बुंदेलखंड की ऐतिहासिक धरती, जो अपने वीरों की गाथाओं और प्राचीन मंदिरों की धरोहर से सुशोभित है, अपने गर्भ में अनेक ऐसे रत्नों को छिपाए हुए है जिनकी आभा आज भी पूरी तरह से लोकमानस तक नहीं पहुँच पाई है। ऐसा ही एक भूला हुआ सूर्य-रत्न है महोबा जिले में स्थित राहिलिया का सूर्य मंदिर। यह प्राचीन देवालय, अपनी सदियों पुरानी भव्यता और गहन आध्यात्मिकता के बावजूद, आज भी बहुतों की नज़रों से ओझल है, मानो समय की धूल ने इसे धीरे से ढक लिया हो। यह मंदिर केवल पत्थर और गारे का ढांचा नहीं, बल्कि एक जीवंत इतिहास है, एक मौन प्रार्थना है, और एक ऐसी पहेली है जो अपने रहस्यों को आज भी अपने खंडहरों में समेटे हुए है।
इस मंदिर की अल्पज्ञात स्थिति केवल भौतिक दूरी या प्रचार की कमी का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक सांस्कृतिक विस्मृति का भी प्रतीक हो सकती है जिसका शिकार कई ऐतिहासिक धरोहरें होती हैं, विशेषकर वे जो खजुराहो जैसे विश्व-प्रसिद्ध स्थलों के साये में स्थित हों। यह स्थिति एक प्रकार की मानवीय और सांस्कृतिक उपेक्षा की ओर भी संकेत करती है, जहाँ कुछ धरोहरें अधिक प्रकाश में आ जाती हैं जबकि अन्य, समान रूप से महत्वपूर्ण होने के बावजूद, पृष्ठभूमि में विलीन हो जाती हैं।
यह लेख आपको राहिलिया सूर्य मंदिर के उन्हीं अनदेखे और अनसुने पहलुओं की यात्रा पर ले जाने का एक विनम्र प्रयास है। हम इसके इतिहास की परतों को खोलेंगे, इसकी वास्तुकला के सौंदर्य को निहारेंगे, सूर्य देव से जुड़ी इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा को महसूस करेंगे, और उन चमत्कारों, रहस्यों और परंपराओं को समझने की कोशिश करेंगे जो इसे अद्वितीय बनाते हैं। यह यात्रा केवल तथ्यों का संकलन नहीं, बल्कि मंदिर की आत्मा को छूने, उसके मौन संदेश को सुनने और उसकी वर्तमान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी उसकी मानवीय कहानी को समझने का एक प्रयास है – एक कहानी जो निर्माण, आस्था, विनाश, उपेक्षा और पुनर्जीवन की आशा के चक्र को दर्शाती है।
राहिलिया सूर्य मंदिर का इतिहास हमें उस गौरवशाली चंदेल राजवंश के काल में ले जाता है, जिन्होंने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक बुंदेलखंड की धरती पर शासन किया। चंदेल, जो स्वयं को पौराणिक चंद्र वंश से संबंधित मानते थे, न केवल महान योद्धा और कुशल प्रशासक थे, बल्कि कला और स्थापत्य के अनन्य संरक्षक भी थे। उनकी सूर्य-उपासना की परंपरा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चंदेल राजा सूर्य देव को ऊर्जा, स्वास्थ्य, जीवन में सकारात्मकता और सबसे बढ़कर, अपने शासन की दीर्घायु का स्रोत मानते थे। सूर्य, जिन्हें हिंदू धर्म में "प्रत्यक्ष देव" अर्थात साक्षात दिखाई देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है2, चंदेलों के लिए विशेष आराध्य थे।
इसी राजवंश के पांचवें शासक, राजा राहिल देव वर्मन, जिनका शासनकाल 890 से 915 ईस्वी के मध्य माना जाता है, ने इस भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था। उन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र का नाम रहेलिया गाँव पड़ा और मंदिर के समीप निर्मित विशाल जलाशय को राहिला सागर कहा गया। यह मंदिर और जलाशय का निर्माण उनकी दूरदर्शिता और संकल्प का प्रतीक है।
राहिलिया का सूर्य मंदिर चंदेलकालीन स्थापत्य कला का एक मूक, किंतु प्रभावशाली साक्षी है। इसका निर्माण मुख्यतः ग्रेनाइट पत्थर से किया गया है, जो न केवल इसकी मजबूती और दीर्घायु को सुनिश्चित करता है, बल्कि कारीगरों के कौशल को भी दर्शाता है जिन्होंने इस कठोर पत्थर पर अपनी कला को जीवंत किया। यह मंदिर वास्तुकला की प्रारंभिक प्रतिहार शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है, जो चंदेलों द्वारा अपनाई गई प्रमुख शैली थी, जैसा कि सर अलेक्जेंडर कनिंघम के अध्ययनों से भी संकेत मिलता है। कुछ विद्वान इसमें नागर और द्रविड़ शैलियों के तत्वों का मिश्रण भी देखते हैं3, जो इसकी स्थापत्य विशेषताओं की संभावित जटिलता और विभिन्न कलात्मक प्रभावों के संगम की ओर इशारा करता है।
मंदिर का विन्यास अत्यंत योजनाबद्ध प्रतीत होता है। यह एक ऊँचे चबूतरे, जिसे वास्तुशास्त्रीय भाषा में अधिष्ठान कहा जाता है, पर निर्मित है। इसमें उत्तर और दक्षिण दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाए गए थे, और कुछ शोधों के अनुसार यह पंचायतन विन्यास में बना हो सकता है, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर छोटे सहायक मंदिर होते हैं। एक रोचक तथ्य यह है कि मंदिर तीन दिशाओं में खुलता है, जबकि इसकी पश्चिम दिशा बंद रखी गई है। यह विशिष्ट विन्यास वास्तु शास्त्र के गूढ़ सिद्धांतों पर आधारित हो सकता है4।
मंदिर के गर्भगृह के ऊपर स्थित शिखर अपनी बनावट में लंबा और वक्ररेखीय (घुमावदार) है, जो नागर शैली के मंदिरों की एक प्रमुख पहचान है। यह भी माना जाता है कि यह भव्य शिखर स्वयं सूर्य देव के दिव्य रथ का प्रतिनिधित्व करता है5, जो आकाश में भ्रमण करते हुए सृष्टि को आलोकित करते हैं। मंदिर की दीवारों और स्तंभों पर कभी देवताओं, देवियों, खगोलीय प्राणियों और विभिन्न पौराणिक कथाओं के सुंदर चित्रण रहे होंगे। विशेष रूप से स्तंभों पर की गई नक्काशी अद्वितीय बताई जाती है, और एक दिलचस्प मान्यता यह भी है कि ये स्तंभ खगोलीय पिंडों, विशेष रूप से सूर्य और चंद्र चक्रों की गति के साथ संरेखित थे। हालांकि, कुछ अन्य अवलोकन यह भी बताते हैं कि यहाँ खजुराहो जैसी जटिल और प्रचुर मूर्तियां नहीं मिलतीं, बल्कि पवित्र प्रतीक चिन्ह और अपेक्षाकृत सादा अलंकरण देखने को मिलता है। यह विरोधाभास या तो समय के साथ हुए क्षरण का परिणाम हो सकता है, या मंदिर के विभिन्न हिस्सों में अलंकरण के विभिन्न स्तरों को दर्शा सकता है, या फिर यह मंदिर के रहस्यमय पहलुओं का ही एक हिस्सा है।
विवरण | जानकारी |
---|---|
स्थान | मिर्तला और राहिलिया गांव के पास, महोबा से लगभग 3 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में, उत्तर प्रदेश |
निर्माता | चंदेल शासक राहिल देव वर्मन |
निर्माण काल | 9वीं-10वीं शताब्दी (लगभग 890-915 ईस्वी) |
समर्पित देवता | सूर्य देव |
वास्तुकला शैली | ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित, प्रारंभिक प्रतिहार शैली |
मुख्य आकर्षण | सूर्य कुंड, प्राचीन काली माता मंदिर, विशिष्ट वक्ररेखीय शिखर, ऐतिहासिक राहिला सागर के तट पर स्थित |
वर्तमान स्थिति | जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित स्मारक (यद्यपि उपेक्षित) |
हिंदू धर्म में सूर्य देव की उपासना का एक विशिष्ट और केंद्रीय स्थान है। उन्हें एकमात्र "प्रत्यक्ष देव" माना जाता है, अर्थात वे देवता जिनके दर्शन हम अपनी स्थूल आँखों से प्रतिदिन कर सकते हैं।
राहिलिया सूर्य मंदिर परिसर की आध्यात्मिक आभा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है यहाँ स्थित सूर्य कुंड (या सूरजकुंड)। मंदिर से लगभग 150 मीटर की दूरी पर स्थित यह जलकुंड6 अनेक रहस्यों और चमत्कारों से जुड़ा हुआ है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस कुंड का जल कभी नहीं सूखता, जो इसे एक प्रकार का स्थानीय चमत्कार या दैवीय कृपा का प्रतीक बनाता है। यह भी कहा जाता है कि चंदेल राजा सूर्य देव की पूजा के लिए मंदिर जाने से पूर्व इसी पवित्र कुंड में स्नान किया करते थे।
यद्यपि राहिलिया मुख्य रूप से सूर्य देव को समर्पित है, तथापि यह परिसर प्राचीन भारतीय संस्कृति की समावेशी प्रकृति का भी सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। मंदिर परिसर में एक प्राचीन काली माता का मंदिर भी स्थित है4, जो शाक्त परंपरा की उपस्थिति को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, मंदिर के विभिन्न हिस्सों में या उसके अवशेषों में भगवान ब्रह्मा, विष्णु, गणेश और महेश (शिव) की मूर्तियों के होने का भी उल्लेख मिलता है।
राहिलिया सूर्य मंदिर अपने आँचल में अनेक ऐसे रहस्य, चमत्कार और अल्पज्ञात परंपराओं को समेटे हुए है जो इसे और भी आकर्षक और गूढ़ बनाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख है मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित मुख्य मूर्ति को लेकर व्याप्त अनिश्चितता। कुछ ऐतिहासिक विवरण और पुरातात्विक संदर्भ यह बताते हैं कि गर्भगृह में सूर्य देव की लगभग 1.36 मीटर ऊँची, बलुआ पत्थर से निर्मित एक भव्य मूर्ति स्थापित थी, जिसके साथ भगवान विष्णु की एक छोटी प्रतिमा भी थी। सर अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वेक्षणों के आधार पर भी ऐसी मूर्तियों की "खोज" का उल्लेख मिलता है।
इसके विपरीत, कुछ अन्य स्रोत और समकालीन विवरण यह कहते हैं कि मंदिर का मुख्य गर्भगृह आज खाली है, जिसमें किसी भी देवता की कोई मूर्ति या प्रतिनिधित्व नहीं है। इस खालीपन के पीछे कई सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं: यह संभव है कि मूल मूर्ति किसी अशांत काल में, विशेषकर कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण के दौरान, खो गई हो, चोरी हो गई हो या नष्ट कर दी गई हो। या फिर, यह भी एक दार्शनिक व्याख्या हो सकती है कि गर्भगृह को जानबूझकर खाली छोड़ा गया हो ताकि यह सूर्य देव की निराकार, सर्वव्यापी और असीम शक्ति का प्रतीक बन सके। कुछ विवरण तो यहाँ तक कहते हैं कि "गर्भगृह में कुछ शेष नहीं"। यह विरोधाभास मंदिर के सबसे गूढ़ रहस्यों में से एक है, जो विनाश, पुनर्खोज और विभिन्न व्याख्याओं की मानवीय कहानी को दर्शाता है।
सूर्य कुंड का अक्षय जल, जिसका उल्लेख पहले भी किया गया है, स्थानीय लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसका कभी न सूखना सूर्य देव की असीम कृपा और इस स्थान की निरंतर पवित्रता का जीवंत प्रमाण माना जाता है।
मंदिर और महोबा क्षेत्र से कई अल्पज्ञात कथाएँ और लोकगाथाएँ भी जुड़ी हुई हैं। वीर आल्हा और ऊदल की शौर्य गाथाएँ, जो महोबा के सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग हैं5, इस क्षेत्र को एक विशेष पहचान देती हैं। यद्यपि राहिलिया मंदिर से उनका कोई सीधा और स्पष्ट संबंध ज्ञात नहीं है, फिर भी उनकी उपस्थिति इस भूमि के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को बढ़ाती है। कनिंघम ने चंद बरदाई की उस कथा का भी उल्लेख किया है जिसमें आल्हा के पिता दशरथ द्वारा राहिला सागर के निर्माण की बात कही गई है, हालांकि कनिंघम स्वयं इस मत से सहमत नहीं थे। एक और रोचक कथा, जो राहिलिया मंदिर को एक व्यापक पौराणिक संदर्भ से जोड़ सकती है, वह है भगवान श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने हेतु भारतवर्ष में बारह सूर्य मंदिरों के निर्माण की कथा। संभव है कि राहिलिया भी उन्हीं पवित्र स्थलों में से एक रहा हो। ऐसी कथाएँ स्थानीय महत्व के स्थलों को एक अखिल भारतीय पौराणिक नेटवर्क में स्थापित कर उनकी प्रतिष्ठा और पवित्रता को और भी बढ़ाती हैं।
एक और दिलचस्प परिकल्पना जो राहिलिया के महत्व को और भी बढ़ाती है, वह यह है कि क्या यह मंदिर कोणार्क के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर के लिए प्रेरणा स्रोत रहा होगा? कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि राहिलिया मंदिर, जो कोणार्क से भी प्राचीन है, संभवतः कोणार्क के भव्य डिजाइन के लिए एक प्रारंभिक विचार या प्रेरणा प्रदान कर सकता है। यदि यह सत्य है, तो राहिलिया भारतीय मंदिर वास्तुकला के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मौलिक स्थान रखता है।
राहिलिया सूर्य मंदिर की वर्तमान जीर्ण-शीर्ण अवस्था समय के निर्मम प्रहार और मानवीय उपेक्षा दोनों की कहानी कहती है। इसके दुर्भाग्य का एक बड़ा अध्याय 13वीं शताब्दी के आरंभ में लिखा गया, जब दिल्ली सल्तनत के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1202-03 ईस्वी के आसपास बुंदेलखंड पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान महोबा, खजुराहो और कालिंजर जैसे चंदेलों के गढ़ों के साथ-साथ राहिलिया सागर पर स्थित इस सूर्य मंदिर को भी भारी क्षति पहुँचाई गई। कहा जाता है कि ऐबक ने न केवल मंदिर की संरचना को तोड़ा, बल्कि खजाने की लालच में मूर्तियों को भी खंडित किया और परिसर में व्यापक तोड़फोड़ की।
सदियों के उतार-चढ़ाव, आक्रमणों की विभीषिका और वर्तमान की जीर्ण-शीर्ण अवस्था के थपेड़ों को सहने के बावजूद, राहिलिया का सूर्य मंदिर आज भी एक गहन आध्यात्मिक शांति और मानवीय आस्था की प्रतिध्वनि अपने खंडहरों में समेटे हुए है। इसके मौन पत्थरों में आज भी चंदेलकालीन गौरवशाली इतिहास, कलात्मक उत्कृष्टता और गहन आध्यात्मिकता की गूंज सुनाई देती है। जो भी संवेदनशील हृदय लेकर इस स्थल पर पहुँचता है, वह इसकी प्राचीन आभा और इसके मौन क्रंदन को अवश्य महसूस करता है।
बुंदेलखंड की ऐतिहासिक धरती, जो अपने वीरों की गाथाओं और प्राचीन मंदिरों की धरोहर से सुशोभित है, अपने गर्भ में अनेक ऐसे रत्नों को छिपाए हुए है जिनकी आभा आज भी पूरी तरह से लोकमानस तक नहीं पहुँच पाई है। ऐसा ही एक भूला हुआ सूर्य-रत्न है महोबा जिले में स्थित राहिलिया का सूर्य मंदिर। यह प्राचीन देवालय, अपनी सदियों पुरानी भव्यता और गहन आध्यात्मिकता के बावजूद, आज भी बहुतों की नज़रों से ओझल है, मानो समय की धूल ने इसे धीरे से ढक लिया हो। यह मंदिर केवल पत्थर और गारे का ढांचा नहीं, बल्कि एक जीवंत इतिहास है, एक मौन प्रार्थना है, और एक ऐसी पहेली है जो अपने रहस्यों को आज भी अपने खंडहरों में समेटे हुए है।
इस मंदिर की अल्पज्ञात स्थिति केवल भौतिक दूरी या प्रचार की कमी का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक सांस्कृतिक विस्मृति का भी प्रतीक हो सकती है जिसका शिकार कई ऐतिहासिक धरोहरें होती हैं, विशेषकर वे जो खजुराहो जैसे विश्व-प्रसिद्ध स्थलों के साये में स्थित हों। यह स्थिति एक प्रकार की मानवीय और सांस्कृतिक उपेक्षा की ओर भी संकेत करती है, जहाँ कुछ धरोहरें अधिक प्रकाश में आ जाती हैं जबकि अन्य, समान रूप से महत्वपूर्ण होने के बावजूद, पृष्ठभूमि में विलीन हो जाती हैं।
यह लेख आपको राहिलिया सूर्य मंदिर के उन्हीं अनदेखे और अनसुने पहलुओं की यात्रा पर ले जाने का एक विनम्र प्रयास है। हम इसके इतिहास की परतों को खोलेंगे, इसकी वास्तुकला के सौंदर्य को निहारेंगे, सूर्य देव से जुड़ी इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा को महसूस करेंगे, और उन चमत्कारों, रहस्यों और परंपराओं को समझने की कोशिश करेंगे जो इसे अद्वितीय बनाते हैं। यह यात्रा केवल तथ्यों का संकलन नहीं, बल्कि मंदिर की आत्मा को छूने, उसके मौन संदेश को सुनने और उसकी वर्तमान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी उसकी मानवीय कहानी को समझने का एक प्रयास है – एक कहानी जो निर्माण, आस्था, विनाश, उपेक्षा और पुनर्जीवन की आशा के चक्र को दर्शाती है।
राहिलिया सूर्य मंदिर का इतिहास हमें उस गौरवशाली चंदेल राजवंश के काल में ले जाता है, जिन्होंने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक बुंदेलखंड की धरती पर शासन किया। चंदेल, जो स्वयं को पौराणिक चंद्र वंश से संबंधित मानते थे, न केवल महान योद्धा और कुशल प्रशासक थे, बल्कि कला और स्थापत्य के अनन्य संरक्षक भी थे। उनकी सूर्य-उपासना की परंपरा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चंदेल राजा सूर्य देव को ऊर्जा, स्वास्थ्य, जीवन में सकारात्मकता और सबसे बढ़कर, अपने शासन की दीर्घायु का स्रोत मानते थे। सूर्य, जिन्हें हिंदू धर्म में "प्रत्यक्ष देव" अर्थात साक्षात दिखाई देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है2, चंदेलों के लिए विशेष आराध्य थे।
इसी राजवंश के पांचवें शासक, राजा राहिल देव वर्मन, जिनका शासनकाल 890 से 915 ईस्वी के मध्य माना जाता है, ने इस भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था। उन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र का नाम रहेलिया गाँव पड़ा और मंदिर के समीप निर्मित विशाल जलाशय को राहिला सागर कहा गया। यह मंदिर और जलाशय का निर्माण उनकी दूरदर्शिता और संकल्प का प्रतीक है।
राहिलिया का सूर्य मंदिर चंदेलकालीन स्थापत्य कला का एक मूक, किंतु प्रभावशाली साक्षी है। इसका निर्माण मुख्यतः ग्रेनाइट पत्थर से किया गया है, जो न केवल इसकी मजबूती और दीर्घायु को सुनिश्चित करता है, बल्कि कारीगरों के कौशल को भी दर्शाता है जिन्होंने इस कठोर पत्थर पर अपनी कला को जीवंत किया। यह मंदिर वास्तुकला की प्रारंभिक प्रतिहार शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है, जो चंदेलों द्वारा अपनाई गई प्रमुख शैली थी, जैसा कि सर अलेक्जेंडर कनिंघम के अध्ययनों से भी संकेत मिलता है। कुछ विद्वान इसमें नागर और द्रविड़ शैलियों के तत्वों का मिश्रण भी देखते हैं3, जो इसकी स्थापत्य विशेषताओं की संभावित जटिलता और विभिन्न कलात्मक प्रभावों के संगम की ओर इशारा करता है।
मंदिर का विन्यास अत्यंत योजनाबद्ध प्रतीत होता है। यह एक ऊँचे चबूतरे, जिसे वास्तुशास्त्रीय भाषा में अधिष्ठान कहा जाता है, पर निर्मित है। इसमें उत्तर और दक्षिण दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाए गए थे, और कुछ शोधों के अनुसार यह पंचायतन विन्यास में बना हो सकता है, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर छोटे सहायक मंदिर होते हैं। एक रोचक तथ्य यह है कि मंदिर तीन दिशाओं में खुलता है, जबकि इसकी पश्चिम दिशा बंद रखी गई है। यह विशिष्ट विन्यास वास्तु शास्त्र के गूढ़ सिद्धांतों पर आधारित हो सकता है4।
मंदिर के गर्भगृह के ऊपर स्थित शिखर अपनी बनावट में लंबा और वक्ररेखीय (घुमावदार) है, जो नागर शैली के मंदिरों की एक प्रमुख पहचान है। यह भी माना जाता है कि यह भव्य शिखर स्वयं सूर्य देव के दिव्य रथ का प्रतिनिधित्व करता है5, जो आकाश में भ्रमण करते हुए सृष्टि को आलोकित करते हैं। मंदिर की दीवारों और स्तंभों पर कभी देवताओं, देवियों, खगोलीय प्राणियों और विभिन्न पौराणिक कथाओं के सुंदर चित्रण रहे होंगे। विशेष रूप से स्तंभों पर की गई नक्काशी अद्वितीय बताई जाती है, और एक दिलचस्प मान्यता यह भी है कि ये स्तंभ खगोलीय पिंडों, विशेष रूप से सूर्य और चंद्र चक्रों की गति के साथ संरेखित थे। हालांकि, कुछ अन्य अवलोकन यह भी बताते हैं कि यहाँ खजुराहो जैसी जटिल और प्रचुर मूर्तियां नहीं मिलतीं, बल्कि पवित्र प्रतीक चिन्ह और अपेक्षाकृत सादा अलंकरण देखने को मिलता है। यह विरोधाभास या तो समय के साथ हुए क्षरण का परिणाम हो सकता है, या मंदिर के विभिन्न हिस्सों में अलंकरण के विभिन्न स्तरों को दर्शा सकता है, या फिर यह मंदिर के रहस्यमय पहलुओं का ही एक हिस्सा है।
विवरण | जानकारी |
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स्थान | मिर्तला और राहिलिया गांव के पास, महोबा से लगभग 3 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में, उत्तर प्रदेश |
निर्माता | चंदेल शासक राहिल देव वर्मन |
निर्माण काल | 9वीं-10वीं शताब्दी (लगभग 890-915 ईस्वी) |
समर्पित देवता | सूर्य देव |
वास्तुकला शैली | ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित, प्रारंभिक प्रतिहार शैली |
मुख्य आकर्षण | सूर्य कुंड, प्राचीन काली माता मंदिर, विशिष्ट वक्ररेखीय शिखर, ऐतिहासिक राहिला सागर के तट पर स्थित |
वर्तमान स्थिति | जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित स्मारक (यद्यपि उपेक्षित) |
हिंदू धर्म में सूर्य देव की उपासना का एक विशिष्ट और केंद्रीय स्थान है। उन्हें एकमात्र "प्रत्यक्ष देव" माना जाता है, अर्थात वे देवता जिनके दर्शन हम अपनी स्थूल आँखों से प्रतिदिन कर सकते हैं।
राहिलिया सूर्य मंदिर परिसर की आध्यात्मिक आभा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है यहाँ स्थित सूर्य कुंड (या सूरजकुंड)। मंदिर से लगभग 150 मीटर की दूरी पर स्थित यह जलकुंड6 अनेक रहस्यों और चमत्कारों से जुड़ा हुआ है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस कुंड का जल कभी नहीं सूखता, जो इसे एक प्रकार का स्थानीय चमत्कार या दैवीय कृपा का प्रतीक बनाता है। यह भी कहा जाता है कि चंदेल राजा सूर्य देव की पूजा के लिए मंदिर जाने से पूर्व इसी पवित्र कुंड में स्नान किया करते थे।
यद्यपि राहिलिया मुख्य रूप से सूर्य देव को समर्पित है, तथापि यह परिसर प्राचीन भारतीय संस्कृति की समावेशी प्रकृति का भी सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। मंदिर परिसर में एक प्राचीन काली माता का मंदिर भी स्थित है4, जो शाक्त परंपरा की उपस्थिति को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, मंदिर के विभिन्न हिस्सों में या उसके अवशेषों में भगवान ब्रह्मा, विष्णु, गणेश और महेश (शिव) की मूर्तियों के होने का भी उल्लेख मिलता है।
राहिलिया सूर्य मंदिर अपने आँचल में अनेक ऐसे रहस्य, चमत्कार और अल्पज्ञात परंपराओं को समेटे हुए है जो इसे और भी आकर्षक और गूढ़ बनाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख है मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित मुख्य मूर्ति को लेकर व्याप्त अनिश्चितता। कुछ ऐतिहासिक विवरण और पुरातात्विक संदर्भ यह बताते हैं कि गर्भगृह में सूर्य देव की लगभग 1.36 मीटर ऊँची, बलुआ पत्थर से निर्मित एक भव्य मूर्ति स्थापित थी, जिसके साथ भगवान विष्णु की एक छोटी प्रतिमा भी थी। सर अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वेक्षणों के आधार पर भी ऐसी मूर्तियों की "खोज" का उल्लेख मिलता है।
इसके विपरीत, कुछ अन्य स्रोत और समकालीन विवरण यह कहते हैं कि मंदिर का मुख्य गर्भगृह आज खाली है, जिसमें किसी भी देवता की कोई मूर्ति या प्रतिनिधित्व नहीं है। इस खालीपन के पीछे कई सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं: यह संभव है कि मूल मूर्ति किसी अशांत काल में, विशेषकर कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण के दौरान, खो गई हो, चोरी हो गई हो या नष्ट कर दी गई हो। या फिर, यह भी एक दार्शनिक व्याख्या हो सकती है कि गर्भगृह को जानबूझकर खाली छोड़ा गया हो ताकि यह सूर्य देव की निराकार, सर्वव्यापी और असीम शक्ति का प्रतीक बन सके। कुछ विवरण तो यहाँ तक कहते हैं कि "गर्भगृह में कुछ शेष नहीं"। यह विरोधाभास मंदिर के सबसे गूढ़ रहस्यों में से एक है, जो विनाश, पुनर्खोज और विभिन्न व्याख्याओं की मानवीय कहानी को दर्शाता है।
सूर्य कुंड का अक्षय जल, जिसका उल्लेख पहले भी किया गया है, स्थानीय लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसका कभी न सूखना सूर्य देव की असीम कृपा और इस स्थान की निरंतर पवित्रता का जीवंत प्रमाण माना जाता है।
मंदिर और महोबा क्षेत्र से कई अल्पज्ञात कथाएँ और लोकगाथाएँ भी जुड़ी हुई हैं। वीर आल्हा और ऊदल की शौर्य गाथाएँ, जो महोबा के सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग हैं5, इस क्षेत्र को एक विशेष पहचान देती हैं। यद्यपि राहिलिया मंदिर से उनका कोई सीधा और स्पष्ट संबंध ज्ञात नहीं है, फिर भी उनकी उपस्थिति इस भूमि के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को बढ़ाती है। कनिंघम ने चंद बरदाई की उस कथा का भी उल्लेख किया है जिसमें आल्हा के पिता दशरथ द्वारा राहिला सागर के निर्माण की बात कही गई है, हालांकि कनिंघम स्वयं इस मत से सहमत नहीं थे। एक और रोचक कथा, जो राहिलिया मंदिर को एक व्यापक पौराणिक संदर्भ से जोड़ सकती है, वह है भगवान श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने हेतु भारतवर्ष में बारह सूर्य मंदिरों के निर्माण की कथा। संभव है कि राहिलिया भी उन्हीं पवित्र स्थलों में से एक रहा हो। ऐसी कथाएँ स्थानीय महत्व के स्थलों को एक अखिल भारतीय पौराणिक नेटवर्क में स्थापित कर उनकी प्रतिष्ठा और पवित्रता को और भी बढ़ाती हैं।
एक और दिलचस्प परिकल्पना जो राहिलिया के महत्व को और भी बढ़ाती है, वह यह है कि क्या यह मंदिर कोणार्क के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर के लिए प्रेरणा स्रोत रहा होगा? कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि राहिलिया मंदिर, जो कोणार्क से भी प्राचीन है, संभवतः कोणार्क के भव्य डिजाइन के लिए एक प्रारंभिक विचार या प्रेरणा प्रदान कर सकता है। यदि यह सत्य है, तो राहिलिया भारतीय मंदिर वास्तुकला के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मौलिक स्थान रखता है।
राहिलिया सूर्य मंदिर की वर्तमान जीर्ण-शीर्ण अवस्था समय के निर्मम प्रहार और मानवीय उपेक्षा दोनों की कहानी कहती है। इसके दुर्भाग्य का एक बड़ा अध्याय 13वीं शताब्दी के आरंभ में लिखा गया, जब दिल्ली सल्तनत के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1202-03 ईस्वी के आसपास बुंदेलखंड पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान महोबा, खजुराहो और कालिंजर जैसे चंदेलों के गढ़ों के साथ-साथ राहिलिया सागर पर स्थित इस सूर्य मंदिर को भी भारी क्षति पहुँचाई गई। कहा जाता है कि ऐबक ने न केवल मंदिर की संरचना को तोड़ा, बल्कि खजाने की लालच में मूर्तियों को भी खंडित किया और परिसर में व्यापक तोड़फोड़ की।
सदियों के उतार-चढ़ाव, आक्रमणों की विभीषिका और वर्तमान की जीर्ण-शीर्ण अवस्था के थपेड़ों को सहने के बावजूद, राहिलिया का सूर्य मंदिर आज भी एक गहन आध्यात्मिक शांति और मानवीय आस्था की प्रतिध्वनि अपने खंडहरों में समेटे हुए है। इसके मौन पत्थरों में आज भी चंदेलकालीन गौरवशाली इतिहास, कलात्मक उत्कृष्टता और गहन आध्यात्मिकता की गूंज सुनाई देती है। जो भी संवेदनशील हृदय लेकर इस स्थल पर पहुँचता है, वह इसकी प्राचीन आभा और इसके मौन क्रंदन को अवश्य महसूस करता है।