नाम | शास्त्रीय संदर्भ | कारण (नाम कैसे/क्यों पड़ा) |
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आशुतोष | शिव पुराण | आशुतोष का अर्थ है “ शीघ्र संतुष्ट होने वाले” – शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि वे अल्प तपस्या से ही प्रसन्न होकर भक्तों को वरदान देते हैं। अनेक कथाओं में वर्णित है कि देव-दानव सभी को थोड़े पूजन से ही वह प्रसन्न हो जाते थे। |
आदिगुरु | शिव पुराण | आदिगुरु का अर्थ है “प्रथम गुरु”। शास्त्रों में शिव को आदि गुरु माना गया है – मान्यता है कि सर्वप्रथम शिव ने ही योग व ज्ञान सप्तऋषियों को प्रदान किया था, इसलिए उन्हें आदिगुरु कहा जाता है। |
आदिनाथ | शिव पुराण | आदिनाथ का अर्थ है “आदि (प्रथम) स्वामी”। शिव को आदिनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ से ही वे परमेश्वर के रूप में विद्यमान हैं। न उनके जन्म की कोई कथा है न अंत की – वे स्वयंभू हैं, सनातन परम भगवान हैं। |
आदियोगी | शिव पुराण | आदियोगी अर्थात “प्रथम योगी”। योग परंपरा में शिव को आदियोगी कहा जाता है क्योंकि माना जाता है कि योग की मूल शिक्षा सबसे पहले शिव से ही प्रारम्भ हुई। हिमालय में प्राचीन काल में उन्होंने ध्यान द्वारा योग सिद्ध किया और जगत को योग विद्या दी। |
अज | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अज का शाब्दिक अर्थ है “अजन्मा” (जिसका जन्म न हुआ हो)। शिव को अज कहा गया है क्योंकि उनका कोई जन्म नहीं हुआ – वे स्वयंभू एवं अनादि हैं। उपनिषदों में भी परमात्मा को “अज (अनादि)” कहा गया है, जो शिव पर लागू होता है। |
अक्षयगुण | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अक्षयगुण का अर्थ है “जिसके गुण अक्षय (असीम) हैं”। शिव को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनके दिव्य गुणों का कोई अंत नहीं – वे अनंत शक्तियों और गुणों से युक्त परमेश्वर हैं। |
अनघ | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अनघ का अर्थ है “निर्दोष” या “जिसमें पाप न हो”। शिव को अनघ कहा जाता है क्योंकि वे पापरहित, शुद्ध स्वरूप वाले हैं। वे स्वयं सब पापों के नाशक हैं, इसलिए उन पर कोई दाग या दोष नहीं माना जाता। |
अनंतदृष्टि | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अनंतदृष्टि का अर्थ है “अनंत दृष्टि वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनका दृष्टिकोण अनंतकाल तक फैला है – वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल को समभाव से देखते हैं। कोई भी घटना उनकी दृष्टि से परे नहीं है। |
औघड़ | शिव पुराण | औघड़ (या “औघड़दानी”) शिव का ऐसा रूप है जो सामान्य सामाजिक बंधनों से परे है। उन्हें औघड़ कहा जाता है क्योंकि वे सरल, अकृत्रिम अवस्था में रहते हैं – श्मशानवासी, भस्मलेपित, संसारिक आडंबरों से रहित होकर भी भक्तों को प्रेमपूर्वक दर्शन और दान देते हैं। |
अव्ययप्रभु | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अव्ययप्रभु का अर्थ है “अक्षय/अविनाशी प्रभु”। शिव को अव्ययप्रभु कहा जाता है क्योंकि वे सदा-अपरिवर्तित और अविनाशी हैं। समय या प्रलय का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता – वे अनंतकाल तक एक समान प्रभु रूप में विद्यमान रहते हैं। |
भैरव | शिव पुराण | भैरव का अर्थ है “भयकारी”। शिव के इस रौद्र रूप की कथा है कि ब्रह्मा के अहंकार को दंडित करने के लिए उन्होंने कालभैरव रूप धारण कर सृष्टिकर्ता का एक सिर काट दिया था – उनके कर में ब्रह्माजी का रक्त लगा, जिससे यह भयंकर रूप भैरव कहलाया। इस रूप में शिव संहारक और उग्र देवता माने जाते हैं। |
भालनेत्र | शिव पुराण | भालनेत्र शब्द में भाल अर्थात ललाट (माथा) और नेत्र अर्थात आँख है। शिव को भालनेत्र कहा जाता है क्योंकि उनके ललाट पर मध्य में एक तीसरा नेत्र है। कथा प्रसिद्ध है कि कामदेव को भस्म करने हेतु शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला था – इस प्रकार उनके मस्तक पर दिव्य नेत्र प्रकट हुआ। |
भोलेनाथ | शिव पुराण | भोलेनाथ शिव का लोकप्रचलित नाम है, जिसका अर्थ है “भोले स्वभाव वाले स्वामी”। शिव को भोलेनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे निष्कपट, सरल हृदय एवं सहज प्रसन्न होने वाले देवता हैं। उनकी यही भोली प्रकृति है कि वे तनिक स्तुति-प्रसाद से भी प्रसन्न होकर वर दे देते हैं। |
भूतेश्वर | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूतेश्वर का अर्थ है “भूतों (प्राणियों/तत्वों) के ईश्वर”। शिव को भूतेश्वर कहा जाता है क्योंकि वे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के स्वामी हैं तथा प्रेत-पिशाच आदि गणों के अधिपति भी वही हैं। सभी भूतप्रेत उनके गण माने जाते हैं, अतः वे भूतेश्वर (सर्व तत्वों के स्वामी) हैं। |
भूदेव | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूदेव का अर्थ है “भूमि के देवता”। शिव को भूदेव कहा जाता है क्योंकि वे पृथ्वी के पालनकर्ता और संरक्षक भी हैं। कई स्थानों पर शिवलिंग स्वयं पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। शिव धरती के समस्त जीवों के भी ईश्वर हैं, इस नाते वे भूदेव (धरती के देव) हैं। |
भूतपाल | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूतपाल का अर्थ है “प्रेत/भूतों के रक्षक”। शिव को भूतपाल कहा जाता है क्योंकि वे अपने गणों – भूत , प्रेत, पिशाच आदि – की रक्षा और पालन करते हैं। शिव की सेना भूतगणों की है और वे अपने सभी गणों के स्वामी व संरक्षक हैं। |
चंद्रपाल | शिव पुराण | चंद्रपाल का अर्थ है “चंद्रमा के स्वामी/रक्षक”। पौराणिक कथा है कि चंद्रदेव (चंद्रमा) को दक्ष के श्राप से क्षय रोग हुआ तब उन्होंने शिव की आराधना की। शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर स्थान देकर उसकी रक्षा की – तभी से शिव चंद्रपाल (सोम के पालनकर्ता) कहलाए। |
चंद्रप्रकाश | शिव पुराण | चंद्रप्रकाश का अर्थ है “चंद्र के प्रकाश वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनके मस्तक पर सुशोभित अर्धचंद्रमा से प्रकाश निकलता है। शिव अपने शीश पर चंद्र धारण करते हैं , जिसका शीतल प्रकाश सदा उनके आसपास प्रकाशित रहता है। |
दयालु | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दयालु का अर्थ है “करुणामय, दया से पूर्ण”। शिव को दयालु कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्राणियों पर अनुकंपा रखते हैं। भिक्षुक बनकर अन्न मांगने वाले औघड़ हों या राक्षस, पशु-पक्षी – शिव सब पर दया कर उन्हें आश्रय व आशीर्वाद देते हैं। |
देवादिदेव | महाभारत (अनुषासन पर्व) | देवादिदेव का अर्थ है “देवों के भी देव”। महाभारत एवं पुराणों में शिव को देवताओं का देव कहा गया है – अर्थात समस्त देवों में श्रेष्ठ महादेवthehansindia.com। यह नाम बताता है कि ब्रह्मा-विष्णु आदि देवता भी शिव की महिमा का गुणगान करते हैं और उन्हें परमेश्वर मानते हैं। |
धनादीप | शिव पुराण | धनादीप का अर्थ है “धन के अधिपति”। शिव को धनादीप (धनदीप) कहा जाता है क्योंकि वे धन-संपदा के स्वामी हैं। कुबेर ने शिव की तपस्या कर धनपालन का पद पाया था, इसलिए शिव समस्त संपत्ति के अधिपति माने जाते हैं। उनकी कृपा से भक्तों को भौतिक समृद्धि भी प्राप्त होती है। |
ध्यानदीप | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | ध्यानदीप का अर्थ है “ध्यान रूपी प्रकाश के दीपक”। शिव को ध्यानदीप कहा जाता है क्योंकि वे परम योगी हैं – उनका ध्यान स्वयं परम प्रकाश है। वे योगियों के हृदय में ध्यान रूपी प्रकाश प्रज्वलित करते हैं तथा उनके ध्यान से आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है। |
ध्युतिधर | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | ध्युतिधर का अर्थ है “तेज धारण करने वाले”। शिव को ध्युतिधर कहा जाता है क्योंकि उनके स्वरूप में अनंत तेज (प्रकाश) समाया है। वे दिव्य आभा से देदीप्यमान रहते हैं – उनके तीनों नेत्रों से ज्ञान एवं तेज प्रकट होता है और जगत को प्रकाशमान करता है। |
दिगंबर | शिव पुराण | दिगंबर का शाब्दिक अर्थ है “जिसका वस्त्र दिशाएं हैं” यानि नग्न रूप। शिव योगी स्वरूप में दिगंबर माने जाते हैं – वे भौतिक वस्त्रों से विरक्त होकर भस्म रमाए रहते हैं। दिगंबर रूप यह दर्शाता है कि सम्पूर्ण आकाश ही जिनका परिधान है, ऐसे निरंकारी शिव संसारिक आसक्ति से परे हैं। |
दुर्जनीय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दुर्जनीय का अर्थ है “जिसे पूरी तरह जाना न जा सके”। शिव को दुर्जनीय कहा गया है क्योंकि उनकी माया और महिमा का पूर्ण ज्ञान पाना कठिन है। देवता, ऋषि भी उनके सम्पूर्ण तत्व को नहीं जान पाते – वे अनादि-अनंत रहस्यस्वरूप हैं, जिन्हें पूरी तरह समझना मनुष्यों के लिए दुर्ज्ञेय है। |
दुर्जय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दुर्जय का अर्थ है “जिसे जीतना कठिन है”। शिव को दुर्जय कहा जाता है क्योंकि उन्हें किसी भी विधर्मी या असुर ने कभी परास्त नहीं किया – वे अपराजेय हैं। तीनों लोकों में कोई शक्ति शिव को पराजित नहीं कर सकती, वे सर्वशक्तिमान हैं इसलिए दुर्जय (अजेय) हैं। |
गंगाधर | वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) | गंगाधर का अर्थ है “गंगा को धारण करने वाले”। राजा भगीरथ के आग्रह पर जब माँ गंगा स्वर्ग से पृथ्वी प र उतरीं, तब शिव ने उनकी प्रचंड धारा को अपनी जटाओं में समाहित कर लिया । गंगा शिव की जटाओं में ब्रह्मांडभर तक प्रवाहित हुईं और फिर धीरे से पृथ्वी पर उतारी गईं। गंगा को जटाओं में धारण करने के कारण शिव गंगाधर कहलाए। |
गिरिजापति | शिव पुराण | गिरिजापति का अर्थ है “गिरिजा (पार्वती) के पति”। पार्वती जी को गिरिराज हिमवान की पुत्री होने से गिरिजा कहा जाता है। शिव ने घोर तपस्या के बाद पार्वती से विवाह किया, इसलिए उन्हें गिरिजापति कहा जाता है – अर्थात देवी पार्वती के पति और स्वामी। यह नाम उनके गृहस्थ रूप को दर्शाता है। |
गुणग्राही | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | गुणग्राही का अर्थ है “सभी गुणों को स्वीकार करने वाले”। शिव को गुणग्राही कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों की न्यूनतम अर्चना को भी सहृदयता से स्वीकार करते हैं। वे सभी जीवों में मौजूद अच्छे गुणों को देखते हैं, न कि दोषों को – जैसे समुद्रमंथन में अमृत के साथ निकले विष को भी ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वे सर्व गुणों के ग्राही हैं। |
गुरुदेव | शिव पुराण | गुरुदेव का अर्थ है “देवों के गुरु” अथवा “महान गुरु”। शिव को गुरुदेव कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अनेक रूपों में ज्ञान दिया है – दक्षिणामूर्ति रूप में सनत कुमारों को उपदेश , आदि योगी रूप में सप्तऋषियों को शिक्षा, तथा गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें जगत्गुरु माना है। इस प्रकार शिव अध्यात्म के महान गुरु हैं। |
हर | महाभारत (अनुषासन पर्व) | हर (Hara) का अर्थ है “हरने वाला”। शिव को हर कहा जाता है क्योंकि वे भक्तों के पाप और कष्ट हर लेते हैं। शिव सहस्रनाम में हर नाम तीन बार आया है – टीकाकारों ने उसका अर्थ अलग-अलग लिया है: “जो पापों का हरण करते हैं”, “जो भक्तों का संताप दूर कर उनका मन मोह लेते हैं” । इस प्रकार शिव सबके पाप-भय हरण करने वाले परम देव हैं। |
जगदीश | शिव सहस्रनाम (महाभारत) | जगदीश का अर्थ है “जगत के ईश्वर”। शिव को जगदीश कहा जाता है क्योंकि वे संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं। पुराणों में सृष्टि की रचना, पालन और संहार सभी का अधिष्ठाता शिव को माना गया है – वे ही जगत के ईश्वर और नियंता हैं। |
जराधीशमन | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | जराधीशमन का अर्थ है “बुढ़ापा तथा पीड़ा का नाश करने वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनकी कृपा से भक्तों के सभी कष्ट, रोग तथा जरा-मृत्यु का भय दूर हो जाता है। मार्कण्डेय जैसे भक्त को शिव ने अमर युवा अवस्था दे दी – इस प्रकार वे जरा (बुढ़ापा) के ईश को भी शमन करने वाले देव हैं। |
जतिन (जटाधारी) | शिव पुराण | जतिन का अर्थ है “जटाधारी”, अर्थात जिनके बाल जटा (मैटेड हेयर) में जुड़े हैं। भगवान शिव महान तपस्वी हैं – वे लंबे जटाओं वाले योगी रूप में जाने जाते हैं। इन्हीं जटाओं में उन्होंने गंगा नदी को रोक कर धारण किया था, जिससे गंगा की प्रचंड धारा शांत हो सकी। इस जटाधारी स्वरूप के कारण वे जतिन कहलाते हैं। |
कैलाश | शिव पुराण | कैलाश शिव का प्रिय निवास स्थान है – उनका धाम कैलाश पर्वत पर स्थित है। शिव को कैलाश नाम से संबोधित करने का तात्पर्य है कि वे अपने भक्तों को कैलाश समान शांति प्रदान करते हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि भगवान शिव कैलाश पर्वत पर अपने परिवार सहित आनंदपूर्वक निवास करते हैं और वहीं से जगत का संचालन करते हैं। |
कैलाशाधिपति | शिव पुराण | कैलाशाधिपति का अर्थ है “कैलाश के अधिपति (स्वामी)”। पर्वतराज हिमालय के उत्तुंग शिखर कैलाश पर शिव का निवास है और वे ही उसके अधिपति हैं। सभी गण-देवता कैलाश पर उनकी सेवा में रहते हैं। इसीलिए शिव को कैलाशाधिपति कहा जाता है – अर्थात वे कैलाश पर्वत के प्रभु और संरक्षक देवता हैं। |
कैलाशनाथ | शिव पुराण | कैलाशनाथ का अर्थ भी “कैलाश के स्वामी” है। शिव को कैलाशनाथ कहा जाता है क्योंकि वे कैलाश मंडल के नाथ (ईश्वर) हैं। समस्त योगी, सिद्ध और भक्तजन कैलाश पर्वत को पवित्र तीर्थ मानते हैं क्योंकि वहाँ स्वयं भगवान कैलाशनाथ शिव विराजते हैं और अपनी गणों सहित लोककल्याण करते हैं। |
कमलाक्ष | शिव पुराण | कमलाक्ष (कमलाक्षण) का अर्थ है “कमल जैसी दृष्टि वाले”। शिव को कमलाक्ष कहा जाता है क्योंकि उनकी आंखें कमलदल जैसी सुंदर एवं शीतल हैं। हालाँकि रौद्र रूप में उनकी तीसरी आँख प्रलयंकर है, किंतु सामान्यतः उनकी दो आँखों की दृष्टि करुणामय और सौम्य बताई गई है, जो कमल के समान सुंदर है। |
कंठ | शिव पुराण | कंठ का अर्थ है “गला (गरदन)”। शिव को कंठ विशेष नाम इसलिए मिला क्योंकि समुद्र मंथन के समय निकला विष उन्होंने अपने कंठ में धारण किया था। उस हलाहल विष से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। शिव का यही कंठ जगत को कालकूट विष से बचाने हेतु नीला हुआ और उनकी पहचान बन गया। |
कपालिन | शिव पुराण | कपालिन का अर्थ है “कपाल (खोपड़ी) धारण करने वाले”। एक पौराणिक घटना के अनुसार ब्रह्माजी का अहंकार भंग करने के लिए शिव ने उनका पाँचवाँ सिर काट दिया। उस ब्रह्म-कपाल को काटने से शिव पर ब्रह्म हत्या का दोष लगा और वह कपाल उनके हाथ से चिपक गया । शिव भिक्षाटन करते हुए विभिन्न तीर्थ गए और अंत में उस कपाल से मुक्त हुए। हाथ में ब्रह्म-कपाल धारण करने के कारण वे कपालिन कहलाए। |
कोचादेयान | शिव पुराण | कोचादेयान (तमिल उच्चारण: कोचादैयान) का शाब्दिक अर्थ है “लंबी जटाओं वाला भगवान”। तमिल भक्त परंपरा में शिव को यह विशेषण दिया गया है – को (भगवान) + चादै (जटा) + यान से अर्थ हुआ “जटाधारी ईश्वर”। अर्थात यह शिव के उसी जटाधारी रूप का द्योतक है, जिनकी लंबी जटाओं में देवी गंगा विराजमान हैं। |
कुंडलिन | शिव पुराण | कुंडलिन का अर्थ है “कुंडल पहने हुए”। शिव को कुंडलिन कहा जाता है क्योंकि वे कानों में विशाल कुंडल (बाले) धारण करते हैं। पुराणों में शिव के आभूषणों में मकराकृति कुंडल (मगराकार बाले) का वर्णन है। उनके ये कुण्डल सृष्टि के ध्वनि तत्व के भी प्रतीक हैं, जिन्हें धारण करने से वे कुंडलिन कहलाते हैं। |
ललाटाक्ष | शिव पुराण | ललाटाक्ष का अर्थ है “मस्तक पर नेत्र वाले” – यह शिव के तीसरे नेत्र की ओर संकेत करता है। शिव के ललाट में स्थित दिव्य नेत्र से ही उन्होंने कामदेव को भस्म किया था । इस तीसरे नेत्र से वे भूत, भविष्य, वर्तमान सब देख सकते हैं – अतः उनके इस रूप को त्रिनेत्रधारी ललाटाक्ष कहा गया है। |
लिंगाध्यक्ष | शिव पुराण | लिंगाध्यक्ष का अर्थ है “लिंग के अधिष्ठाता”। शिवलिंग स्वयं भगवान शिव का निराकार प्रतीक है। एक कथा अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा-विष्णु ने एक अंतहीन ज्योतिरूप लिंग के रूप में शिव के दर्शन किए और उसकी महिमा स्वीकारी। शिव ही समस्त शिवलिंगों में व्याप्त अधिष्ठाता देव हैं, इसलिए उन्हें लिंगाध्यक्ष कहा जाता है। |
लोकंकार | शिव पुराण | लोकंकार का अर्थ है “सारे लोकों (त्रिभुवन) की रचना करने वाले”। कुछ पुराणों में वर्णित है कि सृष्टि के आरम्भ में भगवान शिव ने अपनी शक्ति से तीनों लोकों – भू (पृथ्वी), भुवः (अंतरिक्ष) और स्वः (स्वर्ग) – की रचना की । वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी कारण रूप हैं, अतः लोकों की संरचना के आधार पर वे लोकंकार कहलाते हैं। |
लोकपाल | शिव पुराण | लोकपाल का अर्थ है “लोकों का पालनकर्ता/रक्षक”। हालांकि पुराणों में चार लोकपाल (इंद्र आदि) बताए गए हैं, किंतु शिव को परम लोकपाल कहा जाता है क्योंकि वे संपूर्ण ब्रह्मांड के संरक्षक हैं। जब-जब संसार पर संकट आता है, शिव विभिन्न अवतार लेकर पृथ्वी तथा देवों की रक्षा करते हैं – जैसे हलाहल विषपान कर लोकों की रक्षा की। |
महाबुद्धि | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | महाबुद्धि का अर्थ है “महान बुद्धि वाले (परमज्ञानी)”। शिव को महाबुद्धि कहा जाता है क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं। समस्त वेद-शास्त्रों के जानकार स्वयं भगवान शिव हैं – गणेश को ज्ञान देने वाले और ब्रह्मा को वेद ज्ञान देने वाले भी शिव ही हैं। उनकी बुद्धि अपरिमित एवं अपार है। |
महादेव | महाभारत | महादेव का अर्थ है “महान देवताओं में महानतम देव”। यह शिव का अत्यंत प्रचलित नाम है। महाभारत तथा पुराणों में शिव को देवों में श्रेष्ठ कहा गया है – वे त्रिदेवों में एक हैं परंतु अपनी विषिष्ट गुणों से सर्वोच्च हैं। दक्षिण में प्रचलित तमिल भक्ति में भी उन्हें त्तिरुप्पेरुंदेवन् (महादेव) कहा गया। संक्षेप में, महादेव अर्थात समस्त देवों से बड़े देव। |
महाकाल | शिव पुराण | महाकाल का अर्थ है “महान काल” या “काल से भी परे/विनाशक”। शिव को महाकाल कहा जाता है क्योंकि वे समय के भी अधीन नहीं, बल्कि स्वयं समय के स्वामी हैं। कालांतर में हर वस्तु नष्ट हो जाती है किंतु शिव सदा रहते हैं। शिवपुराण में उन्हें त्रिलोकी का संहारकर्ता काल और उससे भी श्रेष्ठ महाकाल रूप में वर्णित किया गया है। उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उनके इसी रूप का प्रतीक है। |
महामाया | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महामाया का अर्थ है “महान मायाशक्ति के स्वामी”। शिव को महामाया कहा जाता है क्योंकि वे अपनी योगमाया से संपूर्ण जगत को संचालित करते हैं। उनकी माया से ही ब्रह्मांड उत्पन्न, स्थिर और लय होता है। हालांकि महामाया शब्द देवी के लिए भी आता है, पर शिव अपनी शक्ति (पार्वती) सहित समस्त माया के अधिपति हैं। |
महामृत्युंजय | शिव पुराण | महामृत्युंजय का अर्थ है “मृत्यु पर विजय पाने वाले”। यह नाम भगवान शिव को इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने अपने भक्त मार्कण्डेय की रक्षा कर यमराज को परास्त किया था – इस लीला से वे मृत्युंजयी (कालंतर) कहलाए। ऋग्वेद का महामृत्युंजय मंत्र भी त्र्यंबक भगवान शिव की आराधना करता है जो भक्तों को अकाल मृत्यु से मुक्ति देने वाले हैं। |
महानिधि | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महानिधि का अर्थ है “महान कोष”। शिव को महानिधि इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे अनंत ऐश्वर्य, ज्ञान तथा सद्गुणों के भंडार हैं। समस्त धन, विद्या, शक्ति का स्रोत स्वयं शिव को माना गया है – वे परमानंद तथा परम ज्ञान के निधि (भंडार) हैं जो भक्तों को सद्गति रूपी निधि प्रदान करते हैं। |
महाशक्तिमय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महाशक्तिमय का अर्थ है “महान शक्ति से युक्त”। शिव को यह नाम इसलिए प्राप्त है क्योंकि वे अपार शक्तियों के अधिष्ठाता हैं। संहार, सृजन, पालन तीनों कार्य उनकी महाशक्ति से संचालित होते हैं। देवी पार्वती स्वयं उनकी शक्ति स्वरूपा हैं। अतः शिव परम शक्तिमय देव हैं, जिनकी शक्तियां असीम हैं। |
महायोगी | शिव पुराण | महायोगी का अर्थ है “महान योगी”। शिव को महायोगी कहा जाता है क्योंकि वे आदियोगी होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ योग साधना में लीन रहते हैं। पुराणों में शिव को कैलाश पर ध्यानस्थ तपस्वी के रूप में दर्शाया गया है। वे योग की पराकाष्ठा हैं – उनकी त्रिनेत्रज्योति अंतर्ज्ञान का प्रकाश है और वे समस्त योगियों के आदर्श महायोगी हैं। |
महेश | शिव पुराण | महेश “महान ईश” का संक्षिप्त रूप है। शिव को महेश कहा जाता है क्योंकि वे परम ईश्वर हैं। यह नाम महेश्वर का ही रूप है, जो शिवपुराण आदि में मिलता है। दक्ष यज्ञ विध्वंस के बाद सती ने शिव को सम्बोधित करते हुए “महेश” कहा, जिसका आशय है कि तीनों लोकों में आप ही महान ईश्वर हैं। |
महेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | महेश्वर का अर्थ है “सर्वोच्च ईश्वर”। श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र को ही परमेश्वर बताया गया है – “न तस्य कश्चित् परमं च महेश्वरः” अर्थात रुद्र से ऊपर कोई परम ईश्वर नहीं। शिव महेश्वर हैं क्योंकि ब्रह्मांड में उन्हीं का ऐश्वर्य (सर्वाधिकार) सर्वोच्च है। सभी देवता भी शिव को परमेश्वर मान प्रणाम करते हैं। |
नागभूषण | शिव पुराण | नागभूषण का अर्थ है “सर्पों को भूषण (आभूषण) के रूप में धारण करने वाले”। शिव अपने गले, हाथों में सर्पों की माला धारण करते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि वासुकी नाग को शिव ने हार रूप में पहना है । समुद्रमंथन के समय वासुकी नाग रस्सी बना, तत्पश्चात् शिव ने उसे गले में स्थान दिया। इस प्रकार सर्पों को अलंकार की तरह धारण करने के कारण वे नागभूषण कहलाए। |
नटराज | शिव पुराण | नटराज का अर्थ है “नृत्य के राजा” (नृत्य के भगवान)। शिव को नटराज इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे सृष्टि के संहार-तांडव एवं आनंद-तांडव नृत्य के अधिपति हैं। चिदंबरम की कथा प्रसिद्ध है जहां शिव ने अपस्मर दैत्य को पदतल से दबाकर आनंद तांडव किया था – तभी देवों ने उन्हें नटराज कहकर स्तुति की। उनका तांडव नृत्य सृष्टि, स्थिति और संहार का प्रतीक है। |
नीलकंठ | शिव पुराण | नीलकंठ का अर्थ है “नीले कंठ वाला”। यह नाम शिव को समुद्रमंथन की घटना से प्राप्त हुआ जब देवताओं-दैत्यो द्वारा मथे क्षीरसागर से कालकूट विष निकला। जीवों की रक्षा हेतु भगवान शिव ने वह विष अपने कंठ में धारण कर लि या जिससे उनका गला नीला पड़ गया। विष का असर वे गले से नीचे नहीं उतरने देते – तभी से वे करुणानिधान शिव नीलकंठ कहलाए। |
नित्यसुंदर | शिव सहस्रनाम | नित्यसुंदर का अर्थ है “नित्य (सदैव) सुंदर”। शिव को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनका रूप सदा सुशोभित और दिव्य है। भस्म लेप, सर्पाभूषण, जटाजूटधारी स्वरूप में भी उनका औघड़ रूप अलौकिक सुंदरता लिए होता है। साथ ही ध्यान में लीन शिव का शांत मुखमंडल सौंदर्य और करुणा से दैदीप्यमान रहता है। |
नृत्यप्रिय | शिव पुराण | नृत्यप्रिय का अर्थ है “नृत्य प्रिय”। शिव को नृत्यप्रिय कहा जाता है क्योंकि वे नृत्य (तांडव) को अत्यंत प्रेम करते हैं। शिव तांडव स्तोत्र में रावण वर्णन करते हैं कि कैसे शिव अपने डमरू की डिमडिम ध्वनि के साथ आनंद में तांडव नृत्य करते हैं। इस नृत्य प्रियता के कारण ही वे विश्व को नटराज के रूप में तांडव कला सिखाते हैं। |
ओंकार | शिव पुराण | ओंकार का अर्थ है “ॐ (प्रणव) रूप”। शास्त्रों में शिव को साक्षात् प्रणव मंत्र (ॐ) बताया गया है। स्कंद पुराण में कथा है कि शिव से ही प्रथम ॐकार प्रकट हुआ। यही ॐ सृष्टि की उत्पत्ति का कारण बना। इसलिए शिव को ओंकार स्वरूप कहा जाता है – वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप ओंकार हैं, जिनसे वेद तथा सृष्टि पैदा हुए। |
पालनहार | शिव सहस्रनाम | पालनहार का अर्थ है “सबका पालन करने वाले”। सामान्यतः पालनकर्ता विष्णु को कहा जाता है, किंतु शिव को भी पालनहार कहा गया है क्योंकि वे संहारक होते हुए भी अपने भक्तों तथा प्राणियों का पालन करते हैं। मार्कण्डेय को अमरता प्रदान करना हो या समुद्र मंथन में देवों की रक्षा – शिव सदा विश्व का पालन करते हैं। |
पंचत्सरण | शिव पुराण | पंचत्सरण शब्द कठिन है, पर इससे अभिप्राय संभवतः “पाँच प्रकार के शरणागतों को तारने वाले” से है। शिव को पंचत्सरण कहा जाता है क्योंकि वे पञ्च (देव, मानव, पशु, पक्षी, प्रेत) प्रकार के प्राणियों को अपनी शरण में लेकर उनका उद्धार करते हैं। शिव की शरण में आए पञ्च भूत प्राणी मुक्त हो जाते हैं – अतः वे पंच-शरण प्रदाता हैं। (नोट: यह नाम दुर्लभ एवं कम प्रचलित है)। |
परमेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | परमेश्वर का अर्थ है “परम ईश्वर”। उपनिषदों में रुद्र को परमेश्वर बताया गया है – अर्थात सर्वोच्च सत्ता जो समस्त जगत का ईश्वर है। शिव परमेश्वर हैं क्योंकि वे ही सृष्टि, स्थिति, लय के अन्तिम नियंता हैं। देवाधिदेव महादेव को किसी से निर्देशित नहीं होना पड़ता – वे स्वतंत्र परम ईश्वर हैं। |
परमज्योति | शिव सहस्रनाम | परमज्योति का अर्थ है “परम प्रकाश”। शिव को परमज्योति कहा जाता है क्योंकि वे परम ब्रह्म के दिव्य प्रकाशस्वरूप हैं। अरूप शिव को प्रकाश-स्तंभ के रूप में पुराणों में दर्शाया गया (अनंत ज्योतिर्लिंग) । उनका ज्ञानस्वरूप प्रकाश सम्पूर्ण जगत को आलोकित करता है – इसी कारण वे परमज्योति कहलाते हैं। |
प्रजापति | शिव पुराण | प्रजापति का अर्थ है “प्रजाओं (जीवों) के अधिपति/जनक”। सृष्टि रचना के समय ब्रह्मा ने रुद्र को उत्पन्न कर सृष्टि की वृद्धि करने को कहा थाmythnosis.wordpress.com। अनेक पुराणों में शिव को ही सृष्टि के मूल जनक और प्रजापति कहा गया – जैसे दक्ष आदि प्रजापति भी शिव के ही अंश थे। इसलिए संपूर्ण जीवसमूह के पिता स्वरूप में शिव प्रजापति हैं। |
पशुपति | कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) | पशुपति का अर्थ है “समस्त पशुओं (जीवों) के स्वामी”। यजुर्वेद की एक कथा अनुसार त्रिपुरासन करने से पहले रुद्र ने वरदान माँगा – “मुझे समस्त प्राणियों का पति (पालक) बनने दो” । तब से रुद्र समस्त जीव-जंतुओं के स्वामी पशुपति कहे गए। शिव पशुपतिनाथ रूप में सभी चराचर प्राणियों का पालन करते हैं और उनका रक्षक बनते हैं। |
पिनाकिन | वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) | पिनाकिन का अर्थ है “पिनाका धनुषधारी”। पिनाक भगवान शिव के धनुष का नाम है। रामायण में मिथिला नरेश जनक के यज्ञ में प्रभु श्रीराम ने शिव का महान धनुष पिनाक तोड़ा थाe– यह वही धनुष था जिसे भगवान शिव धारण करते थे। पिनाका धनुष के स्वामी होने के कारण शिव को पिनाकिन (धनुधर शिव) कहा जाता है। |
प्रणव | शिव पुराण | प्रणव का अर्थ है “ॐ (ओम)”, जो सृष्टि की आदिध्वनि है। शिव को प्रणव कहा जाता है क्योंकि वे स्वयं प्रणवरूप हैं – शिव से ही ॐ की उत्पत्ति मानी गई है। स्कंदपुराण में कथा है कि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा को सृष्टि सृजन में असमर्थ देखकर शिव ने अपने डमरू से प्रणव नाद किया जिससे ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का ज्ञान प्राप्त हुआ। अतः शिव प्रणव (ॐकार) स्वरूप हैं। |
प्रियदर्शन | शिव सहस्रनाम | प्रियदर्शन का अर्थ है “जिसका दर्शन अति प्रिय (मनोहारी) हो”। शिव को प्रियदर्शन कहा गया है क्योंकि उनके दर्शन मात्र से ही भक्तों को परम आनंद प्राप्त होता है। वे औघड़ रूप में भी भक्तों को भय नहीं बल्कि प्रेम प्रदान करते हैं – उनके त्रिनेत्र से करुणा झलकती है। जो भी श्रद्धालु उनके सुंदरतम रूप का ध्यान करता है, उसे परम शांति मिलती है। |
पुष्कर | शिव सहस्रनाम | पुष्कर का शाब्दिक अर्थ है “जीवन को पोषण देने वाला (जल)” या “कमल”। शिव को पुष्कर कहा जाता है क्योंकि वे संसार को पोषण देने वाले हैं – वे गंगा को जटाओं में धारण कर पृथ्वी का पोषण करते हैं, चंद्रमा को मस्तक पर धारण कर औषधियों का पोषण करते हैं। इस प्रकार संपूर्ण जगत का पालन-पोषण शिव तत्व से होता है। |
पुष्पलोचन | शिव सहस्रनाम | पुष्पलोचन का अर्थ है “पुष्प जैसे नेत्रों वाले”। शिव के नेत्रों को कोमलता तथा करुणा के कारण फूल की पंखुड़ी के समान बताया गया है। उनके त्रिनेत्र में से सूर्य और चंद्र दो नेत्र तो जगत के ताप और शीत प्रदान करते हैं, तीसरा नेत्र ज्ञान की ज्योति है। कोमल-करुणा से युक्त होने के कारण उनके नेत्रों को पुष्प के समान कहा गया – अतः वे पुष्पलोचन हैं। |
प्रियभक्त | शिव सहस्रनाम | प्रियभक्त का अर्थ है “जिसे भक्त अतिप्रिय हैं”। शिव अपने भक्तों से अत्यंत स्नेह रखते हैं – वे अपने गणों एवं भक्तों के दु:ख को अपना दु:ख मानते हैं। भक्तों की रक्षा हेतु वे महाकाल, भैरव आदि रूप धारण कर लेते हैं। शिवपुराण में कथा है कि अपने भक्त के प्राण बचाने हेतु शिव ने यमराज तक का नाश कर दिया – इस प्रकार वे भक्तों के परम स्नेही प्रियभक्तवत्सल देव हैं। |
रविलोचन | शिव पुराण | रविलोचन का अर्थ है “रवि (सूर्य) जिसके नेत्र हैं”। शास्त्रों में वर्णन है कि भगवान शिव के तीन नेत्र क्रमशः सूर्य, चंद्र और अग्नि के तुल्य हैं। उनका दायां नेत्र सूर्य स्वरूप है जो संसार को ऊर्जा एवं प्रकाश देता है, बायां नेत्र चंद्र स्वरूप है जो शीतलता देता है, एवं मध्य नेत्र अग्नि स्वरूप है जो संहारकारी तेज प्रदान करता है। इसीलिए उन्हें रविलोचन कहा जाता है। |
रुद्र | शतपथ ब्राह्मण | रुद्र नाम का अर्थ है “रोदन करने वाला” या “जिससे सबको रुलाने वाला (भयकारी)”। शतपथ ब्राह्मण में कथा है कि ब्रह्मा ने एक बालक को उत्पन्न किया जो जन्मते ही जोर-जोर से रोने लगा। तब ब्रह्मा ने कहा – “तुम रोए (रुदन किए), इसलिए लोग तुम्हें रुद्र के नाम से जानेंगे” । यही बालक आगे चलकर भगवान शिव का रूप बना। इस प्रकार रुद्र शिव का वैदिक नाम है, जो उनके भयप्रद रूप व रुदन (संहारजनित रुलाई) से जुड़ा है। |
सदाशिव | लिंग पुराण | सदाशिव का अर्थ है “सदा शिव (कल्याणमय)”। तंत्र तथा पुराणों में सदाशिव को परम ब्रह्म की अवस्था बताया गया है – जिसमें शिव अपने पूर्ण चेतन आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं। पाँचों मुख्य मुखों (ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात) में ईशान को सदाशिव कहते हैं। सदाशिव सदा शांत, कल्याणकारी और परम अनुग्रहकारी स्वरूप हैं जो पंचमात्मिका शक्ति सहित विराजमान हैं। |
सनातन | शिव पुराण | सनातन का अर्थ है “अनादि और अनंत (शाश्वत)”। शिव सनातन हैं – अर्थात उनका न आदि है न अंत। उपनिषद्कार कहते हैं कि शिव ही परब्रह्म हैं जो सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी थे और प्रलय के बाद भी रहेंगे। इसलिए शिव को सनातन (चिरंतन) कहा जाता है। साथ ही सनातन धर्म में शिव अनादि महादेव के रूप में पूजित हैं। |
सर्वाचार्य | शिव पुराण | सर्वाचार्य का अर्थ है “सभी के आचार्य (शिक्षक)”। शिव को सर्वाचार्य कहा जाता है क्योंकि वे समस्त विद्याओं के आदिगुरु हैं। संगीत में वे तांडव और रुद्रवीणा के आचार्य हैं, नृत्य में नटराज गुरु हैं, योग में आदियोगी गुरु हैं। यहाँ तक कि विष्णुजी ने भी शिव से शिक्षा पाई (शिव सहस्रनाम का ज्ञान)। इस प्रकार हर विधा में शिव सर्वोच्च आचार्य हैं। |
सर्वशिव | शिव पुराण | सर्वशिव का अर्थ है “सर्वत्र शिवमय”। अर्थात संपूर्ण विश्व में शिव ही व्याप्त हैं। उपनिषद कहते हैं “शिवो भूत्वा शिवं यजेत” – स्वयं शिवमय होकर शिव की आराधना करो। हर जीव में शिव अंश विद्यमान है, इसलिए शिव को सर्वशिव कहा गया। इसका यह भी भाव है कि संपूर्ण जगत शिवमय है और प्रत्येक आत्मा में शिव का अंश है। |
सर्वतपस्वी (सर्वतपण) | शिव सहस्रनाम | सर्वतपण का अर्थ संभवतः “सर्वज्ञ” या “सर्वसह तप करने वाला” से है। शिव को यह नाम उनकी तपस्वी प्रकृति के कारण मिला – वे योग द्वारा समस्त सांसारिक तापों को जीत लेते हैं। साथ ही वे जगत के सर्वज्ञ हैं – सभी विद्याओं, सभी तपों का सार जानते हैं। उनकी तीसरी आँख का ज्ञान-पुंज समस्त अज्ञान को भस्म कर देता है। |
सर्वयोनि | शिव पुराण | सर्वयोनि का अर्थ है “सभी योनियों (उत्पत्ति के स्रोतों) का मूल”। शिव को सर्वयोनि कहा जाता है क्योंकि वे सृष्टि के समस्त जीवों के आदिपिता हैं। शैव दर्शन में शिवलिंग को सृष्टि की आदियونی माना गया है – जिससे समस्त जगत की उत्पत्ति हुई। अतः शिव ही सर्व योनि के अधिष्ठाता, सभी जन्मों के परम कारण हैं। |
सर्वेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | सर्वेश्वर का अर्थ है “सबके ईश्वर”। शिव को सर्वेश्वर कहा जाता है क्योंकि वे देवता, मानव, पशु-पक्षी सभी के स्वामी हैं। उपनिषद में कहा गया “एको हि रुद्रः सर्वेश्वरः” – एक रुद्र ही सबका ईश्वर है। वे ही ब्रह्मा-विष्णु आदि में ईशत्व प्रदान करते हैं। इसलिए शिव सर्वेश्वर (विश्व के एकमात्र परम ईश्वर) कहे गए हैं। |
शंभु | महाभारत (शिव सहस्रनाम) | शंभु का अर्थ है “कल्याण के स्रोत”। संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार शं (मंगल/सुख) + भु (दाता) – इस प्रकार शंभु वह जो आनंद/कल्याण प्रदान करे। महाभारत के शिव-सहस्रनाम में शंभु नाम Shiva के सौम्य रूप को दर्शाता है। वे विश्व को सुख एवं मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, इसलिए उन्हें शुभंकर शंभु कहा जाता है। |
शंकर | महाभारत (शिव सहस्रनाम) | शंकर का अर्थ है “शं (कल्याण, आनंद) करने वाला” अर्थात कल्याणकर्ता। शिव को शंकर नाम से विशेष रूप से जाना जाता है क्योंकि वे सदा लोक का कल्याण करते हैं। शंकर नाम स्वयं शिव के मंगलकारी स्वरूप का द्योतक है। शंकराचार्य ने भी अपने नाम में ‘शंकर’ धारण कर शिव के आनंददायी, कृपालु स्वभाव का संकेत दिया है। |
शान्त (शान्त स्वरूप) | शिव पुराण | शान्त का अर्थ है “शांत, सौम्य”। यद्यपि शिव का रौद्र रूप प्रसिद्द है, किन्तु अपने नैसर्गिक स्वभाव में वे परम शांत एवं स्थिर चित्त हैं। ध्यानमग्न महायोगी शिव पूर्णतः शांत मुद्रा में कैलास पर निवास करते हैं। वे क्षमाशील हैं, द्वेष रहित हैं – उनका यह शान्त स्वरूप ही कल्याणकारी है, जिसमें वे ब्रह्मानंद में लीन रहते हैं। |
शूली | शिव पुराण | शूली का अर्थ है “त्रिशूल-धारी”। त्रिशूल (त्रिदंडी) भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र है, जो तीनों लोक तथा त्रिकाल का प्रतीक है। शिव को शूली कहा जाता है क्योंकि वे अपने हाथों में त्रिशूल धारण करते हैं। पुराणों में शिव ने इसी त्रिशूल से असुरों का संहार किया। साथ ही त्रिशूल धारण करना दर्शाता है कि शिव त्रिगुण, त्रिकाल और त्रिलोक – सब पर अधिकार रखते हैं। |
श्रेष्ठ | शिव सहस्रनाम | श्रेष्ठ का अर्थ है “सर्वोत्तम”। शिव को श्रेष्ठ कहा जाता है क्योंकि वे देवों और सभी प्राणियों में सर्वोच्च हैं। वे गुण, शक्ति, ज्ञान, करुणा – हर दृष्टि से श्रेष्ठतम हैं। महाभारत में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि महादेव से बढ़कर कोई देवता नहीं – वे त्रिलोकी में श्रेष्ठ देव हैं। अतः शिव सर्वश्रेष्ठ परमात्मा हैं। |
श्रीकण्ठ | शिव पुराण | श्रीकण्ठ का अर्थ है “श्री (लक्ष्मी/समृद्धि) वाला कंठ” या “पवित्र कंठ”। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी को विष्णु ने पत्नी रूप में स्वीकार किया, और विष को शिव ने कंठ में धारण किया। इस प्रकार विष्णु औ र शिव दोनों ने मिलकर जगत का कल्याण किया। शिव के नीले कंठ को “श्रीकण्ठ” कहा गया क्योंकि वह लोकमंगल का प्रतीक बना। कुछ व्याख्या में श्रीकण्ठ का अर्थ सुशोभित कंठ से है – शिव का नीला कंठ उनके भूषण स्वरूप है। |
श्रुतिप्रकाश | शिव पुराण | श्रुतिप्रकाश में श्रुति मतलब वेद और प्रकाश मतलब रोशन करना। शिव को श्रुतिप्रकाश कहा जाता है क्योंकि वेद-शास्त्र उन्हीं की महिमा से प्रकाशित होते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव ने ही वेदों का ज्ञान ब्रह्मा को दिया। वेदों में रुद्र सूक्त आदि के माध्यम से शिव स्तुति की गई है, जिससे वे ही समस्त श्रुतियों को प्रकाश देने वाले परमात्मा सिद्ध होते हैं। |
स्कन्दगुरु | स्कन्द पुराण | स्कन्दगुरु का अर्थ है “स्कन्द (कार्तिकेय) के गुरु”। शिव के पुत्र भगवान स्कन्द (कुमार कार्तिकेय) ने बचपन में ही ब्रह्माजी से प्रश्न किया था जिसका उत्तर वे न दे पाए। तब शिव ने स्वयं प्रकट होकर स्कन्द को प्रणव मंत्र का रहस्य समझाया। इस प्रकार शिव ने अपने पुत्र को गुरु बन ज्ञान दिया और स्कन्द ने उन्हें नमन किया। इसलिए शिव स्कन्दगुरु कहलाते हैं – अर्थात् अपने पुत्र को भी शिक्षा देने वाले जगद्गुरु। |
सोमेश्वर | शिव पुराण | सोमेश्वर में सोम मतलब चंद्रमा और ईश्वर मतलब स्वामी – अर्थात “चंद्रमा के ईश्वर”। पौराणिक कथा के अनुसार चंद्रदेव को दक्ष ने श्राप दिया कि वे क्षीण हो जाएंगे। तब चंद्र ने शिव की उपासना की। शिव ने श्राप सीमा निर्धारित कर दी – चंद्रमा कृष्ण पक्ष में क्षीण होंगे और शुक्ल पक्ष में बढ़ेंगे – तथा उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया। इस प्रकार शिव सोमेश्वर (चंद्रमौली) कहे गए। |
सुखदा | शिव सहस्रनाम | सुखदा का अर्थ है “सुख देने वाली (सुख कराने वाली) हस्ती”। शिव को सुखदा कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों को सांसारिक और पारलौकिक – दोनों प्रकार का सुख प्रदान करते हैं। भक्ति द्वारा शिव प्रसन्न होकर अभिष्ट फल देते हैं, संसार के कष्ट हरते हैं और अंततः मोक्ष रूपी परम सुख भी देते हैं। |
स्वयंभू | शिव पुराण | स्वयंभू का अर्थ है “स्वयं प्रकट हुए” या “स्वयं से अस्तित्व में”। शिव स्वयंभू हैं – उनकी उत्पत्ति किसी से नहीं हुई, वे अपने आप हैं। अनेक पुराणों में शिवलिंग को स्वयंभू लिंग कहा गया (बिना मानव निर्मित)। भगवान शिव का कोई जनक नहीं, वे आदिदेव हैं। अतः उन्हें स्वयंभू महादेव कहा जाता है – जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता से ही अस्तित्व धारण किया है। |
तेजस्वी | शिव सहस्रनाम | तेजस्वी का अर्थ है “तीव्र दिव्य तेज से युक्त”। शिव को तेजस्वी कहा जाता है क्योंकि उनके अंग से निरंतर दिव्य ज्योति प्रकट होती है। उनका तीसरा नेत्र खुलने पर प्रचंड ज्वाला उत्पन्न होती है, तथा सामान्य स्थिति में भी उनके मुखमंडल से करुणा एवं तेज का प्रकाश निकलता रहता है। वे सत्व, रज, तम तीनों गुणों को संतुलित रखते हुए तेजोमय हैं। |
त्रिलोचन | शिव पुराण | त्रिलोचन का अर्थ है “तीन नेत्रों वाले”। भगवान शिव के दो नेत्र सूर्य-चंद्र के तुल्य हैं तथा तीसरा नेत्र ललाट पर स्थित है। कथा है कि पार्वती ने एक बार प्रिय खेल में शिव की आँखें ढँक लीं, जिससे संपूर्ण जगत अंधकारमय हो गया – तब शिव के ललाट से तीसरा नेत्र प्रकट हुआ और प्रकाश फैल गया। कामदेव को भस्म करने हेतु भी शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला था। इसलिए वे त्रिलोचन (त्रिनेत्रधारी) कहलाते हैं। |
त्रिलोकपति | शिव सहस्रनाम | त्रिलोकपति का अर्थ है “तीनों लोकों के स्वामी”। शिव को त्रिलोकपति कहा जाता है क्योंकि वे स्वर्ग, मृत्यु लोक (पृथ्वी) और पाताल – तीनों लोकों में ईश्वर और पालनकर्ता हैं। जब अमृत मंथन हुआ तब देवताओं (स्वर्ग लोक) की रक्षा के लिए विषपान किया, पृथ्वी लोक पर दानवों का संहार किया, तथा पाताल में भस्मासुर से बचने हेतु श्री विष्णु को उपाय बताया। इस प्रकार तीनों लोकों के समस्त जीव उन परमेश्वर शिव के अधीन हैं। |
त्रिपुरारी | शिव पुराण | त्रिपुरारी का अर्थ है “त्रिपुर (तीन पुर/नगर) का नाश करने वाले”। तारकासुर के तीन पुत्रों ने ब्रह्माजी से तीन अभेद्य पुरियों (स्वर्ण, रजत, लौह – त्रिपुर) का वर पाया था। वे त्रिपुरासुर कहलाए। हजार वर्ष में एक बार त्रिपुरों के संयोग पर जो उन्हें एक बाण से नष्ट करे वही उन्हें मार सकता था। देवों के निवेदन पर शिव ने दिव्य रथ पर सवार होकर पर्वत को धनुष, विष्णु को बाण बनाकर उन तीनों पुरियों का संहार एक ही बाण से किया । इस महान कर्म के कारण देवों ने शिव को त्रिपुरारि (त्रिपुर के शत्रु) कहकर स्तुति की। आज भी कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में यह विजय मनाई जाती है। |
विष्णुवल्लभ | स्कन्द पुराण | विष्णुवल्लभ का अर्थ है “विष्णु के प्रिय”। शास्त्रों में शिव और विष्णु को एक-दूसरे का प्रिय मित्र बताया गया है। जब शिव पर ब्रह्महत्या दोष लगा तब भगवान विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर उनकी सहायता की और अन्त में शिव को शापमुक्त किया। विष्णु स्वयं शिवलिंग का पूजन करते हैं और शिव, राम-रूप में विष्णु की आराधना करते हैं। उनकी पारस्परिक प्रीति के कारण शिव को विष्णुवल्लभ कहा गया – अर्थात् श्रीहरि के परम प्रिय। |
उमापति | शिव पुराण | उमापति का अर्थ है “उमा (पार्वती) के पति”। शिव की अर्धांगिनी जगदंबा पार्वती को उमा कहा जाता है (केनोपनिषद में पार्वती को उमा कहा गया है)। शिव और उमा का दिव्य विवाह हुआ जिससे शिव का पूर्ण गृहस्थ रूप स्थापित हुआ। पार्वतीजी शिव की शक्ति तथा आधी काया हैं। इस कारण शिव को उमापति (उमा के स्वामी) कहा जाता है। कैलाश पर उमापति शिव अपने परिवार सहित विराजमान हैं। |
वाचस्पति | शिव सहस्रनाम | वाचस्पति का शाब्दिक अर्थ है “वाणी के स्वामी”। सामान्यतः वाणी के देवता बृहस्पति (वाचस्पति) कहे जाते हैं, किंतु शिव को भी वाचस्पति कहा गया है क्योंकि सत्य और ज्ञान की वाणी उन्हीं से प्रसृत होती है। जब दक्ष यज्ञ के समय दक्ष ने शिव की निंदा की तो शिव ने वीरभद्र भेज कर उसे दंडित किया – यह इंगित करता है कि अधर्मपूर्ण वाणी को वे सहन नहीं करते, केवल सत्यवाणी को प्रश्रय देते हैं। शिव तंत्र के अधिष्ठाता होने से समस्त मंत्रों (वाणी) के स्वामी हैं। |
वज्रहस्त | शिव सहस्रनाम | वज्रहस्त का अर्थ है “जिनके हाथ में वज्र (बिजली) है”। पुराणों में वर्णित है कि शिव के हाथ में त्रिशूल के अतिरिक्त एक वज्र भी है, जो उन्होंने दैत्यों के संहार हेतु धारण किया। वस्तुतः यह वज्र इंद्र के वज्र से भिन्न है – यह शिव का त्रिशूल-कल्पित वज्र है। इसके प्रतीक रूप में कुछ स्थानों पर शिवमूर्तियों में उनके हाथ में डमरू के साथ वज्र दिखाया जाता है। अतः वज्रहस्त नाम उनकी दैवी शस्त्रधारणा को दर्शाता है। |
वरद | शिव पुराण | वरद का अर्थ है “वर देने वाले”। शिव को वरद कहा जाता है क्योंकि वे भक्तों को मनोवांछित वरदान शीघ्र प्रदान करते हैं । असुरों ने भी तप कर शिव से विभीषण, बाणासुर, रावण आदि को महान वरदान पाए। महादेव अपने भक्त की श्रद्धा से प्रसन्न होकर वरमूर्ति बन जाते हैं – त्रिशूल, डमरू छोड़कर अभयमुद्रा और वरदमुद्रा धारण कर लेते हैं। इसलिए वे सदा वरदहस्त माने जाते हैं। |
वेदकर्त्ता | शिव पुराण | वेदकर्त्ता का अर्थ है “वेदों के रचयिता”। शास्त्रों में कथाएं हैं कि सृष्टि आरम्भ में भगवान शिव ने ही ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान दिया, तभी ब्रह्मा सृष्टि निर्माण कर सके। अथर्ववेद में भी रुद्र को वेदों का स्वामी कहा गया है। इसीलिए शिव को वेदकर्ता माना गया – वेद जिनकी श्वास से प्रकट हुए । चारों वेदों में रुद्र-सूक्तादि मंत्रों से शिव की महिमा गाई गई है। |
वीरभद्र | शिव पुराण | वीरभद्र शिव का अति उग्र योद्धा रूप है। कथा है कि जब दक्ष ने यज्ञ में शिव का अपमान किया और सती ने आत्मदाह किया, तब क्रुद्ध शिव ने अपनी जटा को पटक कर उससे महाभयानक वीरभद्र को प्रकट किया। वीरभद्र ने प्रकट होते ही शिव के आदेश से दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर डाला और दक्ष का सिर काट दिया। इस प्रचंड लीला के कारण शिव का यह रूप वीरभद्र (पराक्रमी महाभयंकरी) नाम से प्रसिद्ध हुआ। |
विशालाक्ष | शिव सहस्रनाम | विशालाक्ष का अर्थ है “विशाल नेत्रों वाले”। शिव को विशालाक्ष कहा जाता है क्योंकि उनके नेत्र विशाल एवं सर्वदर्शी हैं। पुराणों में उनके नेत्रों को त्रिलोक-दर्शी बताया गया – वे एक साथ तीनों लोकों में हो रही घटनाएं देख सकते हैं। साथ ही उनके नेत्रों की विशालता उनकी अनंत करुणा को भी दर्शाती है, जो सभी जीवों पर समान रूप से बनी रहती है। |
विश्वनाथ | स्कन्द पुराण (काशीखंड) | विश्वनाथ का अर्थ है “विश्व के नाथ (स्वामी)”। यह काशी के अधिष्ठाता शिव का प्रसिद्ध नाम है। स्कंदपुराण के काशीखंड में कथा है कि भगवान शिव स्वयं वाराणसी में विश्वनाथ रूप में विराजते हैं और वहाँ मृत्यु मात्र से प्राणियों को मोक्ष देते हैं। इसलिए काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहते हैं। देवता भी विश्वनाथ की आराधना करते हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी होने के कारण वे विश्वनाथ हैं। |
वृषवाहन | शिव पुराण | वृषवाहन का अर्थ है “वृषभ (बैल) को वाहन बनाने वाले”। नंदी नामक पवित्र वृषभ (बैल) शिव का वाहन है। कथा है कि शिलाद ऋषि के पुत्र नंदी ने कठोर तप द्वारा शिव को प्रसन्न किया, तब शिव ने उसे अपना गणाध्यक्ष तथा वाहन बनने का आशीर्वाद दिया। तभी से शिव नंदी नामक वृषभ पर सवार रहने लगे। इस प्रकार वृषभ को वाहन रखने के कारण वे वृषवाहन कहलाते हैं। |
नाम | शास्त्रीय संदर्भ | कारण (नाम कैसे/क्यों पड़ा) |
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आशुतोष | शिव पुराण | आशुतोष का अर्थ है “ शीघ्र संतुष्ट होने वाले” – शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि वे अल्प तपस्या से ही प्रसन्न होकर भक्तों को वरदान देते हैं। अनेक कथाओं में वर्णित है कि देव-दानव सभी को थोड़े पूजन से ही वह प्रसन्न हो जाते थे। |
आदिगुरु | शिव पुराण | आदिगुरु का अर्थ है “प्रथम गुरु”। शास्त्रों में शिव को आदि गुरु माना गया है – मान्यता है कि सर्वप्रथम शिव ने ही योग व ज्ञान सप्तऋषियों को प्रदान किया था, इसलिए उन्हें आदिगुरु कहा जाता है। |
आदिनाथ | शिव पुराण | आदिनाथ का अर्थ है “आदि (प्रथम) स्वामी”। शिव को आदिनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ से ही वे परमेश्वर के रूप में विद्यमान हैं। न उनके जन्म की कोई कथा है न अंत की – वे स्वयंभू हैं, सनातन परम भगवान हैं। |
आदियोगी | शिव पुराण | आदियोगी अर्थात “प्रथम योगी”। योग परंपरा में शिव को आदियोगी कहा जाता है क्योंकि माना जाता है कि योग की मूल शिक्षा सबसे पहले शिव से ही प्रारम्भ हुई। हिमालय में प्राचीन काल में उन्होंने ध्यान द्वारा योग सिद्ध किया और जगत को योग विद्या दी। |
अज | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अज का शाब्दिक अर्थ है “अजन्मा” (जिसका जन्म न हुआ हो)। शिव को अज कहा गया है क्योंकि उनका कोई जन्म नहीं हुआ – वे स्वयंभू एवं अनादि हैं। उपनिषदों में भी परमात्मा को “अज (अनादि)” कहा गया है, जो शिव पर लागू होता है। |
अक्षयगुण | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अक्षयगुण का अर्थ है “जिसके गुण अक्षय (असीम) हैं”। शिव को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनके दिव्य गुणों का कोई अंत नहीं – वे अनंत शक्तियों और गुणों से युक्त परमेश्वर हैं। |
अनघ | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अनघ का अर्थ है “निर्दोष” या “जिसमें पाप न हो”। शिव को अनघ कहा जाता है क्योंकि वे पापरहित, शुद्ध स्वरूप वाले हैं। वे स्वयं सब पापों के नाशक हैं, इसलिए उन पर कोई दाग या दोष नहीं माना जाता। |
अनंतदृष्टि | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अनंतदृष्टि का अर्थ है “अनंत दृष्टि वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनका दृष्टिकोण अनंतकाल तक फैला है – वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल को समभाव से देखते हैं। कोई भी घटना उनकी दृष्टि से परे नहीं है। |
औघड़ | शिव पुराण | औघड़ (या “औघड़दानी”) शिव का ऐसा रूप है जो सामान्य सामाजिक बंधनों से परे है। उन्हें औघड़ कहा जाता है क्योंकि वे सरल, अकृत्रिम अवस्था में रहते हैं – श्मशानवासी, भस्मलेपित, संसारिक आडंबरों से रहित होकर भी भक्तों को प्रेमपूर्वक दर्शन और दान देते हैं। |
अव्ययप्रभु | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | अव्ययप्रभु का अर्थ है “अक्षय/अविनाशी प्रभु”। शिव को अव्ययप्रभु कहा जाता है क्योंकि वे सदा-अपरिवर्तित और अविनाशी हैं। समय या प्रलय का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता – वे अनंतकाल तक एक समान प्रभु रूप में विद्यमान रहते हैं। |
भैरव | शिव पुराण | भैरव का अर्थ है “भयकारी”। शिव के इस रौद्र रूप की कथा है कि ब्रह्मा के अहंकार को दंडित करने के लिए उन्होंने कालभैरव रूप धारण कर सृष्टिकर्ता का एक सिर काट दिया था – उनके कर में ब्रह्माजी का रक्त लगा, जिससे यह भयंकर रूप भैरव कहलाया। इस रूप में शिव संहारक और उग्र देवता माने जाते हैं। |
भालनेत्र | शिव पुराण | भालनेत्र शब्द में भाल अर्थात ललाट (माथा) और नेत्र अर्थात आँख है। शिव को भालनेत्र कहा जाता है क्योंकि उनके ललाट पर मध्य में एक तीसरा नेत्र है। कथा प्रसिद्ध है कि कामदेव को भस्म करने हेतु शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला था – इस प्रकार उनके मस्तक पर दिव्य नेत्र प्रकट हुआ। |
भोलेनाथ | शिव पुराण | भोलेनाथ शिव का लोकप्रचलित नाम है, जिसका अर्थ है “भोले स्वभाव वाले स्वामी”। शिव को भोलेनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे निष्कपट, सरल हृदय एवं सहज प्रसन्न होने वाले देवता हैं। उनकी यही भोली प्रकृति है कि वे तनिक स्तुति-प्रसाद से भी प्रसन्न होकर वर दे देते हैं। |
भूतेश्वर | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूतेश्वर का अर्थ है “भूतों (प्राणियों/तत्वों) के ईश्वर”। शिव को भूतेश्वर कहा जाता है क्योंकि वे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के स्वामी हैं तथा प्रेत-पिशाच आदि गणों के अधिपति भी वही हैं। सभी भूतप्रेत उनके गण माने जाते हैं, अतः वे भूतेश्वर (सर्व तत्वों के स्वामी) हैं। |
भूदेव | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूदेव का अर्थ है “भूमि के देवता”। शिव को भूदेव कहा जाता है क्योंकि वे पृथ्वी के पालनकर्ता और संरक्षक भी हैं। कई स्थानों पर शिवलिंग स्वयं पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। शिव धरती के समस्त जीवों के भी ईश्वर हैं, इस नाते वे भूदेव (धरती के देव) हैं। |
भूतपाल | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | भूतपाल का अर्थ है “प्रेत/भूतों के रक्षक”। शिव को भूतपाल कहा जाता है क्योंकि वे अपने गणों – भूत , प्रेत, पिशाच आदि – की रक्षा और पालन करते हैं। शिव की सेना भूतगणों की है और वे अपने सभी गणों के स्वामी व संरक्षक हैं। |
चंद्रपाल | शिव पुराण | चंद्रपाल का अर्थ है “चंद्रमा के स्वामी/रक्षक”। पौराणिक कथा है कि चंद्रदेव (चंद्रमा) को दक्ष के श्राप से क्षय रोग हुआ तब उन्होंने शिव की आराधना की। शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर स्थान देकर उसकी रक्षा की – तभी से शिव चंद्रपाल (सोम के पालनकर्ता) कहलाए। |
चंद्रप्रकाश | शिव पुराण | चंद्रप्रकाश का अर्थ है “चंद्र के प्रकाश वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनके मस्तक पर सुशोभित अर्धचंद्रमा से प्रकाश निकलता है। शिव अपने शीश पर चंद्र धारण करते हैं , जिसका शीतल प्रकाश सदा उनके आसपास प्रकाशित रहता है। |
दयालु | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दयालु का अर्थ है “करुणामय, दया से पूर्ण”। शिव को दयालु कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्राणियों पर अनुकंपा रखते हैं। भिक्षुक बनकर अन्न मांगने वाले औघड़ हों या राक्षस, पशु-पक्षी – शिव सब पर दया कर उन्हें आश्रय व आशीर्वाद देते हैं। |
देवादिदेव | महाभारत (अनुषासन पर्व) | देवादिदेव का अर्थ है “देवों के भी देव”। महाभारत एवं पुराणों में शिव को देवताओं का देव कहा गया है – अर्थात समस्त देवों में श्रेष्ठ महादेवthehansindia.com। यह नाम बताता है कि ब्रह्मा-विष्णु आदि देवता भी शिव की महिमा का गुणगान करते हैं और उन्हें परमेश्वर मानते हैं। |
धनादीप | शिव पुराण | धनादीप का अर्थ है “धन के अधिपति”। शिव को धनादीप (धनदीप) कहा जाता है क्योंकि वे धन-संपदा के स्वामी हैं। कुबेर ने शिव की तपस्या कर धनपालन का पद पाया था, इसलिए शिव समस्त संपत्ति के अधिपति माने जाते हैं। उनकी कृपा से भक्तों को भौतिक समृद्धि भी प्राप्त होती है। |
ध्यानदीप | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | ध्यानदीप का अर्थ है “ध्यान रूपी प्रकाश के दीपक”। शिव को ध्यानदीप कहा जाता है क्योंकि वे परम योगी हैं – उनका ध्यान स्वयं परम प्रकाश है। वे योगियों के हृदय में ध्यान रूपी प्रकाश प्रज्वलित करते हैं तथा उनके ध्यान से आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है। |
ध्युतिधर | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | ध्युतिधर का अर्थ है “तेज धारण करने वाले”। शिव को ध्युतिधर कहा जाता है क्योंकि उनके स्वरूप में अनंत तेज (प्रकाश) समाया है। वे दिव्य आभा से देदीप्यमान रहते हैं – उनके तीनों नेत्रों से ज्ञान एवं तेज प्रकट होता है और जगत को प्रकाशमान करता है। |
दिगंबर | शिव पुराण | दिगंबर का शाब्दिक अर्थ है “जिसका वस्त्र दिशाएं हैं” यानि नग्न रूप। शिव योगी स्वरूप में दिगंबर माने जाते हैं – वे भौतिक वस्त्रों से विरक्त होकर भस्म रमाए रहते हैं। दिगंबर रूप यह दर्शाता है कि सम्पूर्ण आकाश ही जिनका परिधान है, ऐसे निरंकारी शिव संसारिक आसक्ति से परे हैं। |
दुर्जनीय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दुर्जनीय का अर्थ है “जिसे पूरी तरह जाना न जा सके”। शिव को दुर्जनीय कहा गया है क्योंकि उनकी माया और महिमा का पूर्ण ज्ञान पाना कठिन है। देवता, ऋषि भी उनके सम्पूर्ण तत्व को नहीं जान पाते – वे अनादि-अनंत रहस्यस्वरूप हैं, जिन्हें पूरी तरह समझना मनुष्यों के लिए दुर्ज्ञेय है। |
दुर्जय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | दुर्जय का अर्थ है “जिसे जीतना कठिन है”। शिव को दुर्जय कहा जाता है क्योंकि उन्हें किसी भी विधर्मी या असुर ने कभी परास्त नहीं किया – वे अपराजेय हैं। तीनों लोकों में कोई शक्ति शिव को पराजित नहीं कर सकती, वे सर्वशक्तिमान हैं इसलिए दुर्जय (अजेय) हैं। |
गंगाधर | वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) | गंगाधर का अर्थ है “गंगा को धारण करने वाले”। राजा भगीरथ के आग्रह पर जब माँ गंगा स्वर्ग से पृथ्वी प र उतरीं, तब शिव ने उनकी प्रचंड धारा को अपनी जटाओं में समाहित कर लिया । गंगा शिव की जटाओं में ब्रह्मांडभर तक प्रवाहित हुईं और फिर धीरे से पृथ्वी पर उतारी गईं। गंगा को जटाओं में धारण करने के कारण शिव गंगाधर कहलाए। |
गिरिजापति | शिव पुराण | गिरिजापति का अर्थ है “गिरिजा (पार्वती) के पति”। पार्वती जी को गिरिराज हिमवान की पुत्री होने से गिरिजा कहा जाता है। शिव ने घोर तपस्या के बाद पार्वती से विवाह किया, इसलिए उन्हें गिरिजापति कहा जाता है – अर्थात देवी पार्वती के पति और स्वामी। यह नाम उनके गृहस्थ रूप को दर्शाता है। |
गुणग्राही | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | गुणग्राही का अर्थ है “सभी गुणों को स्वीकार करने वाले”। शिव को गुणग्राही कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों की न्यूनतम अर्चना को भी सहृदयता से स्वीकार करते हैं। वे सभी जीवों में मौजूद अच्छे गुणों को देखते हैं, न कि दोषों को – जैसे समुद्रमंथन में अमृत के साथ निकले विष को भी ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वे सर्व गुणों के ग्राही हैं। |
गुरुदेव | शिव पुराण | गुरुदेव का अर्थ है “देवों के गुरु” अथवा “महान गुरु”। शिव को गुरुदेव कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अनेक रूपों में ज्ञान दिया है – दक्षिणामूर्ति रूप में सनत कुमारों को उपदेश , आदि योगी रूप में सप्तऋषियों को शिक्षा, तथा गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें जगत्गुरु माना है। इस प्रकार शिव अध्यात्म के महान गुरु हैं। |
हर | महाभारत (अनुषासन पर्व) | हर (Hara) का अर्थ है “हरने वाला”। शिव को हर कहा जाता है क्योंकि वे भक्तों के पाप और कष्ट हर लेते हैं। शिव सहस्रनाम में हर नाम तीन बार आया है – टीकाकारों ने उसका अर्थ अलग-अलग लिया है: “जो पापों का हरण करते हैं”, “जो भक्तों का संताप दूर कर उनका मन मोह लेते हैं” । इस प्रकार शिव सबके पाप-भय हरण करने वाले परम देव हैं। |
जगदीश | शिव सहस्रनाम (महाभारत) | जगदीश का अर्थ है “जगत के ईश्वर”। शिव को जगदीश कहा जाता है क्योंकि वे संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं। पुराणों में सृष्टि की रचना, पालन और संहार सभी का अधिष्ठाता शिव को माना गया है – वे ही जगत के ईश्वर और नियंता हैं। |
जराधीशमन | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | जराधीशमन का अर्थ है “बुढ़ापा तथा पीड़ा का नाश करने वाले”। शिव को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनकी कृपा से भक्तों के सभी कष्ट, रोग तथा जरा-मृत्यु का भय दूर हो जाता है। मार्कण्डेय जैसे भक्त को शिव ने अमर युवा अवस्था दे दी – इस प्रकार वे जरा (बुढ़ापा) के ईश को भी शमन करने वाले देव हैं। |
जतिन (जटाधारी) | शिव पुराण | जतिन का अर्थ है “जटाधारी”, अर्थात जिनके बाल जटा (मैटेड हेयर) में जुड़े हैं। भगवान शिव महान तपस्वी हैं – वे लंबे जटाओं वाले योगी रूप में जाने जाते हैं। इन्हीं जटाओं में उन्होंने गंगा नदी को रोक कर धारण किया था, जिससे गंगा की प्रचंड धारा शांत हो सकी। इस जटाधारी स्वरूप के कारण वे जतिन कहलाते हैं। |
कैलाश | शिव पुराण | कैलाश शिव का प्रिय निवास स्थान है – उनका धाम कैलाश पर्वत पर स्थित है। शिव को कैलाश नाम से संबोधित करने का तात्पर्य है कि वे अपने भक्तों को कैलाश समान शांति प्रदान करते हैं। शिवपुराण में वर्णित है कि भगवान शिव कैलाश पर्वत पर अपने परिवार सहित आनंदपूर्वक निवास करते हैं और वहीं से जगत का संचालन करते हैं। |
कैलाशाधिपति | शिव पुराण | कैलाशाधिपति का अर्थ है “कैलाश के अधिपति (स्वामी)”। पर्वतराज हिमालय के उत्तुंग शिखर कैलाश पर शिव का निवास है और वे ही उसके अधिपति हैं। सभी गण-देवता कैलाश पर उनकी सेवा में रहते हैं। इसीलिए शिव को कैलाशाधिपति कहा जाता है – अर्थात वे कैलाश पर्वत के प्रभु और संरक्षक देवता हैं। |
कैलाशनाथ | शिव पुराण | कैलाशनाथ का अर्थ भी “कैलाश के स्वामी” है। शिव को कैलाशनाथ कहा जाता है क्योंकि वे कैलाश मंडल के नाथ (ईश्वर) हैं। समस्त योगी, सिद्ध और भक्तजन कैलाश पर्वत को पवित्र तीर्थ मानते हैं क्योंकि वहाँ स्वयं भगवान कैलाशनाथ शिव विराजते हैं और अपनी गणों सहित लोककल्याण करते हैं। |
कमलाक्ष | शिव पुराण | कमलाक्ष (कमलाक्षण) का अर्थ है “कमल जैसी दृष्टि वाले”। शिव को कमलाक्ष कहा जाता है क्योंकि उनकी आंखें कमलदल जैसी सुंदर एवं शीतल हैं। हालाँकि रौद्र रूप में उनकी तीसरी आँख प्रलयंकर है, किंतु सामान्यतः उनकी दो आँखों की दृष्टि करुणामय और सौम्य बताई गई है, जो कमल के समान सुंदर है। |
कंठ | शिव पुराण | कंठ का अर्थ है “गला (गरदन)”। शिव को कंठ विशेष नाम इसलिए मिला क्योंकि समुद्र मंथन के समय निकला विष उन्होंने अपने कंठ में धारण किया था। उस हलाहल विष से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। शिव का यही कंठ जगत को कालकूट विष से बचाने हेतु नीला हुआ और उनकी पहचान बन गया। |
कपालिन | शिव पुराण | कपालिन का अर्थ है “कपाल (खोपड़ी) धारण करने वाले”। एक पौराणिक घटना के अनुसार ब्रह्माजी का अहंकार भंग करने के लिए शिव ने उनका पाँचवाँ सिर काट दिया। उस ब्रह्म-कपाल को काटने से शिव पर ब्रह्म हत्या का दोष लगा और वह कपाल उनके हाथ से चिपक गया । शिव भिक्षाटन करते हुए विभिन्न तीर्थ गए और अंत में उस कपाल से मुक्त हुए। हाथ में ब्रह्म-कपाल धारण करने के कारण वे कपालिन कहलाए। |
कोचादेयान | शिव पुराण | कोचादेयान (तमिल उच्चारण: कोचादैयान) का शाब्दिक अर्थ है “लंबी जटाओं वाला भगवान”। तमिल भक्त परंपरा में शिव को यह विशेषण दिया गया है – को (भगवान) + चादै (जटा) + यान से अर्थ हुआ “जटाधारी ईश्वर”। अर्थात यह शिव के उसी जटाधारी रूप का द्योतक है, जिनकी लंबी जटाओं में देवी गंगा विराजमान हैं। |
कुंडलिन | शिव पुराण | कुंडलिन का अर्थ है “कुंडल पहने हुए”। शिव को कुंडलिन कहा जाता है क्योंकि वे कानों में विशाल कुंडल (बाले) धारण करते हैं। पुराणों में शिव के आभूषणों में मकराकृति कुंडल (मगराकार बाले) का वर्णन है। उनके ये कुण्डल सृष्टि के ध्वनि तत्व के भी प्रतीक हैं, जिन्हें धारण करने से वे कुंडलिन कहलाते हैं। |
ललाटाक्ष | शिव पुराण | ललाटाक्ष का अर्थ है “मस्तक पर नेत्र वाले” – यह शिव के तीसरे नेत्र की ओर संकेत करता है। शिव के ललाट में स्थित दिव्य नेत्र से ही उन्होंने कामदेव को भस्म किया था । इस तीसरे नेत्र से वे भूत, भविष्य, वर्तमान सब देख सकते हैं – अतः उनके इस रूप को त्रिनेत्रधारी ललाटाक्ष कहा गया है। |
लिंगाध्यक्ष | शिव पुराण | लिंगाध्यक्ष का अर्थ है “लिंग के अधिष्ठाता”। शिवलिंग स्वयं भगवान शिव का निराकार प्रतीक है। एक कथा अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा-विष्णु ने एक अंतहीन ज्योतिरूप लिंग के रूप में शिव के दर्शन किए और उसकी महिमा स्वीकारी। शिव ही समस्त शिवलिंगों में व्याप्त अधिष्ठाता देव हैं, इसलिए उन्हें लिंगाध्यक्ष कहा जाता है। |
लोकंकार | शिव पुराण | लोकंकार का अर्थ है “सारे लोकों (त्रिभुवन) की रचना करने वाले”। कुछ पुराणों में वर्णित है कि सृष्टि के आरम्भ में भगवान शिव ने अपनी शक्ति से तीनों लोकों – भू (पृथ्वी), भुवः (अंतरिक्ष) और स्वः (स्वर्ग) – की रचना की । वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी कारण रूप हैं, अतः लोकों की संरचना के आधार पर वे लोकंकार कहलाते हैं। |
लोकपाल | शिव पुराण | लोकपाल का अर्थ है “लोकों का पालनकर्ता/रक्षक”। हालांकि पुराणों में चार लोकपाल (इंद्र आदि) बताए गए हैं, किंतु शिव को परम लोकपाल कहा जाता है क्योंकि वे संपूर्ण ब्रह्मांड के संरक्षक हैं। जब-जब संसार पर संकट आता है, शिव विभिन्न अवतार लेकर पृथ्वी तथा देवों की रक्षा करते हैं – जैसे हलाहल विषपान कर लोकों की रक्षा की। |
महाबुद्धि | लिंग पुराण (सहस्रनाम) | महाबुद्धि का अर्थ है “महान बुद्धि वाले (परमज्ञानी)”। शिव को महाबुद्धि कहा जाता है क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं। समस्त वेद-शास्त्रों के जानकार स्वयं भगवान शिव हैं – गणेश को ज्ञान देने वाले और ब्रह्मा को वेद ज्ञान देने वाले भी शिव ही हैं। उनकी बुद्धि अपरिमित एवं अपार है। |
महादेव | महाभारत | महादेव का अर्थ है “महान देवताओं में महानतम देव”। यह शिव का अत्यंत प्रचलित नाम है। महाभारत तथा पुराणों में शिव को देवों में श्रेष्ठ कहा गया है – वे त्रिदेवों में एक हैं परंतु अपनी विषिष्ट गुणों से सर्वोच्च हैं। दक्षिण में प्रचलित तमिल भक्ति में भी उन्हें त्तिरुप्पेरुंदेवन् (महादेव) कहा गया। संक्षेप में, महादेव अर्थात समस्त देवों से बड़े देव। |
महाकाल | शिव पुराण | महाकाल का अर्थ है “महान काल” या “काल से भी परे/विनाशक”। शिव को महाकाल कहा जाता है क्योंकि वे समय के भी अधीन नहीं, बल्कि स्वयं समय के स्वामी हैं। कालांतर में हर वस्तु नष्ट हो जाती है किंतु शिव सदा रहते हैं। शिवपुराण में उन्हें त्रिलोकी का संहारकर्ता काल और उससे भी श्रेष्ठ महाकाल रूप में वर्णित किया गया है। उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उनके इसी रूप का प्रतीक है। |
महामाया | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महामाया का अर्थ है “महान मायाशक्ति के स्वामी”। शिव को महामाया कहा जाता है क्योंकि वे अपनी योगमाया से संपूर्ण जगत को संचालित करते हैं। उनकी माया से ही ब्रह्मांड उत्पन्न, स्थिर और लय होता है। हालांकि महामाया शब्द देवी के लिए भी आता है, पर शिव अपनी शक्ति (पार्वती) सहित समस्त माया के अधिपति हैं। |
महामृत्युंजय | शिव पुराण | महामृत्युंजय का अर्थ है “मृत्यु पर विजय पाने वाले”। यह नाम भगवान शिव को इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने अपने भक्त मार्कण्डेय की रक्षा कर यमराज को परास्त किया था – इस लीला से वे मृत्युंजयी (कालंतर) कहलाए। ऋग्वेद का महामृत्युंजय मंत्र भी त्र्यंबक भगवान शिव की आराधना करता है जो भक्तों को अकाल मृत्यु से मुक्ति देने वाले हैं। |
महानिधि | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महानिधि का अर्थ है “महान कोष”। शिव को महानिधि इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे अनंत ऐश्वर्य, ज्ञान तथा सद्गुणों के भंडार हैं। समस्त धन, विद्या, शक्ति का स्रोत स्वयं शिव को माना गया है – वे परमानंद तथा परम ज्ञान के निधि (भंडार) हैं जो भक्तों को सद्गति रूपी निधि प्रदान करते हैं। |
महाशक्तिमय | शिव सहस्रनाम (लिंग पुराण) | महाशक्तिमय का अर्थ है “महान शक्ति से युक्त”। शिव को यह नाम इसलिए प्राप्त है क्योंकि वे अपार शक्तियों के अधिष्ठाता हैं। संहार, सृजन, पालन तीनों कार्य उनकी महाशक्ति से संचालित होते हैं। देवी पार्वती स्वयं उनकी शक्ति स्वरूपा हैं। अतः शिव परम शक्तिमय देव हैं, जिनकी शक्तियां असीम हैं। |
महायोगी | शिव पुराण | महायोगी का अर्थ है “महान योगी”। शिव को महायोगी कहा जाता है क्योंकि वे आदियोगी होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ योग साधना में लीन रहते हैं। पुराणों में शिव को कैलाश पर ध्यानस्थ तपस्वी के रूप में दर्शाया गया है। वे योग की पराकाष्ठा हैं – उनकी त्रिनेत्रज्योति अंतर्ज्ञान का प्रकाश है और वे समस्त योगियों के आदर्श महायोगी हैं। |
महेश | शिव पुराण | महेश “महान ईश” का संक्षिप्त रूप है। शिव को महेश कहा जाता है क्योंकि वे परम ईश्वर हैं। यह नाम महेश्वर का ही रूप है, जो शिवपुराण आदि में मिलता है। दक्ष यज्ञ विध्वंस के बाद सती ने शिव को सम्बोधित करते हुए “महेश” कहा, जिसका आशय है कि तीनों लोकों में आप ही महान ईश्वर हैं। |
महेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | महेश्वर का अर्थ है “सर्वोच्च ईश्वर”। श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र को ही परमेश्वर बताया गया है – “न तस्य कश्चित् परमं च महेश्वरः” अर्थात रुद्र से ऊपर कोई परम ईश्वर नहीं। शिव महेश्वर हैं क्योंकि ब्रह्मांड में उन्हीं का ऐश्वर्य (सर्वाधिकार) सर्वोच्च है। सभी देवता भी शिव को परमेश्वर मान प्रणाम करते हैं। |
नागभूषण | शिव पुराण | नागभूषण का अर्थ है “सर्पों को भूषण (आभूषण) के रूप में धारण करने वाले”। शिव अपने गले, हाथों में सर्पों की माला धारण करते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि वासुकी नाग को शिव ने हार रूप में पहना है । समुद्रमंथन के समय वासुकी नाग रस्सी बना, तत्पश्चात् शिव ने उसे गले में स्थान दिया। इस प्रकार सर्पों को अलंकार की तरह धारण करने के कारण वे नागभूषण कहलाए। |
नटराज | शिव पुराण | नटराज का अर्थ है “नृत्य के राजा” (नृत्य के भगवान)। शिव को नटराज इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे सृष्टि के संहार-तांडव एवं आनंद-तांडव नृत्य के अधिपति हैं। चिदंबरम की कथा प्रसिद्ध है जहां शिव ने अपस्मर दैत्य को पदतल से दबाकर आनंद तांडव किया था – तभी देवों ने उन्हें नटराज कहकर स्तुति की। उनका तांडव नृत्य सृष्टि, स्थिति और संहार का प्रतीक है। |
नीलकंठ | शिव पुराण | नीलकंठ का अर्थ है “नीले कंठ वाला”। यह नाम शिव को समुद्रमंथन की घटना से प्राप्त हुआ जब देवताओं-दैत्यो द्वारा मथे क्षीरसागर से कालकूट विष निकला। जीवों की रक्षा हेतु भगवान शिव ने वह विष अपने कंठ में धारण कर लि या जिससे उनका गला नीला पड़ गया। विष का असर वे गले से नीचे नहीं उतरने देते – तभी से वे करुणानिधान शिव नीलकंठ कहलाए। |
नित्यसुंदर | शिव सहस्रनाम | नित्यसुंदर का अर्थ है “नित्य (सदैव) सुंदर”। शिव को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनका रूप सदा सुशोभित और दिव्य है। भस्म लेप, सर्पाभूषण, जटाजूटधारी स्वरूप में भी उनका औघड़ रूप अलौकिक सुंदरता लिए होता है। साथ ही ध्यान में लीन शिव का शांत मुखमंडल सौंदर्य और करुणा से दैदीप्यमान रहता है। |
नृत्यप्रिय | शिव पुराण | नृत्यप्रिय का अर्थ है “नृत्य प्रिय”। शिव को नृत्यप्रिय कहा जाता है क्योंकि वे नृत्य (तांडव) को अत्यंत प्रेम करते हैं। शिव तांडव स्तोत्र में रावण वर्णन करते हैं कि कैसे शिव अपने डमरू की डिमडिम ध्वनि के साथ आनंद में तांडव नृत्य करते हैं। इस नृत्य प्रियता के कारण ही वे विश्व को नटराज के रूप में तांडव कला सिखाते हैं। |
ओंकार | शिव पुराण | ओंकार का अर्थ है “ॐ (प्रणव) रूप”। शास्त्रों में शिव को साक्षात् प्रणव मंत्र (ॐ) बताया गया है। स्कंद पुराण में कथा है कि शिव से ही प्रथम ॐकार प्रकट हुआ। यही ॐ सृष्टि की उत्पत्ति का कारण बना। इसलिए शिव को ओंकार स्वरूप कहा जाता है – वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप ओंकार हैं, जिनसे वेद तथा सृष्टि पैदा हुए। |
पालनहार | शिव सहस्रनाम | पालनहार का अर्थ है “सबका पालन करने वाले”। सामान्यतः पालनकर्ता विष्णु को कहा जाता है, किंतु शिव को भी पालनहार कहा गया है क्योंकि वे संहारक होते हुए भी अपने भक्तों तथा प्राणियों का पालन करते हैं। मार्कण्डेय को अमरता प्रदान करना हो या समुद्र मंथन में देवों की रक्षा – शिव सदा विश्व का पालन करते हैं। |
पंचत्सरण | शिव पुराण | पंचत्सरण शब्द कठिन है, पर इससे अभिप्राय संभवतः “पाँच प्रकार के शरणागतों को तारने वाले” से है। शिव को पंचत्सरण कहा जाता है क्योंकि वे पञ्च (देव, मानव, पशु, पक्षी, प्रेत) प्रकार के प्राणियों को अपनी शरण में लेकर उनका उद्धार करते हैं। शिव की शरण में आए पञ्च भूत प्राणी मुक्त हो जाते हैं – अतः वे पंच-शरण प्रदाता हैं। (नोट: यह नाम दुर्लभ एवं कम प्रचलित है)। |
परमेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | परमेश्वर का अर्थ है “परम ईश्वर”। उपनिषदों में रुद्र को परमेश्वर बताया गया है – अर्थात सर्वोच्च सत्ता जो समस्त जगत का ईश्वर है। शिव परमेश्वर हैं क्योंकि वे ही सृष्टि, स्थिति, लय के अन्तिम नियंता हैं। देवाधिदेव महादेव को किसी से निर्देशित नहीं होना पड़ता – वे स्वतंत्र परम ईश्वर हैं। |
परमज्योति | शिव सहस्रनाम | परमज्योति का अर्थ है “परम प्रकाश”। शिव को परमज्योति कहा जाता है क्योंकि वे परम ब्रह्म के दिव्य प्रकाशस्वरूप हैं। अरूप शिव को प्रकाश-स्तंभ के रूप में पुराणों में दर्शाया गया (अनंत ज्योतिर्लिंग) । उनका ज्ञानस्वरूप प्रकाश सम्पूर्ण जगत को आलोकित करता है – इसी कारण वे परमज्योति कहलाते हैं। |
प्रजापति | शिव पुराण | प्रजापति का अर्थ है “प्रजाओं (जीवों) के अधिपति/जनक”। सृष्टि रचना के समय ब्रह्मा ने रुद्र को उत्पन्न कर सृष्टि की वृद्धि करने को कहा थाmythnosis.wordpress.com। अनेक पुराणों में शिव को ही सृष्टि के मूल जनक और प्रजापति कहा गया – जैसे दक्ष आदि प्रजापति भी शिव के ही अंश थे। इसलिए संपूर्ण जीवसमूह के पिता स्वरूप में शिव प्रजापति हैं। |
पशुपति | कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) | पशुपति का अर्थ है “समस्त पशुओं (जीवों) के स्वामी”। यजुर्वेद की एक कथा अनुसार त्रिपुरासन करने से पहले रुद्र ने वरदान माँगा – “मुझे समस्त प्राणियों का पति (पालक) बनने दो” । तब से रुद्र समस्त जीव-जंतुओं के स्वामी पशुपति कहे गए। शिव पशुपतिनाथ रूप में सभी चराचर प्राणियों का पालन करते हैं और उनका रक्षक बनते हैं। |
पिनाकिन | वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) | पिनाकिन का अर्थ है “पिनाका धनुषधारी”। पिनाक भगवान शिव के धनुष का नाम है। रामायण में मिथिला नरेश जनक के यज्ञ में प्रभु श्रीराम ने शिव का महान धनुष पिनाक तोड़ा थाe– यह वही धनुष था जिसे भगवान शिव धारण करते थे। पिनाका धनुष के स्वामी होने के कारण शिव को पिनाकिन (धनुधर शिव) कहा जाता है। |
प्रणव | शिव पुराण | प्रणव का अर्थ है “ॐ (ओम)”, जो सृष्टि की आदिध्वनि है। शिव को प्रणव कहा जाता है क्योंकि वे स्वयं प्रणवरूप हैं – शिव से ही ॐ की उत्पत्ति मानी गई है। स्कंदपुराण में कथा है कि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा को सृष्टि सृजन में असमर्थ देखकर शिव ने अपने डमरू से प्रणव नाद किया जिससे ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का ज्ञान प्राप्त हुआ। अतः शिव प्रणव (ॐकार) स्वरूप हैं। |
प्रियदर्शन | शिव सहस्रनाम | प्रियदर्शन का अर्थ है “जिसका दर्शन अति प्रिय (मनोहारी) हो”। शिव को प्रियदर्शन कहा गया है क्योंकि उनके दर्शन मात्र से ही भक्तों को परम आनंद प्राप्त होता है। वे औघड़ रूप में भी भक्तों को भय नहीं बल्कि प्रेम प्रदान करते हैं – उनके त्रिनेत्र से करुणा झलकती है। जो भी श्रद्धालु उनके सुंदरतम रूप का ध्यान करता है, उसे परम शांति मिलती है। |
पुष्कर | शिव सहस्रनाम | पुष्कर का शाब्दिक अर्थ है “जीवन को पोषण देने वाला (जल)” या “कमल”। शिव को पुष्कर कहा जाता है क्योंकि वे संसार को पोषण देने वाले हैं – वे गंगा को जटाओं में धारण कर पृथ्वी का पोषण करते हैं, चंद्रमा को मस्तक पर धारण कर औषधियों का पोषण करते हैं। इस प्रकार संपूर्ण जगत का पालन-पोषण शिव तत्व से होता है। |
पुष्पलोचन | शिव सहस्रनाम | पुष्पलोचन का अर्थ है “पुष्प जैसे नेत्रों वाले”। शिव के नेत्रों को कोमलता तथा करुणा के कारण फूल की पंखुड़ी के समान बताया गया है। उनके त्रिनेत्र में से सूर्य और चंद्र दो नेत्र तो जगत के ताप और शीत प्रदान करते हैं, तीसरा नेत्र ज्ञान की ज्योति है। कोमल-करुणा से युक्त होने के कारण उनके नेत्रों को पुष्प के समान कहा गया – अतः वे पुष्पलोचन हैं। |
प्रियभक्त | शिव सहस्रनाम | प्रियभक्त का अर्थ है “जिसे भक्त अतिप्रिय हैं”। शिव अपने भक्तों से अत्यंत स्नेह रखते हैं – वे अपने गणों एवं भक्तों के दु:ख को अपना दु:ख मानते हैं। भक्तों की रक्षा हेतु वे महाकाल, भैरव आदि रूप धारण कर लेते हैं। शिवपुराण में कथा है कि अपने भक्त के प्राण बचाने हेतु शिव ने यमराज तक का नाश कर दिया – इस प्रकार वे भक्तों के परम स्नेही प्रियभक्तवत्सल देव हैं। |
रविलोचन | शिव पुराण | रविलोचन का अर्थ है “रवि (सूर्य) जिसके नेत्र हैं”। शास्त्रों में वर्णन है कि भगवान शिव के तीन नेत्र क्रमशः सूर्य, चंद्र और अग्नि के तुल्य हैं। उनका दायां नेत्र सूर्य स्वरूप है जो संसार को ऊर्जा एवं प्रकाश देता है, बायां नेत्र चंद्र स्वरूप है जो शीतलता देता है, एवं मध्य नेत्र अग्नि स्वरूप है जो संहारकारी तेज प्रदान करता है। इसीलिए उन्हें रविलोचन कहा जाता है। |
रुद्र | शतपथ ब्राह्मण | रुद्र नाम का अर्थ है “रोदन करने वाला” या “जिससे सबको रुलाने वाला (भयकारी)”। शतपथ ब्राह्मण में कथा है कि ब्रह्मा ने एक बालक को उत्पन्न किया जो जन्मते ही जोर-जोर से रोने लगा। तब ब्रह्मा ने कहा – “तुम रोए (रुदन किए), इसलिए लोग तुम्हें रुद्र के नाम से जानेंगे” । यही बालक आगे चलकर भगवान शिव का रूप बना। इस प्रकार रुद्र शिव का वैदिक नाम है, जो उनके भयप्रद रूप व रुदन (संहारजनित रुलाई) से जुड़ा है। |
सदाशिव | लिंग पुराण | सदाशिव का अर्थ है “सदा शिव (कल्याणमय)”। तंत्र तथा पुराणों में सदाशिव को परम ब्रह्म की अवस्था बताया गया है – जिसमें शिव अपने पूर्ण चेतन आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं। पाँचों मुख्य मुखों (ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात) में ईशान को सदाशिव कहते हैं। सदाशिव सदा शांत, कल्याणकारी और परम अनुग्रहकारी स्वरूप हैं जो पंचमात्मिका शक्ति सहित विराजमान हैं। |
सनातन | शिव पुराण | सनातन का अर्थ है “अनादि और अनंत (शाश्वत)”। शिव सनातन हैं – अर्थात उनका न आदि है न अंत। उपनिषद्कार कहते हैं कि शिव ही परब्रह्म हैं जो सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी थे और प्रलय के बाद भी रहेंगे। इसलिए शिव को सनातन (चिरंतन) कहा जाता है। साथ ही सनातन धर्म में शिव अनादि महादेव के रूप में पूजित हैं। |
सर्वाचार्य | शिव पुराण | सर्वाचार्य का अर्थ है “सभी के आचार्य (शिक्षक)”। शिव को सर्वाचार्य कहा जाता है क्योंकि वे समस्त विद्याओं के आदिगुरु हैं। संगीत में वे तांडव और रुद्रवीणा के आचार्य हैं, नृत्य में नटराज गुरु हैं, योग में आदियोगी गुरु हैं। यहाँ तक कि विष्णुजी ने भी शिव से शिक्षा पाई (शिव सहस्रनाम का ज्ञान)। इस प्रकार हर विधा में शिव सर्वोच्च आचार्य हैं। |
सर्वशिव | शिव पुराण | सर्वशिव का अर्थ है “सर्वत्र शिवमय”। अर्थात संपूर्ण विश्व में शिव ही व्याप्त हैं। उपनिषद कहते हैं “शिवो भूत्वा शिवं यजेत” – स्वयं शिवमय होकर शिव की आराधना करो। हर जीव में शिव अंश विद्यमान है, इसलिए शिव को सर्वशिव कहा गया। इसका यह भी भाव है कि संपूर्ण जगत शिवमय है और प्रत्येक आत्मा में शिव का अंश है। |
सर्वतपस्वी (सर्वतपण) | शिव सहस्रनाम | सर्वतपण का अर्थ संभवतः “सर्वज्ञ” या “सर्वसह तप करने वाला” से है। शिव को यह नाम उनकी तपस्वी प्रकृति के कारण मिला – वे योग द्वारा समस्त सांसारिक तापों को जीत लेते हैं। साथ ही वे जगत के सर्वज्ञ हैं – सभी विद्याओं, सभी तपों का सार जानते हैं। उनकी तीसरी आँख का ज्ञान-पुंज समस्त अज्ञान को भस्म कर देता है। |
सर्वयोनि | शिव पुराण | सर्वयोनि का अर्थ है “सभी योनियों (उत्पत्ति के स्रोतों) का मूल”। शिव को सर्वयोनि कहा जाता है क्योंकि वे सृष्टि के समस्त जीवों के आदिपिता हैं। शैव दर्शन में शिवलिंग को सृष्टि की आदियونی माना गया है – जिससे समस्त जगत की उत्पत्ति हुई। अतः शिव ही सर्व योनि के अधिष्ठाता, सभी जन्मों के परम कारण हैं। |
सर्वेश्वर | श्वेताश्वतर उपनिषद | सर्वेश्वर का अर्थ है “सबके ईश्वर”। शिव को सर्वेश्वर कहा जाता है क्योंकि वे देवता, मानव, पशु-पक्षी सभी के स्वामी हैं। उपनिषद में कहा गया “एको हि रुद्रः सर्वेश्वरः” – एक रुद्र ही सबका ईश्वर है। वे ही ब्रह्मा-विष्णु आदि में ईशत्व प्रदान करते हैं। इसलिए शिव सर्वेश्वर (विश्व के एकमात्र परम ईश्वर) कहे गए हैं। |
शंभु | महाभारत (शिव सहस्रनाम) | शंभु का अर्थ है “कल्याण के स्रोत”। संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार शं (मंगल/सुख) + भु (दाता) – इस प्रकार शंभु वह जो आनंद/कल्याण प्रदान करे। महाभारत के शिव-सहस्रनाम में शंभु नाम Shiva के सौम्य रूप को दर्शाता है। वे विश्व को सुख एवं मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, इसलिए उन्हें शुभंकर शंभु कहा जाता है। |
शंकर | महाभारत (शिव सहस्रनाम) | शंकर का अर्थ है “शं (कल्याण, आनंद) करने वाला” अर्थात कल्याणकर्ता। शिव को शंकर नाम से विशेष रूप से जाना जाता है क्योंकि वे सदा लोक का कल्याण करते हैं। शंकर नाम स्वयं शिव के मंगलकारी स्वरूप का द्योतक है। शंकराचार्य ने भी अपने नाम में ‘शंकर’ धारण कर शिव के आनंददायी, कृपालु स्वभाव का संकेत दिया है। |
शान्त (शान्त स्वरूप) | शिव पुराण | शान्त का अर्थ है “शांत, सौम्य”। यद्यपि शिव का रौद्र रूप प्रसिद्द है, किन्तु अपने नैसर्गिक स्वभाव में वे परम शांत एवं स्थिर चित्त हैं। ध्यानमग्न महायोगी शिव पूर्णतः शांत मुद्रा में कैलास पर निवास करते हैं। वे क्षमाशील हैं, द्वेष रहित हैं – उनका यह शान्त स्वरूप ही कल्याणकारी है, जिसमें वे ब्रह्मानंद में लीन रहते हैं। |
शूली | शिव पुराण | शूली का अर्थ है “त्रिशूल-धारी”। त्रिशूल (त्रिदंडी) भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र है, जो तीनों लोक तथा त्रिकाल का प्रतीक है। शिव को शूली कहा जाता है क्योंकि वे अपने हाथों में त्रिशूल धारण करते हैं। पुराणों में शिव ने इसी त्रिशूल से असुरों का संहार किया। साथ ही त्रिशूल धारण करना दर्शाता है कि शिव त्रिगुण, त्रिकाल और त्रिलोक – सब पर अधिकार रखते हैं। |
श्रेष्ठ | शिव सहस्रनाम | श्रेष्ठ का अर्थ है “सर्वोत्तम”। शिव को श्रेष्ठ कहा जाता है क्योंकि वे देवों और सभी प्राणियों में सर्वोच्च हैं। वे गुण, शक्ति, ज्ञान, करुणा – हर दृष्टि से श्रेष्ठतम हैं। महाभारत में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि महादेव से बढ़कर कोई देवता नहीं – वे त्रिलोकी में श्रेष्ठ देव हैं। अतः शिव सर्वश्रेष्ठ परमात्मा हैं। |
श्रीकण्ठ | शिव पुराण | श्रीकण्ठ का अर्थ है “श्री (लक्ष्मी/समृद्धि) वाला कंठ” या “पवित्र कंठ”। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी को विष्णु ने पत्नी रूप में स्वीकार किया, और विष को शिव ने कंठ में धारण किया। इस प्रकार विष्णु औ र शिव दोनों ने मिलकर जगत का कल्याण किया। शिव के नीले कंठ को “श्रीकण्ठ” कहा गया क्योंकि वह लोकमंगल का प्रतीक बना। कुछ व्याख्या में श्रीकण्ठ का अर्थ सुशोभित कंठ से है – शिव का नीला कंठ उनके भूषण स्वरूप है। |
श्रुतिप्रकाश | शिव पुराण | श्रुतिप्रकाश में श्रुति मतलब वेद और प्रकाश मतलब रोशन करना। शिव को श्रुतिप्रकाश कहा जाता है क्योंकि वेद-शास्त्र उन्हीं की महिमा से प्रकाशित होते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव ने ही वेदों का ज्ञान ब्रह्मा को दिया। वेदों में रुद्र सूक्त आदि के माध्यम से शिव स्तुति की गई है, जिससे वे ही समस्त श्रुतियों को प्रकाश देने वाले परमात्मा सिद्ध होते हैं। |
स्कन्दगुरु | स्कन्द पुराण | स्कन्दगुरु का अर्थ है “स्कन्द (कार्तिकेय) के गुरु”। शिव के पुत्र भगवान स्कन्द (कुमार कार्तिकेय) ने बचपन में ही ब्रह्माजी से प्रश्न किया था जिसका उत्तर वे न दे पाए। तब शिव ने स्वयं प्रकट होकर स्कन्द को प्रणव मंत्र का रहस्य समझाया। इस प्रकार शिव ने अपने पुत्र को गुरु बन ज्ञान दिया और स्कन्द ने उन्हें नमन किया। इसलिए शिव स्कन्दगुरु कहलाते हैं – अर्थात् अपने पुत्र को भी शिक्षा देने वाले जगद्गुरु। |
सोमेश्वर | शिव पुराण | सोमेश्वर में सोम मतलब चंद्रमा और ईश्वर मतलब स्वामी – अर्थात “चंद्रमा के ईश्वर”। पौराणिक कथा के अनुसार चंद्रदेव को दक्ष ने श्राप दिया कि वे क्षीण हो जाएंगे। तब चंद्र ने शिव की उपासना की। शिव ने श्राप सीमा निर्धारित कर दी – चंद्रमा कृष्ण पक्ष में क्षीण होंगे और शुक्ल पक्ष में बढ़ेंगे – तथा उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया। इस प्रकार शिव सोमेश्वर (चंद्रमौली) कहे गए। |
सुखदा | शिव सहस्रनाम | सुखदा का अर्थ है “सुख देने वाली (सुख कराने वाली) हस्ती”। शिव को सुखदा कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों को सांसारिक और पारलौकिक – दोनों प्रकार का सुख प्रदान करते हैं। भक्ति द्वारा शिव प्रसन्न होकर अभिष्ट फल देते हैं, संसार के कष्ट हरते हैं और अंततः मोक्ष रूपी परम सुख भी देते हैं। |
स्वयंभू | शिव पुराण | स्वयंभू का अर्थ है “स्वयं प्रकट हुए” या “स्वयं से अस्तित्व में”। शिव स्वयंभू हैं – उनकी उत्पत्ति किसी से नहीं हुई, वे अपने आप हैं। अनेक पुराणों में शिवलिंग को स्वयंभू लिंग कहा गया (बिना मानव निर्मित)। भगवान शिव का कोई जनक नहीं, वे आदिदेव हैं। अतः उन्हें स्वयंभू महादेव कहा जाता है – जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता से ही अस्तित्व धारण किया है। |
तेजस्वी | शिव सहस्रनाम | तेजस्वी का अर्थ है “तीव्र दिव्य तेज से युक्त”। शिव को तेजस्वी कहा जाता है क्योंकि उनके अंग से निरंतर दिव्य ज्योति प्रकट होती है। उनका तीसरा नेत्र खुलने पर प्रचंड ज्वाला उत्पन्न होती है, तथा सामान्य स्थिति में भी उनके मुखमंडल से करुणा एवं तेज का प्रकाश निकलता रहता है। वे सत्व, रज, तम तीनों गुणों को संतुलित रखते हुए तेजोमय हैं। |
त्रिलोचन | शिव पुराण | त्रिलोचन का अर्थ है “तीन नेत्रों वाले”। भगवान शिव के दो नेत्र सूर्य-चंद्र के तुल्य हैं तथा तीसरा नेत्र ललाट पर स्थित है। कथा है कि पार्वती ने एक बार प्रिय खेल में शिव की आँखें ढँक लीं, जिससे संपूर्ण जगत अंधकारमय हो गया – तब शिव के ललाट से तीसरा नेत्र प्रकट हुआ और प्रकाश फैल गया। कामदेव को भस्म करने हेतु भी शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला था। इसलिए वे त्रिलोचन (त्रिनेत्रधारी) कहलाते हैं। |
त्रिलोकपति | शिव सहस्रनाम | त्रिलोकपति का अर्थ है “तीनों लोकों के स्वामी”। शिव को त्रिलोकपति कहा जाता है क्योंकि वे स्वर्ग, मृत्यु लोक (पृथ्वी) और पाताल – तीनों लोकों में ईश्वर और पालनकर्ता हैं। जब अमृत मंथन हुआ तब देवताओं (स्वर्ग लोक) की रक्षा के लिए विषपान किया, पृथ्वी लोक पर दानवों का संहार किया, तथा पाताल में भस्मासुर से बचने हेतु श्री विष्णु को उपाय बताया। इस प्रकार तीनों लोकों के समस्त जीव उन परमेश्वर शिव के अधीन हैं। |
त्रिपुरारी | शिव पुराण | त्रिपुरारी का अर्थ है “त्रिपुर (तीन पुर/नगर) का नाश करने वाले”। तारकासुर के तीन पुत्रों ने ब्रह्माजी से तीन अभेद्य पुरियों (स्वर्ण, रजत, लौह – त्रिपुर) का वर पाया था। वे त्रिपुरासुर कहलाए। हजार वर्ष में एक बार त्रिपुरों के संयोग पर जो उन्हें एक बाण से नष्ट करे वही उन्हें मार सकता था। देवों के निवेदन पर शिव ने दिव्य रथ पर सवार होकर पर्वत को धनुष, विष्णु को बाण बनाकर उन तीनों पुरियों का संहार एक ही बाण से किया । इस महान कर्म के कारण देवों ने शिव को त्रिपुरारि (त्रिपुर के शत्रु) कहकर स्तुति की। आज भी कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में यह विजय मनाई जाती है। |
विष्णुवल्लभ | स्कन्द पुराण | विष्णुवल्लभ का अर्थ है “विष्णु के प्रिय”। शास्त्रों में शिव और विष्णु को एक-दूसरे का प्रिय मित्र बताया गया है। जब शिव पर ब्रह्महत्या दोष लगा तब भगवान विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर उनकी सहायता की और अन्त में शिव को शापमुक्त किया। विष्णु स्वयं शिवलिंग का पूजन करते हैं और शिव, राम-रूप में विष्णु की आराधना करते हैं। उनकी पारस्परिक प्रीति के कारण शिव को विष्णुवल्लभ कहा गया – अर्थात् श्रीहरि के परम प्रिय। |
उमापति | शिव पुराण | उमापति का अर्थ है “उमा (पार्वती) के पति”। शिव की अर्धांगिनी जगदंबा पार्वती को उमा कहा जाता है (केनोपनिषद में पार्वती को उमा कहा गया है)। शिव और उमा का दिव्य विवाह हुआ जिससे शिव का पूर्ण गृहस्थ रूप स्थापित हुआ। पार्वतीजी शिव की शक्ति तथा आधी काया हैं। इस कारण शिव को उमापति (उमा के स्वामी) कहा जाता है। कैलाश पर उमापति शिव अपने परिवार सहित विराजमान हैं। |
वाचस्पति | शिव सहस्रनाम | वाचस्पति का शाब्दिक अर्थ है “वाणी के स्वामी”। सामान्यतः वाणी के देवता बृहस्पति (वाचस्पति) कहे जाते हैं, किंतु शिव को भी वाचस्पति कहा गया है क्योंकि सत्य और ज्ञान की वाणी उन्हीं से प्रसृत होती है। जब दक्ष यज्ञ के समय दक्ष ने शिव की निंदा की तो शिव ने वीरभद्र भेज कर उसे दंडित किया – यह इंगित करता है कि अधर्मपूर्ण वाणी को वे सहन नहीं करते, केवल सत्यवाणी को प्रश्रय देते हैं। शिव तंत्र के अधिष्ठाता होने से समस्त मंत्रों (वाणी) के स्वामी हैं। |
वज्रहस्त | शिव सहस्रनाम | वज्रहस्त का अर्थ है “जिनके हाथ में वज्र (बिजली) है”। पुराणों में वर्णित है कि शिव के हाथ में त्रिशूल के अतिरिक्त एक वज्र भी है, जो उन्होंने दैत्यों के संहार हेतु धारण किया। वस्तुतः यह वज्र इंद्र के वज्र से भिन्न है – यह शिव का त्रिशूल-कल्पित वज्र है। इसके प्रतीक रूप में कुछ स्थानों पर शिवमूर्तियों में उनके हाथ में डमरू के साथ वज्र दिखाया जाता है। अतः वज्रहस्त नाम उनकी दैवी शस्त्रधारणा को दर्शाता है। |
वरद | शिव पुराण | वरद का अर्थ है “वर देने वाले”। शिव को वरद कहा जाता है क्योंकि वे भक्तों को मनोवांछित वरदान शीघ्र प्रदान करते हैं । असुरों ने भी तप कर शिव से विभीषण, बाणासुर, रावण आदि को महान वरदान पाए। महादेव अपने भक्त की श्रद्धा से प्रसन्न होकर वरमूर्ति बन जाते हैं – त्रिशूल, डमरू छोड़कर अभयमुद्रा और वरदमुद्रा धारण कर लेते हैं। इसलिए वे सदा वरदहस्त माने जाते हैं। |
वेदकर्त्ता | शिव पुराण | वेदकर्त्ता का अर्थ है “वेदों के रचयिता”। शास्त्रों में कथाएं हैं कि सृष्टि आरम्भ में भगवान शिव ने ही ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान दिया, तभी ब्रह्मा सृष्टि निर्माण कर सके। अथर्ववेद में भी रुद्र को वेदों का स्वामी कहा गया है। इसीलिए शिव को वेदकर्ता माना गया – वेद जिनकी श्वास से प्रकट हुए । चारों वेदों में रुद्र-सूक्तादि मंत्रों से शिव की महिमा गाई गई है। |
वीरभद्र | शिव पुराण | वीरभद्र शिव का अति उग्र योद्धा रूप है। कथा है कि जब दक्ष ने यज्ञ में शिव का अपमान किया और सती ने आत्मदाह किया, तब क्रुद्ध शिव ने अपनी जटा को पटक कर उससे महाभयानक वीरभद्र को प्रकट किया। वीरभद्र ने प्रकट होते ही शिव के आदेश से दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर डाला और दक्ष का सिर काट दिया। इस प्रचंड लीला के कारण शिव का यह रूप वीरभद्र (पराक्रमी महाभयंकरी) नाम से प्रसिद्ध हुआ। |
विशालाक्ष | शिव सहस्रनाम | विशालाक्ष का अर्थ है “विशाल नेत्रों वाले”। शिव को विशालाक्ष कहा जाता है क्योंकि उनके नेत्र विशाल एवं सर्वदर्शी हैं। पुराणों में उनके नेत्रों को त्रिलोक-दर्शी बताया गया – वे एक साथ तीनों लोकों में हो रही घटनाएं देख सकते हैं। साथ ही उनके नेत्रों की विशालता उनकी अनंत करुणा को भी दर्शाती है, जो सभी जीवों पर समान रूप से बनी रहती है। |
विश्वनाथ | स्कन्द पुराण (काशीखंड) | विश्वनाथ का अर्थ है “विश्व के नाथ (स्वामी)”। यह काशी के अधिष्ठाता शिव का प्रसिद्ध नाम है। स्कंदपुराण के काशीखंड में कथा है कि भगवान शिव स्वयं वाराणसी में विश्वनाथ रूप में विराजते हैं और वहाँ मृत्यु मात्र से प्राणियों को मोक्ष देते हैं। इसलिए काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहते हैं। देवता भी विश्वनाथ की आराधना करते हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी होने के कारण वे विश्वनाथ हैं। |
वृषवाहन | शिव पुराण | वृषवाहन का अर्थ है “वृषभ (बैल) को वाहन बनाने वाले”। नंदी नामक पवित्र वृषभ (बैल) शिव का वाहन है। कथा है कि शिलाद ऋषि के पुत्र नंदी ने कठोर तप द्वारा शिव को प्रसन्न किया, तब शिव ने उसे अपना गणाध्यक्ष तथा वाहन बनने का आशीर्वाद दिया। तभी से शिव नंदी नामक वृषभ पर सवार रहने लगे। इस प्रकार वृषभ को वाहन रखने के कारण वे वृषवाहन कहलाते हैं। |