हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित ज्वाला देवी मंदिर शक्तिपीठों में एक महत्त्वपूर्ण स्थल है, जहाँ देवी सती की जिह्वा (जीभ) गिरी थी।
इस मंदिर की विशिष्टता यह है कि यहाँ देवी किसी मूर्ति रूप में नहीं, बल्कि निरंतर प्रज्वलित अग्नि ज्वाला के रूप में पूजी जाती हैं।
मंदिर के गर्भगृह में पत्थर की दीवारों के बीच से नौ विभिन्न स्थानों पर प्राकृतिक आग की लपटें निकलती हैं – इन्हीं को देवी का रूप माना जाता है।
यह अपने-आप में एक अनूठा रहस्य है कि बिना तेल-बाती के ये ज्वालाएँ अनादि काल से जल रही हैं।
पुराणों के अनुसार जब दक्ष यज्ञ में माता सती ने आत्मदाह कर लिया, तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उनका शरीर खंडित किया।
जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ शक्तिपीठ बन गए।
कांगड़ा के ज्वालामुखी स्थान पर माता की जीभ गिरी थी।
चूँकि जिह्वा में अग्नि तत्त्व होता है, यहाँ धरती से अग्नि ज्वालाएँ प्रकट हुईं और तब से ये अनंतकाल से जल रही हैं।
स्कंद पुराण में इसे महामाया शक्तिपीठ कहा गया।
ऐतिहासिक संदर्भ में, इस मंदिर का सबसे पहला उल्लेख सातवीं सदी में मिलता है (संभवतः राज्ञी प्रवरसेना काल में) और माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने यहाँ मंदिर निर्माण किया था।
मौजूदा मंदिर के कुछ भाग 19वीं सदी में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद द्वारा बनाए गए – खासकर स्वर्ण कलश और गुंबद उन्होंने चढ़ाए।
मुगल सम्राट अकबर ने भी इस दिव्य ज्योति की परीक्षा ली और असफल रहने पर मन्नत स्वरूप सोने का छत्र चढ़ाया था।
(किंवदंती है कि छत्र चढ़ाते ही सोने का होकर भी किसी धातु में बदल गया, जिसे माता की नाराज़गी माना गया।)
इन कथाओं ने मंदिर की चमत्कारिक महिमा को और बढ़ाया।
ज्वाला देवी मंदिर आकार में विशाल नहीं लेकिन कलात्मक है।
मुख्य द्वार के ऊपर सिख शैली का सुनहरा गुंबद है (रणजीत सिंह द्वारा प्रदान)।
भीतर संगमरमर का चौकोर गर्भगृह है, जिसमें लगभग एक मीटर गहरा गड्ढेनुमा कुंड है – यहीं से ज्वालाएँ निकलती हैं।
इस गड्ढे के चारों ओर संगमरमर पर कई भेंटकर्ताओं के नाम खुदे हैं।
नौ ज्वालाओं को नौ देवियों का नाम दिया गया है:
मंदिर के फर्श और दीवारों पर भी संगमरमर लगा है (जो शायद बाद के जीर्णोद्धारों में जोड़ा गया)।
छत पर सोने-चाँदी के छत्र लटके हैं।
एक शीर्ष पर लोहे की कलशनुमा आकृति है जहाँ से एक मुख्य ज्वाला निकलती है।
परिसर में सामने एक पवित्र कुंड (जल का छोटा तालाब) है, जिसे अन्य शक्तिपीठों से लाए जल से भरा कहा जाता है।
मंदिर के चारों ओर धर्मशालाएँ और छोटे अन्य मंदिर (गोरख डिब्बी आदि) हैं।
मुख्य द्वार पर लकड़ी की नक्काशीदार चौखट है और लाल रंग का कपड़ा सदा लहराता रहता है।
कुल मिलाकर, वास्तुकला साधारण पर वातावरण अलौकिक।
इस मंदिर की अखंड ज्योतियाँ ही इसका सबसे बड़ा रहस्य हैं।
पानी भी इन ज्योतियों को नहीं बुझा सकता – कहते हैं एक स्थान पर ज्वाला एक छोटे पानी के पोखर के ठीक बीच से उठती है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि भूमि के नीचे प्राकृतिक ज्वलनशील गैस (मीथेन आदि) का भंडार है जो सतह पर आकर जल उठता है।
इस क्षेत्र की भू-रचना ज्वालामुखीय (ज्वालामुखी से निकले) तत्वों से बनी है, अतः पेट्रोलियम गैस का स्राव हो सकता है।
पर ध्यान देने वाली बात है कि पूरे हिंदुकुश हिमालय में यह इकलौता ऐसा स्थान है जहाँ इतनी स्थायी प्राकृतिक गैस फ्लैम मौजूद है।
ब्रिटिश काल में भी भूवैज्ञानिकों ने जांच की लेकिन स्रोत ढूंढ नहीं पाए।
आधुनिक काल में 1970 के दशक में ONGC ने भी गैस खोजने का प्रयास किया पर कुछ खास पता नहीं चला।
सात विभिन्न स्थानों पर अग्नि का निकलना दर्शाता है कि ज़मीन के नीचे कई दिशाओं में गैस चैंबर हैं।
ये ज्वालाएँ अलग-अलग आकार की हैं – बड़ी से बड़ी 4-6 इंच ऊँची और छोटी बुझती-बुझती सी।
एक दो ज्वालाएँ समय के साथ कमज़ोर पड़ीं, पर फिर पास के स्रोत से उन्हें प्रज्जवलित रखा गया।
श्रद्धालु इसे माँ की शक्ति मानते हैं जो साक्षात प्रकट है।
मंदिर से जुड़ी अकबर-भक्त ध्यानू की कथा भी चर्चित है।
कहते हैं मुगल बादशाह अकबर ने माँ के परमभक्त ध्यानू की भक्ति की परीक्षा लेनी चाही।
उसने ध्यानू के घोड़े का सिर कटवा दिया और कहा तुम्हारी देवी इसे जीवित करे।
ध्यानू ने प्रार्थना की, तो माँ की कृपा से घोड़े का सिर फिर जुड़ गया और वह जीवित हो उठा।
यह देख अकबर हैरान हो गया।
उसने देवी की शक्ति स्वीकारते हुए मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाया, पर वह छत्र तुरंत किसी अशुद्ध धातु में बदल गया।
(यह दिखाने को कि माँ को अहंकारी सत्ता का दान स्वीकार नहीं)।
आज भी वह छत्र मंदिर में रखा है जिसे लोग देखकर मानते हैं कि माता के दर पर सबसे बड़ी शक्तियां भी नतमस्तक हैं।
ज्वालामुखी मंदिर अपनी अनंत अग्नि ज्वाला के कारण पूरे देश में अनूठा है।
51 शक्तिपीठों में भी इसे अत्यधिक जागृत पीठ माना जाता है, क्योंकि यहाँ देवी की शक्ति सीधे दृष्टिगोचर (Visible) है।
यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से है, और देवभूमि हिमाचल की पहचान पूरी दुनिया में इसकी कहानियों से बनी है।
अखंड ज्योति को देखने हेतु हिन्दू ही नहीं, विभिन्न धर्मों के लोग भी आते हैं, क्योंकि प्राकृतिक अजूबे सबको आकर्षित करते हैं।
ऐसी मान्यता है कि जो भी सच्ची श्रद्धा से यहाँ दर्शन करता है उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और देवी उसे जीवन की अँधेरी बाधाओं में प्रकाश दिखाती हैं।
यह मंदिर सरकारी संरक्षण में है और पास ही शक्तिपीठ वज्रेश्वरी, चामुंडा देवी आदि को साथ जोड़कर एक तीर्थ-परिपथ बन गया है।
शक्तिपीठ होने के कारण बंगाल, असम आदि से भी बड़ी संख्या में तांत्रिक और भक्त यहाँ आते हैं, विशेषकर नवरात्रि में।
नवरात्रि (दोनों) में यहाँ आठों दिन भारी मेला लगता है।
चैत्र एवं अश्विन नवरात्रि में प्रदेश सरकार भी मेले का आयोजन करती है और लाखों श्रद्धालु माँ की ज्वाला के दर्शन करने आते हैं।
इन दिनों लगातार जागरण, भंडारे और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
इसके अलावा, श्रावण महीने के प्रत्येक रविवार और चैत्र अष्टमी को विशेष पूजा का प्रावधान है।
हर दिन मंदिर में आरती की जाती है – खास तौर पर दिन में पाँच बार आरती होती है, जिसमें एक आरती “महाआरती” कहलाती है।
इसमें सभी नौ ज्वालाओं को देसी घी, दूध और पानी चढ़ाकर उनकी लौ को और प्रज्वलित किया जाता है।
इस आरती के समय मंदिर के भीतर का नज़ारा अत्यंत रोमांचक होता है – घंटे-शंख के बीच नौ लौ तेज़ी से दमक उठती हैं और जयकारों से पूरा वातावरण भर जाता है।
भक्त अपने हाथ इन ज्वालाओं के ऊपर ले जाकर आशीर्वाद रूप में गर्मी को सिर से लगाते हैं।
एक परंपरा हवनकुंड ज्योति की भी है – परिसर में एक हवनकुंड है जिसकी अग्नि भी मंदिर की मुख्य अग्नि से ही जलाई जाती है।
हर पूर्णिमा को वहाँ हवन कर लपटों को अधिक बढ़ाया जाता है।
वर्ष में दो बार (दीपावली एवं वैशाख संक्रांति) को मंदिर के पुजारी मुख्य लपटों की जड़ में संचित कुछ कालिख को निकालकर उसे भभूत प्रसाद बनाकर बांटते हैं।
मान्यता है कि यह भभूत रोगों को दूर करती है।
वैज्ञानिक नजरिए से ज्वाला देवी मंदिर की ज्वालाएँ प्राकृतिक गैस रिसाव का परिणाम हैं।
भूवैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र की चट्टानों में हाइड्रोकार्बन्स की मौजूदगी पाई है और माना कि भूमिगत कटावों से ये गैस सतह तक पहुंच जाती हैं।
हालांकि, बिल्कुल सही स्रोत ट्रेस करना मुश्किल रहा है क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र में गैस अंतरसंबंधित झिरियों से आती है।
ONGC ने 1980 के आसपास परीक्षण कुएं खोदे लेकिन कोई वाणिज्यिक भंडार नहीं मिला – लेकिन इतना ज़रूर साबित हुआ कि मीथेन/प्रोपेन जैसी ज्वलनशील गैस वहाँ है।
एक और वैज्ञानिक पहलू है – ये लौ लगातार जलती रहे इसके लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति भी आवश्यक है।
मंदिर के चारों ओर छोटे-छोटे छेद/दरारें हैं जहां से हवा अंदर जाती है, ये लौ को बुझने नहीं देतीं।
यदि गर्भगृह को पूर्णत: एयरटाइट कर दें तो संभव है ज्वाला धीमी पड़ जाए।
किंतु सदियों से मंदिर का निर्माण इस तरह हुआ कि ज्वाला के लिए पर्याप्त वेंटिलेशन है, यह तत्कालीन शिल्पियों की समझ दर्शाता है।
पर्यावरण वैज्ञानिक इसे एक इको-टूरिज्म की दृष्टि से भी देखते हैं – यह आग अनियंत्रित न हो इसलिए मंदिर आसपास पानी के कुंड और अन्य व्यवस्थाएँ रखता है।
कुछ शोधकर्ताओं ने उन सात अलग-अलग लपटों के रासायनिक फर्क भी ढूँढने चाहे, परंतु सब में गैसीय मिश्रण करीब-करीब एक सा है।
कुल मिलाकर, वैज्ञानिक रूप से जो चीज़ पूर्णतः स्थापित नहीं हो सकी वह है – इस लौ का प्रथम उद्गम कब और कैसे हुआ?
पुराने ग्रंथों में इसका विवरण होना बताता है कि कम से कम 1400-1500 सालों से यह जल रही है, किंतु हो सकता है हजारों सालों से हो।
बिना मानवी हस्तक्षेप के इतना लम्बा नैचुरल गैस फ्लेयर चलना अत्यंत दुर्लभ है।
अतः इसे प्रकृति का चमत्कार ही कहा जाएगा।
ज्वाला देवी मंदिर पहुँचने पर तीखी गंध और गर्म हवा का अहसास श्रद्धालुओं को सबसे पहले होता है।
गर्भगृह के द्वार पर पहुँचकर जैसे ही वे अंदर झांकते हैं, प्राकृतिक चमकीली लौ देखकर भावविभोर हो जाते हैं।
एक श्रद्धालु ने कहा – ऐसा लगा मानो साक्षात माँ ज्योति रूप में विद्यमान हैं,
मन तुरंत दण्डवत हो गया
।
भक्तजन अकसर अपने हाथ जोड़कर उस अग्नि के पास ले जाते हैं और आँचल या रुमाल को गर्म करके अपने पास रखते हैं (श्रद्धा है कि इससे ऊर्जा मिलती है)।
बहुत से लोग वो चिमनी नुमा जगह देख खुश होते हैं जहाँ पानी
के बीच से लौ उठ रही है– एक महिला ने
आश्चर्य से बताया कि मैंने पानी के ऊपर अग्नि पहली बार देखी, विज्ञान-भक्ति सब एक हो गए मेरे लिए
।
नवरात्रि मेले में माता के जागरण और आरती के वक्त कई भक्तों ने लपटों को असामान्य ऊँचा उठते भी देखा है, जिसे वे चमत्कार मानते हैं।
पर्यटक भी दंग रह जाते हैं कि बिना ईंधन के ये लौ कैसे जल रही – कई विदेशी इसे इटरनल फ्लेम (अनंत ज्योति) कह कर सम्मान व्यक्त करते हैं।
कुल मिलाकर, इस मंदिर में हर किसी को दैवी शक्ति की ऊर्जा का साक्षात अहसास होता है।
दूर-दराज़ के पहाड़ी इलाके में ऐसा अलौकिक दृश्य देख उनका विश्वास ईश्वर में और प्रगाढ़ हो जाता है।
भक्त मानते हैं कि माँ ज्वाला की कृपा से उनके भीतर भी एक आत्मविश्वास की ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है जो ताउम्र जलती रहती है।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित ज्वाला देवी मंदिर शक्तिपीठों में एक महत्त्वपूर्ण स्थल है, जहाँ देवी सती की जिह्वा (जीभ) गिरी थी।
इस मंदिर की विशिष्टता यह है कि यहाँ देवी किसी मूर्ति रूप में नहीं, बल्कि निरंतर प्रज्वलित अग्नि ज्वाला के रूप में पूजी जाती हैं।
मंदिर के गर्भगृह में पत्थर की दीवारों के बीच से नौ विभिन्न स्थानों पर प्राकृतिक आग की लपटें निकलती हैं – इन्हीं को देवी का रूप माना जाता है।
यह अपने-आप में एक अनूठा रहस्य है कि बिना तेल-बाती के ये ज्वालाएँ अनादि काल से जल रही हैं।
पुराणों के अनुसार जब दक्ष यज्ञ में माता सती ने आत्मदाह कर लिया, तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उनका शरीर खंडित किया।
जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ शक्तिपीठ बन गए।
कांगड़ा के ज्वालामुखी स्थान पर माता की जीभ गिरी थी।
चूँकि जिह्वा में अग्नि तत्त्व होता है, यहाँ धरती से अग्नि ज्वालाएँ प्रकट हुईं और तब से ये अनंतकाल से जल रही हैं।
स्कंद पुराण में इसे महामाया शक्तिपीठ कहा गया।
ऐतिहासिक संदर्भ में, इस मंदिर का सबसे पहला उल्लेख सातवीं सदी में मिलता है (संभवतः राज्ञी प्रवरसेना काल में) और माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने यहाँ मंदिर निर्माण किया था।
मौजूदा मंदिर के कुछ भाग 19वीं सदी में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद द्वारा बनाए गए – खासकर स्वर्ण कलश और गुंबद उन्होंने चढ़ाए।
मुगल सम्राट अकबर ने भी इस दिव्य ज्योति की परीक्षा ली और असफल रहने पर मन्नत स्वरूप सोने का छत्र चढ़ाया था।
(किंवदंती है कि छत्र चढ़ाते ही सोने का होकर भी किसी धातु में बदल गया, जिसे माता की नाराज़गी माना गया।)
इन कथाओं ने मंदिर की चमत्कारिक महिमा को और बढ़ाया।
ज्वाला देवी मंदिर आकार में विशाल नहीं लेकिन कलात्मक है।
मुख्य द्वार के ऊपर सिख शैली का सुनहरा गुंबद है (रणजीत सिंह द्वारा प्रदान)।
भीतर संगमरमर का चौकोर गर्भगृह है, जिसमें लगभग एक मीटर गहरा गड्ढेनुमा कुंड है – यहीं से ज्वालाएँ निकलती हैं।
इस गड्ढे के चारों ओर संगमरमर पर कई भेंटकर्ताओं के नाम खुदे हैं।
नौ ज्वालाओं को नौ देवियों का नाम दिया गया है:
मंदिर के फर्श और दीवारों पर भी संगमरमर लगा है (जो शायद बाद के जीर्णोद्धारों में जोड़ा गया)।
छत पर सोने-चाँदी के छत्र लटके हैं।
एक शीर्ष पर लोहे की कलशनुमा आकृति है जहाँ से एक मुख्य ज्वाला निकलती है।
परिसर में सामने एक पवित्र कुंड (जल का छोटा तालाब) है, जिसे अन्य शक्तिपीठों से लाए जल से भरा कहा जाता है।
मंदिर के चारों ओर धर्मशालाएँ और छोटे अन्य मंदिर (गोरख डिब्बी आदि) हैं।
मुख्य द्वार पर लकड़ी की नक्काशीदार चौखट है और लाल रंग का कपड़ा सदा लहराता रहता है।
कुल मिलाकर, वास्तुकला साधारण पर वातावरण अलौकिक।
इस मंदिर की अखंड ज्योतियाँ ही इसका सबसे बड़ा रहस्य हैं।
पानी भी इन ज्योतियों को नहीं बुझा सकता – कहते हैं एक स्थान पर ज्वाला एक छोटे पानी के पोखर के ठीक बीच से उठती है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि भूमि के नीचे प्राकृतिक ज्वलनशील गैस (मीथेन आदि) का भंडार है जो सतह पर आकर जल उठता है।
इस क्षेत्र की भू-रचना ज्वालामुखीय (ज्वालामुखी से निकले) तत्वों से बनी है, अतः पेट्रोलियम गैस का स्राव हो सकता है।
पर ध्यान देने वाली बात है कि पूरे हिंदुकुश हिमालय में यह इकलौता ऐसा स्थान है जहाँ इतनी स्थायी प्राकृतिक गैस फ्लैम मौजूद है।
ब्रिटिश काल में भी भूवैज्ञानिकों ने जांच की लेकिन स्रोत ढूंढ नहीं पाए।
आधुनिक काल में 1970 के दशक में ONGC ने भी गैस खोजने का प्रयास किया पर कुछ खास पता नहीं चला।
सात विभिन्न स्थानों पर अग्नि का निकलना दर्शाता है कि ज़मीन के नीचे कई दिशाओं में गैस चैंबर हैं।
ये ज्वालाएँ अलग-अलग आकार की हैं – बड़ी से बड़ी 4-6 इंच ऊँची और छोटी बुझती-बुझती सी।
एक दो ज्वालाएँ समय के साथ कमज़ोर पड़ीं, पर फिर पास के स्रोत से उन्हें प्रज्जवलित रखा गया।
श्रद्धालु इसे माँ की शक्ति मानते हैं जो साक्षात प्रकट है।
मंदिर से जुड़ी अकबर-भक्त ध्यानू की कथा भी चर्चित है।
कहते हैं मुगल बादशाह अकबर ने माँ के परमभक्त ध्यानू की भक्ति की परीक्षा लेनी चाही।
उसने ध्यानू के घोड़े का सिर कटवा दिया और कहा तुम्हारी देवी इसे जीवित करे।
ध्यानू ने प्रार्थना की, तो माँ की कृपा से घोड़े का सिर फिर जुड़ गया और वह जीवित हो उठा।
यह देख अकबर हैरान हो गया।
उसने देवी की शक्ति स्वीकारते हुए मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाया, पर वह छत्र तुरंत किसी अशुद्ध धातु में बदल गया।
(यह दिखाने को कि माँ को अहंकारी सत्ता का दान स्वीकार नहीं)।
आज भी वह छत्र मंदिर में रखा है जिसे लोग देखकर मानते हैं कि माता के दर पर सबसे बड़ी शक्तियां भी नतमस्तक हैं।
ज्वालामुखी मंदिर अपनी अनंत अग्नि ज्वाला के कारण पूरे देश में अनूठा है।
51 शक्तिपीठों में भी इसे अत्यधिक जागृत पीठ माना जाता है, क्योंकि यहाँ देवी की शक्ति सीधे दृष्टिगोचर (Visible) है।
यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से है, और देवभूमि हिमाचल की पहचान पूरी दुनिया में इसकी कहानियों से बनी है।
अखंड ज्योति को देखने हेतु हिन्दू ही नहीं, विभिन्न धर्मों के लोग भी आते हैं, क्योंकि प्राकृतिक अजूबे सबको आकर्षित करते हैं।
ऐसी मान्यता है कि जो भी सच्ची श्रद्धा से यहाँ दर्शन करता है उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और देवी उसे जीवन की अँधेरी बाधाओं में प्रकाश दिखाती हैं।
यह मंदिर सरकारी संरक्षण में है और पास ही शक्तिपीठ वज्रेश्वरी, चामुंडा देवी आदि को साथ जोड़कर एक तीर्थ-परिपथ बन गया है।
शक्तिपीठ होने के कारण बंगाल, असम आदि से भी बड़ी संख्या में तांत्रिक और भक्त यहाँ आते हैं, विशेषकर नवरात्रि में।
नवरात्रि (दोनों) में यहाँ आठों दिन भारी मेला लगता है।
चैत्र एवं अश्विन नवरात्रि में प्रदेश सरकार भी मेले का आयोजन करती है और लाखों श्रद्धालु माँ की ज्वाला के दर्शन करने आते हैं।
इन दिनों लगातार जागरण, भंडारे और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
इसके अलावा, श्रावण महीने के प्रत्येक रविवार और चैत्र अष्टमी को विशेष पूजा का प्रावधान है।
हर दिन मंदिर में आरती की जाती है – खास तौर पर दिन में पाँच बार आरती होती है, जिसमें एक आरती “महाआरती” कहलाती है।
इसमें सभी नौ ज्वालाओं को देसी घी, दूध और पानी चढ़ाकर उनकी लौ को और प्रज्वलित किया जाता है।
इस आरती के समय मंदिर के भीतर का नज़ारा अत्यंत रोमांचक होता है – घंटे-शंख के बीच नौ लौ तेज़ी से दमक उठती हैं और जयकारों से पूरा वातावरण भर जाता है।
भक्त अपने हाथ इन ज्वालाओं के ऊपर ले जाकर आशीर्वाद रूप में गर्मी को सिर से लगाते हैं।
एक परंपरा हवनकुंड ज्योति की भी है – परिसर में एक हवनकुंड है जिसकी अग्नि भी मंदिर की मुख्य अग्नि से ही जलाई जाती है।
हर पूर्णिमा को वहाँ हवन कर लपटों को अधिक बढ़ाया जाता है।
वर्ष में दो बार (दीपावली एवं वैशाख संक्रांति) को मंदिर के पुजारी मुख्य लपटों की जड़ में संचित कुछ कालिख को निकालकर उसे भभूत प्रसाद बनाकर बांटते हैं।
मान्यता है कि यह भभूत रोगों को दूर करती है।
वैज्ञानिक नजरिए से ज्वाला देवी मंदिर की ज्वालाएँ प्राकृतिक गैस रिसाव का परिणाम हैं।
भूवैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र की चट्टानों में हाइड्रोकार्बन्स की मौजूदगी पाई है और माना कि भूमिगत कटावों से ये गैस सतह तक पहुंच जाती हैं।
हालांकि, बिल्कुल सही स्रोत ट्रेस करना मुश्किल रहा है क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र में गैस अंतरसंबंधित झिरियों से आती है।
ONGC ने 1980 के आसपास परीक्षण कुएं खोदे लेकिन कोई वाणिज्यिक भंडार नहीं मिला – लेकिन इतना ज़रूर साबित हुआ कि मीथेन/प्रोपेन जैसी ज्वलनशील गैस वहाँ है।
एक और वैज्ञानिक पहलू है – ये लौ लगातार जलती रहे इसके लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति भी आवश्यक है।
मंदिर के चारों ओर छोटे-छोटे छेद/दरारें हैं जहां से हवा अंदर जाती है, ये लौ को बुझने नहीं देतीं।
यदि गर्भगृह को पूर्णत: एयरटाइट कर दें तो संभव है ज्वाला धीमी पड़ जाए।
किंतु सदियों से मंदिर का निर्माण इस तरह हुआ कि ज्वाला के लिए पर्याप्त वेंटिलेशन है, यह तत्कालीन शिल्पियों की समझ दर्शाता है।
पर्यावरण वैज्ञानिक इसे एक इको-टूरिज्म की दृष्टि से भी देखते हैं – यह आग अनियंत्रित न हो इसलिए मंदिर आसपास पानी के कुंड और अन्य व्यवस्थाएँ रखता है।
कुछ शोधकर्ताओं ने उन सात अलग-अलग लपटों के रासायनिक फर्क भी ढूँढने चाहे, परंतु सब में गैसीय मिश्रण करीब-करीब एक सा है।
कुल मिलाकर, वैज्ञानिक रूप से जो चीज़ पूर्णतः स्थापित नहीं हो सकी वह है – इस लौ का प्रथम उद्गम कब और कैसे हुआ?
पुराने ग्रंथों में इसका विवरण होना बताता है कि कम से कम 1400-1500 सालों से यह जल रही है, किंतु हो सकता है हजारों सालों से हो।
बिना मानवी हस्तक्षेप के इतना लम्बा नैचुरल गैस फ्लेयर चलना अत्यंत दुर्लभ है।
अतः इसे प्रकृति का चमत्कार ही कहा जाएगा।
ज्वाला देवी मंदिर पहुँचने पर तीखी गंध और गर्म हवा का अहसास श्रद्धालुओं को सबसे पहले होता है।
गर्भगृह के द्वार पर पहुँचकर जैसे ही वे अंदर झांकते हैं, प्राकृतिक चमकीली लौ देखकर भावविभोर हो जाते हैं।
एक श्रद्धालु ने कहा – ऐसा लगा मानो साक्षात माँ ज्योति रूप में विद्यमान हैं,
मन तुरंत दण्डवत हो गया
।
भक्तजन अकसर अपने हाथ जोड़कर उस अग्नि के पास ले जाते हैं और आँचल या रुमाल को गर्म करके अपने पास रखते हैं (श्रद्धा है कि इससे ऊर्जा मिलती है)।
बहुत से लोग वो चिमनी नुमा जगह देख खुश होते हैं जहाँ पानी
के बीच से लौ उठ रही है– एक महिला ने
आश्चर्य से बताया कि मैंने पानी के ऊपर अग्नि पहली बार देखी, विज्ञान-भक्ति सब एक हो गए मेरे लिए
।
नवरात्रि मेले में माता के जागरण और आरती के वक्त कई भक्तों ने लपटों को असामान्य ऊँचा उठते भी देखा है, जिसे वे चमत्कार मानते हैं।
पर्यटक भी दंग रह जाते हैं कि बिना ईंधन के ये लौ कैसे जल रही – कई विदेशी इसे इटरनल फ्लेम (अनंत ज्योति) कह कर सम्मान व्यक्त करते हैं।
कुल मिलाकर, इस मंदिर में हर किसी को दैवी शक्ति की ऊर्जा का साक्षात अहसास होता है।
दूर-दराज़ के पहाड़ी इलाके में ऐसा अलौकिक दृश्य देख उनका विश्वास ईश्वर में और प्रगाढ़ हो जाता है।
भक्त मानते हैं कि माँ ज्वाला की कृपा से उनके भीतर भी एक आत्मविश्वास की ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है जो ताउम्र जलती रहती है।