नर-नारायण: तपस्वी युगल अवतार
परिचय
नर-नारायण भगवान विष्णु के जुड़वा ऋषि अवतार हैं, जिन्होंने तप, सत्य और धर्म की स्थापना के लिए पुरातन काल में अवतरण लिया। "नर" का अर्थ है मनुष्य (जीवात्मा) और "नारायण" परमात्मा का नाम है। इस अवतार में भगवान दो शरीरों में प्रकट हुए – एक नर के रूप में और दूसरे नारायण के रूप में – परंतु दोनों एकात्मभाव से अभिन्न थे। वे सतयुग में अवतरित हुए दिव्य ऋषि हैं, जिनका आश्रम बदरिकाश्रम (आज का बद्रीनाथ) में था। नर-नारायण ने असाधारण कठोर तपस्या द्वारा यह प्रदर्शित किया कि ईश्वर की शक्ति से मानव कितना महान तप और आत्मसंयम कर सकता है। देवता, ऋषि-मुनि सभी उनकी तपश्चर्या के प्रताप से चकित थे। इस युगल अवतार का उद्देश्य धर्म की रक्षा तथा तप-बल से अधर्म का दमन करना था।
जन्म एवं उत्पत्ति
पौराणिक विवरणों के अनुसार, नर-नारायण का जन्म प्रजापति धर्म के घर हुआ था। धर्म (जो ब्रह्माजी के पुत्रों में एक माने जाते हैं) की पत्नी मूर्ति (या अहिंसा, दक्ष प्रजापति की कन्या) के गर्भ से भगवान ने दो पुत्रों के रूप में अवतार लिया। इनमें एक का नाम 'नर' रखा गया और दूसरे का 'नारायण'। जन्म के समय से ही उनके विलक्षण लक्षण प्रकट थे – दोनों बालक ध्यानमग्न मुद्रा में थे, उनमें अत्यंत तेज था और वे सामान्य बालकों की भाँति क्रीड़ा न करके एकाग्रचित्त बैठे रहते थे। माता मूर्ति और पिता धर्म समझ गए कि स्वयं परमात्मा ने उनके घर अवतार लिया है। बड़े होकर नर-नारायण ने हिमालय क्षेत्र के गंधमादन पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम को अपनी तपोभूमि बनाया। वहाँ एक पवित्र बदरी (बेर) वृक्ष के निकट उन्होंने सहस्रों वर्षों तक घोर तपस्या आरंभ की।
उद्देश्य एवं अवतार का भाव
नर-नारायण अवतार का प्रमुख उद्देश्य आदर्श तपस्वी जीवन का प्रतिष्ठापन करना था। उस काल
में कुछ असुर एवं अधार्मिक शक्तियाँ पृथ्वी पर सक्रिय थीं, जिनके नाश के लिए भगवान को
यह भिन्न प्रकार का अवतार धारण करना पड़ा। अन्य अवतारों की भाँति यहाँ प्रत्यक्ष युद्ध या
संवाद कम, बल्कि तप और आत्मशक्ति से आसुरी प्रभाव को शांत किया गया। नारायण ऋषि,
जो दोनों में ईश्वर-स्वरूप थे, ने अनवरत तप द्वारा अपना और नर का तेज इतना बढ़ा लिया
कि उनके प्रताप से पापी शक्तियाँ दूर भस्म हो जाती थीं। उनकी उपस्थिति मात्र से धर्म की
स्थापना हो रही थी। इस प्रकार भगवान ने दिखाया कि ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने का मार्ग
आत्मसंयम और परमात्म-ध्यान है।
एक अन्य भावार्थ यह है कि नर-नारायण अवतार जीवात्मा (नर) और परमात्मा (नारायण) के
शाश्वत संबंध का प्रतीक है। दोनों साथ-साथ तपस्या करते हैं, जिससे इंगित होता है कि जब
मानव (नर) ईश्वर (नारायण) के साथ जुड़कर साधना करता है तो वह किसी भी दुष्ट शक्ति पर
विजय प्राप्त कर सकता है। नर-नारायण की जोड़ी यह भी दर्शाती है कि भगवान अपने भक्त
(जो नर का प्रतीक है) के साथ हर समय उपस्थित हैं और कठिन से कठिन तपस्या में
उसकी सहायता करते हैं। महाभारत में भी श्रीकृष्ण और अर्जुन को नारायण और नर का
अवतार रूप कहा गया है – अर्जुन को नर एवं कृष्ण को स्वयं नारायण माना गया, जो
द्वापर युग में अधर्म के नाश हेतु अवतीर्ण हुए थे। यह मान्यता बताती है कि भगवान
और भक्त युगल रूप में साथ मिलकर धर्म की स्थापना करते हैं।
मुख्य लीलाएँ एवं घटनाएँ
नर-नारायण ऋषि शांत स्वभाव से हिमालय में तप कर रहे थे, परंतु उनकी तपस्या से इंद्रदेव चिंतित हो उठे।
देवराज इंद्र को भय हुआ कि इनकी घोर तपस्या से कहीं वे त्रिलोकाधिपति (इंद्र पद) को न प्राप्त कर लें।
पुराणों में वर्णित है कि इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सराओं और कामदेव को बदरिकाश्रम
भेजा। अनेक रूपवती अप्सराएँ नृत्य-गान द्वारा उनके ध्यान को विचलित करने का प्रयास करने लगीं और
कामदेव ने अपना पुष्प-बाण चलाया। परंतु नर-नारायण की ध्यानावस्था अडोल रही – उन पर इस
विलास का तनिक भी प्रभाव न हुआ। अपनी योजना विफल होते देख इंद्र हताश होने लगे। तब
भगवान नारायण ने एक लीला रची: उन्होंने स्वयं अपनी जाँघ (उरु) को थपथपाया, और वहाँ
से अत्यंत सुंदरी कन्या प्रकट हुई। उसका नाम 'उर्वशी' था, जो स्वर्ग की समस्त अप्सराओं से
भी अधिक रूपवती और मनोहर थी। नर-नारायण ने मुस्कुराते हुए इंद्र के दूतों से कहा,
"आप अपनी इन अप्सराओं को वापस ले जाएँ। हमने तो ईश्वर की कृपा से इससे भी
अधिक सुंदरी उत्पन्न कर दी है। यदि इंद्र को सुंदरी चाहिए तो उर्वशी को उपहारस्वरूप उन्हें दे दें।"
यह सुन अप्सराएँ लज्जित होकर लौट गईं। इंद्र ने भी अपनी भूल स्वीकार की और नर-नारायण
ऋषि के तपोबल को नमन करते हुए क्षमा याचना की। देवताओं ने आकाशवाणी द्वारा उनकी
स्तुति की कि "जय हो! आप जैसे महातपस्वी के कारण ही धर्म स्थिर है।" इस प्रकार
इंद्र ने उनसे आशीर्वाद माँगा कि उनका राज्य सुरक्षित रहे। नर-नारायण ने इंद्र को आश्वस्त
किया कि उनका तप ब्रह्माण्ड की भलाई के लिए है, न कि इंद्रासन के लिए।
एक दूसरी घटना में वर्णन आता है कि सहस्रों वर्ष तपस्या करते हुए जब नर-नारायण हिमालय में थे,
तब कुछ असुरों ने उन पर आक्रमण करने का दुःसाहस किया। उन असुरों का नेता शक्तिशाली सहस्रकवच
नामक दैत्य था (कुछ ग्रंथों में)। नर-नारायण ने बारी-बारी से युद्ध करके उस दैत्य को पराजित किया।
यह लड़ाई असाधारण थी क्योंकि एक ऋषि तपस्यारत रहता और दूसरा युद्ध करता, फिर दोनों अदल-बदलकर
तप और शक्ति संचय करते रहते। अंततः उनकी सम्मिलित शक्ति के आगे दैत्य परास्त हुआ। यह प्रतीकात्मक
कथा दर्शाती है कि ईश्वरीय शक्तियाँ चाहे शांत तप द्वारा हों या सक्रिय रण द्वारा – दोनों तरीकों से
असुरत्व का नाश कर सकती हैं।
नर-नारायण का चरित्र महाभारत काल में पुनः प्रकट हुआ माना जाता है। स्वयं महाभारत में कई स्थानों
पर श्रीकृष्ण और अर्जुन को नर-नारायण का अवतार कहा गया है। महाभारत के शांति-पर्व आदि में संकेत
मिलता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों पूर्वजन्म के नर-नारायण ऋषि हैं और अधर्म के विनाश के लिए
एक साथ अवतरित हुए हैं। इसी कारण कुरुक्षेत्र के युद्ध में भगवान कृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी बने
– यह उसी दिव्य साथ का प्रतीक था। इस मान्यता से हिंदू धर्म में नर-नारायण की जोड़ी और भी विशेष मानी जाती है।
शास्त्रों में उल्लेख
नर-नारायण अवतार का उल्लेख वेद, पुराण और महाकाव्यों में आदर सहित किया गया है।
श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 1 अध्याय 3) में उन्हें भगवान के चौथे अवतार के रूप में गिनाया गया है।
विष्णु पुराण और हरिवंश आदि ग्रंथों में बदरिकाश्रम के तपस्वी के रूप में इनकी गाथा आती है।
महाभारत के वनपर्व में ऋषि लोमहर्षण, पांडवों को नर-नारायण ऋषि के तप की कथा सुनाते हैं।
वहाँ कहा गया है कि "बदरिकाश्रम के पुण्य स्थल में आज भी नर-नारायण तपस्यारत हैं और
उनके तेज से पृथ्वी संतुलित रहती है"। हिंदुओं के चार धामों में प्रमुख बद्रीनाथ धाम वास्तव
में नर-नारायण की तपोभूमि ही है। माना जाता है कि बद्रीनाथ मंदिर में जो नारायण की मूर्ति है,
वह उसी युगल नर-नारायण की स्मृति को दर्शाती है – कहा जाता है कि मंदिर में नारायण के
साथ नर (अर्जुन स्वरूप) भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं। मंदिर के निकट ही दो पर्वत
'नर पर्वत' और 'नारायण पर्वत' के नाम से हैं, जो मानो इन ऋषियों की उपस्थिति के
द्योतक हैं। नर पर्वत और नारायण पर्वत के बीच बहने वाली अलकनंदा नदी इनके तप की साक्षी मानी जाती है।
श्रीमद्भागवत (1.3.9) में कहा गया है कि भगवान ने चौथे अवतार में धर्मपुत्र एवं मूर्तिदेवी के
गर्भ से नर-नारायण रूप में अवतार लेकर इंद्रियों पर संयम द्वारा आदर्श स्थापित किया। यह
अवतार आज भी बद्रीनाथ में तपस्यारत माने जाते हैं।
भक्ति भाव एवं महत्व
नर-नारायण अवतार भक्तों को उच्च आदर्श प्रदान करता है कि आत्मसंयम और भक्ति द्वारा किसी
भी संकट पर विजय पाई जा सकती है। उनकी कथा से शिक्षा मिलती है कि काम, क्रोध, लोभ
जैसी विकृतियाँ तपस्या और प्रभु-स्मरण के सामने टिक नहीं सकतीं। भक्तजन नर-नारायण की
पूजा उन तपस्वी देवों के रूप में करते हैं जिन्होंने भगवद्ध्यान की शक्ति से संसार को पवित्र
किया। विशेष रूप से बद्रीनाथ धाम की यात्रा कर श्रद्धालु मानो नर-नारायण के तप को
नमन करते हैं। वहाँ का शीतल वातावरण और अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बदरीवन,
इन्हीं ऋषियों की उपस्थिति का अहसास कराता है। बद्रीनाथ धाम की आरती में भी
'जय नर-नारायण देव' का गान किया जाता है, जिससे इस अवतार को युगों-युगों तक वंदन मिलता रहा है।
भक्त प्रार्थना करते हैं, "हे प्रभु, हमें नर की तरह धैर्य और नारायण की तरह कृपा प्रदान करें
ताकि हम कठिन साधना और धर्मपालन कर सकें।" उनके जीवन से प्रेरणा मिलती है कि परमात्मा
सदैव हमारे साथ एक मित्रवत उपस्थित हैं (नारायण रूप में) और यदि हम मानव रूप में (नर रूप में)
सच्चे हृदय से उनकी आराधना करें, तो कोई भी प्रलोभन या बाधा हमारी साधना को रोक नहीं सकती।
इस प्रकार नर-नारायण अवतार यह संदेश देता है कि जब मानव और ईश्वर साथ-साथ साधना करते हैं
(नर रूप में प्रयास और नारायण रूप में कृपा), तब धर्म की विजय सुनिश्चित होती है। उनकी
आराधना से जीवात्मा-परमात्मा की एकता का बोध होता है और भक्ति तथा तप में अडिग रहने की प्रेरणा मिलती है।