श्रीशैलम, नल्लमला पहाड़ियाँ, कृष्णा जिला, आंध्र प्रदेश। यह कृष्णा नदी के तट पर स्थित है।
भगवान शिव (मल्लिकार्जुन के रूप में) और देवी पार्वती (भ्रामराम्बिका देवी के रूप में)।
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श्री मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर का अत्यधिक प्राचीन और गौरवशाली इतिहास है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और साथ ही देवी पार्वती के अठारह महाशक्तिपीठों में से भी एक है (जहाँ माना जाता है कि देवी सती की गर्दन या ऊर्ध्व ओष्ठ गिरा था)। इसका अस्तित्व सातवाहन राजवंश के काल (लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी) से भी पहले का माना जाता है। कालांतर में इक्ष्वाकु, पल्लव, चालुक्य, काकतीय और विशेष रूप से विजयनगर साम्राज्य के शासकों ने इसके विकास और विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था और यहाँ एक गोपुरम का निर्माण करवाया था।
यह भारत का संभवतः एकमात्र ऐसा पवित्र स्थल है जहाँ एक ही मंदिर परिसर में भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग (मल्लिकार्जुन) और माता पार्वती का महाशक्तिपीठ (भ्रामराम्बिका देवी) दोनों एक साथ विराजमान हैं। यह शिव और शक्ति की अभिन्नता और संयुक्त उपासना का सर्वोच्च प्रतीक है।
इस मंदिर को 'दक्षिण का कैलाश' भी कहा जाता है, जो इसकी पवित्रता और महत्व को दर्शाता है, मानो यह दक्षिण भारत में भगवान शिव का मुख्य निवास स्थान हो।
ऐसी दृढ़ मान्यता है कि सावन मास और विशेष रूप से महाशिवरात्रि के पर्व पर जो भी भक्त सच्चे मन से यहाँ दर्शन और पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएं भगवान मल्लिकार्जुन और देवी भ्रामराम्बिका की कृपा से पूर्ण होती हैं।
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एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव और पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय और गणेश के विवाह के लिए एक प्रतियोगिता रखी कि जो पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटेगा, उसका विवाह पहले होगा। भगवान गणेश ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए अपने माता-पिता (शिव-पार्वती) की ही परिक्रमा कर ली, क्योंकि शास्त्रानुसार माता-पिता की परिक्रमा संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा के तुल्य है। इस प्रकार गणेश का विवाह पहले हो गया। जब कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे और यह ज्ञात हुआ, तो वे रुष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। शिव और पार्वती उन्हें मनाने के लिए क्रौंच पर्वत पर पहुँचे। जिस स्थान पर शिव 'अर्जुन' वृक्ष (मल्लिका का अर्थ चमेली भी होता है) के नीचे ज्योति रूप में और पार्वती 'मल्लिका पुष्प' के साथ प्रकट हुईं, वही स्थान 'मल्लिकार्जुन' ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
शक्तिपीठ के रूप में, देवी पार्वती यहाँ भ्रामराम्बिका (भ्रमर अर्थात मधुमक्खी) के रूप में पूजित हैं। कथा है कि देवी ने अरुणासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए असंख्य मधुमक्खियों का रूप धारण किया था।
श्रीशैलम का यह मंदिर शैव और शाक्त दोनों संप्रदायों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ है। यह न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है बल्कि अपनी प्राचीन वास्तुकला, मूर्तिकला और ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण भी विशेष महत्व रखता है। आदि शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध 'शिवानन्द लहरी' स्तोत्र की रचना यहीं की थी।
यह तथ्य कि यह स्थल ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ दोनों है, इसे भारत के अन्य सभी तीर्थों से विशिष्ट बनाता है, किंतु इस दोहरी दिव्यता की गहराई से अनेक लोग अनभिज्ञ हो सकते हैं।
मंदिर परिसर में कई प्राचीन शिलालेख, मंडप और जल स्रोत हैं, जिनका अपना ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। 'साक्षी गणपति' मंदिर भी यहीं पास में है, जहाँ मान्यता है कि भगवान गणेश भक्तों की श्रीशैलम यात्रा के साक्षी बनते हैं।
स्कंद पुराण जैसे अनेक पौराणिक ग्रंथों में श्रीशैलम और मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का विस्तृत वर्णन मिलता है। विभिन्न राजवंशों द्वारा समय-समय पर कराए गए निर्माण और जीर्णोद्धार के पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। लाखों भक्तों की निरंतर आस्था और यहाँ मनाए जाने वाले प्रमुख पर्व (जैसे महाशिवरात्रि) इसकी जीवंत परंपरा को प्रमाणित करते हैं।
श्रीशैलम, नल्लमला पहाड़ियाँ, कृष्णा जिला, आंध्र प्रदेश। यह कृष्णा नदी के तट पर स्थित है।
भगवान शिव (मल्लिकार्जुन के रूप में) और देवी पार्वती (भ्रामराम्बिका देवी के रूप में)।
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श्री मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर का अत्यधिक प्राचीन और गौरवशाली इतिहास है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और साथ ही देवी पार्वती के अठारह महाशक्तिपीठों में से भी एक है (जहाँ माना जाता है कि देवी सती की गर्दन या ऊर्ध्व ओष्ठ गिरा था)। इसका अस्तित्व सातवाहन राजवंश के काल (लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी) से भी पहले का माना जाता है। कालांतर में इक्ष्वाकु, पल्लव, चालुक्य, काकतीय और विशेष रूप से विजयनगर साम्राज्य के शासकों ने इसके विकास और विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था और यहाँ एक गोपुरम का निर्माण करवाया था।
यह भारत का संभवतः एकमात्र ऐसा पवित्र स्थल है जहाँ एक ही मंदिर परिसर में भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग (मल्लिकार्जुन) और माता पार्वती का महाशक्तिपीठ (भ्रामराम्बिका देवी) दोनों एक साथ विराजमान हैं। यह शिव और शक्ति की अभिन्नता और संयुक्त उपासना का सर्वोच्च प्रतीक है।
इस मंदिर को 'दक्षिण का कैलाश' भी कहा जाता है, जो इसकी पवित्रता और महत्व को दर्शाता है, मानो यह दक्षिण भारत में भगवान शिव का मुख्य निवास स्थान हो।
ऐसी दृढ़ मान्यता है कि सावन मास और विशेष रूप से महाशिवरात्रि के पर्व पर जो भी भक्त सच्चे मन से यहाँ दर्शन और पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएं भगवान मल्लिकार्जुन और देवी भ्रामराम्बिका की कृपा से पूर्ण होती हैं।
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एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव और पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय और गणेश के विवाह के लिए एक प्रतियोगिता रखी कि जो पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटेगा, उसका विवाह पहले होगा। भगवान गणेश ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए अपने माता-पिता (शिव-पार्वती) की ही परिक्रमा कर ली, क्योंकि शास्त्रानुसार माता-पिता की परिक्रमा संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा के तुल्य है। इस प्रकार गणेश का विवाह पहले हो गया। जब कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे और यह ज्ञात हुआ, तो वे रुष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। शिव और पार्वती उन्हें मनाने के लिए क्रौंच पर्वत पर पहुँचे। जिस स्थान पर शिव 'अर्जुन' वृक्ष (मल्लिका का अर्थ चमेली भी होता है) के नीचे ज्योति रूप में और पार्वती 'मल्लिका पुष्प' के साथ प्रकट हुईं, वही स्थान 'मल्लिकार्जुन' ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
शक्तिपीठ के रूप में, देवी पार्वती यहाँ भ्रामराम्बिका (भ्रमर अर्थात मधुमक्खी) के रूप में पूजित हैं। कथा है कि देवी ने अरुणासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए असंख्य मधुमक्खियों का रूप धारण किया था।
श्रीशैलम का यह मंदिर शैव और शाक्त दोनों संप्रदायों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ है। यह न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है बल्कि अपनी प्राचीन वास्तुकला, मूर्तिकला और ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण भी विशेष महत्व रखता है। आदि शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध 'शिवानन्द लहरी' स्तोत्र की रचना यहीं की थी।
यह तथ्य कि यह स्थल ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ दोनों है, इसे भारत के अन्य सभी तीर्थों से विशिष्ट बनाता है, किंतु इस दोहरी दिव्यता की गहराई से अनेक लोग अनभिज्ञ हो सकते हैं।
मंदिर परिसर में कई प्राचीन शिलालेख, मंडप और जल स्रोत हैं, जिनका अपना ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। 'साक्षी गणपति' मंदिर भी यहीं पास में है, जहाँ मान्यता है कि भगवान गणेश भक्तों की श्रीशैलम यात्रा के साक्षी बनते हैं।
स्कंद पुराण जैसे अनेक पौराणिक ग्रंथों में श्रीशैलम और मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का विस्तृत वर्णन मिलता है। विभिन्न राजवंशों द्वारा समय-समय पर कराए गए निर्माण और जीर्णोद्धार के पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। लाखों भक्तों की निरंतर आस्था और यहाँ मनाए जाने वाले प्रमुख पर्व (जैसे महाशिवरात्रि) इसकी जीवंत परंपरा को प्रमाणित करते हैं।