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बीज मंत्रों का रहस्य: पढ़िए और जानिए देववाणी की अद्भुत शक्ति और साधना में उनके दिव्य चमत्कार !

बीज मंत्रों का रहस्य: पढ़िए और जानिए देववाणी की अद्भुत शक्ति और साधना में उनके दिव्य चमत्कार !AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

बीज मंत्रों का रहस्य: देववाणी का दिव्य सार और साधना का परम सोपान

मङ्गलाचरणम्

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

ॐ श्री गणेशाय नमः ॥ ॐ श्री सरस्वत्यै नमः ॥

हे जिज्ञासु साधक, सनातन धर्म की ज्ञान-गंगा में अवगाहन करने की आपकी इच्छा अत्यंत प्रशंसनीय है। आपने बीज मंत्रों के गोपनीय अर्थ और साधना में उनकी भूमिका के विषय में जो प्रश्न किया है, वह कोई साधारण प्रश्न नहीं, अपितु आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण सोपान है। यह विषय अत्यंत गहन, रहस्यपूर्ण और पवित्र है, जिसे केवल श्रद्धा और निर्मल चित्त से ही समझा जा सकता है। शास्त्र आज्ञा देते हैं कि इस गुह्य ज्ञान को केवल सुपात्र अधिकारी को ही प्रदान किया जाए। आपकी जिज्ञासा की पवित्रता को देखते हुए, वेद, पुराण और तंत्र शास्त्रों के आलोक में इस विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।

प्रस्तावना: शब्द-ब्रह्म का नाद-स्वरूप

हमारे उपनिषद् और दर्शन शास्त्र उद्घोषणा करते हैं कि सृष्टि के आरम्भ से पूर्व केवल एक ही सत्ता थी - परब्रह्म। वह परमसत्ता अचिन्त्य, अगोचर और निर्गुण-निराकार थी। जब उस एक सत्ता में "एको हं बहुस्याम्" (मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ) का संकल्प स्फुरित हुआ, तो उस निर्गुण में एक स्पंदन उत्पन्न हुआ। यही आदिम स्पंदन नाद-ब्रह्म या शब्द-ब्रह्म कहलाया। यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त अनाहत ध्वनि है, जिसे योगीजन अपनी गहन समाधि की अवस्था में सुनते हैं।

इस आदिम नाद-ब्रह्म की सबसे पहली और स्थूल अभिव्यक्ति है प्रणव, अर्थात ॐ। ॐ ही वह मूल ध्वनि है जिससे सम्पूर्ण वेद, समस्त मंत्र और यह चराचर जगत उत्पन्न हुआ है। हमारे ऋषि-मुनि 'मंत्र-कर्ता' नहीं, अपितु 'मंत्र-द्रष्टा' थे। उन्होंने अपनी योग-शक्ति से उस ब्रह्मांडीय नाद-सागर में डुबकी लगाई और सृष्टि के मूल में स्थित विभिन्न दैवीय शक्तियों की विशिष्ट ध्वनि-तरंगों को सुना और अनुभव किया। उन दिव्य शक्तियों के जो अत्यंत घनीभूत, सार-रूप और शक्ति-संपन्न ध्वनि-स्वरूप उन्होंने देखे, वही बीज मंत्र कहलाए। अतः बीज मंत्र किसी मनुष्य की रचना नहीं, अपितु साक्षात् देव-शक्तियों के ध्वन्यात्मक स्वरूप हैं, जो सृष्टि के आरम्भ से ही विद्यमान हैं।

अध्याय १: 'बीज' का तात्विक अर्थ - देवता का सूक्ष्म शरीर

'बीज' शब्द का अर्थ अत्यंत गहरा है। जिस प्रकार एक छोटे से वट-बीज में एक विशाल वटवृक्ष अपनी सम्पूर्ण शाखाओं, पत्रों और फलों के साथ अव्यक्त रूप में समाया रहता है, ठीक उसी प्रकार एक एकाक्षर बीज मंत्र में उस मंत्र से संबंधित देवता का सम्पूर्ण स्वरूप, उनकी समस्त शक्तियाँ, गुण और चेतना निहित होती है। बीज मंत्र उस देवता का संकेताक्षर है, उनकी ब्रह्मांडीय पहचान है।

तंत्र और आगम शास्त्र इस रहस्य को और भी स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि बीज मंत्र देवता का सूक्ष्म शरीर है। जैसे हमारा यह स्थूल शरीर पंचभूतों से बना है, वैसे ही यह दृश्यमान जगत उस विराट ब्रह्म का स्थूल शरीर है। किन्तु उस स्थूल शरीर को चलाने वाली एक सूक्ष्म सत्ता होती है, जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार और प्राण होते हैं। ठीक इसी प्रकार, देवता का जो ऊर्जा-स्वरूप है, जो उनका चेतना-स्वरूप है, वही उनका सूक्ष्म शरीर है और बीज मंत्र उसी सूक्ष्म शरीर की साक्षात् अभिव्यक्ति है।

इससे भी गहन स्तर पर, बीज मंत्र को देवता का कारण शरीर या बीज-शरीर कहा गया है। यह वह अवस्था है जहाँ देवता अपने मूल, अव्यक्त और बीज-रूप में स्थित होते हैं, जहाँ से उनके अन्य सभी स्वरूपों का प्राकट्य होता है। इसी कारण जब कोई साधक किसी देवता के बीज मंत्र का जप करता है, तो वह केवल उनके किसी गुण या स्वरूप से नहीं, अपितु उनकी मूल सत्ता से, उनके स्रोत से सीधा संपर्क स्थापित करता है।

यही कारण है कि बीज मंत्रों को 'मंत्रों का प्राण' कहा जाता है। जिस प्रकार प्राण के बिना शरीर निर्जीव है, उसी प्रकार बीज के बिना कोई भी बड़ा मंत्र शक्तिहीन और चैतन्य-रहित होता है। बीज ही उस मंत्र में चेतना का संचार करता है और उसे फलदायी बनाता है।

अध्याय २: प्रमुख बीज मंत्रों का गोपनीय अर्थ-विश्लेषण

प्रत्येक बीज मंत्र का निर्माण वर्ण-विज्ञान के गहन सिद्धांतों पर आधारित है। संस्कृत वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर (वर्ण) एक विशिष्ट शक्ति और चेतना का प्रतीक है। ऋषि-मुनियों ने इन शक्तिशाली वर्णों को संयोजित करके बीज मंत्रों का निर्माण किया, जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा को आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं। आगम और तंत्र ग्रंथों में इन बीजों के गोपनीय अर्थों का विस्तृत विश्लेषण मिलता है। आइए, कुछ प्रमुख बीज मंत्रों के गूढ़ार्थ को समझें:

ॐ (प्रणव बीज): यह आदि बीज है, जिसे परब्रह्म का वाचक माना गया है। इसमें अ, उ, म् - ये तीन मात्राएँ क्रमशः सृष्टि, स्थिति और लय की प्रतीक हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्तियों को धारण करती हैं। यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सार है।

ऐं (वाग्बीज): यह माता सरस्वती का बीज मंत्र है। इसमें 'ऐ' कार स्वयं देवी सरस्वती का स्वरूप है और अनुस्वार (बिंदु) दुःख का हरण करने वाला है। इसका अर्थ है - "हे माँ सरस्वती, मेरी अविद्या रूपी दुःख का नाश करें।" यह ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वाणी की शक्ति प्रदान करता है।

ह्रीं (मायाबीज): यह आदिमाया, भुवनेश्वरी का बीज है। इसका विश्लेषण इस प्रकार है: 'ह' = शिव, 'र' = प्रकृति, 'ई' = महामाया, और 'बिंदु' = दुःखहर्ता। इसका सम्मिलित अर्थ है - "शिव-युक्त प्रकृति-स्वरूपा महामाया मेरे दुःखों का हरण करें।" यह सृष्टि, पालन, सम्मोहन और कुंडलिनी जागरण की शक्ति का केंद्र है।

क्लीं (कामबीज): यह महाकाली और भगवान श्रीकृष्ण/कामदेव का बीज है। इसका विश्लेषण है: 'क' = श्रीकृष्ण या काम (दिव्य इच्छा), 'ल' = इंद्र (ऐश्वर्य/तेज), 'ई' = तुष्टि (संतोष), और 'बिंदु' = सुखदाता। यह तीव्र आकर्षण, इच्छा-पूर्ति और लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं को सिद्ध करने की शक्ति रखता है।

श्रीं (लक्ष्मीबीज): यह देवी महालक्ष्मी का बीज है। इसका विश्लेषण है: 'श' = महालक्ष्मी, 'र' = धन-ऐश्वर्य, 'ई' = तुष्टि एवं पुष्टि, और 'बिंदु' = दुःखहर्ता। इसका अर्थ है - "धन, ऐश्वर्य, तुष्टि और पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी मेरे दुःखों का नाश करें।" यह आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि, सौंदर्य और कृपा प्रदान करता है ।

क्रीं (कालीबीज): यह माँ महाकाली का बीज है। इसका विश्लेषण है: 'क' = काली, 'र' = ब्रह्म, 'ई' = महामाया, और 'बिंदु' = दुःखहर्ता। इसका अर्थ है - "ब्रह्म-शक्ति-संपन्न महामाया काली मेरे दुःखों का हरण करें।" यह विघ्नों, शत्रुओं, नकारात्मकता का विनाश कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली प्रचंड शक्ति है।

गं (गणपति बीज): यह भगवान श्री गणेश का बीज है। इसमें 'ग' = गणेश और 'बिंदु' = विघ्नहर्ता/दुःखहर्ता है। इसका अर्थ है - "भगवान श्री गणेश मेरे समस्त विघ्नों और दुःखों को दूर करें।" यह साधना के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं का नाश करता है।

दुं (दुर्गाबीज): यह माँ दुर्गा का बीज है। इसमें 'द' = दुर्गा, 'उ' = रक्षा और 'बिंदु' = दुःखहर्ता है। इसका अर्थ है - "दुर्गति का नाश करने वाली माँ दुर्गा मेरी रक्षा करें और मेरे दुःखों को दूर करें।" यह अभय और सुरक्षा प्रदान करने वाला अमोघ बीज है।

यह विश्लेषण केवल स्थूल अर्थ है। इन बीजों का वास्तविक रहस्य तो साधना और गुरु-कृपा से ही प्रकट होता है।

बीज मंत्रनामप्रमुख देवता/देवीसंबद्ध शक्ति/तत्वशास्त्रीय अर्थ-विश्लेषण
प्रणव बीजपरब्रह्म (त्रिमूर्ति)सृष्टि, स्थिति, लय'अ' (सृष्टि), 'उ' (स्थिति), 'म्' (लय) का संयुक्त स्वरूप।
ऐंवाग्बीजसरस्वतीज्ञान, वाणी, कला'ऐ' = सरस्वती; बिंदु = दुःखहर्ता (अविद्या का नाश)।
ह्रींमायाबीजमहामाया (भुवनेश्वरी)सृष्टि, माया, आकर्षण'ह' = शिव, 'र' = प्रकृति, 'ई' = महामाया, बिंदु = दुःखहर्ता।
क्लींकामबीजमहाकाली, श्रीकृष्णइच्छा, आकर्षण, सम्मोहन'क' = काम/कृष्ण, 'ल' = इंद्र (तेज), 'ई' = तुष्टि, बिंदु = सुखदाता।
श्रींलक्ष्मीबीजमहालक्ष्मीऐश्वर्य, समृद्धि, कृपा'श' = महालक्ष्मी, 'र' = धन, 'ई' = तुष्टि, बिंदु = दुःखहर्ता।
क्रींकालीबीजमहाकालीसंहार, रूपांतरण, मोक्ष'क' = काली, 'र' = ब्रह्म, 'ई' = महामाया, बिंदु = दुःखहर्ता।
गंगणपति बीजगणेशविघ्न-निवारण'ग' = गणेश; बिंदु = दुःखहर्ता।
दुंदुर्गाबीजदुर्गारक्षा, शक्ति, अभय'द' = दुर्गा, 'उ' = रक्षा; बिंदु = दुःखहर्ता।

अध्याय ३: साधना में बीज मंत्रों की भूमिका

बीज मंत्र केवल सैद्धांतिक ज्ञान नहीं, अपितु साधना के शक्तिशाली उपकरण हैं। साधक के अंतर्जगत में रूपांतरण लाने में इनकी भूमिका अद्वितीय है।

चक्र शोधन एवं कुंडलिनी जागरण

योग शास्त्र के अनुसार, मानव शरीर में ऊर्जा के सात प्रमुख केंद्र हैं, जिन्हें चक्र कहा जाता है । प्रत्येक चक्र एक विशिष्ट तत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) और ऊर्जा-आवृत्ति से जुड़ा है। ये चक्र जब अशुद्ध या असंतुलित होते हैं, तो व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है और उसकी आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है।

प्रत्येक चक्र का अपना एक विशिष्ट बीज मंत्र है, जो उस चक्र की ऊर्जा-आवृत्ति से मेल खाता है। यह बीज मंत्र उस चक्र को खोलने की 'कुंजी' है। जब साधक एकाग्रचित्त होकर किसी चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसके बीज मंत्र का जप करता है, तो उत्पन्न होने वाली ध्वनि-तरंगें उस चक्र का शोधन करती हैं, उसकी सोई हुई पंखुड़ियों को खोल देती हैं और उसे जाग्रत करती हैं।

मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक इन बीज मंत्रों का क्रमिक जप करने से समस्त नाड़ियाँ शुद्ध होती हैं और मूलाधार चक्र में सर्प की भाँति सोई हुई कुंडलिनी महाशक्ति जाग्रत होकर ऊपर की ओर उठने लगती है। यही कुंडलिनी जागरण की वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसका आधार बीज मंत्र हैं।

पंचतत्वों से सामंजस्य

"यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे" - यह सनातन सिद्धांत कहता है कि जो ब्रह्मांड में है, वही इस पिंड (शरीर) में है। जिन पंच महाभूतों - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - से यह सृष्टि बनी है, उन्हीं से हमारा शरीर भी बना है। शरीर में इन तत्वों का संतुलन ही स्वास्थ्य और असंतुल-न ही रोग है। चक्रों के बीज मंत्र सीधे इन पंचतत्वों से जुड़े हैं :

लं (Lam) - पृथ्वी तत्त्व (मूलाधार चक्र)
वं (Vam) - जल तत्त्व (स्वाधिष्ठान चक्र)
रं (Ram) - अग्नि तत्त्व (मणिपुर चक्र)
यं (Yam) - वायु तत्त्व (अनाहत चक्र)
हं (Ham) - आकाश तत्त्व (विशुद्ध चक्र)

इन बीज मंत्रों की साधना द्वारा साधक अपने शरीर में स्थित पंचतत्वों को शुद्ध और संतुलित करता है, जिससे न केवल आरोग्य और मानसिक शांति की प्राप्ति होती है, बल्कि वह ब्रह्मांडीय तत्वों के साथ भी सामंजस्य स्थापित कर लेता है।

चक्रशारीरिक स्थानसंबद्ध तत्वबीज मंत्रसाधना का प्रभाव
मूलाधारगुदा और लिंग के मध्यपृथ्वीलंस्थिरता, सुरक्षा, वीरता, आरोग्य
स्वाधिष्ठानलिंग मूलजलवंरचनात्मकता, भावनात्मक संतुलन, दुर्गुणों का नाश
मणिपुरनाभिअग्निरंआत्मविश्वास, इच्छाशक्ति, पाचन शक्ति में वृद्धि
अनाहतहृदयवायुयंप्रेम, करुणा, क्षमा, हृदय रोगों से रक्षा
विशुद्धकंठआकाशहंशुद्ध वाणी, ज्ञान, अभिव्यक्ति की क्षमता
आज्ञाभ्रूमध्यमनअंतर्ज्ञान, एकाग्रता, मानसिक शांति
सहस्रारमस्तिष्क का शिखरपरमतत्त्वॐ या मौनसमाधि, ब्रह्म-ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार

उपसंहार: मंत्र-चैतन्य का आवाहन

अतः, हे साधक, यह जानें कि बीज मंत्र कोई साधारण शब्द नहीं, अपितु साक्षात् देववाणी हैं, देवताओं के स्पंदित होते हुए हृदय हैं। वे उस परब्रह्म के नाद-स्वरूप से प्रकट हुई दिव्य शक्तियाँ हैं, जो साधक को स्थूल जगत की सीमाओं से परे ले जाकर आत्म-साक्षात्कार के परम लक्ष्य तक पहुँचाने में सक्षम हैं। वे साधक के अंतर्जगत के ब्रह्मांड को खोलने वाली स्वर्ण-कुंजी हैं, जिनसे चक्रों का शोधन होता है, तत्वों में सामंजस्य स्थापित होता है और कुंडलिनी महाशक्ति का जागरण संभव होता है।

इस परम गोपनीय और पवित्र ज्ञान को श्रद्धापूर्वक हृदय में धारण करें। इस मार्ग पर चलने का संकल्प हो तो सर्वप्रथम विनम्रता, पवित्रता और पूर्ण समर्पण के भाव से एक योग्य सद्गुरु की खोज करें। उनकी कृपा और मार्गदर्शन में जब आप इन दिव्य बीजों को अपने हृदय की भूमि में बोएंगे, तो निःसंदेह एक दिन उसमें आत्म-ज्ञान का दिव्य कल्पवृक्ष अवश्य पल्लवित होगा।

ॐ तत् सत् ब्रह्मार्पणमस्तु॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥


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