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जानिए भगवान श्रीगणेश के 108 शक्तिशाली नाम, जिनका उच्चारण जीवन से विघ्नों को दूर करता है और सिद्धि, बुद्धि तथा सौभाग्य प्रदान करता है

जानिए भगवान श्रीगणेश के 108 शक्तिशाली नाम, जिनका उच्चारण जीवन से विघ्नों को दूर करता है और सिद्धि, बुद्धि तथा सौभाग्य प्रदान करता हैAI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

भगवान गणेश के 108 नाम

नाम अर्थ और नामकरण का कारण (प्रमाण सहित)
वक्रतुंड घुमावदार सूंड वाले भगवान
गणेश जी के इस अवतार की सूंड टेढ़ी है। मुद्गल पुराण के अनुसार प्रथम अवतार वक्रतुंड ने मत्सरसुर नामक राक्षस (मत्सर अर्थात ईर्ष्या) का संहार किया था। “वक्रतुण्ड” का एक अर्थ यह भी है कि जो टेढ़े (अन्यायी) मार्ग पर चलने वालों को सीधा करें। इसीलिए गणेश जी को वक्रतुंड कहा जाता है।
एकदंत एक दांत वाले
गणेश जी के दो दाँतों में से एक टूट गया था, इसलिए उनका नाम एकदंत पड़ा। शिवपुराण में कथा है कि परशुराम के संग युद्ध में गणेश जी ने शिव द्वारा प्रदत्त परशु का आदर रखते हुए उस प्रहार को अपने एक दांत पर सह लिया, जिससे उनका एक दांत टूट गयाm। एक अन्य प्रसिद्ध कथा में महाभारत लिखते समय कलम टूटने पर गणेश जी ने अपना एक दंत तोड़कर लेखनी बनाया। इन घटनाओं के कारण वे एकदंत नाम से पूजे गए।
कृष्णपिंगाक्ष
धूमिल-दो रंग वाली आँखों वाले (काले-पीले वर्ण की आँखें)
“कृष्ण” का अर्थ है गहरा (काला) और “पिंग” का अर्थ धूम्रवर्ण (धुँधला पीला-भूरा) और “अक्ष” मतलब नेत्र। शास्त्रों में बताया गया है कि गणेश जी की एक आँख धरती के समान हरी-श्यामल और दूसरी बादलों जैसी धूसर-पीली मानी गई है। यह संकेत करता है कि उनका दृष्टि-पथ पृथ्वी से आकाश तक समस्त जगत को देख सकता है। इस विशेष नेत्ररूप के कारण उनका नाम कृष्णपिंगाक्ष पड़ा।
गजवक्त्र हाथी जैसे मुख वाले
गणेश जी का मुख हाथी के समान है, इसलिए उन्हें गजवक्त्र (गज=हाथी, वक्त्र=मुख) कहा जाता है। यह उनका सुविख्यात स्वरूप है जो शिवपुराण की कथा अनुसार देवी पार्वती द्वारा निर्मि त बालक का सिर हाथी का लगाने से बना। मुद्गल पुराण में गणेश के गजानन अवतार द्वारा लोभासुर (लोभ का दानव) को परास्त करने का वर्णन है – इस अवतार में उनका मुख हाथी जैसा था, जो गजवक्त्र नाम को दर्शाता है।
गजानन गज (हाथी) के चेहरे वाले
गणेश जी का मुख पूर्णतः हाथी के सिर जैसा है, अतः उन्हें गजानन (गज-अनन) कहा जाता है । शिवपुराण में वर्णित है कि पार्वती ने अपने पुत्र को जीवनदान हेतु हाथी का मस्तक लगाया, तभी से वे गजानन हुए। हाथी-सदृश मुख होने से उनका ये नाम सभी पुराणों में प्रसिद्ध है।
गजकर्ण हाथी जैसे कान वाले
गणपति के कान बड़े तथा हाथी के जैसे चौड़े हैं, जिससे उनका नाम गजकर्ण पड़ा। शास्त्रों में उनके विशाल कानों को श्रावण शक्ति और ज्ञान का प्रतीक माना गया है – वे भक्तों की प्रार्थना सुनकर अच्छाइयों को ग्रहण करते और बुराइयों को बाहर छान देते हैं, ठीक जैसे बड़े कान या सूप हवा से भूसा उड़ाकर अन्न अलग करते हैं। इस गुण के कारण उन्हें गजकर्ण/शूर्पकर्ण कहा गया।
लंबोदर बड़े पेट वाले (लंबे उदर वाले)
“लंबोदर” शब्द लंब (लंबा) और उदर (पेट) से बना है। गणेश जी का पेट विशाल है, इसलिए यह नाम पड़ा। एकनाथी भागवत में कहा गया है “संपूर्ण चराचर सृष्टि आपके उदर में वास करती है, इसलिए आपको लंबोदर कहते हैं”। ब्रह्माण्ड पुराण में भी वर्णन है कि भूत , वर्तमान, भविष्य की समस्त ब्रह्मांडीय सृष्टि गणेश के उदर में स्थित है। साथ ही, मुद्गल पुराण के अनुसार उनके अवतार लंबोदर ने क्रोधासुर (क्रोध रूपी असुर) को अपने विशाल पेट में समाहित कर परास्त किया था – अतः वे लंबोदर कहलाए।
विकट विकराल या विशाल रूप वाले
विकट का अर्थ है भयंकर आकार वाला। मुद्गल पुराण में यह गणेश जी का एक अवतार है – विकट रूप में गणेश ने कामासुर (काम/वासना के असुर) का संहार किया था। इस अवतार में उनका वाहन मोर था और रूप विकराल (असामान्य) था, जिससे उनका नाम विकट प्रसिद्ध हुआ। यह नाम यह भी दर्शाता है कि अपने भक्तों के लिए चाहे जितने विकराल बाधा आएँ, गणेश जी उन्हें दूर करने में सक्षम हैं।
विघ्नेश / विघ्नेश्वर
विघ्नों के ईश्वर (बाधाओं के स्वामी)
“विघ्नेश” का अर्थ है विघ्न (बाधा) के ईश्वर। पुराणों में गणेश जी को विघ्नों का अधिपति कहा गया है जो स्वेच्छा से विघ्न डालने या दूर करने की शक्ति रखते हैं। शिव पुराण के अनुसार जब गणेश जी का जन्म हुआ, शिव ने समस्त देवों को घोषणा की कि “यह बालक समस्त विघ्नों का अधिपति होगा” – वह विघ्नेश्वर के रूप में पूज्य होगा। उन्हीं के शासन में विघ्नों का नियंत्रण है, इसलिए उनका नाम विघ्नेश्वर पड़ा।
विघ्नहर्ता विघ्नों का हरण करने वाले (बाधा-नाशक)
गणपति मुख्यतः विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाले देवता हैं। शिवपुराण में स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने गणेश को आशीर्वाद दिया कि वे सभी देवों से पहले पूजित होंगे और जो उनको माने बिना कर्म करेगा, उसे फल नहीं मिलेगा। इससे गणेश विघ्नहर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। हर शुभकार्य के प्रारंभ में उनकी पूजा इसलिए होती है ताकि मार्ग के समस्त विघ्न नष्ट हों। इस गुण के कारण गणेश “विघ्नहर्ता” कहलाते हैं।
विघ्नविनाशक सभी विघ्नों का विनाश करने वाले
यह भी विघ्नहर्ता का समानार्थी नाम है। गणेश जी को विघ्नविनाशन इसलिए कहा गया क्योंकि वे न केवल बाधाओं को हरते हैं बल्कि उनका समूल नाश कर देते हैं। गणेश उपनिषद में उनका ध्यान करते हुए कहा गया है “विघ्नं निहन्तुमेव प्रभुः” – अर्थात वे प्रभु मात्र से ही विघ्नों का नाश हो जाता है। इसीलिए श्रद्धालु उन्हें विघ्नविनाशक रूप में स्मरण करते हैं ताकि जीवन की बाधाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाएँ।
विघ्नराज / विघ्नराजेंद्र विघ्नों के राजा / सम्राट
गणेश जी को विघ्नों का अधिपति भी कहा जाता है। शिवपुराण में वर्णन है कि देवताओं ने गणेश को समस्त गणों एवं विघ्नों का राजा स्वीकार किया। वे विघ्नों के “राजाधिराज” हैं – अर्थात् विघ्न-बाधाएँ भी उनके आदेश बिना नहीं चलतीं। किसी कार्य में विघ्न रखना या हटाना उनके अधीन है। इस प्रभुत्व के कारण गणपति विघ्नराज (या विघ्नों के राजेंद्र) नाम से भी जाने जाते हैं।
सिद्धिविनायक सिद्धि (सफलता) प्रदान करने वाले विनायक
विनायक का अर्थ स्वामी या प्रमुख होता है; सिद्धिविनायक मतलब “सिद्धि देने वाले भगवान”। मान्यता है कि गणेश जी की कृपा से साधक को सिद्धियां और सफलता प्राप्त होती है। गणेश पुराण में गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि का दाता बताया गया है और कई स्थानों पर उनकी पत्नी रूप में सिद्धि का उल्लेख है, जो सफलता की देवता हैं। इसलिए जो स्वयं सिद्धियों के स्वामी हैं, वे सिद्धि-विनायक कहलाए। मुंबई के प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर सहित अनेक श्रद्धालुओं ने इसी के लिए यह नाम प्रसিদ্ধ किया है।
सिद्धिदाता सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ देने वाले
सिद्धिदाता वह है जो भक्त को आध्यात्मिक एवं भौतिक सिद्धियाँ प्रदान करे। गणेश जी को सिद्धिदाता इसीलिए कहते हैं क्योंकि वे बुद्धि, विद्या, सफलता और चमत्कारिक सिद्धियों के दाता हैं। गणेश सहस्रनाम में ‘सिद्धिप्रदाय’ नाम आया है – जो इसी अर्थ को व्यक्त करता है। मान्यता है कि किसी भी मंगलकार्य या साधना में गणेश की उपासना करने से साधक को मनोवांछित सिद्ध फल अवश्य मिलता है। इस कारण उन्हें श्रद्धा से सिद्धिदाता कहा जाता है।
बालगणपति बाल रूप में प्रिय गणेश
गणेश जी के बालक रूप को बालगणपति कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि पार्वती ने उन्हें बालक रूप में ही पैदा किया था, और बालक गणेश शिव जी एवं माता के लाड़ले थे। उनका यह बाल रूप अत्यंत चंचल, बुद्धिमान और प्रेममय माना जाता है जिसे देख देवताओं ने भी उन्हें ममत्व से गो द में उठाया था। भक्तजन उनके इसी भोले बालस्वरूप की उपासना कर आनंदित होते हैं, इसलिए ये नाम प्रचलित हुआ।
भालचंद्र जिनके ललाट पर चंद्रमा है
भाल मतलब ललाट (माथा) और चंद्र अर्थात चंद्रमा। “भालचंद्र” वह है जिसके माथे पर चंद्रमा सुशोभित हो। यह मूलतः भगवान शिव का नाम है, पर गणेश शिव-पार्वती के पुत्र होने से उन्हें भी भालचंद्र कहा गया। गणेश पुराण में उल्लेख मिलता है कि गणपति के मस्तक पर शुभ चंद्रिका का चिह्न है। एक मान्यता यह भी कि गणेश चतुर्थी की रात चंद्र दर्शन पर जो कलंक कथा हुई, तब प्रभु ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया – तभी से वे भालचंद्र कहलाए।
भीम विशाल और प्रचंड
“भीम” शब्द का अर्थ है बहुत विशालकाय या जबर्दस्त तेज़-बल वाला। गणेश जी को भीम इसलिए कहा गया क्योंकि बालक होने पर भी उन्होंने अपनी महाशक्ति से बड़े-बड़े असुरों को परास्त कर दिया। उदाहरणतः मुद्गल पुराण में वे अत्यंत विशालकाय (महाबल) रूप धारण कर लोभ और क्रोध जैसे दानवों को जीतते हैं। उनकी प्रतिमा भी भौतिक रूप से गजमुख, महाकाय मानी जाती है – प्रार्थना में “वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ:” कहा जाता है। इस अतुलित आकार-प्रभा के कारण उनका एक नाम भीम भी है।
भूपति भूमि (पृथ्वी) के स्वामी
“भूपति” का अर्थ है पृथ्वी के अधिपति। गणेश जी को भूपति इसलिए कहा गया क्योंकि संपूर्ण पृथ्वी पर उनका आधिपत्य है – वे सभी दिशाओं और क्षेत्र के मंगलकर्ता देवता हैं। गणेश अथर्वशीर्ष में कहा गया “त्वं विश्वं गतिः” – हे गणेश, तुम सम्पूर्ण विश्व के गति-संचालक हो। पृथ्वी लोक के प्रत्येक कार्य में प्रथम पूज्य होने से भी वे भूपति या प्रभु कहलाते हैं।
भुवनपति तीनों लोकों (संसार) के स्वामी
गणेश जी को त्रिभुवन (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) के अधिपति रूप में भी माना जाता है। कई पुराणों में वे देवताओं के नेता और भक्तों के रक्षक हैं, जो तीनों लोकों में व्याप्त हैं। मुद्गल पुराण में उल्लेख है कि मत्सरसुर आदि दानवों द्वारा तीनों लोकों में उपद्रव होने पर गणेश अवतरित होकर उन्हें मुक्त कराते हैं। इस प्रकार संपूर्ण भुवनों के नियंत्रक एवं पालनहार होने के कारण उन्हें भुवनपति (लोकों के पति) कहा गया।
बुद्धिनाथ बुद्धि के भगवान (स्वामी)
“बुद्धि” अर्थात बुद्धिमत्ता/विवेक, और “नाथ” यानी स्वामी। गणेश जी को बुद्धिनाथ कहा जाता है क्योंकि वे बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं – समस्त विद्याओं और बुद्धि पर उनका साम्राज्य है। विद्यार्थियों द्वारा किसी भी विद्या आरंभ से पहले गणपति की पूजा इसी कारण की जाती है। शास्त्रों के अनुसार गणेश को ब्रह्मणस्पति (मंत्रों के स्वामी) भी कहा गया है, जो उनके बुद्धिनाथ स्वरूप की पुष्टि करता है।
बुद्धिप्रिय बुद्धि के प्रिय (बुद्धिमत्ता को चाहने वाले)
गणेश पुराण एवं सहस्रनाम में गणेश जी का एक नाम “बुद्धिप्रिय” मिलता है, जिसका अर्थ है जिसे बुद्धि प्रिय है या जो बुद्धि के संरक्षक हैं। चूँकि बुद्धि शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग है, इसे यह भी दर्शाता है कि गणेश जी बुद्धि के स्वामी (प्रिय पति) हैं। गणेश जी ज्ञान के प्रेमी हैं – उन्हें पठन-पाठन, शास्त्रीय संगीत, कला आदि प्रिय हैं और वे विद्वानों के आश्रयदाता हैं। इसी कारण वे बुद्धिप्रिय नाम से विख्यात हैं।
बुद्धिविधाता
बुद्धि के दाता (बुद्धि के विधानकर्ता)
“बुद्धिविधाता” का अर्थ है बुद्धि प्रदान करने वाले देव, जो बुद्धि और विवेक का विधान रचते हैं। जब भी भक्त गणेश जी की आराधना करता है, उसे प्रखर बुद्धि और निर्णय क्षमता का आशीर्वाद मिलता है – इसलिए वे बुद्धि-विदाता (या बुद्धि के दाता) कहलाते हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि गणेश को सर्वप्रथम पूजने से विघ्न दूर होते हैं और बुद्धि शुद्ध होती है। इसप्रकार शुभ-ज्ञान देने वाले होने से गणेश जी को बुद्धिविधाता नाम दिया गया।
चतुर्भुज
चार भुजाओं वाले
गणपति की प्रतिमा प्रायः चार भुजाओं (बाहों) के साथ दर्शाई जाती है। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, मोदक और टूटा दंत धारण करते हैं। यह अद्वितीय स्वरूप होने से उन्हें चतुर्भुज कहा जाता है। चार भुजाएँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों तथा चतुर्दिक दिशा-रक्षण का भी प्रतीक हैं। गजानन श्लोक में “चतुर्भुजं चतुर्हस्तं” कहकर गणेश की वंदना की गई है। इस शारीरिक विशेषता के कारण उनका नाम चतुर्भुज है।
देवादेव देवों के भी देव (सर्वश्रेष्ठ देव)
गणेश जी को देवता भी अपना अग्रणी देव मानते हैं। शिव पुराण में यह घटना है कि गणेश के पुनर्जीवित होने पर ब्रह्मा-विष्णु-शिव ने कहा “यह भी हमारा पुत्र और सबसे पहले पूजा योग्य देव होगा” । तभी से वे देवताओं में सर्वोच्च हैं। उनका नाम देव-आदेव या देवदेव इसी कारण पड़ा, क्योंकि वे देवसमाज के अग्रणी और प्रथम पूज्य हैं। हर देवकार्य के आरंभ में उनकी स्तुति स्वयं महादेव करते हैं – यह उन्हें देवों का देव साबित करता है।
देवांतकनाशक देवांतक (देवों को पीड़ा देने वाले असुर) का नाश करने वाले
“देवांतक” का शाब्दिक अर्थ है “देवों का अंत करने वाला” – किसी ऐसे असुर का नाम जो देवताओं का शत्रु हो। शास्त्रों में देवांतक नामक असुर का उल्लेख रामायण में रावण-पुत्र के रूप में मिलता है जिसका वध हनुमान ने किया था। किंतु गणेश जी को देवांतक-नाशक कहा गया है, जो सामूहिक अर्थ में लिया जाता है – अर्थात् जो सभी दुष्टों एवं असुरिक शक्तियों का विनाश करके देवों की रक्षा करें। गणेश पुराण में अनेक दानवों पर गणेश की विजय कथाएँ हैं (जैसे सिंदुरासुर, मत्सरासुर आदि), इसलिए वे समस्त दैत्य-दमन में सक्षम देव हैं और यह नाम उन्हें शोभा देता है।
देवव्रत देवताओं द्वारा व्रतधारी (तप स्वीकार करने वाले)
“देवव्रत” का अर्थ है देवों द्वारा लिया गया व्रत, या वह जो सभी की तपस्या/व्रत स्वीकार करे। गणेश जी को देवव्रत इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने देवताओं के हित में कठिन नियम अपनाए और उनके अनुष्ठान को स्वीकारा। कथा आती है कि जब शिव ने उनका मस्तक काट दिया था, तब पार्वती के रोष शांत करने को ब्रह्मा-विष्णु ने उनका पुनर्जीवन का व्रत लिया और शिव ने आशीष दिया कि गणेश प्रथम पूज्य होंगे। इस प्रकार सभी देवों ने उन्हें पूज्य मानने का व्रत लिया। साथ ही गणेश जी भक्तों की तपस्या सरलता से स्वीकार करते हैं – उनका दिल कोमल है। इसीलिए उनका एक नाम देवव्रत भी है।
देवेन्द्रशिकर / देवेंद्रशीष देवराज इंद्र आदि की रक्षा करने वाले
“देवेन्द्र-शिक” का अर्थ है देवराज इंद्र के रक्षक या अधिपति। पौराणिक कथाओं में कई बार देवगण संकट में पड़े और गणेश ने उनकी रक्षा की। उदाहरणतः गणेश पुराण में गजमुखासुर नामक दैत्य स्वर्ग पर आक्रमण करता है, तब गणेश जी ने अवतार लेकर उसे पराजित किया – इससे देवताओं की रक्षा हुई और उन्होंने गणेश को देवेंद्र-त्राणकर्ता माना। शिवपुराण में तो शिव ने स्वयं गणेश को “सर्व देवताओं से आगे पूजित” होने का वर दिया, तब से इंद्र आदि देव भी प्रत्येक कार्य से पूर्व गणेश की आराधना करते हैं। अर्थात् गणेश जी देवेंद्र सहित सभी देवों के संरक्षक हैं, इसलिए वे देवेंद्रशिक कहलाते हैं।
दूर्जय / दुर्जय (दूर्जा)
जिसे कोई पराजित न कर सके (अपराजेय)
“दुर्जय” का अर्थ है जिसे जीतना कठिन हो। गणेश जी अपराजेय हैं – वे स्वयं परब्रह्म के अंश हैं तथा किसी भी असुर या विघ्न-बाधा द्वारा परास्त नहीं किए जा सकते। मुद्गल पुराण में आया है कि समस्त देव, विष्णु आदि ने भी जिन विघ्नों को जीतने में असमर्थता जताई, उन्हें गणेश ने सहज परास्त किया। उनकी पराजय केवल विनम्रता से स्वयं स्वीकारने पर ही संभव है (जैसे परशुराम को दंत भेंट किया)। इस प्रकार वे अजेय शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए उनका नाम दुर्जय (या दूर्जा) पड़ा।
धार्मिक धर्मपरायण एवं दानशील
गणेश जी को “धार्मिक” या पुण्यकर्मी देव कहा गया है। इसका एक अर्थ यह भी है कि वे दानी हैं – शास्त्रों के अनुसार गणपति अपने भक्तों पर सदा दया और धर्म की वर्षा करते हैं। मत्स्य पुराण में कथा है कि गणेश ने राजा शुद्दुधन को धर्म की राह दिखाई और अंततः मोक्ष प्रदान किया। गणेश चतुर्थी पर अन्नकूट में दान-पुण्य की परंपरा गणेश के इसी धर्म स्वरूप से जुड़ी है। उनके “धार्मिक” नाम का तात्पर्य है कि वे धर्म के रक्षक व शुभ कर्म के प्रेरक हैं, जो सदैव दान-पुण्य करने को तत्पर रहते हैं।
द्वैमातुर दो माताएँ रखने वाले
“द्वि” मतलब दो और “मातृ” यानी माता – द्वैमातुर अर्थ है जिसकी दो माताएँ हों। यह विशेष नाम गणेश जी के जन्म-प्रसंग से जुड़ा है। शिव पुराण में कथा आती है कि पार्वती ने अपने उबटन (हल्दी लेप) से बालक को गढ़ा और उसे जीवनदान हेतु गंगा में डुबोया। गंगा के स्पर्श से बालक जीवित हुआ, इसलिए वह गंगा का भी पुत्र कहलाया। इस प्रकार पार्वती जननी हुईं और माँ गंगा ने भी पालनहार माता का दर्जा पाया। दो माताओं (पार्वती व गंगा) से संबंध होने के कारण गणेश “द्वैमातुर” नाम से प्रसिद्ध हुए।
एकाक्षर एकाक्षरी (ॐ स्वरूप)
“एकाक्षर” का सीधा अर्थ है एक मात्र अक्षर, जिससे ओंकार (ॐ) का बोध होता है। गणेश जी को वेदों में प्रणव (ॐ) का स्वरूप कहा गया है। गणपति अर्थर्वशीर्ष में स्पष्ट है – “त्वं मूलाधार स्थितोऽसि, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं रुद्र, त्वमेकमक्षरं ब्रह्म” – अर्थात गणेश जी ही एक अक्षर ब्रह्म हैं। इसलिये उनका एक नाम एकाक्षर है । साधना में ॐ को प्रथम जपने का विधान है और गणेश को प्रथम पूजने का – दोनों का तात्पर्य एकाक्षर प्रभु से है।
एकदृष्टि एक-निष्ठ दृष्टि वाले (एकाग्र चित्त)
“एकदृष्टि” का अर्थ है जिसकी दृष्टि (दृष्टी) एक ही लक्ष्य पर केंद्रित हो। गणेश जी को एकदृष्टि या एकाग्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे अपने साधकों की ओर से एकनिष्ठ होकर उनके हित पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। एक कथा अनुसार बाल गणेश ने परिक्रमा स्पर्धा में केवल माता-पिता को ही समस्त जगत मानकर तीनों लोकों की बाज़ी जीत ली – यह उनकी एकाग्र बुद्धि का द्योतक है। इस प्रकार, एकदृष्टि रूप में गणेश जी हमें भी एकनिष्ठ होकर सत्य पर टिकने की प्रेरणा देते हैं।
ईशानपुत्र भगवान शिव (ईशान) के पुत्र
“ईशान” शिव का एक नाम है और “पुत्र” अर्थात बेटा। शिवपुराण में वर्णित प्रसंगानुसार, जब बाल गणेश का सिर लगा कर जीवनदान दिया गया, तब शिवजी ने हर्षपूर्वक घोषणा की – “यह मेरा पुत्र है”। गणेश जी का जन्म भले पार्वती के अंश से हुआ, परंतु पुनर्जीवन के बाद स्वयं महादेव ने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकारा । इस प्रकार गणेश शिव-अंश और शिव-पुत्र दोनों हुए। वे अर्धनारीश्वर के पुत्र हैं – आधे शिव, आधे शक्ति से उत्पन्न, इसलिए ईशानपुत्र नाम सार्थक है।
गदाधर गदा धारक (गदा हथियार वाले)
“गदाधर” का अर्थ है गदा धारण करने वाला भगवान। यद्यपि गणेश जी के चार मुख्य आयुध पाश, अंकुश, दंत और मोदक हैं, फिर भी कुछ उपासना स्वरूपों में उन्हें गदा रखते बताया गया है। मुद्गल पुराण में वर्णन है कि गणेश के “विजय गणपति” रूप के चार हाथों में एक हाथ गदा लिए है जो दुष्टों के संहार का प्रतीक है। गदा राजा का शस्त्र है और गणपति समस्त गणों के अधिपति हैं – यह संदेश भी इस नाम में है। अतः शस्त्ररूप में गदा धारण करने के कारण उनका एक नाम गदाधर विख्यात है।
गणाध्यक्ष / गणाध्यक्ष समस्त गणों के अध्यक्ष (नेता)
“गणाध्यक्ष” का अर्थ है गणों (भगवान शिव की सेना/परिवार) के प्रधान। शिवपुराण के अनुसार, बालक गणेश ने जब शिव के गणों को द्वार पर रोका और युद्ध में परास्त किया, तब अंततः प्रसन्न होकर शिवजी ने गणेश को समस्त गणों का अध्यक्ष नियुक्त किया। शब्दशः – “पुत्र, तुम मेरे समस्त गणों के अधिपति (पति) होंगे”। इसलिए गणेश गणपति भी कहलाए। यह पद मिलने के बाद सभी ने उन्हें गणाध्यक्ष मानकर वंदना की। आज भी हर शिव-मंदिर में नंदी सहित समस्त गण पहले गणेश जी को प्रणाम करते हैं – उनका यह अध्यक्षीय गौरव सुनिश्चित है।
गणाध्यक्षिण सभी गणों एवं ग्रह-नक्षत्रों के अधिनायक
कुछ पाठांतरों में “गणाध्यक्षिणे” नाम आता है, जिसका तात्पर्य व्यापक नेतृत्व से है। गणपति न केवल शिव-गणों के बल्कि ब्रह्मांड के गणों (भूत, प्रेत, ग्रह, नक्षत्र आदि शक्तियाँ) के भी स्वामी हैं। मनुष्य गृह्यसूत्र आदि में वर्णन है कि विनायक नामक गण बाधाएं उत्पन्न करते थे, जिन्हें वश में करने हेतु शिव ने गणेश को उनका अधिपति बनायाhindujagruti.org। अतः गणेश समस्त गण समूहों के नियंत्रक हुए। वे नवग्रहों को भी अंकुश में रखते हैं – कई स्थानों पर गणेश की पूजा से शनि आदि ग्रहदोष शान्त होते हैं। इस सार्वभौमिक नेतृत्व के अर्थ में उन्हें गणाध्यक्षिण कहा जाता है।
गौरीसुत गौरी (पार्वती) के पुत्र
“गौरी” देवी पार्वती का ही नाम है (उनके उज्ज्वल वर्ण के कारण गौरी कहा जाता है)। गणेश जी गौरी के अंश से उत्पन्न पुत्र हैं, इसलिए उन्हें गौरीसुत (या गौरीनंदन) कहा जाता है। शिवपुराण में पार्वती ने उबटन से स्वयं गणेश को बनाया और हर्षपूर्वक कहा “तुम मेरे बेटे हो” – गणेश केवल और केवल पार्वती मातृ शक्ति से ही जन्मे थे, इसीलिए वे गौरी के लाड़ले पुत्र हैं । समस्त पुराणों में मातृ-पुत्र के इस स्नेह के उल्लेख मिलते हैं – स्कंद पुराण में भी पार्वती को “गणेश जननी” कहा गया है। अतः गणेश जी का गौरीसुत नाम मातृ संबंध का प्रमाण है।
गुणिन / गुणीण सम्पूर्ण गुणों से युक्त (सर्वगुण संपन्न)
“गुणिन” का अर्थ है जिसमें समस्त सद्गुण विद्यमान हों। गणेश जी सर्वगुणसंपन्न देवता हैं – उनमें ज्ञान, बुद्धि, धैर्य, दया, पराक्रम, विनम्रता आदि अनंत गुण हैं। इस कारण उन्हें गुणनिधान भी कहा जाता है। संस्कृत शब्दकोश अमरकोष में गणेश के 8 नाम बताए गए हैं, जिनमें “गुणीन” भी सम्मिलित है – अर्थात गणपति अनंत गुणों वाले हैं। भक्तजन उनकी हर लीला में कोई न कोई गुण पाते हैं; वे अपने गुणों से सबका कल्याण करते हैं। इसलिए “गुणिन” नाम से उनकी स्तुति की जाती है।
हरिद्र पीतवर्ण (हल्दी समान सुनहरे)
“हरिद्र” का अर्थ हल्दी जैसा पीला रंग। एक पौराणिक कथा में पार्वती ने हल्दी (उबटन) से गणेश का निर्माण किया था, इसलिए उनका एक रूप हरिद्र गणपति कहलाता है। तांत्रिक उपासना में हरिद्र गणपति एक प्रसिद्ध रूप हैं जिसमें गणेश पीतवर्ण (पीले) माने जाते हैं और उन्हें हल्दी के लड्डू अर्पण किए जाते हैं। शिवपुराण के अनुसार गणेश पार्वती के उबटन से बने और गंगा के जल से जीवित हुए – इस प्रक्रिया में हल्दी के कारण उनका वर्ण स्वर्णिम था। अतः हरिद्र (पीतवर्ण) उनका प्रकृति से जुड़ा एक विशेष नाम है।
हेरम्ब माँ (पार्वती) के अति प्रिय पुत्र
हेरम्ब शब्द का अर्थ है “जो अपनी माता का प्रिय हो”। गणेश जी अपने माता-पिता को अत्यंत प्रिय हैं – गुस्से में शिव ने उनका मस्तक काटने के बाद खुद ही पुत्र स्वीकार किया और पार्वती ने भी पुत्र के लिए जगत को संकट में डाल दिया था। नेपाली और तांत्रिक परंपरा में “हेरम्ब गणपति” गणेश का एक पांच-मुखी रूप है जिसमें वे माता के संरक्षक के रूप में प्रकट होते हैं। इस स्वरूप में गणेश मातृभक्त और अभयदान देने वाले माने जाते हैं। अतः माता के अनुराग के प्रतीक रूप में उन्हें हेरम्ब कहा जाता है।
कपिल कपिल (पीतवर्ण-भूरे रंग) के
कपिल रंग हल्के पीले-भूरे (गौरे) वर्ण को कहते हैं। कई शास्त्रों में गणेश जी का व र्णना विभिन्न रंगों से की गई है – जैसे गणेश की मूर्ति अक्सर सिंदूर (लाल) से रंगी जाती है, लेकिन ध्यान में श्वेत, पीत, हरित वर्णों का भी उल्लेख है। “कपिल” रंग गौ-धूलि जैसा पिंगल वर्ण होता है। गणेश पुराण में एक ध्यान में गणपति को कपिलवर्ण (उदीची दिशा में रहने वाला कपिल-गणेश) रूप में ध्यान करने को कहा गया है। इसीलिए उनका एक नाम कपिल भी है, जो उनके सौम्य पीत-भूरे आभा वाले स्वरूप को दर्शाता है।
कवीश / कविश कवियों के ईश्वर (कवियों के स्वामी)
गणेश जी विद्या और कला के देव हैं, वे लेखक और कवियों के आराध्य माने जाते हैं। “कवीश” का अर्थ है कवियों के ईश (स्वामी)। महाकवि व्यास ने स्वयं प्रथम पूज्य गणेश को महाभारत लिखने के लिए चयन किया – वे लेखनी के अधिपति हैं। संस्कृत काव्यों में किसी भी मंगलाचरण में गणेश की स्तुति की परंपरा है ताकि रचना निर्विघ्न पूर्ण हो। मुद्गल पुराण में उन्हें संगीत-नृत्य में निपुण बताया। इन सब कारणों से कवि और लेखक गणेश को सरस्वती के साथ-साथ काव्य के देवता रूप में पूजते हैं, इसलिए उनका नाम कवीश (या कविष) प्रसिद्ध है।
कीर्ति यश (कीर्ति) देने वाले, स्वयं भी कीर्ति-प्रसिद्ध
गणेश जी को “कीर्ति” नाम से भी संबोधित किया गया है , जिसका दोहरा अर्थ है – एक तो वे अत्यंत कीर्ति वाले देव हैं, दूसरे वे भक्तों को कीर्ति (यश और सफलता) प्रदान करते हैं। शिवपुराण में जब देवों ने गणेश की महिमा गायी तो कहा कि “इनकी पूजा के बिना कोई यज्ञ सफल नहीं होता” – इससे उनकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल गई। साथ ही, उनकी कृपा से भक्त को विद्या, बुद्धि, धन, सिद्धि सब प्राप्त होने से समाज में यशस्वी होता है। अतः गणपति की महिमा (कीर्ति) और कृपा-दोनों के कारण उनका नाम कीर्ति सार्थक है।
कृपालु दयालु, कृपा करने वाले
गणेश जी का हृदय अत्यंत करूणामय है – वे तुरंत प्रसन्न होकर भक्त की बाधाएँ हर लेते हैं। “कृपालु” का अर्थ दयावान होता है। प्रसिद्ध स्तोत्र में आता है “कृपालु विनायक, करुणा-सागर” – अर्थात गणेश जी दया के सागर हैं। पुराणों में वर्णित है कि गणेश जी सरल भाव से थोड़े से दूर्वा, फूल, गुड़-मोदक चढ़ाने मात्र से प्रसन्न होकर कृपा बरसाते हैंtheartarium.com। वे अपने भक्तों के कष्ट स्वयं उठा लेते हैं जैसे पार्वती के कहने पर गंगा को मुक्त कराने के लिए गौतम ऋषि की परीक्षा ली। इस करूणा के कारण उन्हें कृपาลु कहा जाता है।
कृष्णपिंगाक्ष पीले-भूरे (पिंग) और कृष्ण (गहरे) रंग की आँखों वाले
(यह नाम ऊपर “कृष्णपिंगाक्ष” के विवरण में शामिल है, दोनों पंक्तियाँ समाहित की जा सकती हैं)
क्षमाकर क्षमा का स्रोत, क्षमास्वरूप
“क्षमाकर” शब्द का अर्थ है क्षमा (दया) की खान, यानी बहुत क्षमाशील। गणेश जी उदार हृदय से अपने भक्तों के अपराध क्षमा करते हैं। पौराणिक कथा में चंद्रमा ने गणेश का उपहास उड़ाया तो गणेश ने उसे श्राप दिया, किंतु बाद में देवताओं के कहने पर श्राप में संशोधन कर दिया – यह उनकी क्षमाशीलता थी। वे स्वयं अपने तोड़े दंत को भी क्रोध के बजाय ज्ञान के उपकरण में परिवर्तित कर लेते हैं। उनकी मूर्ति के विशाल उदर से भी संकेत है कि वे दूसरों की भूलों को अपने पेट में रखकर क्षमा कर देते हैं। इस उदार गुण के कारण वे क्षमाकर (क्षमाधार) नाम से पूजित हैं।
क्षिप्र शीघ्र प्रसन्न होने वाले
“क्षिप्र” का अर्थ होता है शीघ्र, तुरंत। गणेश जी अपने भक्तों पर तुरंत कृपा बरसाने के लिए प्रसिद्ध हैं – थोड़े से पूजा-पाठ से भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। विनायक चतुर्थी व्रत कथा में वर्णित है कि एक दिन के उपवास और पूजा से ही गणेश सभी मनोरथ पूरे करते हैं। इसलिए उन्हें “क्षिप्र प्रसादिन” कहा जाता है। 108 नामों में क्षिप्र नाम इंगित करता है कि गणपति की आराधना से तुरंत फल मिलता है – वे जल्दी रुष्ट नहीं होते बल्कि झट प्रसन्न होकर विघ्न हर लेते हैं।
लंबकर्ण / शूर्पकर्ण बड़े कान वाले (शूर्प जैसे कान)
गणेश जी के कान बहुत बड़े हैं, जिन्हें कभी हाथी के पंखे समान तो कभी सूप (अनाज साफ करने वाला शूर्प) समान कहा जाता है। इसलिए उन्हें लंबकर्ण (दीर्घकर्ण) या शूर्पकर्ण कहते हैं। बड़े कान प्रतीक हैं कि गणेश सबकी बात सुनते हैं और उनमें से सार तत्व (सत्य प्रार्थना) को अलग कर ग्रहण करते हैं। शूर्पकर्ण की एक कथा लोकप्रचलित है कि गणेश ने अपने कान को शूर्प जैसा हिला कर कार्तिकेय से प्रतियोगिता में अपने माता-पिता की परिक्रमा कर ली थी। भाव यह कि वे अपनी बुद्धिमत्ता से हर चुनौती पार कर जाते हैं – बड़े कान भी उसी सूझबूझ के सूचक हैं।
महाबल अत्यंत महान बलशाली
“महाबल” का अर्थ है महान बल (शक्ति) वाला। गणेश जी बालक रूप में भी महाबली हैं – उन्होंने असुरों, देवों, ग्रहों तक को परास्त किया है। गणेश पुराण में उनका वर्ण “सहस्र सूर्य के प्रकाश एवं असीम शक्तिवान” दिया गया है। स्वयं शिव जैसे देवता ने गणेश से युद्ध में पराजय स्वीकार की (जब तक चाल से उनका मस्तक नहीं काट पाए) – यह उनकी अप्रतिम शक्ति का प्रमाण है। अतः गणेश जी को महाबल कहा जाता है। उनके महाबली होने की स्मृति में ही उनके जन्मोत्सव पर मल्लयुद्ध आदि शक्ति-दर्शन के खेल भी आयोजित होते हैं।
महागणपति देवों में महानतम गणपति
“महागणपति ” गणेश जी का पूज्यतम स्वरूप है, जिसमें वे समस्त गणों के प्रधान देवों में भी सर्वोच्च माने जाते हैं। महाराष्ट्र में अष्टविनायक तीर्थों में रांजणगाँव के गणेश को “महागणपति” कहा जाता है – शास्त्रों के अनुसार यह वह रूप है जिसमें गणेश ने त्रिपुरासुर-वध के लिए शिव को दिव्य अस्त्र प्रदान किया था, यानी देवकार्य के लिए स्वयं प्रमुख बन कर सहायता दी। महागणपति मन्त्र, उपनिषद में भी इनका उल्लेख है। संक्षेप में, जब गणेश जी की महिमा का वर्णन करना हो तो उन्हें महागणपति (सर्वोच्च गणपति) कहकर वंदन किया जाता है।
महेश्वरपुत्र महेश (शिव) के पुत्र
महेश्वर अर्थात भगवान शिव, और पुत्र यानी बेटा – यह नाम भी इस सत्य को रेखांकित करता है कि गणेश शिव के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं। हालांकि पार्वती ने ही गणेश को जन्म दिया, पर शिव ने पुनर्जीवन देकर और गणों का अधिपति बनाकर उन्हें औपचारिक रूप से पुत्र स्वीकृत किया। पुराणों में उन्हें स्कंद (कार्तिकेय) का बड़ा भाई कहा गया है, इससे भी सिद्ध होता है कि गणेश शिव-पार्वती के पहले पुत्र हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि शिव ने गणेश को “अपने बराबर पूज्य” घोषित किया, जो पिता-पुत्र के अटूट संबंध को दर्शाता है।
मंगलमूर्ति समस्त मंगल (शुभता) के मूर्त रूप
गणेश जी को मंगलकार्य का प्रतीक माना जाता है – वे स्वयं शुभ स्वरूप हैं और जिनके दर्शन से ही कार्य सिद्ध होते हैं। “मंगलमूर्ति” का अर्थ है शुभता की मूर्ति। महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के समय जयकार “सुखकर्ता दुःखहर्ता मंगलमूर्ति मोरया ” गूंजता है। शास्त्रों के अनुसार गणेश की आराधना से अशुभ शक्ति दूर रहती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हैtheartarium.com। सभी देवी-देवताओं में गणेश ही ऐसे हैं जिनका स्मरण किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में अनिवार्य है – इसलिए वे संपूर्ण मंगल के अधिपति हुए। उनकी प्रतिमा घर में होने भर से मंगल होता है, इस कारण वे मंगलमूर्ति कहलाते हैं।
मनोमय मन को जीत लेने वाले (मन को मोहित करने वाले)
मनोमय का अर्थ है जो स बके हृदय को प्रसन्न कर दे। गणेश जी अपने बाल-सुलभ मधुर रूप, हँसमुख मुखमंडल और भोले स्वभाव से सभी के मन को मोह लेते हैं। वे विघ्नहर्ता होकर भी एक विनोदप्रिय, आनंददायक देव हैं – उनकी लीला मन को खुशी से भर देती है। अनेक कथाओं में गणेश को हास्य और चातुर्य का मेल बताया गया है जो श्रद्धालुओं का मन जीत लेता है। इसीलिए उन्हें विनायक के साथ-साथ मनोज्ञ और मनोहर भी कहा गया है। उनका नाम मनोमय बताता है कि वे भावनात्मक रूप से भक्तों के चित्त में बस जाते हैं।
मृत्युञ्जय मृत्यु पर विजय पाने वाले
सामान्यतः “मृत्युञ्जय” भगवान शिव का नाम है (त्र्यम्बक मंत्र में) – पर गणेश जी को भी मृत्युञ्जय कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने बल और शिव-कृपा से वास्तविक मृत्यु को जीत लिया था। जब गणेश का सिर कट गया तब यह मृत्यु तुल्य घटना थी, किंतु शिव ने हाथी का मस्तक जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया – मानो मृत्यु प र विजय मिली। इसके बाद देवों ने उन्हें अजेय वरदान दिए जिससे उन्हें कोई मार नहीं सकता। साथ ही, गणेश जी भक्तों की अकाल मृत्यु भी टाल सकते हैं – कई स्थानों पर उनकी पूजा से आयु वृद्धि और रोगनाश की कथाएँ हैं। इसलिए वे मृत्युञ्जय (मृत्यु पर विजयी) माने जाते हैं।
मूदाकरम आनंद का निवास स्थान, जो खुशी प्रदान करें
“मूद” या “मुदा” का अर्थ आनंद/प्रसन्नता है। प्रसिद्ध गणेश स्तुति “मुदाकरात्त मुदम्” (गणेश पञ्चरत्न) का अर्थ है “जो आनंद स्वरूप होकर आनंद प्रदान करें”। गणेश जी भक्तों के जीवन में सुख भर देते हैं, उनके आने से हर उत्सव, हर कार्य मंगलमय होता है। उनकी पूजा-आरती के समय वातावरण उमंग से भर जाता है। इसलिए उन्हें मूदाकर (या मुदाकरम) कहा गया है – अर्थात स्वयं आनंद के भंडार, जहां से खुशी उत्पन्न होती है। सरल शब्दों में, वे दुःख हरकर सुख देने वाले देव हैं।
मुक्तिदाता मोक्ष (मुक्ति) प्रदान करने वाले
गणेश जी सिर्फ सांसारिक सिद्धियाँ ही नहीं बल्कि परम मोक्ष देने की शक्ति भी रखते हैं, इसलिए वे मुक्तिदाता हैं। गणेश उपनिषद में उन्हें सच्चिदानंद ब्रह्म बताया गया है और उनकी उपासना से आवागमन के बंधन कट जाते हैं। अनेक भक्तों (जैसे नारद, पुरंदरदास आदि) को गणेश भक्ति से आत्मज्ञान प्राप्त होने की कथाएँ हैं। ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी गणेश अंततः मोक्ष रूपी सिद्धि भी प्रदान कर सकते हैं – तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में गणेश को प्रणाम करते हुए “महा मुनि निरंजन” कहा है, जो मोक्षदायी निरंजन स्वरूप है। इस प्रकार मोक्ष प्रदाता होने के नाते गणेश जी मुक्तिदाता नाम से विभूषित हैं।
मूषकवाहन
जिनका वाहन मूषक (चूहा) है
गणेश जी का वाहन छोटा सा मूषक (चूहा/गंधर्व) है। पुराणों में कथा मिलती है कि एक शक्तिशाली असुर “मूषकासुर” ने जब उत्पात मचाया तो गणेश जी ने अपने पाश से उसे बांध लिया। वह असुर क्षमा मांगकर मूषक (चूहा) का रूप धारण कर गया। तब गणेश जी ने अनुग्रह करके उसे अपना वाहन बना लिया। चूहे जैसे छोटे जीव पर आरूढ़ होने का भावार्थ है कि गणेश जी अहंकार रहित हैं और सबसे विनम्र (नीच समझी जाने वाली) प्रजा को भी अपने साथ रखते हैं। इस करुणा और कथा के कारण गणेश को मूषकवाहन कहा जाता है।
नादप्रतिष्ठ
जो नाद (संगीत) में प्रतिष्ठित हैं या संगीत-प्रिय
गणेश जी को कला और संगीत का संरक्षक माना जाता है। “नादप्रतिष्ठित” का अर्थ है जो परम ओंकार नाद में स्थिर हैं और संगीत के रसिक हैं। मुद्गल पुराण के अनुसार बाल गणेश ने शिव के तांडव से नृत्य सीख लिया और माता पार्वती के नूपुरों (पायल) की झंकार से संगीत सीख लिया था – इस प्रकार वे नाद में पारंगत हुए। उनके एक हाथ में “अंकुश” भी प्रतीक है कि वे संगीत की ताल को नियंत्रित करते हैं। इसलिए उनको नाद-स्थापन करने वाला देव कहा जाता है। भक्ति में गणेश के भजन, स्तुति, गीत अत्यंत प्रचलित हैं – यह उनके नादप्रिय होने का ही द्योतक है।
नमस्तस्ये / नमस्तेतु जिन्हें नमन करने से पाप नष्ट हों
“नमस्तस्ये” का अर्थ है “उन्हें नमस्कार हो” – यह नाम उनकी वंदनीयता को दर्शाता है। माना जाता है कि गणेश जी को प्रणाम करते ही सभी पाप-दोष दूर हो जाते हैं। एक पौराणिक प्रसंग में चंद्रमा का कलंक मिटाने के लिए गणेश चतुर्थी पर गणेश को नमन करने का विधान बना। इसलिए “नमस्तेतु” कहकर गणेश का एक नाम बताता है कि जो भी उन्हें नमस्कार करता है, उसके समस्त पाप-बंधन कट जाते हैं। 108 नामों की सूची में यह नाम मौजूद है, जिससे संकेत मिलता है कि गणपति सर्वश्रेष्ठ नमस्कृत देवता हैं – उनका स्मरण वंदन मात्र से भी कल्याण होता है।
नन्दन आनंद प्रदान करने वाले पुत्र; शिव का पुत्र
नन्दन शब्द का एक अर्थ “आनंद देने वाला” है और दूसरा अर्थ “पुत्र” भी होता है (जैसे इन्द्र का पुत्र – जयंत को सुरानन्दन कहते हैं)। गणेश जी दोनों ही अर्थों में नन्दन हैं। वे शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो माता-पिता के नन्दन हुए। साथ ही, अपने गुणों से तीनों लोकों को आनंदित करते हैं, इसलिए सभी देवों के लिए भी नन्दन हैं। स्कंद पुराण में पार्वती-प्रसन्न हेतु गणेश ने गौतम ऋषि के द्वारा गंगा को शिवजटा से मुक्त कराया, जिससे पार्वती हर्षित हुईं – यहाँ गणेश मातृ-पितृ नन्दन साबित हुए। उनका यह नाम उनकी प्रियता और आनंददायक स्वभाव का परिचायक है।
निधीश्वरम निधियों (धन-रत्नों) के ईश्वर, दाता
“निधीश्वर” का अर्थ है संपत्ति और धन के स्वामी/दाता। गणेश जी को धन का दाता माना जाता है – उनकी कृपा से रिद्धि-सिद्धि (ऐश्वर्य और सफलता) आती हैं। एक प्रसिद्ध कथा में कुबेर ने गणेश को भोजन पर आमंत्रित किया और गणेश जी ने अपनी भूख से उसे निरभिमान कर दिया, तब कुबेर को समझ आया कि सच्ची समृद्धि विनायक की प्रसन्नता से ही मिलेगी। इस प्रकार गणेश जी को धन के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। व्यापार के आरंभ में “श्री गणेशाय नमः” लिखने की प्रथा है ताकि निधान (निधि) की वर्षा हो। इसलिए वे निधीश्वर (निधियों के ईश्वर) कहलाते हैं।
ॐकार ओंकार (प्रणव मंत्र) स्वरूप
गणेश जी को साक्षात ओंकार (ॐ) का स्वरूप माना गया है। उपनिषद कहते हैं “ॐ नमः शिवाय” मंत्र में प्रथम ॐ गणेश ही हैं। गणपति अथर्वशीर्ष में स्पष्ट कहा गया – “त्वं ओंकारः” – अर्थात गणेश ही ओंकार हैं। इसलिए उनका एक नाम ओंकार हैmy। प्रार्थना में भी “ॐ गं गणपतये नमः” कहकर गणेश को प्रणव के साथ जोड़ा जाता है। यह नाम गणेश जी की उस ब्रह्मस्वरूप भूमिका को दर्शाता है कि वे सृष्टि के आदिमंत्र हैं – समस्त सृष्टि उनके नाद (ॐ) से प्रारंभ हुई है।
पीताम्बर पीत-वस्त्र धारण करने वाले
“पीताम्बर” का अर्थ है पीले वस्त्र पहनने वाले प्रभु (पीत = पीला, अम्बर = वस्त्र)। यह नाम श्री विष्णु का भी है, पर गणेश जी के संदर्भ में भी प्रयोग होता है। विशेषकर व्रत व पूजन में गणेश को हल्दी का पीला चोला चढ़ाया जाता है, और कई मूर्तियों में उन्हें पीतवस्त्र पहनाए जाते हैं। कुछ कथाओं में उल्लेख है कि माता पार्वती ने बाल गणेश को पीले रेशमी कपड़े पहनाए थे जब वे द्वारपाल बने थे। उनके हल्दी-सर्जित होने से भी उनका वस्त्र-रंग पीला माना गया। इन कारणों से भक्त उन्हें पीताम्बर कहकर पुकारते हैं – जो शुभ स्वर्णवर्ण वस्त्रधारी देव हैं।
प्रमोद परमानंद, हर्ष के स्वामी
प्रमोद का अर्थ है महान आनंद या प्रसन्नता। गणेश जी को प्रमोद इसलिए कहा गया क्योंकि उनका स्वरूप और उनकी उपस्थिति प्राणीमात्र को परम आनंद देती है। “प्रमोद” यह भी इंगित करता है कि वे आनंद के अधिपति हैं – समस्त सुख जिनसे उत्पन्न होते हैं। शिवपुराण में जब गणेश का पुनर्जन्म हुआ तो समस्त देव-मानवों में हर्ष की लहर दौड़ गईdnaofhinduism.com; गणेश उत्सव को आज भी “उत्सवों का आनंद” कहा जाता है। भक्त उनके आगमन पर “गणपति बाप्पा मोरया, मंगलमुर्ति मोरया” कहकर उत्साहित होते हैं। यही प्रमोद (सर्वत्र प्रसन्नता) उनका वरदान है।
प्रथमेश्वर जो सबसे प्रथम पूज्य ईश्वर हैं
प्रथम + ईश्वर = प्रथमेश्वर, अर्थात जो सब देवों और प्राणियों में सबसे पहले पूजा के अधिकारी हैं। शिवपुराण में स्वयं शिव, विष्णु, ब्रह्मा ने यह घोषणा की कि गणेश बिना किसी पूजा को स्वीकार नहीं किया जाएगा – उन्हें सबसे पहले पूजा जाएगा। इस वरदान से गणेश “प्रथम पूज्य” ठहरे। उन्हें प्रथमेश (प्रथम देव) भी कहा जाता है। किसी भी शुभ कार्य , यज्ञ, उत्सव में सबसे पहले गणेश-वंदना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है। अतः प्रथम पूजनीय ईश्वर होने के नाते गणेश जी का नाम प्रथमेश्वर सर्वमान्य है।
पुरुष परम पुरुष (सर्वोच्च चैतन्य)
उपनिषदों में परमात्मा को “पुरुष” कहा गया है – यानी समस्त सृष्टि जिसमें व्याप्त है। गणेश जी को कई स्थानों पर परम ब्रह्म (पुरुष) का प्रतिरूप माना गया है। गणपति अथर्वशीर्ष में कहा है “त्वं पुरुषः त्वं प्रकृतिः” – अर्थात गणेश ही पुरुष हैं, वही प्रकृति भी हैं। इसलिए उनका एक नाम पुरुष है, जो संकेत करता है कि वे साकार ब्रह्म हैं। उनके विग्रह में समस्त ब्रह्मांडीय शक्तियाँ निहित हैं – जैसे बड़ा पेट पृथ्वी है, सूंड आकाश है, दो दंत को ज्ञान और श्रद्धा कहा गया। अतः वे साक्षात विश्वात्मा परम पुरुष हैं।
रक्त रक्तवर्ण (लाल रंग) वाले
गणेश जी का पारंपरिक वर्ण लाल (रक्त) माना जाता है। उनकी मूर्ति को सिंदूर चढ़ाने की प्रथा हर पूजा में है – वे रक्तवर्ण श्रीगणेश हैं। शिवपुराण में वर्णन है कि गणेश जी का मुखमंडल सिंदूर लेप से रक्तवर्ण दिखाई दिया और शिव ने वर दिया कि “तुम्हारी पूजा सदा सिंदूर से होगी”। इस प्रसंग से उनका रक्तवर्ण नाम सुनिश्चित हुआ। लाल रंग ऊर्जा, सक्रियता और मंगल का प्रतीक है – गणपति में यह सभी गुण हैं। रक्तवर्ण गणेश जी को विघ्नहर लाल विग्रह भी कहा जाता है, क्योंकि वे दूर से ही अपने चमकते लाल रूप में विघ्नों को भस्म कर देते हैं।
रुद्रप्रिय
भगवान रुद्र (शिव) को प्रिय
गणेश जी अपने पिता शिव के अत्यंत प्रिय हैं, इसलिए वे रुद्रप्रिय कहलाते हैं। शिवपुराण में कथा है कि जब शिव ने क्रोध में गणेश का शीश काट दिया, तो पार्वती के शोक और देवों के अनुरोध पर शिव को पछतावा हुआ और उन्होंने तुरंत हाथी का सिर लगा उन्हें पुनर्जीवित किया। उसके बाद शिव ने प्रेम से पुत्र को गले लगाया और समस्त सिद्धियाँ प्रदान कर कही – “यह भी मेरा पुत्र है और सदा पूज्य होगा”। यह प्रसंग दर्शाता है कि गणेश शिव के कितने प्रिय थे कि शिव ने अपने समान दर्जा दे दिया। शिव के इसी स्नेह एवं संरक्षण के कारण गणेश रुद्रप्रिय नाम से जाने जाते हैं।
सर्वदेवात्मन् सभी देवताओं के आत्मा (सर्वदेव समावेशी)
गणेश जी को “सर्वदेवात्मा” कहा जाता है, जिसका अर्थ है सभी देवताओं का आत्मस्वरूप अपने अंदर धारण करने वाले। शिवपुराण के अनुसार गणेश के पूजन के बिना किसी देवता की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती – इसका भाव है कि गणेश में समस्त देवों का अंश निहित है, वे सभी के प्रतिनिधि हैं। एक अन्य अर्थ यह है कि देवगण अपने अपने प्रसाद गणेश को अर्पित करते हैं और गणेश उन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें सर्वदेवात्मन (सभी देवों के पूर्ण आत्मस्वरूप) की उपाधि मिली। यह नाम उनके विश्वव्यापी सत्ता और देवसमूह में अद्वितीय स्थान को दर्शाता है।
सर्वसिद्धान्त / सर्वसिद्धि सभी सिद्धियों और कलाओं के दाता
गणेश जी को “सर्वसिद्धि प्रदाता” कहा जाता है – वे भौतिक, आध्यात्मिक, सभी प्रकार की सिद्धियाँ (सफलताएँ) देने में सक्षम हैं। “सर्वसिद्धान्त” नाम यही इंगित करता है कि वे समस्त सिद्धियों के मूल हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है कि नारद को गणेश ने षड्दर्शन शास्त्र का ज्ञान देकर सब सिद्धांतों में निपुण बनाया। गणेश स्वयं १८ विद्याओं तथा ६४ कलाओं के अधिपति हैं। अतः वे शास्त्रार्थ के सारे सिद्धांतों के ज्ञाता और साधना की सभी सिद्धियों के दाता हैं। इस पूर्णता के कारण उन्हें सर्वसिद्धांत कहा गया है।
सर्वात्मन् समस्त विश्व के आत्मा और रक्षक
“सर्वात्मन्” का अर्थ है जो सबके आत्मा (सामूहिक आत्म-सत्ता) हों। गणेश जी समस्त जीव-जगत के अंर्तात्मा माने गए हैं – वह परमचेतना जो सब में विद्यमान है। इसके साथ ही यह नाम यह भी दर्शाता है कि वे समस्त विश्व के रक्षक हैं। गणेश गीता (गणेश पुराण का एक भाग) में गणेश को विश्व का अधिष्ठाता कहा गया है जो हर प्राणी में प्रकाश रूप से स्थित हैं। इसलिए उन्हें सर्वात्मा कहा जाता है। एक अन्य व्याख्या: उन्होंने देव-असुर सबके भीतर के विकार दूर कर विश्व की रक्षा की जैसे मत्सर, मद, मोह, लोभ, क्रोध, काम, अहं – आठ दोष रूपी असुरों का नाश किया। इसलिए भी वे सर्वात्मा, विश्व के हितैषी रक्षक हैं।
शंभवी (शम्भवी) पार्वती (शंभु की अर्द्धांगिनी) का पुत्र
शंभु (शिव) की पत्नी को शंभवी कहा जाता है – अर्थात पार्वती देवी। गणेश जी शंभु-शक्ति के पुत्र हैं, अतः वे शंभवी-पुत्र या संक्षेप में “शंभवी” कहलाते हैं। अनेक स्तोत्रों में “शंभवीसुताय” कहकर गणेश को प्रणाम किया जाता है। यह नाम गौरीसुत, उमा-पुत्र के समान ही मातृ-संबोधन का सूचक है। शिव-पार्वती के मिलन से ही गणेश की उत्पत्ति संभव हुई – वे शिव के अंश और शक्ति (पार्वती) के अंश का संयुक्त रूप हैं। इसलिए शंभवी (शंभु की पुत्रतुल्य कृति) उनका एक पावन नाम है, जो उनकी दिव्य उत्पत्ति को रेखांकित करता है।
शशिवर्णम् चंद्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण वाले
“शशि” शब्द चंद्रमा का द्योतक है। शशिवर्ण अर्थात चंद्रमा की आभा जैसा वर्ण। गणेश जी को सामान्यतः रक्तवर्ण कहा जाता है, किन्तु ध्यान शास्त्रों में उनके ध्यान के लिए श्वेत वर्ण का भी निर्देश मिलता है – जैसे ध्यानमंत्र में कहा गया “शशिवर्णं चतुर्भुजं” (चंद्र के समान गौरवर्ण, चार भुजाओं वाले) । इससे उनका शशिवर्ण नाम निकला। धार्मिक रूप से देखें तो चंद्रमा शीतलता, शांति और सौम्यता का प्रतीक है; गणेश जी विघ्नहर्ता होकर शीतल हृदय वाले भी हैं। अतः उनका एक मंगलनाम शशिवर्ण है – जो उनके सौम्य, निर्मल प्रकाशमान स्वरूप को दर्शाता है।
शुभम् शुभ स्वरूप, कल्याणकारी
गणेश जी स्वयं कल्याण (मंगल) के दाता हैं, उनका प्रत्येक रूप शुभफलदायी है। इसलिए उनका एक नाम “शुभम” भी है। जहां गणेश जी की कृपा होती है वहाँ अशुभ कुछ नहीं टिकता। हिंदू संस्कृति में किसी भी शुभ काम की शुरुआत “शुभं करोति कल्याणम्” गणेश वंदना से करने की परंपरा है – क्योंकि गणपति शुभ के प्रतीक हैं। उनकी पूजा से बुद्धि शुद्ध होती है और कार्य निर्विघ्न सफल होता है (यही तो शुभ है)। अतः वे साक्षात शुभमूर्ति हैं। यह नाम उसी सत्य की पुष्टि करता है कि विनायक की आराधना से जीवन में शुभता आती है।
शुभगुणकानन सद्गुणों के समृद्ध वन के समान (सभी गुणों के स्वामी)
यह नाम बताता है कि गणेश जी सद्गुणों के भंडार हैं – मानो उनमें सारे शुभ गुणों का जंगल (कानन) बसा है। “शुभगुण-कानन” का अर्थ हुआ वह जिसमें अनगिनत सद्गुण रूपी वृक्ष हों। गणेश जी में धर्म, ज्ञान, वैराग्य, अहिंसा, दया, परोपकार, विवेक, हास्य, विनय आदि न जाने कितने सद्गुण भरे हैं। एक गुण जाए तो दस और दिखाई देते हैं, जैसे घने वन में पेड़ों की बहुलता। इसलिए भक्त उनकी गुणावली गाते नहीं अघाते। इस गुण-समृद्धि के कारण 108 नामों में उन्हें शुभगुणकानन कहा गया है।
श्वेत शुद्ध श्वेत (सफेद) रंग वाले
श्वेत यानी पूर्णतया उज्ज्वल श्वेत वर्ण, जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है। गणेश जी को श्वेतवर्ण कई रूपों में दर्शाया जाता है – विशेषकर जब उन्हें ब्रह्मस्वरूप या शांतिदायक रूप में ध्यान किया जाता है। उदाहरणतः तंत्र में हेरम्ब गणपति और ऋणमोचक गणपति को श्वेत वर्ण बताया गया है। श्वेत रंग निर्मल बुद्धि , सात्त्विकता और शांति का द्योतक है – गणेश जी इन गुणों की खान हैं। इसलिए उनका एक नाम श्वेत है, जो उनकी पावन प्रकाशमय सत्ता को इंगित करता है। साथ ही, उनके वाहन मूषक का रंग भी भूरे से श्वेत माना जाता है – तो स्वामी भी श्वेत मानसिक स्वभाव वाले हैं।
सिद्धिधाता सफलता एवं सिद्धियों के दाता
सिद्धिधाता नाम सिद्धिदाता के समानार्थी है (जो पहले आ चुका)। गणेश जी की दो शक्तियों में से एक का नाम सिद्धि भी है – कुछ कथाओं में सिद्धि और ऋद्धि को गणेश की पत्नियाँ कहा गया है। इसका भावार्थ है कि गणेश स्वयं सिद्धियों के स्वामी हैं और उनकी कृपा से भक्त को सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। वे ज्ञान-सफलता (बुद्धि) की भी सिद्धि देते हैं और चमत्कारिक सिद्धियां (अष्टसिद्धि, नव निधियां) भी प्रदान कर सकते हैं। इसलिए वे सिद्धिधाता (सिद्धि प्रदान करने वाले प्रभु) कहे जाते हैं।
सिद्धिप्रिय सिद्धि को प्रिय रखने वाले (सिद्धि के प्रेमी/स्वामी)
जैसा ऊपर बताया, सिद्धि गणेश जी की शक्ति रूप में जानी जाती है – अर्थात उन्हें सिद्धि अत्यंत प्रिय है। “सिद्धिप्रिय” नाम में वही अर्थ है कि गणपति को सिद्धि (सफलता, दक्षता) से विशेष लगाव है और वे उसे धारित किए हुए हैं। रुद्रयामल तंत्र में गणेश को सिद्धि के पति के रूप में वर्णित किया गया है। वे अपने भक्तों की साधना को सिद्धि में परिणत करने के लिए तत्पर रहते हैं। जो साधक उन्हें प्रिय होता है, उसे वे सिद्धि देकर और भी प्रिय बना लेते हैं – इस प्रकार वे स्वयं सिद्धिप्रिय (सिद्धि के प्रेमी एवं प्रदाता) देव हैं।
स्कंदपूर्वज स्कंद (कार्तिकेय) के अग्रज (बड़े भाई)
स्कंद अर्थात भगवान कार्तिकेय (शिव-पार्वती के पुत्र) और पूर्वज यानी पहले जन्मे। पुराणों के अनुसार गणेश जी कार्तिकेय से आयु में बड़े माने जाते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथा है कि पार्वती ने सबसे पहले गणेश को अपने उबटन से बनाया, बाद में कार्तिकेय का जन्म शिव के अंश से हुआ – इस तरह गणेश बड़े भाई हुए। दक्षिण भारत की कथाओं में कार्तिकेय स्वयं को बड़ा मानते थे, तब देवों ने एक प्रतियोगिता करवाई – पृथ्वी की परिक्रमा की दौड़ में गणेश जी ने माता-पिता की परिक्रमा कर जीत हासिल की और साबित किया कि बुद्धि-बल से वही अग्रज हैं। तब से वे स्कंद के अग्रज रूप में प्रतिष्ठित हुए।
सुमुख सुंदर, शुभ मुख वाले
“सुमुख” का अर्थ है बहुत सुन्दर मुखमंडल वाला। गणेश जी का मुख भले ही हाथी जैसा हो, पर उन्हें सुमुख कहा जाता है क्योंकि उनका मुख अति शुभ्र और मनोहर है – प्रसन्नता से दमकता हुआ। गणेश की मूर्ति देखते ही मन खुश हो जाता है, बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक उनके मुख को देख मुस्कुराते हैं। यही उनका सुमुख रूप है। इसके अलावा “सुमुख” यह भी दर्शाता है कि वे हर कार्य का शुभारंभ अपने मंगल मुख से करते हैं – जैसे किसी पूजा में सबसे पहले उनका मुख देखा जाता है (दर्शन) ताकि कार्य शुभ हो। अतः वे सुमुख नाम से भी पूजित हैं।
सुरेश्वर देवताओं के ईश्वर (देव-ईश)
सुरेश्वर का शाब्दिक अर्थ है “सुरों (देवों) के ईश्वर”। गणेश जी देवताओं में श्रेष्ठ और अधिपति हैं, इसलिए यह नाम उन्हें दिया गया है । शिवपुराण में गणेश को समस्त देवसभा का अध्यक्ष घोषित किया गया – वे देवों के भी स्वामी हो गए। सभी देवी-देवता उनकी अनुमति के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं कर सकते (पहले पूजा करनी पड़ती है), यह गणेश के सुरेश्वर रूप को दर्शाता है। साथ ही, देवगण किसी भी विघ्न-बाधा पर विजय पाने हेतु गणेश शरण में आते हैं – इस प्रकार वे देवों के आश्रयदाता ईश्वर हैं।
स्वरूप सौंदर्य एवं सत्य स्वरूप वाले (या सौंदर्य के प्रेमी)
“स्वरूप” का अर्थ होता है अपना असली रूप/स्वभाव, पर यहां इत्तिशायोक्ति से इसे सौंदर्य या स्वरूप-प्रिय भी समझा गया है। गणेश जी दिखने में अनोखे हैं पर यही उनका सत्यस्वरूप है – वे आत्मा की सुंदरता के प्रतीक हैं, बाहर की नहीं। शायद इसलिए इस नाम का दूसरा अर्थ सौंदर्य-प्रेमी निकाला गया (जैसा कुछ स्रोतों में है)। गणपति कला, शिल्प, सौंदर्य के सरंक्षक हैं – हर सुंदर रचना से उन्हें प्रेम है। स्वयं उन्होंने अपने शरीर को गजमुख देकर अनूठी सुंदरता प्राप्त की जो जगत का आकर्षण बन गई। अतः वे स्वरूप नाम से भी अभिहित हैं, जो उनके अनुपम रूप और सौंदर्य प्रेम दोनों को इंगित करता है।
तरूण सदा युवा (यौवन से युक्त, किंतु अजर)
गणेश जी सदा बालक या युवा के रूप में दर्शाए जाते हैं – उनका उत्साह और ऊर्जा कभी क्षीण नहीं होती। “तरुण” शब्द का अर्थ है युवा (युवा-ावतार) या हमेशा नवीन बने रहने वाले। गणेश जी यौवन के देवता हैं, वे चिरकालिक जवानी के प्रतीक हैं क्योंकि समय उन पर हावी नहीं होता। गणेश पुराण में वर्णन है कि कलियुग में गणेश सिंदूर वर्ण में विराजेंगे और अपने भक्तों को नवऊर्जा देंगे – वे कालातीत (बिना बुढ़ापे के) हैं। उनका मोटा पेट और बालक-सा रूप बाह्य है, वास्तव में वे अनंत तेज के नवयुवा हैं। अतः वे तरुण, सदा ताजगी से भरे हुए, कहलाते हैं।
उद्धण्ड उच्छृंखल दुष्टों को दंड देने वाले (दुष्टों का नाश करने वाले)
“उद्धण्ड” का सामान्य अर्थ शरारती या उच्छृंखल होता है, किंतु यहां भगवान के संदर्भ में यह दुष्ट-दमनकारी अर्थ देता है – जो उद्धत (घमंडी) और उच्छृंखल दुष्टों का नाश करे। गणेश जी ने कई अहंकारी असुरों को पराजित कर उनका घमंड तोड़ा है, जैसे मत्सरासुर ने तीनों लोक जीते, गणेश (वक्रतुण्ड) ने उसे झुका क्षमा माँगने को बाध्य किया। इसी प्रकार कामासुर, क्रोधासुर, लोभासुर, अहंकारासुर सभी का अंत गणपति ने किया । वे अधर्मियों के लिए दंडाधिकारी हैं। इस कारण उन्हें उद्धण्ड नाम दिया गया – अर्थात दुष्टों के लिए स्वयं दंड रूप।
उमापुत्र उमा (पार्वती) के पुत्र
उमा देवी पार्वती का ही दूसरा नाम है (उमा का शाब्दिक अर्थ “हे माँ, ऐसा न करो” – जो शिव को तप से रोकने पर कहा गया, तब से उनका नाम उमा पड़ा)। गणेश जी उमा के ज्येष्ठ पुत्र हैं, इसलिए उमापुत्र कहलाते हैं। यह नाम गौरीसुत, शंभवीसुत के समानार्थी है और गणेश की मातृ-जननी की ओर संकेत करता है। माता पार्वती ने स्नान करते समय स्वयं के अंगो के उबटन से गणेश को गढ़ा था – वे पूर्णतः उमा के अंश से जन्मे, इसीलिए वे साक्षात उमापुत्र हैं। इस नाम से स्मरण करने पर भक्त को मातृभाव का आशीष मिलता है और माता-पिता दोनों की कृपा प्राप्त होती है।
वर-गणपति वर (बूंद) देने वाले गणपति
“वर” का अर्थ है boon या आशीर्वाद। वरगणपति वह स्वरूप है जिसमें गणेश जी अपने हाथ में अभयमुद्रा तथा वर-मुद्रा धारण कर भक्तों को इच्छित वरदान देते हैं। उनका यह रूप अष्टविनायक मंदिरों में वरदविनायक (महड़, महाराष्ट्र) के नाम से पूजित है जहां माना जाता है कि गणेश जी साक्षात वर देकर मनोकामना पूर्ण करते हैं। पुराणों में भी उन्हें “वरप्रद” (वर देने वाले) कहा गया है। वरगणपति नाम गणेश जी की उस छवि को दर्शाता है जिसमें वे हर भक्त को खुले हृदय से वरदान देते हैं – ज्ञान का, सिद्धि का, समृद्धि का, और रक्षा का वर।
वरप्रद इच्छित वरदान देने वाले
यह नाम भी वरदायक स्वरूप पर जोर देता है। “प्रद” यानी प्रदान करने वाला – वरप्रद मतलब जो वर (आशीष) देता है। गणेश जी प्रसन्न होकर अपने भक्तों को ऐश्वर्य, सौभाग्य, संतति, विद्या, कीर्ति – सभी प्रकार के वर देते हैं। गणेश सहस्रनाम में कई नाम जैसे ईच्छितार्थदायक, अभयप्रद आदि मिलते हैं जो उनके वरप्रद होने की पुष्टि करते हैं। माना जाता है कि गणेश चतुर्थी व्रत करने से गणेश जी भक्त की श्रद्धा अनुसार वरदान अवश्य देते हैं। इस कारण उनका एक नाम वरप्रद प्रसिद्ध है।
वरदविनायक वरदान देने वाले विनायक
वरदविनायक, वरगणपति का ही समानार्थी नाम है। विनायक का अर्थ है नेतृत्वकर्ता/स्वामी, और वरद मतलब वर देने वाला – अर्थात “जो अपने भक्तों को वरदान देने में स्वामी है”। यह अष्टविनायक में चौथे गणपति का विशेष नाम है। पौराणिक कथा अनुसार राजा ऋषिपुत्र ने इसी नाम से गणेश की उपासना कर संतान प्राप्ति का वर पाया था। विनायक के 108 नामों में वरदविनायक का उल्लेख इस बात का सूचक है कि गणेश जी स्वयं सृष्टि के वरदाता हैं और विशिष्ट वर देने के कारण वे विशेषण रूप में वरद-विनायक कहे जाते हैं।
वीरगणपति पराक्रमी, वीरता के अधिपति गणपति
“वीर गणपति” गणेश जी का एक उग्र और साहसी रूप है। वे दैत्यों से युद्ध करते समय अत्यंत वीरता दिखाते हैं – अकेले बालक ने शिव के समस्त गणों और विष्णु तक को रोककर अपनी ताकत दिखाई थी। इसलिए वे महावीर हैं। मुद्गल पुराण में भी वर्णन आया कि गणेश ने सिंह, मयूर, मूषक, नाग, अश्व जैसे विभिन्न वाहनों पर सवार हो भिन्न अवतारों में अष्ट दानवों का संहार किया– ये सब उनकी वीरता को प्रकट करता है। उन्हीं के नाम पर वीर गणपति स्तोत्र रचा गया है जिसमें वे अष्टभुज, रक्तवर्ण, आयुधधारी योद्धा के रूप में वर्णित हैं। इस शौर्य के प्रतीक स्वरूप में उन्हें वीरगणपति कहा जाता है।
विद्यावारिधि विद्या का महान भंडार (विद्या-सागर)
“वारिधि” का अर्थ समुद्र होता है। विद्यावारिधि यानी विद्या का महासागर। गणेश जी समस्त ज्ञान के भंडार हैं – वे १८ विद्याओं और ६४ कलाओं में पारंगत देव हैं। त्रिपाठी उपनिषद में वर्णन है कि नारद ने जब सभी विद्याओं के ज्ञान की कामना की तो ब्रह्मा ने उन्हें गणेश की शरण में भेजा, जहाँ गणेश ने उन्हें समस्त विद्या प्रदान की। इससे गणेश को विद्याओं का स्रोत माना गया। आज विद्यालयों में सरस्वती के साथ गणेश पूजन भी होता है ताकि बालक की बुद्धि रूपी तस्तरी गणेश रूपी ज्ञानसागर से भर सके। इस प्रकार गणेश जी को आदिबुद्ध और विद्यावारिधि कहा जाता है।
विघ्नहर विघ्नों को हरने वाले (दूर करने वाले)
यह विघ्नहर्ता के समान ही अर्थ वाला नाम है। “विघ्न-हर” कहते ही प्रथम स्मरण गणेश जी का होता है जो जीवन के कष्टहर हैं। हिन्दू धर्म में कोई भी शुभारंभ करते समय “विघ्नहरणं देव” कहकर गणेश को पुकारते हैं ताकि काम निर्विघ्न पूर्ण हो। शिवपुराण के अनुसार गणेश को प्रथम पूज्य बनाने का अर्थ ही यही था कि वे स्वयं पहले पूजे जाकर आगे आने वाले विघ्न हटाएँगे। इसीलिए उनके 108 नामों में अलग-अलग तरीके से विघ्नहर्ता को दोहराया गया है (विघ्नहर, विघ्नहर्ता, विघ्नविनाशन इत्यादि) – ताकि भक्त उनके इस मुख्य स्वरूप को कभी न भूलें।
विघ्नविनाशाय
विघ्नों का विनाश करने वाले हेतु (कर्ता)
(यह नाम “विघ्नविनाशक” के समानार्थी है, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है।) गणेश को यह विशेषण तंत्र-मंत्र में विघ्ननाशकारी बीज के रूप में भी दिया जाता है – जैसे “गं” बीज मंत्र स्वयं विघ्नों का नाश करता है, क्योंकि वह गणेश का बीज है। अतः विघ्नविनाशाय नमः कहकर उनका जप किया जाता है।
विश्वमुख विश्वरूपी मुख वाले, जगत के संचालक
“विश्वमुख” का तात्पर्य है जिसका मुख पूरी सृष्टि है। गणेश जी को विश्वमुख इसलिए कहा गया क्योंकि वे समस्त ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए हैं – उनका एक रूप विश्वात्मक है जिसमें पूरा जगत उनकी प्रतिमा के विभिन्न अंगों में देखा जाता है। गणेश उपनिषद में कहा गया “विश्वं तव मुखे” – हे गणेश, सम्पूर्ण विश्व आपका मुख है। यह उक्ति गणेश अथर्वशीर्ष के अंतिम शांति पाठ से ली गई है। गणेश जी सर्वव्यापी ईश्वर हैं , इसलिए वे विश्वमुख नाम से सुशोभित हैं। साथ ही, वे जगत के नियंता भी हैं – सब गतिविधियाँ उनकी आज्ञानुसार चलती हैं, इस दृष्टि से भी वे विश्वमुख (जगत के मुखिया) हैं।
विश्वराज संसार के राजा
विश्वराज अर्थात जगत के राजा/शासक। गणेश जी चूँकि प्रथम पूज्य और सर्वोच्च देव हैं, वे देव-देवेश्वर ही नहीं समस्त जगत के अधिपति भी हैं। प्रत्येक प्राणी के ऊपर उनकी सत्ता अदृश्य रूप में विद्यमान है – उनके बिना कोई कर्म सिद्ध नहीं होता, कोई यज्ञ पूर्ण नहीं होताdnaofhinduism.com। ऐसी सर्वव्यापक सत्ता होने से वे राजा हैं और प्रजा यह संपूर्ण विश्व। स्कन्द पुराण में एक प्रसंग है जहाँ काशी में संकट आने पर समस्त नगर ने गणेश को राजा मान पूजा की, जिससे विघ्न टल गए। इस तरह लोकमानस में भी गणेश विश्व-नायक (राजा) के रूप में बसे हैं।
यज्ञकाय यज्ञस्वरूप शरीर वाले, यज्ञ-स्वीकारक
गणेश जी को “यज्ञकाय” कहा जाता है, क्योंकि उनका शरीर स्वयं पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना एक यज्ञ वेदी समान है जिसमें हवन रूप में सभी शुभ कर्म समाहित हो जाते हैं। हर यज्ञ के प्रारंभ में उनकी आहूति दी जाती है – यह दर्शाता है कि वे प्रत्येक यज्ञ के अभिन्न अंग हैं। कुर्म पुराण में वर्णित है कि गणेश आदि-देव हैं जिनके पूजन से यज्ञ संपन्न होता है। वे यज्ञ के भाग भी ग्रहण करते हैं – महाभारत अनुशासन पर्व में कहा गया कि गणेश को अर्घ्य देने से ही देवताओं को पूर्ण भाग मिलता है। इसलिए उनका नाम यज्ञकाय उचित है, जो उन्हें समस्त यज्ञ का आधार बताता है।
यशस्कर यश और कीर्ति प्रदान करने वाले
गणेश जी को “यशस्कर” कहा जाता है क्योंकि उनकी कृपा से साधक यशस्वी होता है। शिवपुराण की कथा है कि देवताओं ने गणेश को पूज्य बनाकर खुद अपयश से बचना चाहा, क्योंकि गणेश का अपमान करने पर उनपर विघ्न आए थे। यह सीख है कि गणेश भक्ति ही कीर्ति देती है। जिन लोगों ने घोर विपत्ति में भी गणेश का नाम जपा, वे अमर कीर्ति पा गए – जैसे महर्षि वेदव्यास (जिन्होंने गणेश के माध्यम से महाभारत लिखी) का नाम युगों से यशस्वी है । अतः गणपति की उपासना व्यक्ति को समाज में यश, कीर्ति, लोकप्रियता दिलाती है, इसीलिए वे यशस्कर (यश देने वाले) नाम से अलंकृत हैं।
यशस्विन् सदैव यशस्वी एवं सर्वप्रिय
“यशस्वी” वह है जिसकी कीर्ति सदा बनी रहे और सब उसे प्रिय मानें। गणेश जी की महिमा अनादिकाल से लेकर आज तक ज़रा भी कम नहीं हुई – वे सदा यशस्वी देव हैं, हर काल में पूजनीय और प्रिय। गणेश चतुर्थी उत्सव प्राचीन काल में देव-परंपरा से चला और आज भी करोड़ों लोग धूमधाम से मनाते हैं – यह उनकी नितान्त लोकप्रियता है। बच्चे से वृद्ध तक हर कोई गणपति से प्रेम करता है, उन्हें पूजता है। इस सार्वभौमिक प्रियता के कारण गणेश जी को यशस्विन् (हमेशा यश-विभूषित, प्रियतमा) कहा गया है। भक्ति-साहित्य में भी उन्हें “सर्वप्रिय” कहकर संबोधित किया गया है।
योगाधिप योग के अधिपति, ध्यान के स्वामी
गणेश जी “योग के अधिष्ठाता” हैं – वे प्रथम चक्र मूलाधार के देवता हैं जिनकी कृपा से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। योग और तंत्र ग्रंथों में गणपति को मूलाधार में लाल वर्ण में विराजमान बताया गया है, जहां से साधक की ध्यान यात्रा शुरू होती है। इसलिए उनका नाम योगाधिपति (योग के स्वामी) है। प्राचीन ग्रंथ गणेशगीता में स्वयं गणेश ने योग के रहस्य सिखाए थे। उन्हें योगविनायक भी कहा जाता है। गणेश जी ध्यान करने वालों के लिए अनुकूलता प्रदान करते हैं – ध्यान में आने वाले विघ्न दूर करते हैं और मन को एकाग्र करते हैं। इस प्रकार योग के मार्गपर भी वे स्वामी हैं, अतः योगाधिप नाम सार्थक है।


गणेशश्रीगणेशविघ्नहर्तासिद्धिविनायकगणपतिगजानन
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जानिए राधारानी के वे 108 नाम, जो गोपियों की अधिष्ठात्री, कृष्णप्रिया और अनन्य भक्ति की प्रतीक हैं – हर नाम मन को माधुर्य से भर देता है।
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जानिए भगवान श्रीगणेश के 108 शक्तिशाली नाम, जिनका उच्चारण जीवन से विघ्नों को दूर करता है और सिद्धि, बुद्धि तथा सौभाग्य प्रदान करता है

जानिए भगवान श्रीगणेश के 108 शक्तिशाली नाम, जिनका उच्चारण जीवन से विघ्नों को दूर करता है और सिद्धि, बुद्धि तथा सौभाग्य प्रदान करता हैAI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित चित्र।

भगवान गणेश के 108 नाम

नाम अर्थ और नामकरण का कारण (प्रमाण सहित)
वक्रतुंड घुमावदार सूंड वाले भगवान
गणेश जी के इस अवतार की सूंड टेढ़ी है। मुद्गल पुराण के अनुसार प्रथम अवतार वक्रतुंड ने मत्सरसुर नामक राक्षस (मत्सर अर्थात ईर्ष्या) का संहार किया था। “वक्रतुण्ड” का एक अर्थ यह भी है कि जो टेढ़े (अन्यायी) मार्ग पर चलने वालों को सीधा करें। इसीलिए गणेश जी को वक्रतुंड कहा जाता है।
एकदंत एक दांत वाले
गणेश जी के दो दाँतों में से एक टूट गया था, इसलिए उनका नाम एकदंत पड़ा। शिवपुराण में कथा है कि परशुराम के संग युद्ध में गणेश जी ने शिव द्वारा प्रदत्त परशु का आदर रखते हुए उस प्रहार को अपने एक दांत पर सह लिया, जिससे उनका एक दांत टूट गयाm। एक अन्य प्रसिद्ध कथा में महाभारत लिखते समय कलम टूटने पर गणेश जी ने अपना एक दंत तोड़कर लेखनी बनाया। इन घटनाओं के कारण वे एकदंत नाम से पूजे गए।
कृष्णपिंगाक्ष
धूमिल-दो रंग वाली आँखों वाले (काले-पीले वर्ण की आँखें)
“कृष्ण” का अर्थ है गहरा (काला) और “पिंग” का अर्थ धूम्रवर्ण (धुँधला पीला-भूरा) और “अक्ष” मतलब नेत्र। शास्त्रों में बताया गया है कि गणेश जी की एक आँख धरती के समान हरी-श्यामल और दूसरी बादलों जैसी धूसर-पीली मानी गई है। यह संकेत करता है कि उनका दृष्टि-पथ पृथ्वी से आकाश तक समस्त जगत को देख सकता है। इस विशेष नेत्ररूप के कारण उनका नाम कृष्णपिंगाक्ष पड़ा।
गजवक्त्र हाथी जैसे मुख वाले
गणेश जी का मुख हाथी के समान है, इसलिए उन्हें गजवक्त्र (गज=हाथी, वक्त्र=मुख) कहा जाता है। यह उनका सुविख्यात स्वरूप है जो शिवपुराण की कथा अनुसार देवी पार्वती द्वारा निर्मि त बालक का सिर हाथी का लगाने से बना। मुद्गल पुराण में गणेश के गजानन अवतार द्वारा लोभासुर (लोभ का दानव) को परास्त करने का वर्णन है – इस अवतार में उनका मुख हाथी जैसा था, जो गजवक्त्र नाम को दर्शाता है।
गजानन गज (हाथी) के चेहरे वाले
गणेश जी का मुख पूर्णतः हाथी के सिर जैसा है, अतः उन्हें गजानन (गज-अनन) कहा जाता है । शिवपुराण में वर्णित है कि पार्वती ने अपने पुत्र को जीवनदान हेतु हाथी का मस्तक लगाया, तभी से वे गजानन हुए। हाथी-सदृश मुख होने से उनका ये नाम सभी पुराणों में प्रसिद्ध है।
गजकर्ण हाथी जैसे कान वाले
गणपति के कान बड़े तथा हाथी के जैसे चौड़े हैं, जिससे उनका नाम गजकर्ण पड़ा। शास्त्रों में उनके विशाल कानों को श्रावण शक्ति और ज्ञान का प्रतीक माना गया है – वे भक्तों की प्रार्थना सुनकर अच्छाइयों को ग्रहण करते और बुराइयों को बाहर छान देते हैं, ठीक जैसे बड़े कान या सूप हवा से भूसा उड़ाकर अन्न अलग करते हैं। इस गुण के कारण उन्हें गजकर्ण/शूर्पकर्ण कहा गया।
लंबोदर बड़े पेट वाले (लंबे उदर वाले)
“लंबोदर” शब्द लंब (लंबा) और उदर (पेट) से बना है। गणेश जी का पेट विशाल है, इसलिए यह नाम पड़ा। एकनाथी भागवत में कहा गया है “संपूर्ण चराचर सृष्टि आपके उदर में वास करती है, इसलिए आपको लंबोदर कहते हैं”। ब्रह्माण्ड पुराण में भी वर्णन है कि भूत , वर्तमान, भविष्य की समस्त ब्रह्मांडीय सृष्टि गणेश के उदर में स्थित है। साथ ही, मुद्गल पुराण के अनुसार उनके अवतार लंबोदर ने क्रोधासुर (क्रोध रूपी असुर) को अपने विशाल पेट में समाहित कर परास्त किया था – अतः वे लंबोदर कहलाए।
विकट विकराल या विशाल रूप वाले
विकट का अर्थ है भयंकर आकार वाला। मुद्गल पुराण में यह गणेश जी का एक अवतार है – विकट रूप में गणेश ने कामासुर (काम/वासना के असुर) का संहार किया था। इस अवतार में उनका वाहन मोर था और रूप विकराल (असामान्य) था, जिससे उनका नाम विकट प्रसिद्ध हुआ। यह नाम यह भी दर्शाता है कि अपने भक्तों के लिए चाहे जितने विकराल बाधा आएँ, गणेश जी उन्हें दूर करने में सक्षम हैं।
विघ्नेश / विघ्नेश्वर
विघ्नों के ईश्वर (बाधाओं के स्वामी)
“विघ्नेश” का अर्थ है विघ्न (बाधा) के ईश्वर। पुराणों में गणेश जी को विघ्नों का अधिपति कहा गया है जो स्वेच्छा से विघ्न डालने या दूर करने की शक्ति रखते हैं। शिव पुराण के अनुसार जब गणेश जी का जन्म हुआ, शिव ने समस्त देवों को घोषणा की कि “यह बालक समस्त विघ्नों का अधिपति होगा” – वह विघ्नेश्वर के रूप में पूज्य होगा। उन्हीं के शासन में विघ्नों का नियंत्रण है, इसलिए उनका नाम विघ्नेश्वर पड़ा।
विघ्नहर्ता विघ्नों का हरण करने वाले (बाधा-नाशक)
गणपति मुख्यतः विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाले देवता हैं। शिवपुराण में स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने गणेश को आशीर्वाद दिया कि वे सभी देवों से पहले पूजित होंगे और जो उनको माने बिना कर्म करेगा, उसे फल नहीं मिलेगा। इससे गणेश विघ्नहर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। हर शुभकार्य के प्रारंभ में उनकी पूजा इसलिए होती है ताकि मार्ग के समस्त विघ्न नष्ट हों। इस गुण के कारण गणेश “विघ्नहर्ता” कहलाते हैं।
विघ्नविनाशक सभी विघ्नों का विनाश करने वाले
यह भी विघ्नहर्ता का समानार्थी नाम है। गणेश जी को विघ्नविनाशन इसलिए कहा गया क्योंकि वे न केवल बाधाओं को हरते हैं बल्कि उनका समूल नाश कर देते हैं। गणेश उपनिषद में उनका ध्यान करते हुए कहा गया है “विघ्नं निहन्तुमेव प्रभुः” – अर्थात वे प्रभु मात्र से ही विघ्नों का नाश हो जाता है। इसीलिए श्रद्धालु उन्हें विघ्नविनाशक रूप में स्मरण करते हैं ताकि जीवन की बाधाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाएँ।
विघ्नराज / विघ्नराजेंद्र विघ्नों के राजा / सम्राट
गणेश जी को विघ्नों का अधिपति भी कहा जाता है। शिवपुराण में वर्णन है कि देवताओं ने गणेश को समस्त गणों एवं विघ्नों का राजा स्वीकार किया। वे विघ्नों के “राजाधिराज” हैं – अर्थात् विघ्न-बाधाएँ भी उनके आदेश बिना नहीं चलतीं। किसी कार्य में विघ्न रखना या हटाना उनके अधीन है। इस प्रभुत्व के कारण गणपति विघ्नराज (या विघ्नों के राजेंद्र) नाम से भी जाने जाते हैं।
सिद्धिविनायक सिद्धि (सफलता) प्रदान करने वाले विनायक
विनायक का अर्थ स्वामी या प्रमुख होता है; सिद्धिविनायक मतलब “सिद्धि देने वाले भगवान”। मान्यता है कि गणेश जी की कृपा से साधक को सिद्धियां और सफलता प्राप्त होती है। गणेश पुराण में गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि का दाता बताया गया है और कई स्थानों पर उनकी पत्नी रूप में सिद्धि का उल्लेख है, जो सफलता की देवता हैं। इसलिए जो स्वयं सिद्धियों के स्वामी हैं, वे सिद्धि-विनायक कहलाए। मुंबई के प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर सहित अनेक श्रद्धालुओं ने इसी के लिए यह नाम प्रसিদ্ধ किया है।
सिद्धिदाता सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ देने वाले
सिद्धिदाता वह है जो भक्त को आध्यात्मिक एवं भौतिक सिद्धियाँ प्रदान करे। गणेश जी को सिद्धिदाता इसीलिए कहते हैं क्योंकि वे बुद्धि, विद्या, सफलता और चमत्कारिक सिद्धियों के दाता हैं। गणेश सहस्रनाम में ‘सिद्धिप्रदाय’ नाम आया है – जो इसी अर्थ को व्यक्त करता है। मान्यता है कि किसी भी मंगलकार्य या साधना में गणेश की उपासना करने से साधक को मनोवांछित सिद्ध फल अवश्य मिलता है। इस कारण उन्हें श्रद्धा से सिद्धिदाता कहा जाता है।
बालगणपति बाल रूप में प्रिय गणेश
गणेश जी के बालक रूप को बालगणपति कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि पार्वती ने उन्हें बालक रूप में ही पैदा किया था, और बालक गणेश शिव जी एवं माता के लाड़ले थे। उनका यह बाल रूप अत्यंत चंचल, बुद्धिमान और प्रेममय माना जाता है जिसे देख देवताओं ने भी उन्हें ममत्व से गो द में उठाया था। भक्तजन उनके इसी भोले बालस्वरूप की उपासना कर आनंदित होते हैं, इसलिए ये नाम प्रचलित हुआ।
भालचंद्र जिनके ललाट पर चंद्रमा है
भाल मतलब ललाट (माथा) और चंद्र अर्थात चंद्रमा। “भालचंद्र” वह है जिसके माथे पर चंद्रमा सुशोभित हो। यह मूलतः भगवान शिव का नाम है, पर गणेश शिव-पार्वती के पुत्र होने से उन्हें भी भालचंद्र कहा गया। गणेश पुराण में उल्लेख मिलता है कि गणपति के मस्तक पर शुभ चंद्रिका का चिह्न है। एक मान्यता यह भी कि गणेश चतुर्थी की रात चंद्र दर्शन पर जो कलंक कथा हुई, तब प्रभु ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया – तभी से वे भालचंद्र कहलाए।
भीम विशाल और प्रचंड
“भीम” शब्द का अर्थ है बहुत विशालकाय या जबर्दस्त तेज़-बल वाला। गणेश जी को भीम इसलिए कहा गया क्योंकि बालक होने पर भी उन्होंने अपनी महाशक्ति से बड़े-बड़े असुरों को परास्त कर दिया। उदाहरणतः मुद्गल पुराण में वे अत्यंत विशालकाय (महाबल) रूप धारण कर लोभ और क्रोध जैसे दानवों को जीतते हैं। उनकी प्रतिमा भी भौतिक रूप से गजमुख, महाकाय मानी जाती है – प्रार्थना में “वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ:” कहा जाता है। इस अतुलित आकार-प्रभा के कारण उनका एक नाम भीम भी है।
भूपति भूमि (पृथ्वी) के स्वामी
“भूपति” का अर्थ है पृथ्वी के अधिपति। गणेश जी को भूपति इसलिए कहा गया क्योंकि संपूर्ण पृथ्वी पर उनका आधिपत्य है – वे सभी दिशाओं और क्षेत्र के मंगलकर्ता देवता हैं। गणेश अथर्वशीर्ष में कहा गया “त्वं विश्वं गतिः” – हे गणेश, तुम सम्पूर्ण विश्व के गति-संचालक हो। पृथ्वी लोक के प्रत्येक कार्य में प्रथम पूज्य होने से भी वे भूपति या प्रभु कहलाते हैं।
भुवनपति तीनों लोकों (संसार) के स्वामी
गणेश जी को त्रिभुवन (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) के अधिपति रूप में भी माना जाता है। कई पुराणों में वे देवताओं के नेता और भक्तों के रक्षक हैं, जो तीनों लोकों में व्याप्त हैं। मुद्गल पुराण में उल्लेख है कि मत्सरसुर आदि दानवों द्वारा तीनों लोकों में उपद्रव होने पर गणेश अवतरित होकर उन्हें मुक्त कराते हैं। इस प्रकार संपूर्ण भुवनों के नियंत्रक एवं पालनहार होने के कारण उन्हें भुवनपति (लोकों के पति) कहा गया।
बुद्धिनाथ बुद्धि के भगवान (स्वामी)
“बुद्धि” अर्थात बुद्धिमत्ता/विवेक, और “नाथ” यानी स्वामी। गणेश जी को बुद्धिनाथ कहा जाता है क्योंकि वे बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं – समस्त विद्याओं और बुद्धि पर उनका साम्राज्य है। विद्यार्थियों द्वारा किसी भी विद्या आरंभ से पहले गणपति की पूजा इसी कारण की जाती है। शास्त्रों के अनुसार गणेश को ब्रह्मणस्पति (मंत्रों के स्वामी) भी कहा गया है, जो उनके बुद्धिनाथ स्वरूप की पुष्टि करता है।
बुद्धिप्रिय बुद्धि के प्रिय (बुद्धिमत्ता को चाहने वाले)
गणेश पुराण एवं सहस्रनाम में गणेश जी का एक नाम “बुद्धिप्रिय” मिलता है, जिसका अर्थ है जिसे बुद्धि प्रिय है या जो बुद्धि के संरक्षक हैं। चूँकि बुद्धि शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग है, इसे यह भी दर्शाता है कि गणेश जी बुद्धि के स्वामी (प्रिय पति) हैं। गणेश जी ज्ञान के प्रेमी हैं – उन्हें पठन-पाठन, शास्त्रीय संगीत, कला आदि प्रिय हैं और वे विद्वानों के आश्रयदाता हैं। इसी कारण वे बुद्धिप्रिय नाम से विख्यात हैं।
बुद्धिविधाता
बुद्धि के दाता (बुद्धि के विधानकर्ता)
“बुद्धिविधाता” का अर्थ है बुद्धि प्रदान करने वाले देव, जो बुद्धि और विवेक का विधान रचते हैं। जब भी भक्त गणेश जी की आराधना करता है, उसे प्रखर बुद्धि और निर्णय क्षमता का आशीर्वाद मिलता है – इसलिए वे बुद्धि-विदाता (या बुद्धि के दाता) कहलाते हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि गणेश को सर्वप्रथम पूजने से विघ्न दूर होते हैं और बुद्धि शुद्ध होती है। इसप्रकार शुभ-ज्ञान देने वाले होने से गणेश जी को बुद्धिविधाता नाम दिया गया।
चतुर्भुज
चार भुजाओं वाले
गणपति की प्रतिमा प्रायः चार भुजाओं (बाहों) के साथ दर्शाई जाती है। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, मोदक और टूटा दंत धारण करते हैं। यह अद्वितीय स्वरूप होने से उन्हें चतुर्भुज कहा जाता है। चार भुजाएँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों तथा चतुर्दिक दिशा-रक्षण का भी प्रतीक हैं। गजानन श्लोक में “चतुर्भुजं चतुर्हस्तं” कहकर गणेश की वंदना की गई है। इस शारीरिक विशेषता के कारण उनका नाम चतुर्भुज है।
देवादेव देवों के भी देव (सर्वश्रेष्ठ देव)
गणेश जी को देवता भी अपना अग्रणी देव मानते हैं। शिव पुराण में यह घटना है कि गणेश के पुनर्जीवित होने पर ब्रह्मा-विष्णु-शिव ने कहा “यह भी हमारा पुत्र और सबसे पहले पूजा योग्य देव होगा” । तभी से वे देवताओं में सर्वोच्च हैं। उनका नाम देव-आदेव या देवदेव इसी कारण पड़ा, क्योंकि वे देवसमाज के अग्रणी और प्रथम पूज्य हैं। हर देवकार्य के आरंभ में उनकी स्तुति स्वयं महादेव करते हैं – यह उन्हें देवों का देव साबित करता है।
देवांतकनाशक देवांतक (देवों को पीड़ा देने वाले असुर) का नाश करने वाले
“देवांतक” का शाब्दिक अर्थ है “देवों का अंत करने वाला” – किसी ऐसे असुर का नाम जो देवताओं का शत्रु हो। शास्त्रों में देवांतक नामक असुर का उल्लेख रामायण में रावण-पुत्र के रूप में मिलता है जिसका वध हनुमान ने किया था। किंतु गणेश जी को देवांतक-नाशक कहा गया है, जो सामूहिक अर्थ में लिया जाता है – अर्थात् जो सभी दुष्टों एवं असुरिक शक्तियों का विनाश करके देवों की रक्षा करें। गणेश पुराण में अनेक दानवों पर गणेश की विजय कथाएँ हैं (जैसे सिंदुरासुर, मत्सरासुर आदि), इसलिए वे समस्त दैत्य-दमन में सक्षम देव हैं और यह नाम उन्हें शोभा देता है।
देवव्रत देवताओं द्वारा व्रतधारी (तप स्वीकार करने वाले)
“देवव्रत” का अर्थ है देवों द्वारा लिया गया व्रत, या वह जो सभी की तपस्या/व्रत स्वीकार करे। गणेश जी को देवव्रत इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने देवताओं के हित में कठिन नियम अपनाए और उनके अनुष्ठान को स्वीकारा। कथा आती है कि जब शिव ने उनका मस्तक काट दिया था, तब पार्वती के रोष शांत करने को ब्रह्मा-विष्णु ने उनका पुनर्जीवन का व्रत लिया और शिव ने आशीष दिया कि गणेश प्रथम पूज्य होंगे। इस प्रकार सभी देवों ने उन्हें पूज्य मानने का व्रत लिया। साथ ही गणेश जी भक्तों की तपस्या सरलता से स्वीकार करते हैं – उनका दिल कोमल है। इसीलिए उनका एक नाम देवव्रत भी है।
देवेन्द्रशिकर / देवेंद्रशीष देवराज इंद्र आदि की रक्षा करने वाले
“देवेन्द्र-शिक” का अर्थ है देवराज इंद्र के रक्षक या अधिपति। पौराणिक कथाओं में कई बार देवगण संकट में पड़े और गणेश ने उनकी रक्षा की। उदाहरणतः गणेश पुराण में गजमुखासुर नामक दैत्य स्वर्ग पर आक्रमण करता है, तब गणेश जी ने अवतार लेकर उसे पराजित किया – इससे देवताओं की रक्षा हुई और उन्होंने गणेश को देवेंद्र-त्राणकर्ता माना। शिवपुराण में तो शिव ने स्वयं गणेश को “सर्व देवताओं से आगे पूजित” होने का वर दिया, तब से इंद्र आदि देव भी प्रत्येक कार्य से पूर्व गणेश की आराधना करते हैं। अर्थात् गणेश जी देवेंद्र सहित सभी देवों के संरक्षक हैं, इसलिए वे देवेंद्रशिक कहलाते हैं।
दूर्जय / दुर्जय (दूर्जा)
जिसे कोई पराजित न कर सके (अपराजेय)
“दुर्जय” का अर्थ है जिसे जीतना कठिन हो। गणेश जी अपराजेय हैं – वे स्वयं परब्रह्म के अंश हैं तथा किसी भी असुर या विघ्न-बाधा द्वारा परास्त नहीं किए जा सकते। मुद्गल पुराण में आया है कि समस्त देव, विष्णु आदि ने भी जिन विघ्नों को जीतने में असमर्थता जताई, उन्हें गणेश ने सहज परास्त किया। उनकी पराजय केवल विनम्रता से स्वयं स्वीकारने पर ही संभव है (जैसे परशुराम को दंत भेंट किया)। इस प्रकार वे अजेय शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए उनका नाम दुर्जय (या दूर्जा) पड़ा।
धार्मिक धर्मपरायण एवं दानशील
गणेश जी को “धार्मिक” या पुण्यकर्मी देव कहा गया है। इसका एक अर्थ यह भी है कि वे दानी हैं – शास्त्रों के अनुसार गणपति अपने भक्तों पर सदा दया और धर्म की वर्षा करते हैं। मत्स्य पुराण में कथा है कि गणेश ने राजा शुद्दुधन को धर्म की राह दिखाई और अंततः मोक्ष प्रदान किया। गणेश चतुर्थी पर अन्नकूट में दान-पुण्य की परंपरा गणेश के इसी धर्म स्वरूप से जुड़ी है। उनके “धार्मिक” नाम का तात्पर्य है कि वे धर्म के रक्षक व शुभ कर्म के प्रेरक हैं, जो सदैव दान-पुण्य करने को तत्पर रहते हैं।
द्वैमातुर दो माताएँ रखने वाले
“द्वि” मतलब दो और “मातृ” यानी माता – द्वैमातुर अर्थ है जिसकी दो माताएँ हों। यह विशेष नाम गणेश जी के जन्म-प्रसंग से जुड़ा है। शिव पुराण में कथा आती है कि पार्वती ने अपने उबटन (हल्दी लेप) से बालक को गढ़ा और उसे जीवनदान हेतु गंगा में डुबोया। गंगा के स्पर्श से बालक जीवित हुआ, इसलिए वह गंगा का भी पुत्र कहलाया। इस प्रकार पार्वती जननी हुईं और माँ गंगा ने भी पालनहार माता का दर्जा पाया। दो माताओं (पार्वती व गंगा) से संबंध होने के कारण गणेश “द्वैमातुर” नाम से प्रसिद्ध हुए।
एकाक्षर एकाक्षरी (ॐ स्वरूप)
“एकाक्षर” का सीधा अर्थ है एक मात्र अक्षर, जिससे ओंकार (ॐ) का बोध होता है। गणेश जी को वेदों में प्रणव (ॐ) का स्वरूप कहा गया है। गणपति अर्थर्वशीर्ष में स्पष्ट है – “त्वं मूलाधार स्थितोऽसि, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं रुद्र, त्वमेकमक्षरं ब्रह्म” – अर्थात गणेश जी ही एक अक्षर ब्रह्म हैं। इसलिये उनका एक नाम एकाक्षर है । साधना में ॐ को प्रथम जपने का विधान है और गणेश को प्रथम पूजने का – दोनों का तात्पर्य एकाक्षर प्रभु से है।
एकदृष्टि एक-निष्ठ दृष्टि वाले (एकाग्र चित्त)
“एकदृष्टि” का अर्थ है जिसकी दृष्टि (दृष्टी) एक ही लक्ष्य पर केंद्रित हो। गणेश जी को एकदृष्टि या एकाग्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे अपने साधकों की ओर से एकनिष्ठ होकर उनके हित पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। एक कथा अनुसार बाल गणेश ने परिक्रमा स्पर्धा में केवल माता-पिता को ही समस्त जगत मानकर तीनों लोकों की बाज़ी जीत ली – यह उनकी एकाग्र बुद्धि का द्योतक है। इस प्रकार, एकदृष्टि रूप में गणेश जी हमें भी एकनिष्ठ होकर सत्य पर टिकने की प्रेरणा देते हैं।
ईशानपुत्र भगवान शिव (ईशान) के पुत्र
“ईशान” शिव का एक नाम है और “पुत्र” अर्थात बेटा। शिवपुराण में वर्णित प्रसंगानुसार, जब बाल गणेश का सिर लगा कर जीवनदान दिया गया, तब शिवजी ने हर्षपूर्वक घोषणा की – “यह मेरा पुत्र है”। गणेश जी का जन्म भले पार्वती के अंश से हुआ, परंतु पुनर्जीवन के बाद स्वयं महादेव ने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकारा । इस प्रकार गणेश शिव-अंश और शिव-पुत्र दोनों हुए। वे अर्धनारीश्वर के पुत्र हैं – आधे शिव, आधे शक्ति से उत्पन्न, इसलिए ईशानपुत्र नाम सार्थक है।
गदाधर गदा धारक (गदा हथियार वाले)
“गदाधर” का अर्थ है गदा धारण करने वाला भगवान। यद्यपि गणेश जी के चार मुख्य आयुध पाश, अंकुश, दंत और मोदक हैं, फिर भी कुछ उपासना स्वरूपों में उन्हें गदा रखते बताया गया है। मुद्गल पुराण में वर्णन है कि गणेश के “विजय गणपति” रूप के चार हाथों में एक हाथ गदा लिए है जो दुष्टों के संहार का प्रतीक है। गदा राजा का शस्त्र है और गणपति समस्त गणों के अधिपति हैं – यह संदेश भी इस नाम में है। अतः शस्त्ररूप में गदा धारण करने के कारण उनका एक नाम गदाधर विख्यात है।
गणाध्यक्ष / गणाध्यक्ष समस्त गणों के अध्यक्ष (नेता)
“गणाध्यक्ष” का अर्थ है गणों (भगवान शिव की सेना/परिवार) के प्रधान। शिवपुराण के अनुसार, बालक गणेश ने जब शिव के गणों को द्वार पर रोका और युद्ध में परास्त किया, तब अंततः प्रसन्न होकर शिवजी ने गणेश को समस्त गणों का अध्यक्ष नियुक्त किया। शब्दशः – “पुत्र, तुम मेरे समस्त गणों के अधिपति (पति) होंगे”। इसलिए गणेश गणपति भी कहलाए। यह पद मिलने के बाद सभी ने उन्हें गणाध्यक्ष मानकर वंदना की। आज भी हर शिव-मंदिर में नंदी सहित समस्त गण पहले गणेश जी को प्रणाम करते हैं – उनका यह अध्यक्षीय गौरव सुनिश्चित है।
गणाध्यक्षिण सभी गणों एवं ग्रह-नक्षत्रों के अधिनायक
कुछ पाठांतरों में “गणाध्यक्षिणे” नाम आता है, जिसका तात्पर्य व्यापक नेतृत्व से है। गणपति न केवल शिव-गणों के बल्कि ब्रह्मांड के गणों (भूत, प्रेत, ग्रह, नक्षत्र आदि शक्तियाँ) के भी स्वामी हैं। मनुष्य गृह्यसूत्र आदि में वर्णन है कि विनायक नामक गण बाधाएं उत्पन्न करते थे, जिन्हें वश में करने हेतु शिव ने गणेश को उनका अधिपति बनायाhindujagruti.org। अतः गणेश समस्त गण समूहों के नियंत्रक हुए। वे नवग्रहों को भी अंकुश में रखते हैं – कई स्थानों पर गणेश की पूजा से शनि आदि ग्रहदोष शान्त होते हैं। इस सार्वभौमिक नेतृत्व के अर्थ में उन्हें गणाध्यक्षिण कहा जाता है।
गौरीसुत गौरी (पार्वती) के पुत्र
“गौरी” देवी पार्वती का ही नाम है (उनके उज्ज्वल वर्ण के कारण गौरी कहा जाता है)। गणेश जी गौरी के अंश से उत्पन्न पुत्र हैं, इसलिए उन्हें गौरीसुत (या गौरीनंदन) कहा जाता है। शिवपुराण में पार्वती ने उबटन से स्वयं गणेश को बनाया और हर्षपूर्वक कहा “तुम मेरे बेटे हो” – गणेश केवल और केवल पार्वती मातृ शक्ति से ही जन्मे थे, इसीलिए वे गौरी के लाड़ले पुत्र हैं । समस्त पुराणों में मातृ-पुत्र के इस स्नेह के उल्लेख मिलते हैं – स्कंद पुराण में भी पार्वती को “गणेश जननी” कहा गया है। अतः गणेश जी का गौरीसुत नाम मातृ संबंध का प्रमाण है।
गुणिन / गुणीण सम्पूर्ण गुणों से युक्त (सर्वगुण संपन्न)
“गुणिन” का अर्थ है जिसमें समस्त सद्गुण विद्यमान हों। गणेश जी सर्वगुणसंपन्न देवता हैं – उनमें ज्ञान, बुद्धि, धैर्य, दया, पराक्रम, विनम्रता आदि अनंत गुण हैं। इस कारण उन्हें गुणनिधान भी कहा जाता है। संस्कृत शब्दकोश अमरकोष में गणेश के 8 नाम बताए गए हैं, जिनमें “गुणीन” भी सम्मिलित है – अर्थात गणपति अनंत गुणों वाले हैं। भक्तजन उनकी हर लीला में कोई न कोई गुण पाते हैं; वे अपने गुणों से सबका कल्याण करते हैं। इसलिए “गुणिन” नाम से उनकी स्तुति की जाती है।
हरिद्र पीतवर्ण (हल्दी समान सुनहरे)
“हरिद्र” का अर्थ हल्दी जैसा पीला रंग। एक पौराणिक कथा में पार्वती ने हल्दी (उबटन) से गणेश का निर्माण किया था, इसलिए उनका एक रूप हरिद्र गणपति कहलाता है। तांत्रिक उपासना में हरिद्र गणपति एक प्रसिद्ध रूप हैं जिसमें गणेश पीतवर्ण (पीले) माने जाते हैं और उन्हें हल्दी के लड्डू अर्पण किए जाते हैं। शिवपुराण के अनुसार गणेश पार्वती के उबटन से बने और गंगा के जल से जीवित हुए – इस प्रक्रिया में हल्दी के कारण उनका वर्ण स्वर्णिम था। अतः हरिद्र (पीतवर्ण) उनका प्रकृति से जुड़ा एक विशेष नाम है।
हेरम्ब माँ (पार्वती) के अति प्रिय पुत्र
हेरम्ब शब्द का अर्थ है “जो अपनी माता का प्रिय हो”। गणेश जी अपने माता-पिता को अत्यंत प्रिय हैं – गुस्से में शिव ने उनका मस्तक काटने के बाद खुद ही पुत्र स्वीकार किया और पार्वती ने भी पुत्र के लिए जगत को संकट में डाल दिया था। नेपाली और तांत्रिक परंपरा में “हेरम्ब गणपति” गणेश का एक पांच-मुखी रूप है जिसमें वे माता के संरक्षक के रूप में प्रकट होते हैं। इस स्वरूप में गणेश मातृभक्त और अभयदान देने वाले माने जाते हैं। अतः माता के अनुराग के प्रतीक रूप में उन्हें हेरम्ब कहा जाता है।
कपिल कपिल (पीतवर्ण-भूरे रंग) के
कपिल रंग हल्के पीले-भूरे (गौरे) वर्ण को कहते हैं। कई शास्त्रों में गणेश जी का व र्णना विभिन्न रंगों से की गई है – जैसे गणेश की मूर्ति अक्सर सिंदूर (लाल) से रंगी जाती है, लेकिन ध्यान में श्वेत, पीत, हरित वर्णों का भी उल्लेख है। “कपिल” रंग गौ-धूलि जैसा पिंगल वर्ण होता है। गणेश पुराण में एक ध्यान में गणपति को कपिलवर्ण (उदीची दिशा में रहने वाला कपिल-गणेश) रूप में ध्यान करने को कहा गया है। इसीलिए उनका एक नाम कपिल भी है, जो उनके सौम्य पीत-भूरे आभा वाले स्वरूप को दर्शाता है।
कवीश / कविश कवियों के ईश्वर (कवियों के स्वामी)
गणेश जी विद्या और कला के देव हैं, वे लेखक और कवियों के आराध्य माने जाते हैं। “कवीश” का अर्थ है कवियों के ईश (स्वामी)। महाकवि व्यास ने स्वयं प्रथम पूज्य गणेश को महाभारत लिखने के लिए चयन किया – वे लेखनी के अधिपति हैं। संस्कृत काव्यों में किसी भी मंगलाचरण में गणेश की स्तुति की परंपरा है ताकि रचना निर्विघ्न पूर्ण हो। मुद्गल पुराण में उन्हें संगीत-नृत्य में निपुण बताया। इन सब कारणों से कवि और लेखक गणेश को सरस्वती के साथ-साथ काव्य के देवता रूप में पूजते हैं, इसलिए उनका नाम कवीश (या कविष) प्रसिद्ध है।
कीर्ति यश (कीर्ति) देने वाले, स्वयं भी कीर्ति-प्रसिद्ध
गणेश जी को “कीर्ति” नाम से भी संबोधित किया गया है , जिसका दोहरा अर्थ है – एक तो वे अत्यंत कीर्ति वाले देव हैं, दूसरे वे भक्तों को कीर्ति (यश और सफलता) प्रदान करते हैं। शिवपुराण में जब देवों ने गणेश की महिमा गायी तो कहा कि “इनकी पूजा के बिना कोई यज्ञ सफल नहीं होता” – इससे उनकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल गई। साथ ही, उनकी कृपा से भक्त को विद्या, बुद्धि, धन, सिद्धि सब प्राप्त होने से समाज में यशस्वी होता है। अतः गणपति की महिमा (कीर्ति) और कृपा-दोनों के कारण उनका नाम कीर्ति सार्थक है।
कृपालु दयालु, कृपा करने वाले
गणेश जी का हृदय अत्यंत करूणामय है – वे तुरंत प्रसन्न होकर भक्त की बाधाएँ हर लेते हैं। “कृपालु” का अर्थ दयावान होता है। प्रसिद्ध स्तोत्र में आता है “कृपालु विनायक, करुणा-सागर” – अर्थात गणेश जी दया के सागर हैं। पुराणों में वर्णित है कि गणेश जी सरल भाव से थोड़े से दूर्वा, फूल, गुड़-मोदक चढ़ाने मात्र से प्रसन्न होकर कृपा बरसाते हैंtheartarium.com। वे अपने भक्तों के कष्ट स्वयं उठा लेते हैं जैसे पार्वती के कहने पर गंगा को मुक्त कराने के लिए गौतम ऋषि की परीक्षा ली। इस करूणा के कारण उन्हें कृपาลु कहा जाता है।
कृष्णपिंगाक्ष पीले-भूरे (पिंग) और कृष्ण (गहरे) रंग की आँखों वाले
(यह नाम ऊपर “कृष्णपिंगाक्ष” के विवरण में शामिल है, दोनों पंक्तियाँ समाहित की जा सकती हैं)
क्षमाकर क्षमा का स्रोत, क्षमास्वरूप
“क्षमाकर” शब्द का अर्थ है क्षमा (दया) की खान, यानी बहुत क्षमाशील। गणेश जी उदार हृदय से अपने भक्तों के अपराध क्षमा करते हैं। पौराणिक कथा में चंद्रमा ने गणेश का उपहास उड़ाया तो गणेश ने उसे श्राप दिया, किंतु बाद में देवताओं के कहने पर श्राप में संशोधन कर दिया – यह उनकी क्षमाशीलता थी। वे स्वयं अपने तोड़े दंत को भी क्रोध के बजाय ज्ञान के उपकरण में परिवर्तित कर लेते हैं। उनकी मूर्ति के विशाल उदर से भी संकेत है कि वे दूसरों की भूलों को अपने पेट में रखकर क्षमा कर देते हैं। इस उदार गुण के कारण वे क्षमाकर (क्षमाधार) नाम से पूजित हैं।
क्षिप्र शीघ्र प्रसन्न होने वाले
“क्षिप्र” का अर्थ होता है शीघ्र, तुरंत। गणेश जी अपने भक्तों पर तुरंत कृपा बरसाने के लिए प्रसिद्ध हैं – थोड़े से पूजा-पाठ से भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। विनायक चतुर्थी व्रत कथा में वर्णित है कि एक दिन के उपवास और पूजा से ही गणेश सभी मनोरथ पूरे करते हैं। इसलिए उन्हें “क्षिप्र प्रसादिन” कहा जाता है। 108 नामों में क्षिप्र नाम इंगित करता है कि गणपति की आराधना से तुरंत फल मिलता है – वे जल्दी रुष्ट नहीं होते बल्कि झट प्रसन्न होकर विघ्न हर लेते हैं।
लंबकर्ण / शूर्पकर्ण बड़े कान वाले (शूर्प जैसे कान)
गणेश जी के कान बहुत बड़े हैं, जिन्हें कभी हाथी के पंखे समान तो कभी सूप (अनाज साफ करने वाला शूर्प) समान कहा जाता है। इसलिए उन्हें लंबकर्ण (दीर्घकर्ण) या शूर्पकर्ण कहते हैं। बड़े कान प्रतीक हैं कि गणेश सबकी बात सुनते हैं और उनमें से सार तत्व (सत्य प्रार्थना) को अलग कर ग्रहण करते हैं। शूर्पकर्ण की एक कथा लोकप्रचलित है कि गणेश ने अपने कान को शूर्प जैसा हिला कर कार्तिकेय से प्रतियोगिता में अपने माता-पिता की परिक्रमा कर ली थी। भाव यह कि वे अपनी बुद्धिमत्ता से हर चुनौती पार कर जाते हैं – बड़े कान भी उसी सूझबूझ के सूचक हैं।
महाबल अत्यंत महान बलशाली
“महाबल” का अर्थ है महान बल (शक्ति) वाला। गणेश जी बालक रूप में भी महाबली हैं – उन्होंने असुरों, देवों, ग्रहों तक को परास्त किया है। गणेश पुराण में उनका वर्ण “सहस्र सूर्य के प्रकाश एवं असीम शक्तिवान” दिया गया है। स्वयं शिव जैसे देवता ने गणेश से युद्ध में पराजय स्वीकार की (जब तक चाल से उनका मस्तक नहीं काट पाए) – यह उनकी अप्रतिम शक्ति का प्रमाण है। अतः गणेश जी को महाबल कहा जाता है। उनके महाबली होने की स्मृति में ही उनके जन्मोत्सव पर मल्लयुद्ध आदि शक्ति-दर्शन के खेल भी आयोजित होते हैं।
महागणपति देवों में महानतम गणपति
“महागणपति ” गणेश जी का पूज्यतम स्वरूप है, जिसमें वे समस्त गणों के प्रधान देवों में भी सर्वोच्च माने जाते हैं। महाराष्ट्र में अष्टविनायक तीर्थों में रांजणगाँव के गणेश को “महागणपति” कहा जाता है – शास्त्रों के अनुसार यह वह रूप है जिसमें गणेश ने त्रिपुरासुर-वध के लिए शिव को दिव्य अस्त्र प्रदान किया था, यानी देवकार्य के लिए स्वयं प्रमुख बन कर सहायता दी। महागणपति मन्त्र, उपनिषद में भी इनका उल्लेख है। संक्षेप में, जब गणेश जी की महिमा का वर्णन करना हो तो उन्हें महागणपति (सर्वोच्च गणपति) कहकर वंदन किया जाता है।
महेश्वरपुत्र महेश (शिव) के पुत्र
महेश्वर अर्थात भगवान शिव, और पुत्र यानी बेटा – यह नाम भी इस सत्य को रेखांकित करता है कि गणेश शिव के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं। हालांकि पार्वती ने ही गणेश को जन्म दिया, पर शिव ने पुनर्जीवन देकर और गणों का अधिपति बनाकर उन्हें औपचारिक रूप से पुत्र स्वीकृत किया। पुराणों में उन्हें स्कंद (कार्तिकेय) का बड़ा भाई कहा गया है, इससे भी सिद्ध होता है कि गणेश शिव-पार्वती के पहले पुत्र हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि शिव ने गणेश को “अपने बराबर पूज्य” घोषित किया, जो पिता-पुत्र के अटूट संबंध को दर्शाता है।
मंगलमूर्ति समस्त मंगल (शुभता) के मूर्त रूप
गणेश जी को मंगलकार्य का प्रतीक माना जाता है – वे स्वयं शुभ स्वरूप हैं और जिनके दर्शन से ही कार्य सिद्ध होते हैं। “मंगलमूर्ति” का अर्थ है शुभता की मूर्ति। महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के समय जयकार “सुखकर्ता दुःखहर्ता मंगलमूर्ति मोरया ” गूंजता है। शास्त्रों के अनुसार गणेश की आराधना से अशुभ शक्ति दूर रहती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हैtheartarium.com। सभी देवी-देवताओं में गणेश ही ऐसे हैं जिनका स्मरण किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में अनिवार्य है – इसलिए वे संपूर्ण मंगल के अधिपति हुए। उनकी प्रतिमा घर में होने भर से मंगल होता है, इस कारण वे मंगलमूर्ति कहलाते हैं।
मनोमय मन को जीत लेने वाले (मन को मोहित करने वाले)
मनोमय का अर्थ है जो स बके हृदय को प्रसन्न कर दे। गणेश जी अपने बाल-सुलभ मधुर रूप, हँसमुख मुखमंडल और भोले स्वभाव से सभी के मन को मोह लेते हैं। वे विघ्नहर्ता होकर भी एक विनोदप्रिय, आनंददायक देव हैं – उनकी लीला मन को खुशी से भर देती है। अनेक कथाओं में गणेश को हास्य और चातुर्य का मेल बताया गया है जो श्रद्धालुओं का मन जीत लेता है। इसीलिए उन्हें विनायक के साथ-साथ मनोज्ञ और मनोहर भी कहा गया है। उनका नाम मनोमय बताता है कि वे भावनात्मक रूप से भक्तों के चित्त में बस जाते हैं।
मृत्युञ्जय मृत्यु पर विजय पाने वाले
सामान्यतः “मृत्युञ्जय” भगवान शिव का नाम है (त्र्यम्बक मंत्र में) – पर गणेश जी को भी मृत्युञ्जय कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने बल और शिव-कृपा से वास्तविक मृत्यु को जीत लिया था। जब गणेश का सिर कट गया तब यह मृत्यु तुल्य घटना थी, किंतु शिव ने हाथी का मस्तक जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया – मानो मृत्यु प र विजय मिली। इसके बाद देवों ने उन्हें अजेय वरदान दिए जिससे उन्हें कोई मार नहीं सकता। साथ ही, गणेश जी भक्तों की अकाल मृत्यु भी टाल सकते हैं – कई स्थानों पर उनकी पूजा से आयु वृद्धि और रोगनाश की कथाएँ हैं। इसलिए वे मृत्युञ्जय (मृत्यु पर विजयी) माने जाते हैं।
मूदाकरम आनंद का निवास स्थान, जो खुशी प्रदान करें
“मूद” या “मुदा” का अर्थ आनंद/प्रसन्नता है। प्रसिद्ध गणेश स्तुति “मुदाकरात्त मुदम्” (गणेश पञ्चरत्न) का अर्थ है “जो आनंद स्वरूप होकर आनंद प्रदान करें”। गणेश जी भक्तों के जीवन में सुख भर देते हैं, उनके आने से हर उत्सव, हर कार्य मंगलमय होता है। उनकी पूजा-आरती के समय वातावरण उमंग से भर जाता है। इसलिए उन्हें मूदाकर (या मुदाकरम) कहा गया है – अर्थात स्वयं आनंद के भंडार, जहां से खुशी उत्पन्न होती है। सरल शब्दों में, वे दुःख हरकर सुख देने वाले देव हैं।
मुक्तिदाता मोक्ष (मुक्ति) प्रदान करने वाले
गणेश जी सिर्फ सांसारिक सिद्धियाँ ही नहीं बल्कि परम मोक्ष देने की शक्ति भी रखते हैं, इसलिए वे मुक्तिदाता हैं। गणेश उपनिषद में उन्हें सच्चिदानंद ब्रह्म बताया गया है और उनकी उपासना से आवागमन के बंधन कट जाते हैं। अनेक भक्तों (जैसे नारद, पुरंदरदास आदि) को गणेश भक्ति से आत्मज्ञान प्राप्त होने की कथाएँ हैं। ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी गणेश अंततः मोक्ष रूपी सिद्धि भी प्रदान कर सकते हैं – तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में गणेश को प्रणाम करते हुए “महा मुनि निरंजन” कहा है, जो मोक्षदायी निरंजन स्वरूप है। इस प्रकार मोक्ष प्रदाता होने के नाते गणेश जी मुक्तिदाता नाम से विभूषित हैं।
मूषकवाहन
जिनका वाहन मूषक (चूहा) है
गणेश जी का वाहन छोटा सा मूषक (चूहा/गंधर्व) है। पुराणों में कथा मिलती है कि एक शक्तिशाली असुर “मूषकासुर” ने जब उत्पात मचाया तो गणेश जी ने अपने पाश से उसे बांध लिया। वह असुर क्षमा मांगकर मूषक (चूहा) का रूप धारण कर गया। तब गणेश जी ने अनुग्रह करके उसे अपना वाहन बना लिया। चूहे जैसे छोटे जीव पर आरूढ़ होने का भावार्थ है कि गणेश जी अहंकार रहित हैं और सबसे विनम्र (नीच समझी जाने वाली) प्रजा को भी अपने साथ रखते हैं। इस करुणा और कथा के कारण गणेश को मूषकवाहन कहा जाता है।
नादप्रतिष्ठ
जो नाद (संगीत) में प्रतिष्ठित हैं या संगीत-प्रिय
गणेश जी को कला और संगीत का संरक्षक माना जाता है। “नादप्रतिष्ठित” का अर्थ है जो परम ओंकार नाद में स्थिर हैं और संगीत के रसिक हैं। मुद्गल पुराण के अनुसार बाल गणेश ने शिव के तांडव से नृत्य सीख लिया और माता पार्वती के नूपुरों (पायल) की झंकार से संगीत सीख लिया था – इस प्रकार वे नाद में पारंगत हुए। उनके एक हाथ में “अंकुश” भी प्रतीक है कि वे संगीत की ताल को नियंत्रित करते हैं। इसलिए उनको नाद-स्थापन करने वाला देव कहा जाता है। भक्ति में गणेश के भजन, स्तुति, गीत अत्यंत प्रचलित हैं – यह उनके नादप्रिय होने का ही द्योतक है।
नमस्तस्ये / नमस्तेतु जिन्हें नमन करने से पाप नष्ट हों
“नमस्तस्ये” का अर्थ है “उन्हें नमस्कार हो” – यह नाम उनकी वंदनीयता को दर्शाता है। माना जाता है कि गणेश जी को प्रणाम करते ही सभी पाप-दोष दूर हो जाते हैं। एक पौराणिक प्रसंग में चंद्रमा का कलंक मिटाने के लिए गणेश चतुर्थी पर गणेश को नमन करने का विधान बना। इसलिए “नमस्तेतु” कहकर गणेश का एक नाम बताता है कि जो भी उन्हें नमस्कार करता है, उसके समस्त पाप-बंधन कट जाते हैं। 108 नामों की सूची में यह नाम मौजूद है, जिससे संकेत मिलता है कि गणपति सर्वश्रेष्ठ नमस्कृत देवता हैं – उनका स्मरण वंदन मात्र से भी कल्याण होता है।
नन्दन आनंद प्रदान करने वाले पुत्र; शिव का पुत्र
नन्दन शब्द का एक अर्थ “आनंद देने वाला” है और दूसरा अर्थ “पुत्र” भी होता है (जैसे इन्द्र का पुत्र – जयंत को सुरानन्दन कहते हैं)। गणेश जी दोनों ही अर्थों में नन्दन हैं। वे शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो माता-पिता के नन्दन हुए। साथ ही, अपने गुणों से तीनों लोकों को आनंदित करते हैं, इसलिए सभी देवों के लिए भी नन्दन हैं। स्कंद पुराण में पार्वती-प्रसन्न हेतु गणेश ने गौतम ऋषि के द्वारा गंगा को शिवजटा से मुक्त कराया, जिससे पार्वती हर्षित हुईं – यहाँ गणेश मातृ-पितृ नन्दन साबित हुए। उनका यह नाम उनकी प्रियता और आनंददायक स्वभाव का परिचायक है।
निधीश्वरम निधियों (धन-रत्नों) के ईश्वर, दाता
“निधीश्वर” का अर्थ है संपत्ति और धन के स्वामी/दाता। गणेश जी को धन का दाता माना जाता है – उनकी कृपा से रिद्धि-सिद्धि (ऐश्वर्य और सफलता) आती हैं। एक प्रसिद्ध कथा में कुबेर ने गणेश को भोजन पर आमंत्रित किया और गणेश जी ने अपनी भूख से उसे निरभिमान कर दिया, तब कुबेर को समझ आया कि सच्ची समृद्धि विनायक की प्रसन्नता से ही मिलेगी। इस प्रकार गणेश जी को धन के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। व्यापार के आरंभ में “श्री गणेशाय नमः” लिखने की प्रथा है ताकि निधान (निधि) की वर्षा हो। इसलिए वे निधीश्वर (निधियों के ईश्वर) कहलाते हैं।
ॐकार ओंकार (प्रणव मंत्र) स्वरूप
गणेश जी को साक्षात ओंकार (ॐ) का स्वरूप माना गया है। उपनिषद कहते हैं “ॐ नमः शिवाय” मंत्र में प्रथम ॐ गणेश ही हैं। गणपति अथर्वशीर्ष में स्पष्ट कहा गया – “त्वं ओंकारः” – अर्थात गणेश ही ओंकार हैं। इसलिए उनका एक नाम ओंकार हैmy। प्रार्थना में भी “ॐ गं गणपतये नमः” कहकर गणेश को प्रणव के साथ जोड़ा जाता है। यह नाम गणेश जी की उस ब्रह्मस्वरूप भूमिका को दर्शाता है कि वे सृष्टि के आदिमंत्र हैं – समस्त सृष्टि उनके नाद (ॐ) से प्रारंभ हुई है।
पीताम्बर पीत-वस्त्र धारण करने वाले
“पीताम्बर” का अर्थ है पीले वस्त्र पहनने वाले प्रभु (पीत = पीला, अम्बर = वस्त्र)। यह नाम श्री विष्णु का भी है, पर गणेश जी के संदर्भ में भी प्रयोग होता है। विशेषकर व्रत व पूजन में गणेश को हल्दी का पीला चोला चढ़ाया जाता है, और कई मूर्तियों में उन्हें पीतवस्त्र पहनाए जाते हैं। कुछ कथाओं में उल्लेख है कि माता पार्वती ने बाल गणेश को पीले रेशमी कपड़े पहनाए थे जब वे द्वारपाल बने थे। उनके हल्दी-सर्जित होने से भी उनका वस्त्र-रंग पीला माना गया। इन कारणों से भक्त उन्हें पीताम्बर कहकर पुकारते हैं – जो शुभ स्वर्णवर्ण वस्त्रधारी देव हैं।
प्रमोद परमानंद, हर्ष के स्वामी
प्रमोद का अर्थ है महान आनंद या प्रसन्नता। गणेश जी को प्रमोद इसलिए कहा गया क्योंकि उनका स्वरूप और उनकी उपस्थिति प्राणीमात्र को परम आनंद देती है। “प्रमोद” यह भी इंगित करता है कि वे आनंद के अधिपति हैं – समस्त सुख जिनसे उत्पन्न होते हैं। शिवपुराण में जब गणेश का पुनर्जन्म हुआ तो समस्त देव-मानवों में हर्ष की लहर दौड़ गईdnaofhinduism.com; गणेश उत्सव को आज भी “उत्सवों का आनंद” कहा जाता है। भक्त उनके आगमन पर “गणपति बाप्पा मोरया, मंगलमुर्ति मोरया” कहकर उत्साहित होते हैं। यही प्रमोद (सर्वत्र प्रसन्नता) उनका वरदान है।
प्रथमेश्वर जो सबसे प्रथम पूज्य ईश्वर हैं
प्रथम + ईश्वर = प्रथमेश्वर, अर्थात जो सब देवों और प्राणियों में सबसे पहले पूजा के अधिकारी हैं। शिवपुराण में स्वयं शिव, विष्णु, ब्रह्मा ने यह घोषणा की कि गणेश बिना किसी पूजा को स्वीकार नहीं किया जाएगा – उन्हें सबसे पहले पूजा जाएगा। इस वरदान से गणेश “प्रथम पूज्य” ठहरे। उन्हें प्रथमेश (प्रथम देव) भी कहा जाता है। किसी भी शुभ कार्य , यज्ञ, उत्सव में सबसे पहले गणेश-वंदना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है। अतः प्रथम पूजनीय ईश्वर होने के नाते गणेश जी का नाम प्रथमेश्वर सर्वमान्य है।
पुरुष परम पुरुष (सर्वोच्च चैतन्य)
उपनिषदों में परमात्मा को “पुरुष” कहा गया है – यानी समस्त सृष्टि जिसमें व्याप्त है। गणेश जी को कई स्थानों पर परम ब्रह्म (पुरुष) का प्रतिरूप माना गया है। गणपति अथर्वशीर्ष में कहा है “त्वं पुरुषः त्वं प्रकृतिः” – अर्थात गणेश ही पुरुष हैं, वही प्रकृति भी हैं। इसलिए उनका एक नाम पुरुष है, जो संकेत करता है कि वे साकार ब्रह्म हैं। उनके विग्रह में समस्त ब्रह्मांडीय शक्तियाँ निहित हैं – जैसे बड़ा पेट पृथ्वी है, सूंड आकाश है, दो दंत को ज्ञान और श्रद्धा कहा गया। अतः वे साक्षात विश्वात्मा परम पुरुष हैं।
रक्त रक्तवर्ण (लाल रंग) वाले
गणेश जी का पारंपरिक वर्ण लाल (रक्त) माना जाता है। उनकी मूर्ति को सिंदूर चढ़ाने की प्रथा हर पूजा में है – वे रक्तवर्ण श्रीगणेश हैं। शिवपुराण में वर्णन है कि गणेश जी का मुखमंडल सिंदूर लेप से रक्तवर्ण दिखाई दिया और शिव ने वर दिया कि “तुम्हारी पूजा सदा सिंदूर से होगी”। इस प्रसंग से उनका रक्तवर्ण नाम सुनिश्चित हुआ। लाल रंग ऊर्जा, सक्रियता और मंगल का प्रतीक है – गणपति में यह सभी गुण हैं। रक्तवर्ण गणेश जी को विघ्नहर लाल विग्रह भी कहा जाता है, क्योंकि वे दूर से ही अपने चमकते लाल रूप में विघ्नों को भस्म कर देते हैं।
रुद्रप्रिय
भगवान रुद्र (शिव) को प्रिय
गणेश जी अपने पिता शिव के अत्यंत प्रिय हैं, इसलिए वे रुद्रप्रिय कहलाते हैं। शिवपुराण में कथा है कि जब शिव ने क्रोध में गणेश का शीश काट दिया, तो पार्वती के शोक और देवों के अनुरोध पर शिव को पछतावा हुआ और उन्होंने तुरंत हाथी का सिर लगा उन्हें पुनर्जीवित किया। उसके बाद शिव ने प्रेम से पुत्र को गले लगाया और समस्त सिद्धियाँ प्रदान कर कही – “यह भी मेरा पुत्र है और सदा पूज्य होगा”। यह प्रसंग दर्शाता है कि गणेश शिव के कितने प्रिय थे कि शिव ने अपने समान दर्जा दे दिया। शिव के इसी स्नेह एवं संरक्षण के कारण गणेश रुद्रप्रिय नाम से जाने जाते हैं।
सर्वदेवात्मन् सभी देवताओं के आत्मा (सर्वदेव समावेशी)
गणेश जी को “सर्वदेवात्मा” कहा जाता है, जिसका अर्थ है सभी देवताओं का आत्मस्वरूप अपने अंदर धारण करने वाले। शिवपुराण के अनुसार गणेश के पूजन के बिना किसी देवता की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती – इसका भाव है कि गणेश में समस्त देवों का अंश निहित है, वे सभी के प्रतिनिधि हैं। एक अन्य अर्थ यह है कि देवगण अपने अपने प्रसाद गणेश को अर्पित करते हैं और गणेश उन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें सर्वदेवात्मन (सभी देवों के पूर्ण आत्मस्वरूप) की उपाधि मिली। यह नाम उनके विश्वव्यापी सत्ता और देवसमूह में अद्वितीय स्थान को दर्शाता है।
सर्वसिद्धान्त / सर्वसिद्धि सभी सिद्धियों और कलाओं के दाता
गणेश जी को “सर्वसिद्धि प्रदाता” कहा जाता है – वे भौतिक, आध्यात्मिक, सभी प्रकार की सिद्धियाँ (सफलताएँ) देने में सक्षम हैं। “सर्वसिद्धान्त” नाम यही इंगित करता है कि वे समस्त सिद्धियों के मूल हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है कि नारद को गणेश ने षड्दर्शन शास्त्र का ज्ञान देकर सब सिद्धांतों में निपुण बनाया। गणेश स्वयं १८ विद्याओं तथा ६४ कलाओं के अधिपति हैं। अतः वे शास्त्रार्थ के सारे सिद्धांतों के ज्ञाता और साधना की सभी सिद्धियों के दाता हैं। इस पूर्णता के कारण उन्हें सर्वसिद्धांत कहा गया है।
सर्वात्मन् समस्त विश्व के आत्मा और रक्षक
“सर्वात्मन्” का अर्थ है जो सबके आत्मा (सामूहिक आत्म-सत्ता) हों। गणेश जी समस्त जीव-जगत के अंर्तात्मा माने गए हैं – वह परमचेतना जो सब में विद्यमान है। इसके साथ ही यह नाम यह भी दर्शाता है कि वे समस्त विश्व के रक्षक हैं। गणेश गीता (गणेश पुराण का एक भाग) में गणेश को विश्व का अधिष्ठाता कहा गया है जो हर प्राणी में प्रकाश रूप से स्थित हैं। इसलिए उन्हें सर्वात्मा कहा जाता है। एक अन्य व्याख्या: उन्होंने देव-असुर सबके भीतर के विकार दूर कर विश्व की रक्षा की जैसे मत्सर, मद, मोह, लोभ, क्रोध, काम, अहं – आठ दोष रूपी असुरों का नाश किया। इसलिए भी वे सर्वात्मा, विश्व के हितैषी रक्षक हैं।
शंभवी (शम्भवी) पार्वती (शंभु की अर्द्धांगिनी) का पुत्र
शंभु (शिव) की पत्नी को शंभवी कहा जाता है – अर्थात पार्वती देवी। गणेश जी शंभु-शक्ति के पुत्र हैं, अतः वे शंभवी-पुत्र या संक्षेप में “शंभवी” कहलाते हैं। अनेक स्तोत्रों में “शंभवीसुताय” कहकर गणेश को प्रणाम किया जाता है। यह नाम गौरीसुत, उमा-पुत्र के समान ही मातृ-संबोधन का सूचक है। शिव-पार्वती के मिलन से ही गणेश की उत्पत्ति संभव हुई – वे शिव के अंश और शक्ति (पार्वती) के अंश का संयुक्त रूप हैं। इसलिए शंभवी (शंभु की पुत्रतुल्य कृति) उनका एक पावन नाम है, जो उनकी दिव्य उत्पत्ति को रेखांकित करता है।
शशिवर्णम् चंद्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण वाले
“शशि” शब्द चंद्रमा का द्योतक है। शशिवर्ण अर्थात चंद्रमा की आभा जैसा वर्ण। गणेश जी को सामान्यतः रक्तवर्ण कहा जाता है, किन्तु ध्यान शास्त्रों में उनके ध्यान के लिए श्वेत वर्ण का भी निर्देश मिलता है – जैसे ध्यानमंत्र में कहा गया “शशिवर्णं चतुर्भुजं” (चंद्र के समान गौरवर्ण, चार भुजाओं वाले) । इससे उनका शशिवर्ण नाम निकला। धार्मिक रूप से देखें तो चंद्रमा शीतलता, शांति और सौम्यता का प्रतीक है; गणेश जी विघ्नहर्ता होकर शीतल हृदय वाले भी हैं। अतः उनका एक मंगलनाम शशिवर्ण है – जो उनके सौम्य, निर्मल प्रकाशमान स्वरूप को दर्शाता है।
शुभम् शुभ स्वरूप, कल्याणकारी
गणेश जी स्वयं कल्याण (मंगल) के दाता हैं, उनका प्रत्येक रूप शुभफलदायी है। इसलिए उनका एक नाम “शुभम” भी है। जहां गणेश जी की कृपा होती है वहाँ अशुभ कुछ नहीं टिकता। हिंदू संस्कृति में किसी भी शुभ काम की शुरुआत “शुभं करोति कल्याणम्” गणेश वंदना से करने की परंपरा है – क्योंकि गणपति शुभ के प्रतीक हैं। उनकी पूजा से बुद्धि शुद्ध होती है और कार्य निर्विघ्न सफल होता है (यही तो शुभ है)। अतः वे साक्षात शुभमूर्ति हैं। यह नाम उसी सत्य की पुष्टि करता है कि विनायक की आराधना से जीवन में शुभता आती है।
शुभगुणकानन सद्गुणों के समृद्ध वन के समान (सभी गुणों के स्वामी)
यह नाम बताता है कि गणेश जी सद्गुणों के भंडार हैं – मानो उनमें सारे शुभ गुणों का जंगल (कानन) बसा है। “शुभगुण-कानन” का अर्थ हुआ वह जिसमें अनगिनत सद्गुण रूपी वृक्ष हों। गणेश जी में धर्म, ज्ञान, वैराग्य, अहिंसा, दया, परोपकार, विवेक, हास्य, विनय आदि न जाने कितने सद्गुण भरे हैं। एक गुण जाए तो दस और दिखाई देते हैं, जैसे घने वन में पेड़ों की बहुलता। इसलिए भक्त उनकी गुणावली गाते नहीं अघाते। इस गुण-समृद्धि के कारण 108 नामों में उन्हें शुभगुणकानन कहा गया है।
श्वेत शुद्ध श्वेत (सफेद) रंग वाले
श्वेत यानी पूर्णतया उज्ज्वल श्वेत वर्ण, जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है। गणेश जी को श्वेतवर्ण कई रूपों में दर्शाया जाता है – विशेषकर जब उन्हें ब्रह्मस्वरूप या शांतिदायक रूप में ध्यान किया जाता है। उदाहरणतः तंत्र में हेरम्ब गणपति और ऋणमोचक गणपति को श्वेत वर्ण बताया गया है। श्वेत रंग निर्मल बुद्धि , सात्त्विकता और शांति का द्योतक है – गणेश जी इन गुणों की खान हैं। इसलिए उनका एक नाम श्वेत है, जो उनकी पावन प्रकाशमय सत्ता को इंगित करता है। साथ ही, उनके वाहन मूषक का रंग भी भूरे से श्वेत माना जाता है – तो स्वामी भी श्वेत मानसिक स्वभाव वाले हैं।
सिद्धिधाता सफलता एवं सिद्धियों के दाता
सिद्धिधाता नाम सिद्धिदाता के समानार्थी है (जो पहले आ चुका)। गणेश जी की दो शक्तियों में से एक का नाम सिद्धि भी है – कुछ कथाओं में सिद्धि और ऋद्धि को गणेश की पत्नियाँ कहा गया है। इसका भावार्थ है कि गणेश स्वयं सिद्धियों के स्वामी हैं और उनकी कृपा से भक्त को सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। वे ज्ञान-सफलता (बुद्धि) की भी सिद्धि देते हैं और चमत्कारिक सिद्धियां (अष्टसिद्धि, नव निधियां) भी प्रदान कर सकते हैं। इसलिए वे सिद्धिधाता (सिद्धि प्रदान करने वाले प्रभु) कहे जाते हैं।
सिद्धिप्रिय सिद्धि को प्रिय रखने वाले (सिद्धि के प्रेमी/स्वामी)
जैसा ऊपर बताया, सिद्धि गणेश जी की शक्ति रूप में जानी जाती है – अर्थात उन्हें सिद्धि अत्यंत प्रिय है। “सिद्धिप्रिय” नाम में वही अर्थ है कि गणपति को सिद्धि (सफलता, दक्षता) से विशेष लगाव है और वे उसे धारित किए हुए हैं। रुद्रयामल तंत्र में गणेश को सिद्धि के पति के रूप में वर्णित किया गया है। वे अपने भक्तों की साधना को सिद्धि में परिणत करने के लिए तत्पर रहते हैं। जो साधक उन्हें प्रिय होता है, उसे वे सिद्धि देकर और भी प्रिय बना लेते हैं – इस प्रकार वे स्वयं सिद्धिप्रिय (सिद्धि के प्रेमी एवं प्रदाता) देव हैं।
स्कंदपूर्वज स्कंद (कार्तिकेय) के अग्रज (बड़े भाई)
स्कंद अर्थात भगवान कार्तिकेय (शिव-पार्वती के पुत्र) और पूर्वज यानी पहले जन्मे। पुराणों के अनुसार गणेश जी कार्तिकेय से आयु में बड़े माने जाते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथा है कि पार्वती ने सबसे पहले गणेश को अपने उबटन से बनाया, बाद में कार्तिकेय का जन्म शिव के अंश से हुआ – इस तरह गणेश बड़े भाई हुए। दक्षिण भारत की कथाओं में कार्तिकेय स्वयं को बड़ा मानते थे, तब देवों ने एक प्रतियोगिता करवाई – पृथ्वी की परिक्रमा की दौड़ में गणेश जी ने माता-पिता की परिक्रमा कर जीत हासिल की और साबित किया कि बुद्धि-बल से वही अग्रज हैं। तब से वे स्कंद के अग्रज रूप में प्रतिष्ठित हुए।
सुमुख सुंदर, शुभ मुख वाले
“सुमुख” का अर्थ है बहुत सुन्दर मुखमंडल वाला। गणेश जी का मुख भले ही हाथी जैसा हो, पर उन्हें सुमुख कहा जाता है क्योंकि उनका मुख अति शुभ्र और मनोहर है – प्रसन्नता से दमकता हुआ। गणेश की मूर्ति देखते ही मन खुश हो जाता है, बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक उनके मुख को देख मुस्कुराते हैं। यही उनका सुमुख रूप है। इसके अलावा “सुमुख” यह भी दर्शाता है कि वे हर कार्य का शुभारंभ अपने मंगल मुख से करते हैं – जैसे किसी पूजा में सबसे पहले उनका मुख देखा जाता है (दर्शन) ताकि कार्य शुभ हो। अतः वे सुमुख नाम से भी पूजित हैं।
सुरेश्वर देवताओं के ईश्वर (देव-ईश)
सुरेश्वर का शाब्दिक अर्थ है “सुरों (देवों) के ईश्वर”। गणेश जी देवताओं में श्रेष्ठ और अधिपति हैं, इसलिए यह नाम उन्हें दिया गया है । शिवपुराण में गणेश को समस्त देवसभा का अध्यक्ष घोषित किया गया – वे देवों के भी स्वामी हो गए। सभी देवी-देवता उनकी अनुमति के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं कर सकते (पहले पूजा करनी पड़ती है), यह गणेश के सुरेश्वर रूप को दर्शाता है। साथ ही, देवगण किसी भी विघ्न-बाधा पर विजय पाने हेतु गणेश शरण में आते हैं – इस प्रकार वे देवों के आश्रयदाता ईश्वर हैं।
स्वरूप सौंदर्य एवं सत्य स्वरूप वाले (या सौंदर्य के प्रेमी)
“स्वरूप” का अर्थ होता है अपना असली रूप/स्वभाव, पर यहां इत्तिशायोक्ति से इसे सौंदर्य या स्वरूप-प्रिय भी समझा गया है। गणेश जी दिखने में अनोखे हैं पर यही उनका सत्यस्वरूप है – वे आत्मा की सुंदरता के प्रतीक हैं, बाहर की नहीं। शायद इसलिए इस नाम का दूसरा अर्थ सौंदर्य-प्रेमी निकाला गया (जैसा कुछ स्रोतों में है)। गणपति कला, शिल्प, सौंदर्य के सरंक्षक हैं – हर सुंदर रचना से उन्हें प्रेम है। स्वयं उन्होंने अपने शरीर को गजमुख देकर अनूठी सुंदरता प्राप्त की जो जगत का आकर्षण बन गई। अतः वे स्वरूप नाम से भी अभिहित हैं, जो उनके अनुपम रूप और सौंदर्य प्रेम दोनों को इंगित करता है।
तरूण सदा युवा (यौवन से युक्त, किंतु अजर)
गणेश जी सदा बालक या युवा के रूप में दर्शाए जाते हैं – उनका उत्साह और ऊर्जा कभी क्षीण नहीं होती। “तरुण” शब्द का अर्थ है युवा (युवा-ावतार) या हमेशा नवीन बने रहने वाले। गणेश जी यौवन के देवता हैं, वे चिरकालिक जवानी के प्रतीक हैं क्योंकि समय उन पर हावी नहीं होता। गणेश पुराण में वर्णन है कि कलियुग में गणेश सिंदूर वर्ण में विराजेंगे और अपने भक्तों को नवऊर्जा देंगे – वे कालातीत (बिना बुढ़ापे के) हैं। उनका मोटा पेट और बालक-सा रूप बाह्य है, वास्तव में वे अनंत तेज के नवयुवा हैं। अतः वे तरुण, सदा ताजगी से भरे हुए, कहलाते हैं।
उद्धण्ड उच्छृंखल दुष्टों को दंड देने वाले (दुष्टों का नाश करने वाले)
“उद्धण्ड” का सामान्य अर्थ शरारती या उच्छृंखल होता है, किंतु यहां भगवान के संदर्भ में यह दुष्ट-दमनकारी अर्थ देता है – जो उद्धत (घमंडी) और उच्छृंखल दुष्टों का नाश करे। गणेश जी ने कई अहंकारी असुरों को पराजित कर उनका घमंड तोड़ा है, जैसे मत्सरासुर ने तीनों लोक जीते, गणेश (वक्रतुण्ड) ने उसे झुका क्षमा माँगने को बाध्य किया। इसी प्रकार कामासुर, क्रोधासुर, लोभासुर, अहंकारासुर सभी का अंत गणपति ने किया । वे अधर्मियों के लिए दंडाधिकारी हैं। इस कारण उन्हें उद्धण्ड नाम दिया गया – अर्थात दुष्टों के लिए स्वयं दंड रूप।
उमापुत्र उमा (पार्वती) के पुत्र
उमा देवी पार्वती का ही दूसरा नाम है (उमा का शाब्दिक अर्थ “हे माँ, ऐसा न करो” – जो शिव को तप से रोकने पर कहा गया, तब से उनका नाम उमा पड़ा)। गणेश जी उमा के ज्येष्ठ पुत्र हैं, इसलिए उमापुत्र कहलाते हैं। यह नाम गौरीसुत, शंभवीसुत के समानार्थी है और गणेश की मातृ-जननी की ओर संकेत करता है। माता पार्वती ने स्नान करते समय स्वयं के अंगो के उबटन से गणेश को गढ़ा था – वे पूर्णतः उमा के अंश से जन्मे, इसीलिए वे साक्षात उमापुत्र हैं। इस नाम से स्मरण करने पर भक्त को मातृभाव का आशीष मिलता है और माता-पिता दोनों की कृपा प्राप्त होती है।
वर-गणपति वर (बूंद) देने वाले गणपति
“वर” का अर्थ है boon या आशीर्वाद। वरगणपति वह स्वरूप है जिसमें गणेश जी अपने हाथ में अभयमुद्रा तथा वर-मुद्रा धारण कर भक्तों को इच्छित वरदान देते हैं। उनका यह रूप अष्टविनायक मंदिरों में वरदविनायक (महड़, महाराष्ट्र) के नाम से पूजित है जहां माना जाता है कि गणेश जी साक्षात वर देकर मनोकामना पूर्ण करते हैं। पुराणों में भी उन्हें “वरप्रद” (वर देने वाले) कहा गया है। वरगणपति नाम गणेश जी की उस छवि को दर्शाता है जिसमें वे हर भक्त को खुले हृदय से वरदान देते हैं – ज्ञान का, सिद्धि का, समृद्धि का, और रक्षा का वर।
वरप्रद इच्छित वरदान देने वाले
यह नाम भी वरदायक स्वरूप पर जोर देता है। “प्रद” यानी प्रदान करने वाला – वरप्रद मतलब जो वर (आशीष) देता है। गणेश जी प्रसन्न होकर अपने भक्तों को ऐश्वर्य, सौभाग्य, संतति, विद्या, कीर्ति – सभी प्रकार के वर देते हैं। गणेश सहस्रनाम में कई नाम जैसे ईच्छितार्थदायक, अभयप्रद आदि मिलते हैं जो उनके वरप्रद होने की पुष्टि करते हैं। माना जाता है कि गणेश चतुर्थी व्रत करने से गणेश जी भक्त की श्रद्धा अनुसार वरदान अवश्य देते हैं। इस कारण उनका एक नाम वरप्रद प्रसिद्ध है।
वरदविनायक वरदान देने वाले विनायक
वरदविनायक, वरगणपति का ही समानार्थी नाम है। विनायक का अर्थ है नेतृत्वकर्ता/स्वामी, और वरद मतलब वर देने वाला – अर्थात “जो अपने भक्तों को वरदान देने में स्वामी है”। यह अष्टविनायक में चौथे गणपति का विशेष नाम है। पौराणिक कथा अनुसार राजा ऋषिपुत्र ने इसी नाम से गणेश की उपासना कर संतान प्राप्ति का वर पाया था। विनायक के 108 नामों में वरदविनायक का उल्लेख इस बात का सूचक है कि गणेश जी स्वयं सृष्टि के वरदाता हैं और विशिष्ट वर देने के कारण वे विशेषण रूप में वरद-विनायक कहे जाते हैं।
वीरगणपति पराक्रमी, वीरता के अधिपति गणपति
“वीर गणपति” गणेश जी का एक उग्र और साहसी रूप है। वे दैत्यों से युद्ध करते समय अत्यंत वीरता दिखाते हैं – अकेले बालक ने शिव के समस्त गणों और विष्णु तक को रोककर अपनी ताकत दिखाई थी। इसलिए वे महावीर हैं। मुद्गल पुराण में भी वर्णन आया कि गणेश ने सिंह, मयूर, मूषक, नाग, अश्व जैसे विभिन्न वाहनों पर सवार हो भिन्न अवतारों में अष्ट दानवों का संहार किया– ये सब उनकी वीरता को प्रकट करता है। उन्हीं के नाम पर वीर गणपति स्तोत्र रचा गया है जिसमें वे अष्टभुज, रक्तवर्ण, आयुधधारी योद्धा के रूप में वर्णित हैं। इस शौर्य के प्रतीक स्वरूप में उन्हें वीरगणपति कहा जाता है।
विद्यावारिधि विद्या का महान भंडार (विद्या-सागर)
“वारिधि” का अर्थ समुद्र होता है। विद्यावारिधि यानी विद्या का महासागर। गणेश जी समस्त ज्ञान के भंडार हैं – वे १८ विद्याओं और ६४ कलाओं में पारंगत देव हैं। त्रिपाठी उपनिषद में वर्णन है कि नारद ने जब सभी विद्याओं के ज्ञान की कामना की तो ब्रह्मा ने उन्हें गणेश की शरण में भेजा, जहाँ गणेश ने उन्हें समस्त विद्या प्रदान की। इससे गणेश को विद्याओं का स्रोत माना गया। आज विद्यालयों में सरस्वती के साथ गणेश पूजन भी होता है ताकि बालक की बुद्धि रूपी तस्तरी गणेश रूपी ज्ञानसागर से भर सके। इस प्रकार गणेश जी को आदिबुद्ध और विद्यावारिधि कहा जाता है।
विघ्नहर विघ्नों को हरने वाले (दूर करने वाले)
यह विघ्नहर्ता के समान ही अर्थ वाला नाम है। “विघ्न-हर” कहते ही प्रथम स्मरण गणेश जी का होता है जो जीवन के कष्टहर हैं। हिन्दू धर्म में कोई भी शुभारंभ करते समय “विघ्नहरणं देव” कहकर गणेश को पुकारते हैं ताकि काम निर्विघ्न पूर्ण हो। शिवपुराण के अनुसार गणेश को प्रथम पूज्य बनाने का अर्थ ही यही था कि वे स्वयं पहले पूजे जाकर आगे आने वाले विघ्न हटाएँगे। इसीलिए उनके 108 नामों में अलग-अलग तरीके से विघ्नहर्ता को दोहराया गया है (विघ्नहर, विघ्नहर्ता, विघ्नविनाशन इत्यादि) – ताकि भक्त उनके इस मुख्य स्वरूप को कभी न भूलें।
विघ्नविनाशाय
विघ्नों का विनाश करने वाले हेतु (कर्ता)
(यह नाम “विघ्नविनाशक” के समानार्थी है, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है।) गणेश को यह विशेषण तंत्र-मंत्र में विघ्ननाशकारी बीज के रूप में भी दिया जाता है – जैसे “गं” बीज मंत्र स्वयं विघ्नों का नाश करता है, क्योंकि वह गणेश का बीज है। अतः विघ्नविनाशाय नमः कहकर उनका जप किया जाता है।
विश्वमुख विश्वरूपी मुख वाले, जगत के संचालक
“विश्वमुख” का तात्पर्य है जिसका मुख पूरी सृष्टि है। गणेश जी को विश्वमुख इसलिए कहा गया क्योंकि वे समस्त ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए हैं – उनका एक रूप विश्वात्मक है जिसमें पूरा जगत उनकी प्रतिमा के विभिन्न अंगों में देखा जाता है। गणेश उपनिषद में कहा गया “विश्वं तव मुखे” – हे गणेश, सम्पूर्ण विश्व आपका मुख है। यह उक्ति गणेश अथर्वशीर्ष के अंतिम शांति पाठ से ली गई है। गणेश जी सर्वव्यापी ईश्वर हैं , इसलिए वे विश्वमुख नाम से सुशोभित हैं। साथ ही, वे जगत के नियंता भी हैं – सब गतिविधियाँ उनकी आज्ञानुसार चलती हैं, इस दृष्टि से भी वे विश्वमुख (जगत के मुखिया) हैं।
विश्वराज संसार के राजा
विश्वराज अर्थात जगत के राजा/शासक। गणेश जी चूँकि प्रथम पूज्य और सर्वोच्च देव हैं, वे देव-देवेश्वर ही नहीं समस्त जगत के अधिपति भी हैं। प्रत्येक प्राणी के ऊपर उनकी सत्ता अदृश्य रूप में विद्यमान है – उनके बिना कोई कर्म सिद्ध नहीं होता, कोई यज्ञ पूर्ण नहीं होताdnaofhinduism.com। ऐसी सर्वव्यापक सत्ता होने से वे राजा हैं और प्रजा यह संपूर्ण विश्व। स्कन्द पुराण में एक प्रसंग है जहाँ काशी में संकट आने पर समस्त नगर ने गणेश को राजा मान पूजा की, जिससे विघ्न टल गए। इस तरह लोकमानस में भी गणेश विश्व-नायक (राजा) के रूप में बसे हैं।
यज्ञकाय यज्ञस्वरूप शरीर वाले, यज्ञ-स्वीकारक
गणेश जी को “यज्ञकाय” कहा जाता है, क्योंकि उनका शरीर स्वयं पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना एक यज्ञ वेदी समान है जिसमें हवन रूप में सभी शुभ कर्म समाहित हो जाते हैं। हर यज्ञ के प्रारंभ में उनकी आहूति दी जाती है – यह दर्शाता है कि वे प्रत्येक यज्ञ के अभिन्न अंग हैं। कुर्म पुराण में वर्णित है कि गणेश आदि-देव हैं जिनके पूजन से यज्ञ संपन्न होता है। वे यज्ञ के भाग भी ग्रहण करते हैं – महाभारत अनुशासन पर्व में कहा गया कि गणेश को अर्घ्य देने से ही देवताओं को पूर्ण भाग मिलता है। इसलिए उनका नाम यज्ञकाय उचित है, जो उन्हें समस्त यज्ञ का आधार बताता है।
यशस्कर यश और कीर्ति प्रदान करने वाले
गणेश जी को “यशस्कर” कहा जाता है क्योंकि उनकी कृपा से साधक यशस्वी होता है। शिवपुराण की कथा है कि देवताओं ने गणेश को पूज्य बनाकर खुद अपयश से बचना चाहा, क्योंकि गणेश का अपमान करने पर उनपर विघ्न आए थे। यह सीख है कि गणेश भक्ति ही कीर्ति देती है। जिन लोगों ने घोर विपत्ति में भी गणेश का नाम जपा, वे अमर कीर्ति पा गए – जैसे महर्षि वेदव्यास (जिन्होंने गणेश के माध्यम से महाभारत लिखी) का नाम युगों से यशस्वी है । अतः गणपति की उपासना व्यक्ति को समाज में यश, कीर्ति, लोकप्रियता दिलाती है, इसीलिए वे यशस्कर (यश देने वाले) नाम से अलंकृत हैं।
यशस्विन् सदैव यशस्वी एवं सर्वप्रिय
“यशस्वी” वह है जिसकी कीर्ति सदा बनी रहे और सब उसे प्रिय मानें। गणेश जी की महिमा अनादिकाल से लेकर आज तक ज़रा भी कम नहीं हुई – वे सदा यशस्वी देव हैं, हर काल में पूजनीय और प्रिय। गणेश चतुर्थी उत्सव प्राचीन काल में देव-परंपरा से चला और आज भी करोड़ों लोग धूमधाम से मनाते हैं – यह उनकी नितान्त लोकप्रियता है। बच्चे से वृद्ध तक हर कोई गणपति से प्रेम करता है, उन्हें पूजता है। इस सार्वभौमिक प्रियता के कारण गणेश जी को यशस्विन् (हमेशा यश-विभूषित, प्रियतमा) कहा गया है। भक्ति-साहित्य में भी उन्हें “सर्वप्रिय” कहकर संबोधित किया गया है।
योगाधिप योग के अधिपति, ध्यान के स्वामी
गणेश जी “योग के अधिष्ठाता” हैं – वे प्रथम चक्र मूलाधार के देवता हैं जिनकी कृपा से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। योग और तंत्र ग्रंथों में गणपति को मूलाधार में लाल वर्ण में विराजमान बताया गया है, जहां से साधक की ध्यान यात्रा शुरू होती है। इसलिए उनका नाम योगाधिपति (योग के स्वामी) है। प्राचीन ग्रंथ गणेशगीता में स्वयं गणेश ने योग के रहस्य सिखाए थे। उन्हें योगविनायक भी कहा जाता है। गणेश जी ध्यान करने वालों के लिए अनुकूलता प्रदान करते हैं – ध्यान में आने वाले विघ्न दूर करते हैं और मन को एकाग्र करते हैं। इस प्रकार योग के मार्गपर भी वे स्वामी हैं, अतः योगाधिप नाम सार्थक है।


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