पवरा पहाड़ी, कैमूर जिला, बिहार।
देवी मुंडेश्वरी (दुर्गा/शक्ति का एक रूप) और चतुर्मुखी शिवलिंग (भगवान शिव)।
मां मुंडेश्वरी देवी मंदिर को भारत के सबसे प्राचीन क्रियाशील हिन्दू मंदिरों में से एक होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अनुसार, यहाँ मिले शिलालेखों के आधार पर इसका निर्माण काल लगभग 108 ईस्वी के आसपास का आंका गया है, जो इसे लगभग 1900 वर्ष से भी अधिक प्राचीन बनाता है। यह मंदिर नागर शैली की वास्तुकला का एक प्रारंभिक और महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक रूप से, यह क्षेत्र शैव और शाक्त, दोनों परंपराओं के प्रभाव में रहा है। माना जाता है कि प्रारंभ में यहाँ चतुर्मुखी शिवलिंग (विनितेश्वर के रूप में) प्रमुख आराध्य थे, किंतु बाद में, संभवतः चेरो जनजाति, जो शक्ति के उपासक थे, के प्रभाव में देवी मुंडेश्वरी की प्रधानता स्थापित हुई, यद्यपि शिवलिंग आज भी गर्भगृह के केंद्र में विराजमान हैं।
इस मंदिर का सबसे विस्मयकारी और अद्वितीय चमत्कार यहाँ प्रचलित पशु बलि की सात्विक परंपरा है। इस प्रथा में, बलि के लिए लाए गए बकरे को देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पुजारी विशेष मंत्रों का उच्चारण करते हुए बकरे पर अक्षत (पवित्र चावल) छिड़कते हैं। इसके प्रभाव से बकरा तुरंत अचेत या मृतप्राय सा हो जाता है, बिना किसी पीड़ा या रक्तपात के। कुछ क्षणों के उपरांत, पुजारी पुनः मंत्रोच्चार के साथ अक्षत छिड़कते हैं, और बकरा आश्चर्यजनक रूप से पुनः सचेत होकर उठ खड़ा होता है। इसके बाद उसे स्वतंत्र कर दिया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया भक्तों के समक्ष घटित होती है और इसे देवी का साक्षात चमत्कार माना जाता है, जो उनकी जीवनदायिनी शक्ति और करुणा का प्रतीक है। यह प्रथा पशु अधिकारों और अहिंसा के सिद्धांतों के साथ बलि की परंपरा का एक अनूठा सामंजस्य प्रस्तुत करती है।
मंदिर के गर्भगृह में स्थापित चतुर्मुखी (कुछ स्रोतों में पंचमुखी) शिवलिंग के बारे में यह मान्यता है कि इसका रंग दिन के विभिन्न प्रहरों में परिवर्तित होता रहता है। सूर्य की रश्मियों के कोण और प्रकाश की तीव्रता के साथ शिवलिंग के पाषाण का वर्ण बदलना एक रहस्यमय दिव्य घटना मानी जाती है।
इस मंदिर का संबंध मार्कण्डेय पुराण में वर्णित कथाओं से जोड़ा जाता है, विशेष रूप से चण्ड और मुण्ड नामक दो महाअसुरों के संहार से। लोककथाओं के अनुसार, देवी दुर्गा ने अत्याचारी असुर मुण्ड का वध इसी पवरा पहाड़ी पर किया था, जिसके कारण यह स्थान 'मुंडेश्वरी' कहलाया। मंदिर की अष्टकोणीय संरचना भी इसकी एक विशिष्ट पहचान है। मंदिर में प्रवेश के लिए मूल रूप से चार द्वार थे, जिनमें से एक अब बंद कर दिया गया है, जिसका कारण अज्ञात है।
मां मुंडेश्वरी मंदिर भारत की प्राचीनतम निरंतर पूजा परंपराओं का एक ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ सहस्राब्दियों से पूजा-अर्चना निर्बाध रूप से चली आ रही है। यह मंदिर शैव और शाक्त संप्रदायों के बीच समन्वय और सह-अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण भी है। इसकी वास्तुकला और प्राचीनता इसे शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों के लिए अत्यंत मूल्यवान बनाती है।
इसकी अत्यधिक प्राचीनता (108 ईस्वी) और निरंतर क्रियाशील होने का तथ्य इसे विश्व के दुर्लभतम मंदिरों की श्रेणी में रखता है, जिसके बारे में व्यापक जानकारी का अभाव है।
रक्तहीन बलि की अनूठी प्रथा न केवल चमत्कारिक है बल्कि यह समकालीन नैतिक विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण है।
यह मंदिर विभिन्न धर्मों और आस्थाओं के लोगों को आकर्षित करता है, जो देवी के चमत्कार और सात्विक बलि की प्रथा को देखने आते हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इस मंदिर को एक संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। यहाँ से प्राप्त शिलालेख, जिनकी तिथि लगभग 389 ईस्वी के आसपास निर्धारित की गई है, इसकी प्राचीनता की पुष्टि करते हैं। मार्कण्डेय पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसके संदर्भ और सदियों से चली आ रही लोक परंपराएं इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक प्रामाणिकता को बल प्रदान करती हैं।
पवरा पहाड़ी, कैमूर जिला, बिहार।
देवी मुंडेश्वरी (दुर्गा/शक्ति का एक रूप) और चतुर्मुखी शिवलिंग (भगवान शिव)।
मां मुंडेश्वरी देवी मंदिर को भारत के सबसे प्राचीन क्रियाशील हिन्दू मंदिरों में से एक होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अनुसार, यहाँ मिले शिलालेखों के आधार पर इसका निर्माण काल लगभग 108 ईस्वी के आसपास का आंका गया है, जो इसे लगभग 1900 वर्ष से भी अधिक प्राचीन बनाता है। यह मंदिर नागर शैली की वास्तुकला का एक प्रारंभिक और महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक रूप से, यह क्षेत्र शैव और शाक्त, दोनों परंपराओं के प्रभाव में रहा है। माना जाता है कि प्रारंभ में यहाँ चतुर्मुखी शिवलिंग (विनितेश्वर के रूप में) प्रमुख आराध्य थे, किंतु बाद में, संभवतः चेरो जनजाति, जो शक्ति के उपासक थे, के प्रभाव में देवी मुंडेश्वरी की प्रधानता स्थापित हुई, यद्यपि शिवलिंग आज भी गर्भगृह के केंद्र में विराजमान हैं।
इस मंदिर का सबसे विस्मयकारी और अद्वितीय चमत्कार यहाँ प्रचलित पशु बलि की सात्विक परंपरा है। इस प्रथा में, बलि के लिए लाए गए बकरे को देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पुजारी विशेष मंत्रों का उच्चारण करते हुए बकरे पर अक्षत (पवित्र चावल) छिड़कते हैं। इसके प्रभाव से बकरा तुरंत अचेत या मृतप्राय सा हो जाता है, बिना किसी पीड़ा या रक्तपात के। कुछ क्षणों के उपरांत, पुजारी पुनः मंत्रोच्चार के साथ अक्षत छिड़कते हैं, और बकरा आश्चर्यजनक रूप से पुनः सचेत होकर उठ खड़ा होता है। इसके बाद उसे स्वतंत्र कर दिया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया भक्तों के समक्ष घटित होती है और इसे देवी का साक्षात चमत्कार माना जाता है, जो उनकी जीवनदायिनी शक्ति और करुणा का प्रतीक है। यह प्रथा पशु अधिकारों और अहिंसा के सिद्धांतों के साथ बलि की परंपरा का एक अनूठा सामंजस्य प्रस्तुत करती है।
मंदिर के गर्भगृह में स्थापित चतुर्मुखी (कुछ स्रोतों में पंचमुखी) शिवलिंग के बारे में यह मान्यता है कि इसका रंग दिन के विभिन्न प्रहरों में परिवर्तित होता रहता है। सूर्य की रश्मियों के कोण और प्रकाश की तीव्रता के साथ शिवलिंग के पाषाण का वर्ण बदलना एक रहस्यमय दिव्य घटना मानी जाती है।
इस मंदिर का संबंध मार्कण्डेय पुराण में वर्णित कथाओं से जोड़ा जाता है, विशेष रूप से चण्ड और मुण्ड नामक दो महाअसुरों के संहार से। लोककथाओं के अनुसार, देवी दुर्गा ने अत्याचारी असुर मुण्ड का वध इसी पवरा पहाड़ी पर किया था, जिसके कारण यह स्थान 'मुंडेश्वरी' कहलाया। मंदिर की अष्टकोणीय संरचना भी इसकी एक विशिष्ट पहचान है। मंदिर में प्रवेश के लिए मूल रूप से चार द्वार थे, जिनमें से एक अब बंद कर दिया गया है, जिसका कारण अज्ञात है।
मां मुंडेश्वरी मंदिर भारत की प्राचीनतम निरंतर पूजा परंपराओं का एक ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ सहस्राब्दियों से पूजा-अर्चना निर्बाध रूप से चली आ रही है। यह मंदिर शैव और शाक्त संप्रदायों के बीच समन्वय और सह-अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण भी है। इसकी वास्तुकला और प्राचीनता इसे शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों के लिए अत्यंत मूल्यवान बनाती है।
इसकी अत्यधिक प्राचीनता (108 ईस्वी) और निरंतर क्रियाशील होने का तथ्य इसे विश्व के दुर्लभतम मंदिरों की श्रेणी में रखता है, जिसके बारे में व्यापक जानकारी का अभाव है।
रक्तहीन बलि की अनूठी प्रथा न केवल चमत्कारिक है बल्कि यह समकालीन नैतिक विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण है।
यह मंदिर विभिन्न धर्मों और आस्थाओं के लोगों को आकर्षित करता है, जो देवी के चमत्कार और सात्विक बलि की प्रथा को देखने आते हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इस मंदिर को एक संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। यहाँ से प्राप्त शिलालेख, जिनकी तिथि लगभग 389 ईस्वी के आसपास निर्धारित की गई है, इसकी प्राचीनता की पुष्टि करते हैं। मार्कण्डेय पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसके संदर्भ और सदियों से चली आ रही लोक परंपराएं इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक प्रामाणिकता को बल प्रदान करती हैं।