कपिल मुनि: सांख्य दर्शन के प्रणेता अवतार
परिचय
कपिल मुनि सनातन दर्शनशास्त्र में सांख्य योग के प्रणेता माने जाते हैं। उन्हें भगवान विष्णु के अवतार के रूप में पूजा जाता है जिन्होंने मानवों को तत्त्वज्ञान और ईश्वरभक्ति का अद्भुत उपदेश दिया। कपिलदेव का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण , महाभारत एवं अनेक पुराणों में मिलता है। वे परम ज्ञान के सागर और सिद्ध योगी थे। 'कपिल' का शाब्दिक अर्थ है 'पीतवर्ण या कपिश रंग वाले' – कहा जाता है कि इनके नेत्रों और केशों में सुनहरी आभा थी। उन्हें आम तौर पर तपस्वी के रूप में दर्शाया जाता है, जिनके शरीर पर पीतिमा लिए तेज था। कपिल मुनि को विशेषकर भगवान द्वारा प्रदत्त सांख्य दर्शन (प्रकृति-पुरुष के तत्वों का विश्लेषण) का प्रवर्तन करने वाला माना जाता है, हालाँकि कालांतर में कुछ लोगों ने उनके नाम पर नास्तिक सांख्य मत भी चलाया। श्रद्धालु उन्हें विष्णु के अवतार कपिलदेव के रूप में मानकर उनकी महिमा का गुणगान करते हैं, जिन्होंने ज्ञान और भक्ति दोनों मार्गों को संगति में बांधकर दिखाया।
जन्म कथा
कपिल मुनि का अवतरण सृष्टि के आरंभिक काल में हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार स्वायंभुव मनु की पुत्री
देवहूति और उनके पति महर्षि कर्दम की नौ पुत्रियों के बाद प्रभु स्वयं दसवें संतान के रूप में पुत्र रूप में
प्रकट हुए । जब महर्षि कर्दम ने दीर्घकाल तक तप करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया, तो श्रीहरि
ने वरदान दिया कि वे स्वयं उनकी पत्नी देवहूति के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। समय आने पर कमलनयन
भगवान ने कपिल मुनि के रूप में अवतार लिया। कपिल के जन्म के समय आकाशवाणी हुई कि यह
बालक स्वयं परमेश्वर का अंश है और संसार को अध्यात्म-ज्ञान प्रदान करेगा। पिता कर्दम मुनि को
यह ज्ञात होते ही वे गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर वन को प्रस्थान कर गए, क्योंकि उनका कार्य
(भगवान को पुत्र रूप में पाना) पूर्ण हो चुका था। माता देवहूति ने कपिलदेव के बाल्यकाल का पालन-पोषण किया।
कपिल मुनि बाल्यावस्था से ही असाधारण थे। अन्य बच्चों की तरह उनका खेलकूद में मन नहीं लगता था,
बल्कि अधिकतर शांत चित्त होकर गहन चिंतन में लीन रहते। किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनके चेहरे
पर दिव्य तेज स्पष्ट झलकने लगा। माता देवहूति को भी अनुभव होने लगा कि उनके पुत्र में अलौकिक गुण हैं।
एक दिन उचित समय पाकर माता ने कपिल मुनि से अपने जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) के विषय में शिक्षा
देने की प्रार्थना की। यही वह प्रसंग है जहाँ कपिल मुनि ने अपनी माता को सांख्य दर्शन तथा भक्तियोग का
उपदेश दिया, जिसका वर्णन भागवत महापुराण के तीसरे स्कंध में विस्तार से मिलता है। यह संवाद
'कपिलोपदेश' के नाम से प्रसिद्ध है।
उद्देश्य एवं अवतार का महात्म्य
भगवान विष्णु ने कपिल मुनि के रूप में अवतार लेकर उस समय लगभग लुप्त हो चुके तत्त्वज्ञान को
पुनर्स्थापित किया। कहा जाता है कि प्राचीन काल में संपूर्ण सृष्टि की रचना एवं विधान को समझाने
वाला जो ज्ञान था, कालांतर में वह धूमिल हो गया था। कपिलदेव ने पुनः उस सनातन ज्ञान
(सांख्य शास्त्र) को सुव्यवस्थित रूप में प्रकट किया और साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि केवल
ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है – ज्ञान तब पूर्ण होता है जब उसके साथ भगवान की भक्ति और साधना जुड़ जाती है।
सांख्य दर्शन द्वारा जीव, प्रकृति और परमात्मा के पारस्परिक संबंधों की विवेचना कर कपिल मुनि ने असंख्य
जीवों को आत्मकल्याण का मार्ग दिखाया। उनके अवतार का एक प्रमुख उद्देश्य यह भी था कि अधर्म से
भटके हुए लोगों को तार्किक ढंग से आध्यात्मिक सत्य समझा कर ईश्वर-भक्ति की ओर प्रवृत्त किया जाए।
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि कपिल भगवान ने ही आदिकाल में यह तत्त्वज्ञान अपनी माता को बताया और
फिर उनके एक शिष्य आसुरी मुनि ने उसे आगे संसार में प्रचारित किया । इस प्रकार कपिल द्वारा प्रदत्त
ज्ञान गुरु-परंपरा से भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचा। भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं – "सिद्धानां कपिलो मुनिः"
(सिद्ध पुरुषों में मैं कपिल मुनि हूँ) – जो दर्शाता है कि भगवान स्वयं अपने को कपिल मुनि के रूप में
प्रकट कर चुके हैं। कपिल अवतार को लेकर भक्तिपरंपरा में यह भाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि ईश्वर ने
ज्ञानमार्गी संत का रूप लेकर भक्ति और ज्ञान का समन्वय सिखाया।
कपिल चरित एवं लीलाएँ
कपिल मुनि की जीवन गाथा मुख्यतः उनके द्वारा दिए गए उपदेशों और कुछ चमत्कारिक घटनाओं से जुड़ी है।
सबसे प्रसिद्ध कथा देवहूति को दिया गया उनका उपदेश है। महर्षि कर्दम के वानप्रस्थ गमन के बाद माता देवहूति
योग के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की इच्छुक थीं, किंतु उन्हें मार्ग की पूर्ण जानकारी नहीं थी। पुत्र कपिल तब युवा
अवस्था में थे, परंतु उनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी। एक दिन देवहूति ने कपिल के चरणों में प्रणाम कर
विनयपूर्वक कहा, "पुत्र, मैंने अपना जीवन सांसारिक कार्यों में बिताया, अब तुम कृपा करके मुझे आत्मज्ञान
का वह मार्ग दिखाओ जिससे मैं संसार-सागर से तर जाऊँ।" कपिल मुनि ने अपनी माता की यह विनम्र प्रार्थना
सुनकर बड़े स्नेह से उन्हें सांख्य योग की शिक्षा देनी शुरू की। उन्होंने परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति (माया)
के भेद को समझाया और बताया कि किस प्रकार अज्ञानवश जीवात्मा प्रकृति के गुणों में फँसकर दुःख भोगता है।
उन्होंने २४ तत्वों – पाँच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति आदि – की
व्याख्या की जिनसे भौतिक जगत निर्मित है। फिर समझाया कि इन सबके पार एक शुद्ध आत्मतत्त्व है जो परमात्मा का अंश है।
कपिल मुनि ने अपनी माता को ध्यानयोग और भक्तियोग की विधि भी बताई। उन्होंने कहा कि अंतःकरण को
शुद्ध करने के लिए भगवद्भक्ति से बढ़कर कुछ नहीं। देवहूति को उपदेश देते हुए उन्होंने एक प्रसिद्ध श्लोक कहा:
"मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि संप्रीयते यत्स्वयम् । भवति स्थैर्यवं भद्रं ते ध्यानानुरक्त य उत्तमः" – अर्थात "केवल मेरे
(भगवान के) गुणों को सुनने मात्र से भक्त के हृदय में प्रेम जागृत हो जाता है; फिर श्रेष्ठ भक्त मेरा ध्यान
करके मुझमें लीन हो जाता है।" इस प्रकार कपिल ने भक्ति की महिमा बताकर सांख्य ज्ञान को निर्जीव
दर्शन न रहने देकर उसे भक्तिमय जीवन का मार्ग बनाया। माता देवहूति ने इस अमूल्य ज्ञान को आदरपूर्वक
आत्मसात् किया। कहा जाता है कि बाद में उन्हीं शिक्षाओं के बल पर उन्होंने योग-साधना द्वारा परमात्मा
में लीन होकर मोक्ष प्राप्त किया।
कपिल मुनि की एक अन्य प्रख्यात लीला राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों को अपने तेज से भस्म करने की घटना है।
यह प्रसंग रामायण और भागवत दोनों में मिलता है। अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा सगर एक अश्वमेध यज्ञ कर रहे
थे, जिसका घोड़ा इंद्र ने छल से चुरा कर पाताल में छुपा दिया। घोड़े को खोजते-खोजते सगर के साठ हज़ार पुत्र
पाताल लोक पहुँचे, जहाँ कपिल मुनि ध्यानमग्न तपस्या कर रहे थे। उन्हें घोड़ा कपिल मुनि के आश्रम के निकट
बँधा मिला। यह देखकर राजपुत्रों ने सोचा कि शायद इस तपस्वी ने यज्ञ-घोड़ा चुरा लिया है। उन्होंने क्रोधित
होकर कपिल मुनि को अपशब्द कहना शुरू किया और उन पर घेरा डाल लिया। गहन ध्यान में लीन कपिल
का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर जो उग्र दृष्टि डाली, उससे ब्रह्मतेज की ज्वाला निकल पड़ी
और क्षणभर में ही वे अभिमानी राजकुमार भस्म हो गए। कपिल मुनि पुनः समाधिस्थ हो गए। इधर राजा
सगर को पुत्रों के न लौटने का दु:ख हुआ। वर्षों बाद सगर के वंशज भगीरथ ने महान तपस्या कर गंगा
नदी को पृथ्वी पर अवतरित किया और कपिल मुनि के आश्रम तक ले जाकर अपने पूर्वजों की राख
पर प्रवाहित कराया जिससे वे तृप्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुए। आज गंगासागर (बंगाल की खाड़ी)
के तट पर कपिल मुनि आश्रम की याद में एक तीर्थ स्थान है, जहाँ प्रत्येक मकर संक्रांति पर
विशाल मेले में श्रद्धालु कपिल मुनि को प्रणाम कर गंगास्नान करते हैं।
इन घटनाओं के अलावा कपिल मुनि को अनेक ग्रंथों में आदर से उद्धृत किया गया है। श्रीमद्भागवत में उन्हें
बारह महाजनों में से एक माना गया है (नारद, शिव, चार कुमार, प्रह्लाद, जनक आदि के साथ कपिल का नाम)।
उनकी कही हुई बातें 'कपिल गीता' या 'देवहूति संवाद' के नाम से जानी जाती हैं और भक्तों द्वारा पढ़ी जाती हैं।
पद्मपुराण में आता है कि कपिल ऋषि ने सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान की प्रेरणा से आदि योग का प्रवर्तन किया।
कुछ विद्वान उन्हें अष्टांग योग के प्राचीन आचार्यों में भी गिनते हैं। इस प्रकार ज्ञान और योग के क्षेत्र में कपिल
मुनि का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शास्त्रों में उल्लेख एवं महत्व
कपिल मुनि के उपदेश का मुख्य स्रोत भागवत पुराण का तीसरा स्कंध है, जहाँ नौ अध्यायों में देवहूति-कपिल
संवाद दिया गया है। इसके अतिरिक्त महाभारत (शांति पर्व) में भी सांख्य दर्शन की चर्चा कपिल के नाम के
साथ हुई है। कुछ उपनिषदों में भी कपिल के विचारों का प्रभाव देखा जा सकता है। सांसारिक दृष्टि से
देखने पर कपिल को छः प्रसिद्ध दर्शनशास्त्रों में से एक सांख्य दर्शन का प्रवर्तक माना जाता है। उनके
नाम से 'सांख्य सूत्र' भी प्रचलित हैं (यद्यपि संभवतः उन्हें बाद में किसी अन्य ने संकलित किया)
। भक्ति परंपराएँ कपिल मुनि को भगवान का अंशावतार मानकर उनकी स्तुति करती हैं। भागवत में
स्पष्ट कहा गया है कि यह वही कपिल हैं जिन्होंने परम तत्त्व का ज्ञान कराया, न कि वे कपिल
जिन्होंने समय के साथ ईश्वर से रहित सांख्य मत फैलाया। इसलिए भक्तजन विशेष रूप से
कपिलदेव को प्रणाम करते हैं।
कपिल मुनि की शिक्षाओं का प्रभाव सदियों तक कायम रहा। महर्षि आसुरी और पंचशिखा आदि ने
उनके सांख्य सिद्धांतों को आगे बढ़ाया। वर्तमान युग में भी योगीजन कपिल के उपदेश को पढ़कर
आत्म-स्वरूप और माया के रहस्य को समझते हैं। अनेक भक्त उनके भक्तियोग संबंधी उपदेश से लाभान्वित होते हैं।
भक्ति भाव एवं विरासत
कपिल मुनि ने यह दिखाया कि यदि व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति करनी है तो उसे आत्मज्ञान के साथ-साथ भगवान
की भक्ति का आश्रय लेना चाहिए। उन्होंने अपनी माता को भक्ति का महत्व बताकर आदर्श स्थापित किया कि माता-पिता
को भी संतान से आध्यात्मिक शिक्षा मिल सकती है यदि संतान गुणवान और भगवद्भक्त हो। उनकी कथा में वात्सल्य और
भक्ति का सुंदर संगम देखने को मिलता है। भक्तजन कपिल मुनि को नमन करके प्रार्थना करते हैं कि वे भी देवहूति की
भाँति उनकी अमृतवाणी (भागवत के श्लोकों) का श्रवण कर आत्मकल्याण कर सकें।
भारत में आज भी कपिल मुनि की स्मृति विभिन्न तीर्थों में जीवित है। मध्य प्रदेश में 'कपिलधारा' नामक जलप्रपात है
तो बंगाल में गंगासागर तट पर 'कपिल मुनि का आश्रम'। वहाँ उनकी प्रतिमा स्थापित है और श्रद्धालु उनकी पूजा
कर अपने पितरों की आत्मशांति के लिए प्रार्थना करते हैं। कपिलाष्टमी नाम से एक पर्व भी कुछ क्षेत्रों में मनाया
जाता है। वास्तव में कपिल मुनि के अवतार के प्रति भक्तों का भाव इस श्लोक में प्रकट होता है – "नमामि
कपिलं देवं ब्रह्मविद्याप्रदायकम् । भवबंधनविच्छेत्तारं योगाचार्यं नमाम्यहम् ॥" अर्थात् 'ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले,
भवबंधन काटने वाले योगाचार्य भगवान कपिल को मैं नमस्कार करता हूँ।'
इस प्रकार कपिल मुनि का चरित्र और उपदेश सदा के लिए आध्यात्मिक खोज में लगे लोगों का मार्गदर्शन करता
रहेगा। भक्तों के हृदय में कपिलदेव के प्रति अपार श्रद्धा है क्योंकि उन्होंने भगवान के ज्ञान और भक्ति का प्रकाश
फैलाकर असंख्य आत्माओं को मुक्तिपथ दिखाया। श्री कपिल भगवान की जय हो। उनकी कृपा से हम सभी को
परम सत्य का ज्ञान और निष्कपट भक्ति का वरदान प्राप्त हो।
भक्त समाज उन भगवान कपिलदेव को कोटि-कोटि नमन करता है जिनके ज्ञान-प्रकाश से जगत आलोकित हुआ
और जिनकी भक्ति-मार्गदर्शना से असंख्य प्राणी मुक्तिमार्ग पर अग्रसर हुए।