग में भी वे सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहकर भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं, ऐसा विश्वास है।
चारों कुमार ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के अद्वितीय संगम के प्रतीक हैं। बाल रूप होते हुए भी उनमें वैराग्य पूर्ण था, जो संकेत देता है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए उम्र या आकार नहीं, बल्कि पवित्रता और दृढ़ संकल्प आवश्यक है। उनके जीवन से यह शिक्षा मिलती है कि यदि हृदय में बालक जैसी निष्कपटता और जिज्ञासा हो, तो मनुष्य ब्रह्मज्ञान और भगवान की भक्ति को आसानी से धारण कर सकता है। उन्होंने अपने व्यवहार से दिखाया कि प्रारंभ में यदि कोई केवल ज्ञान (निराकार सत्य) की खोज में हो, तो भी अन्ततोगत्वा उसे भगवान के सुंदर मूर्तिमान रूप का आकर्षण अपनी ओर खींच ही लेता है, क्योंकि परम सत्य श्रीहरि के चरणों की भक्ति में ही पूर्णता है।
भक्तजन चारों कुमारों को प्रणाम कर प्रार्थना करते हैं कि वे भी कुमारों की भांति निर्मल मन से प्रभु की आराधना कर सकें। उनकी एक प्रसिद्ध स्तुति में कहा गया है: "सनकादि संभूत चरितश्रवणं कुरु" – अर्थात "हे प्रभु, मुझे सनकादि ऋषियों के चरित्र का श्रवण करते हुए आपके सत्य स्वरूप को समझने की बुद्धि प्रदान करें"। चारों कुमारों की भक्ति से प्रभु इतने प्रसन्न रहते हैं कि स्वयं उनके प्रश्नों का उत्तर देने हंस रूप में आते हैं – यह लीला दर्शाती है कि सच्चे जिज्ञासु भक्त को भगवान निराश नहीं करते।
इस प्रकार, चार कुमार अवतार भक्तों के लिए ज्ञान के साथ विनम्रता और भक्ति का आदर्श प्रस्तुत करता है। उनकी कथा हमें सिखाती है कि चाहे जन्म की परिस्थिति कैसी भी हो, यदि हम मोह-माया त्यागकर ईश्वर के ज्ञान और प्रेम की आराधना में जीवन समर्पित करें, तो प्रभु के दर्शन और कृपा अवश्य प्राप्त हो सकती है। चारों कुमारों के चरण कमलों में नत मस्तक होकर भक्तगण परमात्मा से एकनिष्ठ भक्ति और स्थिर ज्ञान की प्रार्थना करते हैं।
चार कुमार सनातन धर्म के अत्यंत प्राचीन और पूजनीय बाल-संत हैं, जिन्हें भगवान विष्णु के प्रथम अवतारों में गिना जाता है। "चार कुमार" से तात्पर्य ब्रह्माजी के मानस-पुत्र चार दिव्य बालकों से है, जिनके नाम हैं – सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार। ये चारों सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए प्रथम ज्ञानयोगी हैं। इन कुमारों का स्वरूप पाँच वर्ष के बालकों जैसा है, परंतु उनकी आध्यात्मिक विभूति असीम है। उन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ से ही ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और तप एवं ज्ञान के मार्ग पर प्रशस्त हुए। शास्त्रों में कहा गया है कि इन चारों कुमारों ने कठोर तपस्या और आत्मचिंतन द्वारा परम सत्य (भगवान) का साक्षात्कार किया। अपने शैशव रूप में रहते हुए भी वे महान ज्ञानी और भक्त थे, जिनकी गणना बारह महाजन (ईश्वर के महान भक्तों) में होती है।
चारों कुमारों का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण है। यद्यपि उनकी आयु सदा एक बालक के समान प्रतीत होती है (लगभग पाँच वर्ष के शिशु), परन्तु उनकी चेतना पूर्णतः प्रबुद्ध और ईश्वरीय ज्ञान से पूरित है। वे दिगम्बर अवस्था में रहते थे – अर्थात शरीर पर वस्त्रों का त्याग, जिस प्रकार छोटे बच्चे निष्पाप होकर वस्त्र-लज्जा से अनजान रहते हैं। यह उनके पूर्ण वैराग्य और संसार के व्यवहारों से उदासीन रहने का प्रतीक है। उनके चेहरे पर सदैव परम शांति और प्रसन्नता का भाव रहता है। वे बालकों की भाँति दिखते अवश्य हैं, किंतु उनके नेत्रों में गहन ज्ञान की चमक और योगबल की गंभीरता विद्यमान है।
चारों कुमार सदैव साथ-साथ भ्रमण करते हैं। उनके हाथों में कभी कमंडलु तथा योगदंड (भिक्षापात्र एवं लाठी) का उल्लेख मिलता है, जो संन्यास जीवन के चिह्न हैं। वे निरंतर "ॐ" तथा नारायण नाम का जप करते हुए ध्यानमग्न रहते हैं। संसार की कोई भी मोह-माया उन्हें स्पर्श नहीं करती। उनका रोम-रोम ब्रह्मतेज से प्रकाशित है। इस प्रकार, इन बाल ऋषियों का स्वरूप निष्कलंक बालक और तेजस्वी ज्ञानवान ऋषि का अद्भुत सम्मिश्रण है, जो पहली दृष्टि में ही उनकी दिव्यता को प्रकट कर देता है।
चार कुमारों की उत्पत्ति सृष्टि-रचयिता भगवान ब्रह्मा की मानसकल्पना के फलस्वरूप हुई। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सृष्टि के शुरुआत में ब्रह्माजी ने संतान उत्पन्न कर सृष्टि विस्तार का विचार किया। उन्होंने सबसे पहले अपने मानस (चिंतन) से चार बालकों को प्रकट किया। ये ही प्रथम संतति थीं – सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार। ब्रह्माजी ने इन कुमारों को सृष्टि में प्रवर्तन (प्रजा-वृद्धि) करने का आदेश दिया, किंतु इन बाल ऋषियों ने संसार के भोग में प्रवृत्त होने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और भगवान के ज्ञान एवं ध्यान में लीन रहने की इच्छा प्रकट की।
कुमारों की इस तपस्वी वृत्ति को देख ब्रह्मा को क्षणभर क्रोध आया कि सृष्टि का कार्य कैसे पूरा होगा। उनके क्रोध से तत्क्षण भगवान शिव (रुद्र) का प्राकट्य हुआ, जो ब्रह्माजी के क्रोध से उत्पन्न देव हैं। परंतु शीघ्र ही ब्रह्माजी ने अपने क्रोध पर नियंत्रण पाकर कुमारों की प्रशंसा की और उन्हें सृष्टि में तप एवं ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करने की अनुमति दी। इस प्रकार चारों कुमार ज्ञानमार्ग के अग्रदूत बनकर जगत में विचरण करने लगे।
भगवान विष्णु ने चार कुमारों के रूप में अवतार लेकर प्रारम्भिक सृष्टि में वैराग्य, तप और ज्ञान का बीज बोया। इन बाल-संतों का उद्देश्य था जीवों को यह दिखाना कि ईश्वरीय सत्य की प्राप्ति के लिए सांसारिक कामनाओं का त्याग कर बालकों जैसी निष्कपटता एवं पवित्रता आवश्यक है। वे ज्ञानयोग एवं भक्तियोग के संयोग का उदाहरण थे – आरम्भ में उन्होंने केवल निराकार ब्रह्म का ध्यान किया, पर आगे चलकर उन्होंने भक्ति का महत्व समझा और स्वयं श्रीहरि के अनन्य भक्त बने।
भगवान ने इन कुमारों के रूप में अवतार लेकर यह संदेश दिया कि सच्चा ज्ञान वही है जो अंततः भक्ति तक ले जाए। इसके अतिरिक्त, चारों कुमारों के माध्यम से भगवान ने अनेक लीलाओं का सूत्रपात भी किया – जैसे इनके कारण भगवान के द्वारपालों को शाप मिला जो आगे चलकर विष्णु के अन्य अवतारों (नृसिंह, राम, कृष्ण आदि) में प्रमुख कथाओं का कारक बना। कुल मिलाकर, चार कुमार अवतार का भाव सांसारिक आसक्ति का परित्याग कर परमात्मा की ओर उन्मुख होने का आदर्श स्थापित करना था।
चारों कुमारों के जीवन में कई ऐसी घटनाएँ हैं जो भक्ति और ज्ञान की महिमा को उजागर करती हैं। उनमें से एक अत्यंत प्रसिद्ध घटना है वैष्णव-दर्शन और जय-विजय को शाप। सनकादिक कुमार ब्रह्माण्ड में सर्वत्र भ्रमण करते हुए वैकुण्ठ लोक तक जा पहुंचे। वैकुण्ठ भगवान विष्णु का परम धाम है, जहाँ द्वार पर जय और विजय नामक दो द्वारपाल प्रहरी थे। बालक-से दिखने के कारण द्वारपालों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। चारों कुमार, जो पूर्णतः आत्मज्ञानी थे, यह रोका जाना सहन न कर सके और क्रोधित हो गए। उन्होंने समझा कि ये द्वारपाल अहंकारवश भगवान के परम भक्तों का अपमान कर रहे हैं। अतः उन्होंने क्रोध में आकर जय-विजय को श्राप दिया कि "तुम्हें जन्म लेकर मृत्युलोक (पृथ्वी लोक) में असुर रूप में जाना पड़ेगा।"
इस घटना से तत्काल वैकुण्ठ में हलचल मच गई। भगवान विष्णु स्वयं द्वार पर प्रकट हुए ताकि स्थिति को संभालें। विष्णु को सम्मुख पाकर चारों कुमारों का क्रोध शांत हो गया और वे प्रभु के अद्भुत साकार सौंदर्य को निहारने लगे। पहले तक वे केवल निराकार ब्रह्म को ही परम सत्य मानते थे, किन्तु भगवान के दर्शन और उनके चरणकमलों की सुगंध ने उनके हृदय में भक्ति जगा दी। भागवत के अनुसार: "भगवान के कमल चरणों से सुगंधित तुलसी-दल की सुगंध जब वायु द्वारा उन कुमारों की नासिका में प्रवेश हुई, तब उनके शरीर और मन में परिवर्तन होने लगा" । इस दिव्य सुवास ने उनके भीतर गहन प्रेम और अनुराग उत्पन्न कर दिया और उनके ज्ञान का रूखापन प्रेम की कोमलता में बदल गया। तुरंत ही कुमारों ने भगवान को दण्डवत प्रणाम किया और जय-विजय को दिए गए अपने शाप के लिए क्षमा याचना करने लगे। भगवान विष्णु ने मंद मुस्कान के साथ उन्हें उठाकर हृदय से लगाया और कहा कि यह घटना उनकी इच्छा से ही हुई है ताकि वे पृथ्वी पर विभिन्न लीलाओं में अवतार लेकर अधर्म का नाश कर सकें। साथ ही, उन्होंने कुमारों को आशीर्वाद दिया कि उन्हें साक्षात नारायण-दर्शन का यह फल मिला है और वे हमेशा भगवान के धाम में आगमन कर सकते हैं।
इस घटना के बाद चारों कुमार पूरी तरह वैष्णव भक्त बन चुके थे। उन्होंने जगत में घूम-घूमकर भगवान के भक्ति मार्ग का प्रचार किया। विभिन्न पुराणों और शास्त्रों में इनके प्रवचन और शिक्षाओं का उल्लेख आता है। महाभारत में सनत्सुजात नामक प्रसंग में सनत कुमार ने धृतराष्ट्र को आत्मा की अमरता का ज्ञान दिया है। इसी प्रकार चतुर कुमारों ने राजा पृथु से भी भेंट की थी। भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध में आता है कि महाराज पृथु जब एक महान यज्ञ कर रहे थे, तब सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार वहाँ पधारे। राजा पृथु ने विनम्रतापूर्वक उनका स्वागत किया और आत्मज्ञान एवं भक्ति पर उपदेश देने का अनुरोध किया। तब सनत कुमार ने अध्यात्मयोग पर उत्कृष्ट उपदेश दिया, जिसे सुनकर राजा पृथु समेत वहाँ उपस्थित सभी जन मोहित हो गए और परमात्मा के प्रति उनकी भक्ति और प्रगाढ़ हो गई। इस प्रकार चारों कुमार समय-समय पर महत्वपूर्ण राजाओं व भक्तों को उपदेश देकर धर्म और ज्ञान की रक्षा करते रहे।
चारों कुमारों से जुड़ी एक और रोचक लीला हंस अवतार से संबंधित है। भागवत के अनुसार एक समय सनकादि ऋषिगण परम तत्व (भगवान) की महिमा और माया के रहस्य पर विचार कर रहे थे। उनकी जिज्ञासा बढ़ी तो उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी से प्रश्न किए, पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। तब वे भगवान श्रीहरि की उपासना करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर श्रीविष्णु ने हंस (राजहंस) का रूप धर प्रकट होकर उनके प्रश्नों का समाधान किया। इस हंस अवतार के उपदेश से कुमारों को परम आनंद की अनुभूति हुई और उनकी भगवान के प्रति भक्ति और भी गहरी हो गई।
चार कुमारों का चरित्र अनेक ग्रंथों में अंकित है। श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 3 अध्याय 15-16) में वैकुण्ठ की घटना का विस्तृत वर्णन है, वहीं स्कंध 4 में पृथु से संवाद का उल्लेख मिलता है। भागवत के प्रथम स्कंध (1.3.6) में उन्हें विष्णु के प्रथम अवतारों में गिनते हुए कहा गया है कि उन्होंने कठोर तप द्वारा ब्रह्मसाक्षात्कार किया। उपनिषदों में (छांदोग्य उपनिषद) सनत कुमार का उल्लेख है जहाँ देवर्षि नारद ने उनसे आत्मविद्या सीखी। विष्णु पुराण तथा पद्म पुराण आदि में भी चारों कुमारों की स्तुति मिलती है। उन्हें चिरंजीवी (अमर) कहा जाता है – अर्थात कलियुग में भी वे सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहकर भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं, ऐसा विश्वास है।
चारों कुमार ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के अद्वितीय संगम के प्रतीक हैं। बाल रूप होते हुए भी उनमें वैराग्य पूर्ण था, जो संकेत देता है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए उम्र या आकार नहीं, बल्कि पवित्रता और दृढ़ संकल्प आवश्यक है। उनके जीवन से यह शिक्षा मिलती है कि यदि हृदय में बालक जैसी निष्कपटता और जिज्ञासा हो, तो मनुष्य ब्रह्मज्ञान और भगवान की भक्ति को आसानी से धारण कर सकता है। उन्होंने अपने व्यवहार से दिखाया कि प्रारंभ में यदि कोई केवल ज्ञान (निराकार सत्य) की खोज में हो, तो भी अन्ततोगत्वा उसे भगवान के सुंदर मूर्तिमान रूप का आकर्षण अपनी ओर खींच ही लेता है, क्योंकि परम सत्य श्रीहरि के चरणों की भक्ति में ही पूर्णता है।
भक्तजन चारों कुमारों को प्रणाम कर प्रार्थना करते हैं कि वे भी कुमारों की भांति निर्मल मन से प्रभु की आराधना कर सकें। उनकी एक प्रसिद्ध स्तुति में कहा गया है: "सनकादि संभूत चरितश्रवणं कुरु" – अर्थात "हे प्रभु, मुझे सनकादि ऋषियों के चरित्र का श्रवण करते हुए आपके सत्य स्वरूप को समझने की बुद्धि प्रदान करें"। चारों कुमारों की भक्ति से प्रभु इतने प्रसन्न रहते हैं कि स्वयं उनके प्रश्नों का उत्तर देने हंस रूप में आते हैं – यह लीला दर्शाती है कि सच्चे जिज्ञासु भक्त को भगवान निराश नहीं करते।
इस प्रकार, चार कुमार अवतार भक्तों के लिए ज्ञान के साथ विनम्रता और भक्ति का आदर्श प्रस्तुत करता है। उनकी कथा हमें सिखाती है कि चाहे जन्म की परिस्थिति कैसी भी हो, यदि हम मोह-माया त्यागकर ईश्वर के ज्ञान और प्रेम की आराधना में जीवन समर्पित करें, तो प्रभु के दर्शन और कृपा अवश्य प्राप्त हो सकती है। चारों कुमारों के चरण कमलों में नत मस्तक होकर भक्तगण परमात्मा से एकनिष्ठ भक्ति और स्थिर ज्ञान की प्रार्थना करते हैं।