भुवनेश्वर, ओडिशा। यह मंदिर बिंदु सरोवर के तट पर स्थित है।
देवी चामुंडा (मां काली का एक उग्र स्वरूप, कपालिनी के रूप में भी जानी जाती हैं)।
इस मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में भौम-कर राजवंश की रानी त्रिभुवन महादेवी द्वारा करवाया गया माना जाता है। यह मंदिर कलिंग वास्तुकला की 'खाखरा' शैली का एक उत्कृष्ट और प्राचीन उदाहरण है। खाखरा शैली की विशेषता इसकी अर्द्ध-बेलनाकार छत होती है, जो दक्षिण भारत के गोपुरमों से कुछ समानता रखती है और यह शैली विशेष रूप से तांत्रिक पूजा से जुड़े मंदिरों में पाई जाती थी।
वेताल देउल को प्राचीन काल से ही तांत्रिक साधनाओं और कपालिकों (जो मानव खोपड़ियों के साथ उपासना करते थे) का एक प्रमुख केंद्र माना जाता रहा है। मंदिर का वातावरण और इसकी मूर्तियां इस गूढ़ संबंध को दर्शाती हैं।
गर्भगृह में देवी चामुंडा की एक अत्यंत प्रभावशाली और किंचित भयानक मूर्ति विराजमान है। देवी एक शव पर बैठी हैं, उनके गले में खोपड़ियों की माला है, और वे विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं, जिनमें त्रिशूल, तलवार, धनुष और खप्पर (खोपड़ी का प्याला) शामिल हैं। उनकी जिह्वा बाहर निकली हुई है और नेत्र क्रुद्ध मुद्रा में हैं। यह स्वरूप देवी की संहारक शक्ति और तामसिक गुणों पर विजय का प्रतीक है।
'वेताल' शब्द का अर्थ 'आत्मा' या 'प्रेत' होता है, जो मंदिर के तांत्रिक और श्मशान साधनाओं से जुड़े होने की ओर संकेत करता है। इसे 'तिनि-मुंडिया मंदिर' (तीन सिरों वाला मंदिर) भी कहा जाता है, जिसका कारण इसके शिखर पर बनी तीन मीनारें हैं। स्थानीय मान्यता के अनुसार, ये तीन शिखर मां सरस्वती, मां लक्ष्मी और मां काली की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो सामूहिक रूप से देवी चामुंडा में निहित हैं।
माना जाता है कि इस मंदिर में आज भी गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान और पूजाएं होती हैं, जिनकी जानकारी केवल दीक्षित साधकों तक ही सीमित है। गर्भगृह का मंद प्रकाश और रहस्यमयी वातावरण इस गूढ़ता को और बढ़ाता है।
गर्भगृह की भीतरी दीवारों में बने 15 आलों में विभिन्न रहस्यमयी और अजीबोगरीब आकृतियाँ उकेरी गई हैं, जिनका सटीक अर्थ और उद्देश्य शोध का विषय है।
यह मंदिर ओडिशा में शाक्त तंत्रवाद के प्रारंभिक विकास और उसके स्वरूप को समझने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक है। यह न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि कलिंग वास्तुकला की खाखरा शैली का एक दुर्लभ जीवंत उदाहरण भी है, जो इसे कला और स्थापत्य के विद्यार्थियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बनाता है।
आम जनता के बीच, भुवनेश्वर के लिंगराज या पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तुलना में वेताल देउल और इसकी विशिष्ट तांत्रिक परंपराएं अपेक्षाकृत कम ज्ञात हैं।
देवी चामुंडा का इतना उग्र और कपालिकों से स्पष्ट रूप से जुड़ा स्वरूप इसे भारत के अन्य देवी मंदिरों से काफी अलग और रहस्यमयी बनाता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर चार मुख वाला एक लिंग भी स्थापित है, जो शैव और शाक्त परंपराओं के समन्वय को दर्शाता है।
भुवनेश्वर, ओडिशा। यह मंदिर बिंदु सरोवर के तट पर स्थित है।
देवी चामुंडा (मां काली का एक उग्र स्वरूप, कपालिनी के रूप में भी जानी जाती हैं)।
इस मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में भौम-कर राजवंश की रानी त्रिभुवन महादेवी द्वारा करवाया गया माना जाता है। यह मंदिर कलिंग वास्तुकला की 'खाखरा' शैली का एक उत्कृष्ट और प्राचीन उदाहरण है। खाखरा शैली की विशेषता इसकी अर्द्ध-बेलनाकार छत होती है, जो दक्षिण भारत के गोपुरमों से कुछ समानता रखती है और यह शैली विशेष रूप से तांत्रिक पूजा से जुड़े मंदिरों में पाई जाती थी।
वेताल देउल को प्राचीन काल से ही तांत्रिक साधनाओं और कपालिकों (जो मानव खोपड़ियों के साथ उपासना करते थे) का एक प्रमुख केंद्र माना जाता रहा है। मंदिर का वातावरण और इसकी मूर्तियां इस गूढ़ संबंध को दर्शाती हैं।
गर्भगृह में देवी चामुंडा की एक अत्यंत प्रभावशाली और किंचित भयानक मूर्ति विराजमान है। देवी एक शव पर बैठी हैं, उनके गले में खोपड़ियों की माला है, और वे विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं, जिनमें त्रिशूल, तलवार, धनुष और खप्पर (खोपड़ी का प्याला) शामिल हैं। उनकी जिह्वा बाहर निकली हुई है और नेत्र क्रुद्ध मुद्रा में हैं। यह स्वरूप देवी की संहारक शक्ति और तामसिक गुणों पर विजय का प्रतीक है।
'वेताल' शब्द का अर्थ 'आत्मा' या 'प्रेत' होता है, जो मंदिर के तांत्रिक और श्मशान साधनाओं से जुड़े होने की ओर संकेत करता है। इसे 'तिनि-मुंडिया मंदिर' (तीन सिरों वाला मंदिर) भी कहा जाता है, जिसका कारण इसके शिखर पर बनी तीन मीनारें हैं। स्थानीय मान्यता के अनुसार, ये तीन शिखर मां सरस्वती, मां लक्ष्मी और मां काली की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो सामूहिक रूप से देवी चामुंडा में निहित हैं।
माना जाता है कि इस मंदिर में आज भी गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान और पूजाएं होती हैं, जिनकी जानकारी केवल दीक्षित साधकों तक ही सीमित है। गर्भगृह का मंद प्रकाश और रहस्यमयी वातावरण इस गूढ़ता को और बढ़ाता है।
गर्भगृह की भीतरी दीवारों में बने 15 आलों में विभिन्न रहस्यमयी और अजीबोगरीब आकृतियाँ उकेरी गई हैं, जिनका सटीक अर्थ और उद्देश्य शोध का विषय है।
यह मंदिर ओडिशा में शाक्त तंत्रवाद के प्रारंभिक विकास और उसके स्वरूप को समझने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक है। यह न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि कलिंग वास्तुकला की खाखरा शैली का एक दुर्लभ जीवंत उदाहरण भी है, जो इसे कला और स्थापत्य के विद्यार्थियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बनाता है।
आम जनता के बीच, भुवनेश्वर के लिंगराज या पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तुलना में वेताल देउल और इसकी विशिष्ट तांत्रिक परंपराएं अपेक्षाकृत कम ज्ञात हैं।
देवी चामुंडा का इतना उग्र और कपालिकों से स्पष्ट रूप से जुड़ा स्वरूप इसे भारत के अन्य देवी मंदिरों से काफी अलग और रहस्यमयी बनाता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर चार मुख वाला एक लिंग भी स्थापित है, जो शैव और शाक्त परंपराओं के समन्वय को दर्शाता है।