विलोहित का अर्थ है “अत्यंत लाल रंग वाला” (लोहित=लाल, वि-लोहित=विशेष लाल)। भगवान शिव के इस रुद्रावतार को अग्नि के समान लाल वर्ण प्राप्त है। कुछ ग्रंथों में नीललोहित नाम भी मिलता है – जिसका संदर्भ शिव के गले में हलाहल विष से नीलवर्ण और शरीर में अग्नितेज से लालवर्ण की ओर है। विलोहित रुद्र अग्नि तत्त्व के अधिष्ठाता माने जाते हैं और अग्नि की एक ज्वाला का नाम भी “विलोहित” है।
शिवपुराण की कथा के अनुसार देवताओं की सहायता हेतु प्रकट हुए एकादश रुद्रों में विलोहित भी एक थे। इनका आविर्भाव भी सुरभि के पुत्र के रूप में उसी समय हुआ। अन्य पुराणों में कहीं-कहीं इन्हें पृथक रूप से अग्नि से जन्मा देव भी बताया गया है (क्योंकि अग्नि की जिह्वा को विलोहित कहते हैं)। परंतु प्रचलित मत में विलोहित, शिव के रौद्र अवतारों में ही गिने जाते हैं।
विलोहित रुद्र अग्नि और तेज के प्रतीक हैं। वे संहारक अग्नि के साथ-साथ पावक (शुद्धिकरण करने वाली अग्नि) का भी प्रतिनिधित्व करते है। पूजा-अनुष्ठानों में अग्नि को साक्षी मानकर जो होम किए जाते हैं, उनमें विलोहित रुद्र की आराधना निहित रहती है। अग्नि की भांति यह रुद्र रूप बुराई को जलाकर भस्म करता है और शुद्धता एवं प्रकाश प्रदान करता है। विलोहित रुद्र का ध्यान करने से साधक के भीतर की नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भस्म हो जाती हैं, ऐसी आध्यात्मिक मान्यता है।
देवासुर संग्राम में विलोहित रुद्र ने अपने शक्तिशाली आग्नेय अस्त्रों से असुरों को जलाकर राख कर दिया था। कहा जाता है कि जब रुद्रों की सेना असुरों पर टूट पड़ी, तो स्वयं विलोहित के शरीर से अग्निबाण निकलकर शत्रुओं को भस्म करने लगे। किसी असुर द्वारा सृष्टि में अंधकार फैलाने पर विलोहित रुद्र ने अपनी ज्वाला से प्रकाश फैला दिया – इस प्रकार अंधकार का नाश किया। उन्होंने यज्ञों की रक्षा हेतु भी असुरों को रोका, क्योंकि असुर यज्ञ में विघ्न डालना चाहते थे।
विलोहित नाम से यद्यपि कोई विख्यात अलग मंदिर नहीं है, पर शिव के लाल रूप की पूजा कई स्थानों पर होती है। असम में ब्रह्मपुत्र नदी की एक धारा का नाम लोहित है, जिसे शिव के लाल रूप से जोड़ा जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार अरुणाचल प्रदेश (“अरुण”=लाल) में पहाड़ियों पर आदिदेव शिव विलोहित रूप में तप करते हैं – इसलिए उस प्रदेश का नाम अरुणाचल पड़ा। ये सभी लोकमान्यताएँ शिव के विलोहित स्वरूप के प्रभाव को दर्शाती हैं। शिवालयों में होने वाली आरती की ज्वाला भी विलोहित रुद्र का स्मरण कराती है।
विलोहित रुद्र को पौराणिक मान्यता में अग्निलोक (अग्नि मंडल) का अधिपति कहा जा सकता है। अर्थात वे देवताओं की सभाओं में अग्नि के माध्यम से उपस्थित रहते हैं। प्राचीन मान्यता है कि जब भी कोई यज्ञ होता है, विलोहित रुद्र अग्निदेव के रूप में वहाँ प्रकट रहते हैं और हवि ग्रहण करते हैं। अतः वर्तमान में भी वे हर पवित्र अग्नि में वास करते हैं – चाहे वह यज्ञ की अग्नि हो या आत्मज्ञान की।
पौराणिक मान्यताओं में शास्ता को भगवान शिव और भगवान विष्णु (मोहिनी रूप) के पुत्र के रूप में जाना जाता है। दक्षिण भारत में शास्ता नामक देवता पूजे जाते हैं, जिन्हें भगवान अय्यप्पन या धर्मशास्ता के नाम से जाना जाता है। वास्तव में शास्ता शब्द का अर्थ है “शिक्षक या अधिपति” – अर्थात वह देव जो संसार का नियंत्रण और शिक्षा देते हैं। शिव के रुद्रावतारों में शास्ता रुद्र को कई ग्रंथों में हरिहर-पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। यही कारण है कि केरल के सुप्रसिद्ध अयप्पा मंदिर सबरीमला में स्थापित देव को श्री धर्मशास्ता कहा जाता है।
शास्ता नाम इस बात को दर्शाता है कि यह रुद्र रूप सभी ज्ञात-अज्ञात तत्वों के स्वामी और नियंता हैं। शिव का यह रूप समस्त भौतिक और आध्यात्मिक विद्या के अधिपति के तौर पर जाना जाता है। चूंकि अय्यप्पा को भी शास्ता कहते हैं, इसलिए लोकमानस में शास्ता रुद्र और स्वामी अय्यप्पन एक ही माने जाते हैं।
शिवपुराण में शास्ता को शिव के अवतार रूप में तो दर्शाया ही गया है, साथ ही भगवतमहापुराण में यह कथा भी मिलती है कि भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार और शिव के संगम से एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ जिसका नाम शास्ता पड़ा। यह बालक पृथ्वी पर महान धर्मपालक देव के रूप में स्थापित हुआ। दक्षिण भारतीय कथाओं में यही बालक राजकुमार मणिकंठन (अयप्पा) के रूप में पहचाना जाता है, जिन्होंने महिषासुर की बहन महिषी का वध कर देवताओं को मुक्त कराया था। इस दृष्टि से शास्ता रुद्र का अवतार उद्देश्य भी देव रक्षा और धर्म स्थापन था।
शास्ता रुद्र न्याय और धर्म के संरक्षक माने जाते हैं। इनकी उपासना से भक्तों में धर्मपालन की शक्ति और बुद्धि का विकास होता है। अय्यप्पा स्वामी ब्रह्मचर्य, त्याग और न्याय के प्रतीक हैं – ये सारे गुण शास्ता रुद्र का ही प्रतिरूप हैं। शास्ता को लोकदेवता के रूप में भी पूजा जाता है जो ग्राम्य समुदायों की रक्षा करते हैं। तमिलनाडु में अय्यनार/सास्ता नाम से ग्राम देवता प्रतिष्ठित हैं जो गांव की सीमा की रक्षा करते हैं। अतः शास्ता रुद्र जनसामान्य के संरक्षक देव के रूप में विशेष महत्व रखते हैं।
शास्ता रुद्र (अय्यप्पा) की प्रसिद्ध कथा महिषी राक्षसी के वध से जुड़ी है। देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर वध के बाद उसकी बहन महिषी ने घोर तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान पाया और तीनों लोकों में आतंक मचाया। तब हरिहरात्मज शास्ता (भगवान अय्यप्पन) ने उसे पराजित कर अंततः उसका वध किया और शांति स्थापित की। इस अभियान में भगवान शास्ता ने मानव रूप में राजकुमार बनकर पंचतत्वों का संतुलन सीखा और अंत में देवत्व को प्राप्त हुए। अपने जीवनकाल में उन्होंने प्रभु श्रीराम के पुत्र लव-कुश को शिक्षा भी दी – ऐसे कुछ लोकगीत प्रचलित हैं।
सबरीमला श्री धर्मशास्ता मंदिर (केरल) शास्ता रुद्र को समर्पित सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यह विश्व के सबसे बड़े वार्षिक तीर्थों में से एक है, जहाँ प्रति वर्ष अनुमानतः 1 से 1.5 करोड़ भक्त दर्शन के लिए आते हैं। केरल में पाँच प्राचीन शास्ता मंदिरों का समूह माना जाता है – कुलथुपुझा, अचंकॉविल, आर्यंकावु, सबरीमला आदि। इसके अतिरिक्त तमिलनाडु में गाँव-गाँव में अय्यनार (शास्ता) के मंदिर मिलते हैं जिनमें उन्हें घोड़े पर आरूढ़ ग्रामदेवता के रूप में दिखाया जाता है। नेपाल में काठमांडू घाटी में स्थित श्वेत भैरव को भी कुछ विद्वान शास्ता का रूप मानते हैं। कुल मिलाकर भारत के दक्षिणी हिस्से में शास्ता/धर्मशास्ता की पूजा का विशेष प्रचलन है।
भक्तों की धारणा है कि शास्ता रुद्र कलियुग में भी अदृश्य रूप में संसार की रक्षा कर रहे हैं। विशेषकर सबरीमला में श्रद्धालु मानते हैं कि हर वर्ष मकर संक्रांति पर भगवान अयप्पा स्वयं ज्योति के रूप में प्रकट होते हैं। धर्मशास्ता को प्रत्यक्ष देव माना जाता है – यानी वे वर्तमान में भक्तों के बीच ही विराजमान हैं, बशर्ते भक्त श्रद्धा की दृष्टि रखें। शास्ता रुद्र का वास मानव हृदय में धर्म, न्याय और सत्पथ के रूप में निरंतर बना रहता है।
विलोहित का अर्थ है “अत्यंत लाल रंग वाला” (लोहित=लाल, वि-लोहित=विशेष लाल)। भगवान शिव के इस रुद्रावतार को अग्नि के समान लाल वर्ण प्राप्त है। कुछ ग्रंथों में नीललोहित नाम भी मिलता है – जिसका संदर्भ शिव के गले में हलाहल विष से नीलवर्ण और शरीर में अग्नितेज से लालवर्ण की ओर है। विलोहित रुद्र अग्नि तत्त्व के अधिष्ठाता माने जाते हैं और अग्नि की एक ज्वाला का नाम भी “विलोहित” है।
शिवपुराण की कथा के अनुसार देवताओं की सहायता हेतु प्रकट हुए एकादश रुद्रों में विलोहित भी एक थे। इनका आविर्भाव भी सुरभि के पुत्र के रूप में उसी समय हुआ। अन्य पुराणों में कहीं-कहीं इन्हें पृथक रूप से अग्नि से जन्मा देव भी बताया गया है (क्योंकि अग्नि की जिह्वा को विलोहित कहते हैं)। परंतु प्रचलित मत में विलोहित, शिव के रौद्र अवतारों में ही गिने जाते हैं।
विलोहित रुद्र अग्नि और तेज के प्रतीक हैं। वे संहारक अग्नि के साथ-साथ पावक (शुद्धिकरण करने वाली अग्नि) का भी प्रतिनिधित्व करते है। पूजा-अनुष्ठानों में अग्नि को साक्षी मानकर जो होम किए जाते हैं, उनमें विलोहित रुद्र की आराधना निहित रहती है। अग्नि की भांति यह रुद्र रूप बुराई को जलाकर भस्म करता है और शुद्धता एवं प्रकाश प्रदान करता है। विलोहित रुद्र का ध्यान करने से साधक के भीतर की नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भस्म हो जाती हैं, ऐसी आध्यात्मिक मान्यता है।
देवासुर संग्राम में विलोहित रुद्र ने अपने शक्तिशाली आग्नेय अस्त्रों से असुरों को जलाकर राख कर दिया था। कहा जाता है कि जब रुद्रों की सेना असुरों पर टूट पड़ी, तो स्वयं विलोहित के शरीर से अग्निबाण निकलकर शत्रुओं को भस्म करने लगे। किसी असुर द्वारा सृष्टि में अंधकार फैलाने पर विलोहित रुद्र ने अपनी ज्वाला से प्रकाश फैला दिया – इस प्रकार अंधकार का नाश किया। उन्होंने यज्ञों की रक्षा हेतु भी असुरों को रोका, क्योंकि असुर यज्ञ में विघ्न डालना चाहते थे।
विलोहित नाम से यद्यपि कोई विख्यात अलग मंदिर नहीं है, पर शिव के लाल रूप की पूजा कई स्थानों पर होती है। असम में ब्रह्मपुत्र नदी की एक धारा का नाम लोहित है, जिसे शिव के लाल रूप से जोड़ा जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार अरुणाचल प्रदेश (“अरुण”=लाल) में पहाड़ियों पर आदिदेव शिव विलोहित रूप में तप करते हैं – इसलिए उस प्रदेश का नाम अरुणाचल पड़ा। ये सभी लोकमान्यताएँ शिव के विलोहित स्वरूप के प्रभाव को दर्शाती हैं। शिवालयों में होने वाली आरती की ज्वाला भी विलोहित रुद्र का स्मरण कराती है।
विलोहित रुद्र को पौराणिक मान्यता में अग्निलोक (अग्नि मंडल) का अधिपति कहा जा सकता है। अर्थात वे देवताओं की सभाओं में अग्नि के माध्यम से उपस्थित रहते हैं। प्राचीन मान्यता है कि जब भी कोई यज्ञ होता है, विलोहित रुद्र अग्निदेव के रूप में वहाँ प्रकट रहते हैं और हवि ग्रहण करते हैं। अतः वर्तमान में भी वे हर पवित्र अग्नि में वास करते हैं – चाहे वह यज्ञ की अग्नि हो या आत्मज्ञान की।
पौराणिक मान्यताओं में शास्ता को भगवान शिव और भगवान विष्णु (मोहिनी रूप) के पुत्र के रूप में जाना जाता है। दक्षिण भारत में शास्ता नामक देवता पूजे जाते हैं, जिन्हें भगवान अय्यप्पन या धर्मशास्ता के नाम से जाना जाता है। वास्तव में शास्ता शब्द का अर्थ है “शिक्षक या अधिपति” – अर्थात वह देव जो संसार का नियंत्रण और शिक्षा देते हैं। शिव के रुद्रावतारों में शास्ता रुद्र को कई ग्रंथों में हरिहर-पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। यही कारण है कि केरल के सुप्रसिद्ध अयप्पा मंदिर सबरीमला में स्थापित देव को श्री धर्मशास्ता कहा जाता है।
शास्ता नाम इस बात को दर्शाता है कि यह रुद्र रूप सभी ज्ञात-अज्ञात तत्वों के स्वामी और नियंता हैं। शिव का यह रूप समस्त भौतिक और आध्यात्मिक विद्या के अधिपति के तौर पर जाना जाता है। चूंकि अय्यप्पा को भी शास्ता कहते हैं, इसलिए लोकमानस में शास्ता रुद्र और स्वामी अय्यप्पन एक ही माने जाते हैं।
शिवपुराण में शास्ता को शिव के अवतार रूप में तो दर्शाया ही गया है, साथ ही भगवतमहापुराण में यह कथा भी मिलती है कि भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार और शिव के संगम से एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ जिसका नाम शास्ता पड़ा। यह बालक पृथ्वी पर महान धर्मपालक देव के रूप में स्थापित हुआ। दक्षिण भारतीय कथाओं में यही बालक राजकुमार मणिकंठन (अयप्पा) के रूप में पहचाना जाता है, जिन्होंने महिषासुर की बहन महिषी का वध कर देवताओं को मुक्त कराया था। इस दृष्टि से शास्ता रुद्र का अवतार उद्देश्य भी देव रक्षा और धर्म स्थापन था।
शास्ता रुद्र न्याय और धर्म के संरक्षक माने जाते हैं। इनकी उपासना से भक्तों में धर्मपालन की शक्ति और बुद्धि का विकास होता है। अय्यप्पा स्वामी ब्रह्मचर्य, त्याग और न्याय के प्रतीक हैं – ये सारे गुण शास्ता रुद्र का ही प्रतिरूप हैं। शास्ता को लोकदेवता के रूप में भी पूजा जाता है जो ग्राम्य समुदायों की रक्षा करते हैं। तमिलनाडु में अय्यनार/सास्ता नाम से ग्राम देवता प्रतिष्ठित हैं जो गांव की सीमा की रक्षा करते हैं। अतः शास्ता रुद्र जनसामान्य के संरक्षक देव के रूप में विशेष महत्व रखते हैं।
शास्ता रुद्र (अय्यप्पा) की प्रसिद्ध कथा महिषी राक्षसी के वध से जुड़ी है। देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर वध के बाद उसकी बहन महिषी ने घोर तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान पाया और तीनों लोकों में आतंक मचाया। तब हरिहरात्मज शास्ता (भगवान अय्यप्पन) ने उसे पराजित कर अंततः उसका वध किया और शांति स्थापित की। इस अभियान में भगवान शास्ता ने मानव रूप में राजकुमार बनकर पंचतत्वों का संतुलन सीखा और अंत में देवत्व को प्राप्त हुए। अपने जीवनकाल में उन्होंने प्रभु श्रीराम के पुत्र लव-कुश को शिक्षा भी दी – ऐसे कुछ लोकगीत प्रचलित हैं।
सबरीमला श्री धर्मशास्ता मंदिर (केरल) शास्ता रुद्र को समर्पित सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यह विश्व के सबसे बड़े वार्षिक तीर्थों में से एक है, जहाँ प्रति वर्ष अनुमानतः 1 से 1.5 करोड़ भक्त दर्शन के लिए आते हैं। केरल में पाँच प्राचीन शास्ता मंदिरों का समूह माना जाता है – कुलथुपुझा, अचंकॉविल, आर्यंकावु, सबरीमला आदि। इसके अतिरिक्त तमिलनाडु में गाँव-गाँव में अय्यनार (शास्ता) के मंदिर मिलते हैं जिनमें उन्हें घोड़े पर आरूढ़ ग्रामदेवता के रूप में दिखाया जाता है। नेपाल में काठमांडू घाटी में स्थित श्वेत भैरव को भी कुछ विद्वान शास्ता का रूप मानते हैं। कुल मिलाकर भारत के दक्षिणी हिस्से में शास्ता/धर्मशास्ता की पूजा का विशेष प्रचलन है।
भक्तों की धारणा है कि शास्ता रुद्र कलियुग में भी अदृश्य रूप में संसार की रक्षा कर रहे हैं। विशेषकर सबरीमला में श्रद्धालु मानते हैं कि हर वर्ष मकर संक्रांति पर भगवान अयप्पा स्वयं ज्योति के रूप में प्रकट होते हैं। धर्मशास्ता को प्रत्यक्ष देव माना जाता है – यानी वे वर्तमान में भक्तों के बीच ही विराजमान हैं, बशर्ते भक्त श्रद्धा की दृष्टि रखें। शास्ता रुद्र का वास मानव हृदय में धर्म, न्याय और सत्पथ के रूप में निरंतर बना रहता है।