भुवनेश्वर, ओडिशा।
भगवान शिव (हरिहर के रूप में – शिव और विष्णु का संयुक्त स्वरूप) और स्वयंभू शिवलिंग।
लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर के सबसे प्राचीन और विशालतम मंदिरों में से एक है। यद्यपि इसका वर्तमान स्वरूप मुख्यतः 11वीं शताब्दी का है, तथापि इसके कुछ हिस्से 7वीं शताब्दी के भी माने जाते हैं, जब इसका निर्माण संभवतः राजा जाजति केशरी द्वारा आरंभ किया गया था। यह मंदिर कलिंग वास्तुकला शैली का एक उत्कृष्ट और भव्य उदाहरण है, जिसमें ऊँचे शिखर (देउल), जगमोहन (सभा मंडप), नाट्यमंडप और भोगमंडप शामिल हैं। मंदिर परिसर अत्यंत विशाल है और इसमें लगभग 108 अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी स्थित हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की महिमा से युक्त, भागवत पुराण का प्रथम स्कंध – ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा रचित।
मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मुख्य शिवलिंग को 'स्वयंभू' माना जाता है, अर्थात् यह प्राकृतिक रूप से स्वयं प्रकट हुआ था, इसे किसी मानव द्वारा निर्मित या स्थापित नहीं किया गया। यह इसकी दिव्यता और प्राचीनता का एक प्रमुख प्रमाण है।
कुछ स्थानीय मान्यताओं और किंवदंतियों के अनुसार, यह स्वयंभू शिवलिंग दिन के विभिन्न पहरों में सूक्ष्म रूप से अपना आकार बदलता है। हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, यह भक्तों की गहरी आस्था का विषय है।
मंदिर के भीतर एक पवित्र जलधारा निरंतर बहती रहती है, जिसका संबंध पास में स्थित 'बिंदु सरोवर' नामक एक विशाल पवित्र तालाब से बताया जाता है। इस जलधारा का वास्तविक स्रोत और यह कहाँ विलीन होती है, यह आज भी एक अनसुलझा रहस्य है। भक्त इसे भगवान शिव के आशीर्वाद का प्रतीक मानते हैं।
Beautiful resin idol of Lord Adiyogi with Rudraksha mala — ideal for cars, gifting, puja, or decor.
लिंगराज मंदिर की सबसे विशिष्ट पहचान यहाँ भगवान शिव की 'हरिहर' के रूप में उपासना है। हरिहर स्वरूप भगवान शिव और भगवान विष्णु का एकीकृत रूप है, जो शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच समन्वय और एकात्मता का प्रतीक है। ओडिशा के अन्य मंदिरों में इस स्वरूप की पूजा इतनी प्रमुखता से नहीं की जाती, जो लिंगराज मंदिर को अद्वितीय बनाता है।
मंदिर का मुख्य शिखर लगभग 180 फीट ऊँचा है, और इस पर प्रतिदिन एक नई ध्वजा फहराई जाती है। यह कार्य अत्यंत कठिन और जोखिम भरा होता है, परंतु यह परंपरा सदियों से बिना किसी रुकावट के निरंतर चली आ रही है। इसे भगवान के प्रति नित्य सेवा का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है।
यहाँ का शिवलिंग सामान्य गोल या अंडाकार न होकर चौकोर (या किंचित आयताकार) है, जिसकी चौड़ाई लगभग 8 फीट और ऊँचाई लगभग 1 फीट बताई जाती है। यह भी इसकी एक अल्पज्ञात विशिष्टता है।
लिंगराज मंदिर ओडिशा की धार्मिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत का एक गौरवशाली प्रतीक है। यह न केवल भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है, बल्कि शैव धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी है। हरिहर के रूप में पूजा यहाँ की धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न उपासना पद्धतियों के सामंजस्यपूर्ण समन्वय को दर्शाती है।
Elegant Shiva murti in meditation posture – ideal for puja, gifts, or peaceful home décor.
'हरिहर' स्वरूप की उपासना का गूढ़ तात्विक अर्थ और चौकोर शिवलिंग का रहस्य आम जनता के लिए प्रायः अल्पज्ञात रहता है।
मंदिर परिसर में केवल हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति है।
बिंदु सरोवर, जिसके जल को पवित्र माना जाता है, के बारे में कहा जाता है कि इसमें भारत की सभी पवित्र नदियों का जल समाहित है।
मंदिर की प्राचीन कलिंग वास्तुकला, ऐतिहासिक अभिलेखों में इसका वर्णन, सदियों से चली आ रही पूजा-पद्धतियां और उत्सव (जैसे शिवरात्रि पर विशेष आयोजन) इसकी प्रामाणिकता और जीवंत परंपरा के प्रमाण हैं।
भुवनेश्वर, ओडिशा।
भगवान शिव (हरिहर के रूप में – शिव और विष्णु का संयुक्त स्वरूप) और स्वयंभू शिवलिंग।
लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर के सबसे प्राचीन और विशालतम मंदिरों में से एक है। यद्यपि इसका वर्तमान स्वरूप मुख्यतः 11वीं शताब्दी का है, तथापि इसके कुछ हिस्से 7वीं शताब्दी के भी माने जाते हैं, जब इसका निर्माण संभवतः राजा जाजति केशरी द्वारा आरंभ किया गया था। यह मंदिर कलिंग वास्तुकला शैली का एक उत्कृष्ट और भव्य उदाहरण है, जिसमें ऊँचे शिखर (देउल), जगमोहन (सभा मंडप), नाट्यमंडप और भोगमंडप शामिल हैं। मंदिर परिसर अत्यंत विशाल है और इसमें लगभग 108 अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी स्थित हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की महिमा से युक्त, भागवत पुराण का प्रथम स्कंध – ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा रचित।
मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मुख्य शिवलिंग को 'स्वयंभू' माना जाता है, अर्थात् यह प्राकृतिक रूप से स्वयं प्रकट हुआ था, इसे किसी मानव द्वारा निर्मित या स्थापित नहीं किया गया। यह इसकी दिव्यता और प्राचीनता का एक प्रमुख प्रमाण है।
कुछ स्थानीय मान्यताओं और किंवदंतियों के अनुसार, यह स्वयंभू शिवलिंग दिन के विभिन्न पहरों में सूक्ष्म रूप से अपना आकार बदलता है। हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, यह भक्तों की गहरी आस्था का विषय है।
मंदिर के भीतर एक पवित्र जलधारा निरंतर बहती रहती है, जिसका संबंध पास में स्थित 'बिंदु सरोवर' नामक एक विशाल पवित्र तालाब से बताया जाता है। इस जलधारा का वास्तविक स्रोत और यह कहाँ विलीन होती है, यह आज भी एक अनसुलझा रहस्य है। भक्त इसे भगवान शिव के आशीर्वाद का प्रतीक मानते हैं।
Beautiful resin idol of Lord Adiyogi with Rudraksha mala — ideal for cars, gifting, puja, or decor.
लिंगराज मंदिर की सबसे विशिष्ट पहचान यहाँ भगवान शिव की 'हरिहर' के रूप में उपासना है। हरिहर स्वरूप भगवान शिव और भगवान विष्णु का एकीकृत रूप है, जो शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच समन्वय और एकात्मता का प्रतीक है। ओडिशा के अन्य मंदिरों में इस स्वरूप की पूजा इतनी प्रमुखता से नहीं की जाती, जो लिंगराज मंदिर को अद्वितीय बनाता है।
मंदिर का मुख्य शिखर लगभग 180 फीट ऊँचा है, और इस पर प्रतिदिन एक नई ध्वजा फहराई जाती है। यह कार्य अत्यंत कठिन और जोखिम भरा होता है, परंतु यह परंपरा सदियों से बिना किसी रुकावट के निरंतर चली आ रही है। इसे भगवान के प्रति नित्य सेवा का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है।
यहाँ का शिवलिंग सामान्य गोल या अंडाकार न होकर चौकोर (या किंचित आयताकार) है, जिसकी चौड़ाई लगभग 8 फीट और ऊँचाई लगभग 1 फीट बताई जाती है। यह भी इसकी एक अल्पज्ञात विशिष्टता है।
लिंगराज मंदिर ओडिशा की धार्मिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत का एक गौरवशाली प्रतीक है। यह न केवल भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है, बल्कि शैव धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी है। हरिहर के रूप में पूजा यहाँ की धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न उपासना पद्धतियों के सामंजस्यपूर्ण समन्वय को दर्शाती है।
Elegant Shiva murti in meditation posture – ideal for puja, gifts, or peaceful home décor.
'हरिहर' स्वरूप की उपासना का गूढ़ तात्विक अर्थ और चौकोर शिवलिंग का रहस्य आम जनता के लिए प्रायः अल्पज्ञात रहता है।
मंदिर परिसर में केवल हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति है।
बिंदु सरोवर, जिसके जल को पवित्र माना जाता है, के बारे में कहा जाता है कि इसमें भारत की सभी पवित्र नदियों का जल समाहित है।
मंदिर की प्राचीन कलिंग वास्तुकला, ऐतिहासिक अभिलेखों में इसका वर्णन, सदियों से चली आ रही पूजा-पद्धतियां और उत्सव (जैसे शिवरात्रि पर विशेष आयोजन) इसकी प्रामाणिकता और जीवंत परंपरा के प्रमाण हैं।