भीम का अर्थ है “भयानक” या “विशालकाय और बलशाली”। शिव का यह रुद्रावतार परम शक्तिशाली योद्धा के रूप में जाना जाता है। भीम रुद्र को कुछ ग्रंथों में भीमसेन भी कहा गया है, जो उनकी अपार शक्ति और दृढ़ संकल्प का द्योतक है। “भीम” नाम इस बात का संकेत है कि इस रूप में शिव की शक्ति के आगे कोई भी देव, दानव या मानव टिक नहीं सकता।
एकादश रुद्रों में भीम को तीसरे स्थान पर गिना जाता है। शिवपुराण की कथा अनुसार शिव ने देवताओं की मदद के लिए जो 11 रुद्र अवतार लिए, उनमें भीम अपने नाम के अनुरूप सबसे प्रचंड पराक्रम वाले थे। महाभारत में भी भीम नामक रुद्र का उल्लेख है जिसे “विकराल पुरुष” कहा गया है – संभवतः यह शिव के इसी रौद्र रूप का संदर्भ है।
भीम रुद्र शक्ति, पराक्रम और निर्भीकता के प्रतीक हैं। इनकी पूजा उन भक्तों द्वारा विशेष रूप से की जाती है जो शारीरिक एवं मानसिक बल चाहते हैं। यज्ञ में भीम रुद्र होम नामक अनुष्ठान का वर्णन मिलता है, जो साधक को अपरिमित शौर्य एवं आत्मविश्वास प्रदान करने हेतु किया जाता है। भीम रुद्र हमें यह सीख देते हैं कि धर्म की रक्षा हेतु दृढ़ शक्ति का संधान आवश्यक है।
पौराणिक मान्यता है कि त्रिपुरासुर नामक महान असुर का संहार भगवान शिव ने अपने भीम रूप में किया था। शिव ने उग्र रुद्रावतार लेकर त्रिपुर नामक तीनों राक्षस नगरों का विनाश किया। कहा जाता है कि इस भीषण युद्ध के बाद भगवान शिव ने सह्याद्रि (पश्चिमी घाट) के पर्वतों में विश्राम किया और उनके शरीर से निकले स्वेदबिंदु से भीमा नदी प्रकट हुई! महाराष्ट्र के पुणे जिले में स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग उसी स्थान पर स्थापित है जहाँ शिव ने भीम रुद्र रूप में प्रकट होकर त्रिपुरासुर का अंत किया था। इस प्रकार भीम रुद्र का कार्य धर्म की स्थापना हेतु अधर्म का संहार था।
भीमाशंकर मंदिर (पुणे, महाराष्ट्र) बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक अत्यंत पावन स्थल है। मान्यता है कि यहाँ स्वयं शिव ने रुद्र रूप धर त्रिपुरासुर का वध किया और ज्योतिर्लिंग रूप में स्थापित हुए। इसके अलावा उत्तर भारत में कुछ स्थानों पर भी भीमेश्वर महादेव के मंदिर मिलते हैं। नेपाल के काठमांडू स्थित भीमेश्वर मंदिर में भी शिवलिंग की पूजा होती है। किंतु भीमाशंकर को ही प्रामाणिक रूप से भीम रुद्र का प्रतिष्ठान माना गया है।
भीम रुद्र को वीरभद्र के समान शिव के गणों का सेनापति भी माना जाता है । मान्यता अनुसार ये रुद्रावतार देवी-देवताओं की सेना का नेत्रत्व करते हुए दिव्य लोक (स्वर्ग) में वास करते हैं। साथ ही, भीम रुद्र की शक्ति शिव के अनन्य भक्तों में संचारित होकर उनकी रक्षा करती है – ऐसी भक्तों की आस्था है।
विरुपाक्ष का अर्थ है “विकराल नेत्रों वाला” अथवा “तीन नेत्रों वाला”। विरूप शब्द विकृत/भिन्न रूप को दर्शाता है और अक्ष मतलब नेत्र – अर्थात वह देव जिसके त्रिनेत्र हैं। वास्तव में भगवान शिव को ही त्रिनेत्रधारी होने के कारण विरुपाक्ष कहा जाता है। अतः एकादश रुद्रों में विरुपाक्ष शिव उसी स्वरूप के प्रतीक हैं जहां शिव का तीसरा नेत्र प्रकट होता है। तीसरे नेत्र से ज्वाला निकालकर कामदेव को भस्म करने की कथा प्रसिद्ध है – शिव का यही उग्र रूप विरुपाक्ष रुद्र कहलाता है।
शिवपुराण अनुसार ग्यारह रुद्रावतारों में विरुपाक्ष चौथे क्रम पर अवतरित हुए। इनका जन्म भी अन्य रुद्रों की तरह कश्यप व सुरभि द्वारा ही हुआ। कुछ शैव आगम ग्रंथों में विरुपाक्ष को शिव का सातवाँ नाम बताया गया है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि जब भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण किया तब उसके शांत होने पर शिव ने विराट रूप धारण कर प्रताप दिखाया – उस प्रसंग में शिव को विरूपाक्ष कहा गया।
विरुपाक्ष रुद्र ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं, क्योंकि शिव का तीसरा नेत्र ज्ञान चक्षु माना जाता है। यह रूप दर्शाता है कि शिव त्रिकालदर्शी हैं – भूत, भविष्य, वर्तमान सब समय के ज्ञाता। दक्षिण भारत के कई प्राचीन मंदिरों में शिव की त्रिनेत्र रूपी मूर्तियाँ विरुपाक्ष नाम से स्थापित हैं। भक्तों का विश्वास है कि विरुपाक्ष की आराधना से आध्यात्मिक दृष्टि (इनसाइट) प्राप्त होती है और अज्ञानता का अंधकार दूर होता है।
युद्ध में विरुपाक्ष रुद्र ने अपने त्रिनेत्र से प्रचंड ज्वालाएँ उत्पन्न कर असुरी सेना का नाश किया। यह भी माना जाता है कि शिव के इस रूप ने देवताओं को वरदान में दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि वे मायावी असुरों के छल को भेद सकें। विरुपाक्ष की शक्ति से ही भगवान इंद्र ने असुरों पर विजयी पताका फैराई। शिवपुराण में वर्णित रुद्रों के पराक्रम में विरुपाक्ष का योगदान उल्लेखनीय था।
कर्नाटक राज्य के हम्पी नगर में स्थित प्राचीन विरुपाक्ष मंदिर विरुपाक्ष रुद्र को समर्पित सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यह मंदिर 7वीं शताब्दी से सक्रिय है और विश्व विरासत स्थल के रूप में ख्यातिप्राप्त है। यहाँ शिव लिंग विरुपाक्ष (पम्पापति) नाम से स्थापित है और हर वर्ष फरवरी में भव्य रथोत्सव मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त पट्टड़कल (कर्नाटक) में भी 8वीं सदी का विरुपाक्ष मंदिर है, जिसे रानी लोकमहादेवी ने बनवाया था। इन मंदिरों में शिव के त्रिनेत्रधारी रूप की आराधना होती है।
धार्मिक मान्यता अनुसार विरुपाक्ष रुद्र दिव्य नेत्र होने के कारण स्वर्ग के लोकपालों में गिने जाते हैं। इंद्र के दरबार में विरुपाक्ष की गणना मुख्य सहयोगियों में होती है। स्वर्ग लोक में रहकर वे त्रिलोक में होने वाली घटनाओं पर दृष्टि रखते हैं, ऐसा कहा जाता है। उनका तीसरा नेत्र समय आने पर प्रलय की अग्नि भी बरसा सकता है।
भीम का अर्थ है “भयानक” या “विशालकाय और बलशाली”। शिव का यह रुद्रावतार परम शक्तिशाली योद्धा के रूप में जाना जाता है। भीम रुद्र को कुछ ग्रंथों में भीमसेन भी कहा गया है, जो उनकी अपार शक्ति और दृढ़ संकल्प का द्योतक है। “भीम” नाम इस बात का संकेत है कि इस रूप में शिव की शक्ति के आगे कोई भी देव, दानव या मानव टिक नहीं सकता।
एकादश रुद्रों में भीम को तीसरे स्थान पर गिना जाता है। शिवपुराण की कथा अनुसार शिव ने देवताओं की मदद के लिए जो 11 रुद्र अवतार लिए, उनमें भीम अपने नाम के अनुरूप सबसे प्रचंड पराक्रम वाले थे। महाभारत में भी भीम नामक रुद्र का उल्लेख है जिसे “विकराल पुरुष” कहा गया है – संभवतः यह शिव के इसी रौद्र रूप का संदर्भ है।
भीम रुद्र शक्ति, पराक्रम और निर्भीकता के प्रतीक हैं। इनकी पूजा उन भक्तों द्वारा विशेष रूप से की जाती है जो शारीरिक एवं मानसिक बल चाहते हैं। यज्ञ में भीम रुद्र होम नामक अनुष्ठान का वर्णन मिलता है, जो साधक को अपरिमित शौर्य एवं आत्मविश्वास प्रदान करने हेतु किया जाता है। भीम रुद्र हमें यह सीख देते हैं कि धर्म की रक्षा हेतु दृढ़ शक्ति का संधान आवश्यक है।
पौराणिक मान्यता है कि त्रिपुरासुर नामक महान असुर का संहार भगवान शिव ने अपने भीम रूप में किया था। शिव ने उग्र रुद्रावतार लेकर त्रिपुर नामक तीनों राक्षस नगरों का विनाश किया। कहा जाता है कि इस भीषण युद्ध के बाद भगवान शिव ने सह्याद्रि (पश्चिमी घाट) के पर्वतों में विश्राम किया और उनके शरीर से निकले स्वेदबिंदु से भीमा नदी प्रकट हुई! महाराष्ट्र के पुणे जिले में स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग उसी स्थान पर स्थापित है जहाँ शिव ने भीम रुद्र रूप में प्रकट होकर त्रिपुरासुर का अंत किया था। इस प्रकार भीम रुद्र का कार्य धर्म की स्थापना हेतु अधर्म का संहार था।
भीमाशंकर मंदिर (पुणे, महाराष्ट्र) बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक अत्यंत पावन स्थल है। मान्यता है कि यहाँ स्वयं शिव ने रुद्र रूप धर त्रिपुरासुर का वध किया और ज्योतिर्लिंग रूप में स्थापित हुए। इसके अलावा उत्तर भारत में कुछ स्थानों पर भी भीमेश्वर महादेव के मंदिर मिलते हैं। नेपाल के काठमांडू स्थित भीमेश्वर मंदिर में भी शिवलिंग की पूजा होती है। किंतु भीमाशंकर को ही प्रामाणिक रूप से भीम रुद्र का प्रतिष्ठान माना गया है।
भीम रुद्र को वीरभद्र के समान शिव के गणों का सेनापति भी माना जाता है । मान्यता अनुसार ये रुद्रावतार देवी-देवताओं की सेना का नेत्रत्व करते हुए दिव्य लोक (स्वर्ग) में वास करते हैं। साथ ही, भीम रुद्र की शक्ति शिव के अनन्य भक्तों में संचारित होकर उनकी रक्षा करती है – ऐसी भक्तों की आस्था है।
विरुपाक्ष का अर्थ है “विकराल नेत्रों वाला” अथवा “तीन नेत्रों वाला”। विरूप शब्द विकृत/भिन्न रूप को दर्शाता है और अक्ष मतलब नेत्र – अर्थात वह देव जिसके त्रिनेत्र हैं। वास्तव में भगवान शिव को ही त्रिनेत्रधारी होने के कारण विरुपाक्ष कहा जाता है। अतः एकादश रुद्रों में विरुपाक्ष शिव उसी स्वरूप के प्रतीक हैं जहां शिव का तीसरा नेत्र प्रकट होता है। तीसरे नेत्र से ज्वाला निकालकर कामदेव को भस्म करने की कथा प्रसिद्ध है – शिव का यही उग्र रूप विरुपाक्ष रुद्र कहलाता है।
शिवपुराण अनुसार ग्यारह रुद्रावतारों में विरुपाक्ष चौथे क्रम पर अवतरित हुए। इनका जन्म भी अन्य रुद्रों की तरह कश्यप व सुरभि द्वारा ही हुआ। कुछ शैव आगम ग्रंथों में विरुपाक्ष को शिव का सातवाँ नाम बताया गया है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि जब भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण किया तब उसके शांत होने पर शिव ने विराट रूप धारण कर प्रताप दिखाया – उस प्रसंग में शिव को विरूपाक्ष कहा गया।
विरुपाक्ष रुद्र ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं, क्योंकि शिव का तीसरा नेत्र ज्ञान चक्षु माना जाता है। यह रूप दर्शाता है कि शिव त्रिकालदर्शी हैं – भूत, भविष्य, वर्तमान सब समय के ज्ञाता। दक्षिण भारत के कई प्राचीन मंदिरों में शिव की त्रिनेत्र रूपी मूर्तियाँ विरुपाक्ष नाम से स्थापित हैं। भक्तों का विश्वास है कि विरुपाक्ष की आराधना से आध्यात्मिक दृष्टि (इनसाइट) प्राप्त होती है और अज्ञानता का अंधकार दूर होता है।
युद्ध में विरुपाक्ष रुद्र ने अपने त्रिनेत्र से प्रचंड ज्वालाएँ उत्पन्न कर असुरी सेना का नाश किया। यह भी माना जाता है कि शिव के इस रूप ने देवताओं को वरदान में दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि वे मायावी असुरों के छल को भेद सकें। विरुपाक्ष की शक्ति से ही भगवान इंद्र ने असुरों पर विजयी पताका फैराई। शिवपुराण में वर्णित रुद्रों के पराक्रम में विरुपाक्ष का योगदान उल्लेखनीय था।
कर्नाटक राज्य के हम्पी नगर में स्थित प्राचीन विरुपाक्ष मंदिर विरुपाक्ष रुद्र को समर्पित सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यह मंदिर 7वीं शताब्दी से सक्रिय है और विश्व विरासत स्थल के रूप में ख्यातिप्राप्त है। यहाँ शिव लिंग विरुपाक्ष (पम्पापति) नाम से स्थापित है और हर वर्ष फरवरी में भव्य रथोत्सव मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त पट्टड़कल (कर्नाटक) में भी 8वीं सदी का विरुपाक्ष मंदिर है, जिसे रानी लोकमहादेवी ने बनवाया था। इन मंदिरों में शिव के त्रिनेत्रधारी रूप की आराधना होती है।
धार्मिक मान्यता अनुसार विरुपाक्ष रुद्र दिव्य नेत्र होने के कारण स्वर्ग के लोकपालों में गिने जाते हैं। इंद्र के दरबार में विरुपाक्ष की गणना मुख्य सहयोगियों में होती है। स्वर्ग लोक में रहकर वे त्रिलोक में होने वाली घटनाओं पर दृष्टि रखते हैं, ऐसा कहा जाता है। उनका तीसरा नेत्र समय आने पर प्रलय की अग्नि भी बरसा सकता है।