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आदिपुरुष: जानिए भगवान विष्णु के इस रहस्यमय प्रथम अवतार की उत्पत्ति, लीलाएँ और आध्यात्मिक महत्त्व!

आदिपुरुष: जानिए भगवान विष्णु के इस रहस्यमय प्रथम अवतार की उत्पत्ति, लीलाएँ और आध्यात्मिक महत्त्व!AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

आदिपुरुष: प्रथम अवतार

परिचय

सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में भगवान विष्णु के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है। इन अवतारों को लोककल्याण और धर्म की स्थापना के उद्देश्य से स्वीकार किया गया है। इनमें सबसे प्रथम और मूल अवतार को "आदिपुरुष" कहा गया है। "आदि" का अर्थ है प्रारंभिक या मूल, और "पुरुष" का अर्थ है परमात्मा या परम पुरुष। आदिपुरुष वह आद्य अवतार हैं जिसमें भगवान विष्णु सृष्टि की रचना के लिए स्वयं को प्रकट करते हैं। इस अवतार में भगवान को सृष्टि के आदिकाल में जल के ऊपर शेषनाग (आदिशेष) की कुण्डलाकार शय्या पर विश्राम करते हुए वर्णित किया जाता है। भगवान नारायण के इस आदि स्वरूप से ही आगे चलकर ब्रह्मा का प्राकट्य होता है, जो सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ करते हैं।

स्वरूप वर्णन

आदिपुरुष रूप में भगवान विष्णु का दिव्य स्वरूप अति विशाल और सौम्य है। वे अनंत नाग के फणों पर विराजमान हैं, जिनका फन छत्र के समान भगवान के मस्तक पर फैला हुआ है। प्रभु का शरीर मेघ-श्यामल (घने बादल जैसा श्यामवर्ण) है तथा उन्होंने सुनहरे पीताम्बर धारण किए हुए हैं। भगवान की चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हैं। उनकी बड़ी कमल के समान आँखें हैं और मुखमंडल पर करुणा एवं शांति की आभा है। श्रीमहालक्ष्मी जी अपने भगवान के चरणों की सेवा में उपस्थित रहती हैं, जो इस दृश्य को और भी कल्याणमय बनाती है। भगवान विष्णु की छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह और गले में कौस्तुभ मणि विराजमान है, जिनकी प्रभा चारों ओर आलोकित कर रही है। उनकी नाभि से एक दिव्य कमल प्रस्फुटित हो रहा है। यही वह कमल है जिस पर सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी प्रकट होने वाले हैं। इस प्रकार आदिपुरुष का स्वरूप संपूर्ण जगत को आश्रय देने वाला, शांत एवं विलक्षण सौंदर्य से युक्त है। भक्तजन ध्यान में इसी शेषशायी नारायण के रूप का दर्शन करते हैं और स्तुति करते हैं:

"शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।"

अर्थात् जो शान्त स्वरूप, शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, पद्मनाभ, सभी देवों के ईश्वर, सम्पूर्ण विश्व के आधार, आकाश के सदृश व्यापक, मेघ के समान श्यामवर्ण, अत्यंत सुंदर अंगों वाले, लक्ष्मी के प्रियतम, कमलनयन, योगियों द्वारा ध्यान में प्राप्त होने योग्य हैं, उन संसार के एकमात्र नाथ विष्णु की मैं वंदना करता हूँ।

यह प्रार्थना आदिपुरुष नारायण के दिव्य रूप का भावपूर्ण वर्णन करती है और भक्तों के मन में उनकी स्मृति को सजीव करती है।

जन्म एवं उत्पत्ति

आदिपुरुष अवतार की "जन्म" कथा वास्तव में सृष्टि की उत्पत्ति की कथा है। जब कुछ भी नहीं था – न आकाश, न पृथ्वी, केवल अंधकार और कारण जल (कारण सागर) था – तब परमात्मा ने सर्वप्रथम इसी आदिपुरुष रूप में अवतार लिया। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रारंभ में केवल नारायण ही थे: "एको नारायणोऽसीत्, न ब्रह्मा न ईशानो" – अर्थात उस आदि काल में केवल भगवान नारायण विद्यमान थे, ब्रह्मा, शिव या अन्य कुछ भी नहीं थे। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सूतजी कहते हैं:

जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः ।
सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥ (भागवत १.३.१)

अर्थात् प्रारंभ में भगवान ने पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया और सृष्टि की रचना के लिए आवश्यक सोलह तत्व प्रकट किए। यही पुरुष स्वरूप आदिपुरुष हैं। इसी आदिपुरुष (नारायण) ने जल पर शयन किया और उनकी नाभि से कमल निकला जिससे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा प्रकट हुए। आदिपुरुष को भगवान विष्णु का परम प्रारंभिक व्यक्त रूप माना जाता है, जो समस्त सृष्टि का मूल कारण हैं।

उद्देश्य

आदिपुरुष अवतार का मुख्य उद्देश्य सृष्टि की उत्पत्ति और संचालन करना था। परमात्मा ने स्वेच्छा से अपने आप को इस रूप में अभिव्यक्त किया ताकि भौतिक सृष्टि का आरम्भ हो सके। आदिपुरुष के रूप में भगवान नारायण सृष्टि के बीज रूप में उपस्थित होते हैं। उन्हीं से सारे जगत का प्रादुर्भाव होता है – पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), मन, बुद्धि, अहंकार और अन्य सोलह तत्वों की रचना का आधार भगवान का यही पुरुष रूप है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि का आदि एवं बीज हूँ" – यह वाक्य आदिपुरुष की ओर संकेत करता है।

श्रीमद्भागवत में आगे चलकर कहा गया है कि इसी पुरुष रूप से भगवद्भक्तों को अनेक दिव्य रूपों के दर्शन होते हैं, जिसके सहस्रों सिर, बाहु, चरण हैं – यह विश्वरूप या विराट स्वरूप भी उसी आदिपुरुष का विस्तार है। इसलिए आदिपुरुष अवतार से भगवान यह दर्शाते हैं कि वे ही संपूर्ण ब्रह्मांड के अधिष्ठाता और आधारभूत हैं।

प्रमुख घटना एवं लीलाएँ

चूँकि आदिपुरुष अवतार स्वयं सृष्टि का आरम्भिक स्वरूप है, इसलिए इसकी घटनाओं का उल्लेख सृष्टि-प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। आदिपुरुष रूप में भगवान अनंतनाग (शेषनाग) पर क्षीरसागर में योग-निद्रा में स्थित रहते हैं। इस अवस्था को "योगनिद्रा" कहते हैं जिसमें वे सृष्टि रचने की प्रेरणा करते हैं। यही वह क्षण है जब उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है। उस कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा जन्म लेते हैं। ब्रह्माजी को प्रारंभ में कुछ भी समझ नहीं आता, तब वे कमलनाल के सहारे भगवान नारायण के उदर में प्रवेश करते हैं, परंतु वहाँ भी उन्हें कुछ जानकारी नहीं मिलती। तब ब्रह्मा कमल पर लौटकर तपस्या करते हैं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आदिपुरुष (भगवान नारायण) अंतर्ध्यान वाणी द्वारा ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का ज्ञान देते हैं, जिसे "वैदिक ज्ञान" या वेदों का बोध कहा गया है। इसी ज्ञान से ब्रह्मा में सृष्टि रचने की क्षमता आती है।

आदिपुरुष की लीला का एक अंग यह भी है कि ब्रह्मा के हृदय में भगवान स्वयं वेदों का प्राकट्य करते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ब्रह्मदेव के हृदय में वेदों का प्रकाश हुआ, जो वस्तुतः नारायण की ही देन थी। इस प्रकार आदिपुरुष की लीला से ही चारों वेद, पुराण और अन्य शास्त्र परोक्ष रूप से प्रकट होते हैं, क्योंकि सृष्टि के आरंभ में जीवों को मार्गदर्शन देने हेतु ईश्वरीय ज्ञान भी अनिवार्य था।

आगे चलकर आदिपुरुष रूप में भगवान विष्णु ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचने के पश्चात जगत के पालन हेतु क्षीरसागर में क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में निवास करते हैं। इस प्रकार आदिपुरुष, जो कि महाविष्णु या कारणोदकशायी विष्णु के तुल्य हैं, की लीला तीन प्रमुख विष्णु रूपों में व्यक्त होती है – कारणोदकशायी (महाविष्णु), गर्भोदकशायी (क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु जिनकी नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न हुए) तथा क्षीरोदकशायी (जो प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में व्याप्त हैं)। ये तीनों रूप मूलतः उसी आदिपुरुष की विभिन्न अवस्थाएँ हैं जिनसे सृष्टि निर्माण, पालन और संहार का चक्र चलता है।

शास्त्रों में उल्लेख

आदिपुरुष का स्पष्ट वर्णन हमें वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में "सहस्रशीर्षा पुरुषः..." कहकर जिस विराट पुरुष की स्तुति की गई है, वह इसी आदिपुरुष का वर्णन है। वहाँ उल्लेख है कि उस आदि पुरुष के सहस्रों शिर, नेत्र, चरण हैं और सम्पूर्ण सृष्टि उसी के अंश से उत्पन्न होती है। उपनिषदों में (जैसे श्वेताश्वतर उपनिषद) कहा गया है कि "यो ब्रह्मणं विदधाति पूर्वम्, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै" – अर्थात् परमात्मा ने ही प्रारम्भ में ब्रह्मा की रचना की और उन्हीं ने आदि में वेदों का प्रकाश किया। यह संकेत आदिपुरुष की ओर ही है।

भागवत पुराण (स्कंध 2, अध्याय 5 आदि) में सृष्टि की प्रक्रिया में परम पुरुष नारायण की इस भूमिका का विस्तृत वर्णन मिलता है। ब्रह्मसंहिता में भगवान को आदिपुरुष कहा गया है:

"ईश्वरः परमः कृष्णः सच्-चिद्-आनन्द विग्रहः
अनादिरादिर् गोविन्दः सर्व कारण कारणम्"

अर्थात भगवान श्रीकृष्ण (विष्णु) ही परम ईश्वर हैं, जो आनंदमय विग्रह वाले हैं, आदि पुरुष हैं और समस्त कारणों के कारण हैं। इस प्रकार 'आदिपुरुष' शब्द स्वयं परमात्मा की आदि सत्ता को दर्शाता है।

भक्ति भाव एवं महत्त्व

आदिपुरुष अवतार हमें यह स्मरण दिलाता है कि भगवान ही सृष्टि के मूल हैं। भक्तजन आदिपुरुष नारायण की आराधना जगत के स्वामी और सृष्टिकर्ता के रूप में करते हैं। प्रातःकाल में सूर्य नारायण को प्रणाम करते समय भी अनेक भक्त यह भाव रखते हैं कि यही भगवान की आदिपुरुष शक्ति है जो जीवनदायी प्रकाश दे रही है। आदिपुरुष सर्वव्यापी नारायण का प्रतीक है, इसलिए भक्ति में उन्हें स्मरण करना आत्मा के परम स्रोत से जुड़ने जैसा है।

आदिपुरुष की महिमा अपार है क्योंकि उनसे ही सब उत्पन्न हुआ और अंततः सब उनमें ही लय होगा। उनके प्रति भक्ति भाव रखते हुए भक्त प्रार्थना करते हैं कि हे आदिपुरुष नारायण, आप ही हमारे पालनहार और जीवन के आधार हैं। संस्कृत में एक प्रसिद्ध प्रार्थना है: "गोविन्दम् आदिपुरुषं तमहं भजामि" – मैं उस आदिपुरुष गोविन्द की भक्ति करता हूँ। यह मंत्र भक्तों द्वारा आदिपुरुष रूप में भगवान की स्तुति हेतु जप किया जाता है।

मनुष्य जब श्रद्धा से "ॐ नमो नारायणाय" मंत्र का जप करता है, तो वह उसी आदिपुरुष नारायण को प्रणाम करता है जिन्होंने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की और उसे संचालित कर रहे हैं। इस प्रकार आदिपुरुष की भक्ति से मन में विनम्रता, कृतज्ञता और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव विकसित होता है, जो जीवन के परम लक्ष्य – भगवान की प्राप्ति – में सहायक है। इससे भक्त को यह भी अनुभव होने लगता है कि जिस परम पुरुष ने संसार रचा है, वह उसकी आत्मा में भी दिव्य ज्योति बनकर सदैव विराजमान है।


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पढ़ें: भगवान विष्णु के अवतार नर-नारायण और भक्त प्रह्लाद के बीच क्यों हुआ था वो भीषण युद्ध?
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आदिपुरुष: जानिए भगवान विष्णु के इस रहस्यमय प्रथम अवतार की उत्पत्ति, लीलाएँ और आध्यात्मिक महत्त्व!

आदिपुरुष: जानिए भगवान विष्णु के इस रहस्यमय प्रथम अवतार की उत्पत्ति, लीलाएँ और आध्यात्मिक महत्त्व!AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित चित्र।

आदिपुरुष: प्रथम अवतार

परिचय

सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में भगवान विष्णु के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है। इन अवतारों को लोककल्याण और धर्म की स्थापना के उद्देश्य से स्वीकार किया गया है। इनमें सबसे प्रथम और मूल अवतार को "आदिपुरुष" कहा गया है। "आदि" का अर्थ है प्रारंभिक या मूल, और "पुरुष" का अर्थ है परमात्मा या परम पुरुष। आदिपुरुष वह आद्य अवतार हैं जिसमें भगवान विष्णु सृष्टि की रचना के लिए स्वयं को प्रकट करते हैं। इस अवतार में भगवान को सृष्टि के आदिकाल में जल के ऊपर शेषनाग (आदिशेष) की कुण्डलाकार शय्या पर विश्राम करते हुए वर्णित किया जाता है। भगवान नारायण के इस आदि स्वरूप से ही आगे चलकर ब्रह्मा का प्राकट्य होता है, जो सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ करते हैं।

स्वरूप वर्णन

आदिपुरुष रूप में भगवान विष्णु का दिव्य स्वरूप अति विशाल और सौम्य है। वे अनंत नाग के फणों पर विराजमान हैं, जिनका फन छत्र के समान भगवान के मस्तक पर फैला हुआ है। प्रभु का शरीर मेघ-श्यामल (घने बादल जैसा श्यामवर्ण) है तथा उन्होंने सुनहरे पीताम्बर धारण किए हुए हैं। भगवान की चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हैं। उनकी बड़ी कमल के समान आँखें हैं और मुखमंडल पर करुणा एवं शांति की आभा है। श्रीमहालक्ष्मी जी अपने भगवान के चरणों की सेवा में उपस्थित रहती हैं, जो इस दृश्य को और भी कल्याणमय बनाती है। भगवान विष्णु की छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह और गले में कौस्तुभ मणि विराजमान है, जिनकी प्रभा चारों ओर आलोकित कर रही है। उनकी नाभि से एक दिव्य कमल प्रस्फुटित हो रहा है। यही वह कमल है जिस पर सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी प्रकट होने वाले हैं। इस प्रकार आदिपुरुष का स्वरूप संपूर्ण जगत को आश्रय देने वाला, शांत एवं विलक्षण सौंदर्य से युक्त है। भक्तजन ध्यान में इसी शेषशायी नारायण के रूप का दर्शन करते हैं और स्तुति करते हैं:

"शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।"

अर्थात् जो शान्त स्वरूप, शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, पद्मनाभ, सभी देवों के ईश्वर, सम्पूर्ण विश्व के आधार, आकाश के सदृश व्यापक, मेघ के समान श्यामवर्ण, अत्यंत सुंदर अंगों वाले, लक्ष्मी के प्रियतम, कमलनयन, योगियों द्वारा ध्यान में प्राप्त होने योग्य हैं, उन संसार के एकमात्र नाथ विष्णु की मैं वंदना करता हूँ।

यह प्रार्थना आदिपुरुष नारायण के दिव्य रूप का भावपूर्ण वर्णन करती है और भक्तों के मन में उनकी स्मृति को सजीव करती है।

जन्म एवं उत्पत्ति

आदिपुरुष अवतार की "जन्म" कथा वास्तव में सृष्टि की उत्पत्ति की कथा है। जब कुछ भी नहीं था – न आकाश, न पृथ्वी, केवल अंधकार और कारण जल (कारण सागर) था – तब परमात्मा ने सर्वप्रथम इसी आदिपुरुष रूप में अवतार लिया। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रारंभ में केवल नारायण ही थे: "एको नारायणोऽसीत्, न ब्रह्मा न ईशानो" – अर्थात उस आदि काल में केवल भगवान नारायण विद्यमान थे, ब्रह्मा, शिव या अन्य कुछ भी नहीं थे। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सूतजी कहते हैं:

जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः ।
सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥ (भागवत १.३.१)

अर्थात् प्रारंभ में भगवान ने पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया और सृष्टि की रचना के लिए आवश्यक सोलह तत्व प्रकट किए। यही पुरुष स्वरूप आदिपुरुष हैं। इसी आदिपुरुष (नारायण) ने जल पर शयन किया और उनकी नाभि से कमल निकला जिससे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा प्रकट हुए। आदिपुरुष को भगवान विष्णु का परम प्रारंभिक व्यक्त रूप माना जाता है, जो समस्त सृष्टि का मूल कारण हैं।

उद्देश्य

आदिपुरुष अवतार का मुख्य उद्देश्य सृष्टि की उत्पत्ति और संचालन करना था। परमात्मा ने स्वेच्छा से अपने आप को इस रूप में अभिव्यक्त किया ताकि भौतिक सृष्टि का आरम्भ हो सके। आदिपुरुष के रूप में भगवान नारायण सृष्टि के बीज रूप में उपस्थित होते हैं। उन्हीं से सारे जगत का प्रादुर्भाव होता है – पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), मन, बुद्धि, अहंकार और अन्य सोलह तत्वों की रचना का आधार भगवान का यही पुरुष रूप है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि का आदि एवं बीज हूँ" – यह वाक्य आदिपुरुष की ओर संकेत करता है।

श्रीमद्भागवत में आगे चलकर कहा गया है कि इसी पुरुष रूप से भगवद्भक्तों को अनेक दिव्य रूपों के दर्शन होते हैं, जिसके सहस्रों सिर, बाहु, चरण हैं – यह विश्वरूप या विराट स्वरूप भी उसी आदिपुरुष का विस्तार है। इसलिए आदिपुरुष अवतार से भगवान यह दर्शाते हैं कि वे ही संपूर्ण ब्रह्मांड के अधिष्ठाता और आधारभूत हैं।

प्रमुख घटना एवं लीलाएँ

चूँकि आदिपुरुष अवतार स्वयं सृष्टि का आरम्भिक स्वरूप है, इसलिए इसकी घटनाओं का उल्लेख सृष्टि-प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। आदिपुरुष रूप में भगवान अनंतनाग (शेषनाग) पर क्षीरसागर में योग-निद्रा में स्थित रहते हैं। इस अवस्था को "योगनिद्रा" कहते हैं जिसमें वे सृष्टि रचने की प्रेरणा करते हैं। यही वह क्षण है जब उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है। उस कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा जन्म लेते हैं। ब्रह्माजी को प्रारंभ में कुछ भी समझ नहीं आता, तब वे कमलनाल के सहारे भगवान नारायण के उदर में प्रवेश करते हैं, परंतु वहाँ भी उन्हें कुछ जानकारी नहीं मिलती। तब ब्रह्मा कमल पर लौटकर तपस्या करते हैं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आदिपुरुष (भगवान नारायण) अंतर्ध्यान वाणी द्वारा ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का ज्ञान देते हैं, जिसे "वैदिक ज्ञान" या वेदों का बोध कहा गया है। इसी ज्ञान से ब्रह्मा में सृष्टि रचने की क्षमता आती है।

आदिपुरुष की लीला का एक अंग यह भी है कि ब्रह्मा के हृदय में भगवान स्वयं वेदों का प्राकट्य करते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ब्रह्मदेव के हृदय में वेदों का प्रकाश हुआ, जो वस्तुतः नारायण की ही देन थी। इस प्रकार आदिपुरुष की लीला से ही चारों वेद, पुराण और अन्य शास्त्र परोक्ष रूप से प्रकट होते हैं, क्योंकि सृष्टि के आरंभ में जीवों को मार्गदर्शन देने हेतु ईश्वरीय ज्ञान भी अनिवार्य था।

आगे चलकर आदिपुरुष रूप में भगवान विष्णु ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचने के पश्चात जगत के पालन हेतु क्षीरसागर में क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में निवास करते हैं। इस प्रकार आदिपुरुष, जो कि महाविष्णु या कारणोदकशायी विष्णु के तुल्य हैं, की लीला तीन प्रमुख विष्णु रूपों में व्यक्त होती है – कारणोदकशायी (महाविष्णु), गर्भोदकशायी (क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु जिनकी नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न हुए) तथा क्षीरोदकशायी (जो प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में व्याप्त हैं)। ये तीनों रूप मूलतः उसी आदिपुरुष की विभिन्न अवस्थाएँ हैं जिनसे सृष्टि निर्माण, पालन और संहार का चक्र चलता है।

शास्त्रों में उल्लेख

आदिपुरुष का स्पष्ट वर्णन हमें वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में "सहस्रशीर्षा पुरुषः..." कहकर जिस विराट पुरुष की स्तुति की गई है, वह इसी आदिपुरुष का वर्णन है। वहाँ उल्लेख है कि उस आदि पुरुष के सहस्रों शिर, नेत्र, चरण हैं और सम्पूर्ण सृष्टि उसी के अंश से उत्पन्न होती है। उपनिषदों में (जैसे श्वेताश्वतर उपनिषद) कहा गया है कि "यो ब्रह्मणं विदधाति पूर्वम्, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै" – अर्थात् परमात्मा ने ही प्रारम्भ में ब्रह्मा की रचना की और उन्हीं ने आदि में वेदों का प्रकाश किया। यह संकेत आदिपुरुष की ओर ही है।

भागवत पुराण (स्कंध 2, अध्याय 5 आदि) में सृष्टि की प्रक्रिया में परम पुरुष नारायण की इस भूमिका का विस्तृत वर्णन मिलता है। ब्रह्मसंहिता में भगवान को आदिपुरुष कहा गया है:

"ईश्वरः परमः कृष्णः सच्-चिद्-आनन्द विग्रहः
अनादिरादिर् गोविन्दः सर्व कारण कारणम्"

अर्थात भगवान श्रीकृष्ण (विष्णु) ही परम ईश्वर हैं, जो आनंदमय विग्रह वाले हैं, आदि पुरुष हैं और समस्त कारणों के कारण हैं। इस प्रकार 'आदिपुरुष' शब्द स्वयं परमात्मा की आदि सत्ता को दर्शाता है।

भक्ति भाव एवं महत्त्व

आदिपुरुष अवतार हमें यह स्मरण दिलाता है कि भगवान ही सृष्टि के मूल हैं। भक्तजन आदिपुरुष नारायण की आराधना जगत के स्वामी और सृष्टिकर्ता के रूप में करते हैं। प्रातःकाल में सूर्य नारायण को प्रणाम करते समय भी अनेक भक्त यह भाव रखते हैं कि यही भगवान की आदिपुरुष शक्ति है जो जीवनदायी प्रकाश दे रही है। आदिपुरुष सर्वव्यापी नारायण का प्रतीक है, इसलिए भक्ति में उन्हें स्मरण करना आत्मा के परम स्रोत से जुड़ने जैसा है।

आदिपुरुष की महिमा अपार है क्योंकि उनसे ही सब उत्पन्न हुआ और अंततः सब उनमें ही लय होगा। उनके प्रति भक्ति भाव रखते हुए भक्त प्रार्थना करते हैं कि हे आदिपुरुष नारायण, आप ही हमारे पालनहार और जीवन के आधार हैं। संस्कृत में एक प्रसिद्ध प्रार्थना है: "गोविन्दम् आदिपुरुषं तमहं भजामि" – मैं उस आदिपुरुष गोविन्द की भक्ति करता हूँ। यह मंत्र भक्तों द्वारा आदिपुरुष रूप में भगवान की स्तुति हेतु जप किया जाता है।

मनुष्य जब श्रद्धा से "ॐ नमो नारायणाय" मंत्र का जप करता है, तो वह उसी आदिपुरुष नारायण को प्रणाम करता है जिन्होंने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की और उसे संचालित कर रहे हैं। इस प्रकार आदिपुरुष की भक्ति से मन में विनम्रता, कृतज्ञता और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव विकसित होता है, जो जीवन के परम लक्ष्य – भगवान की प्राप्ति – में सहायक है। इससे भक्त को यह भी अनुभव होने लगता है कि जिस परम पुरुष ने संसार रचा है, वह उसकी आत्मा में भी दिव्य ज्योति बनकर सदैव विराजमान है।


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