स्वर्ण, रजत, ताम्र और अष्टधातु का रहस्य: जानिए कैसे ये धातुएँ बदलती हैं आपकी पूजा, यंत्र साधना और भाग्य का परिणाम !

मनोरथ सिद्धि हेतु धातुओं का शास्त्रीय एवं अनुष्ठानिक प्रयोग: स्वर्ण, रजत और ताम्र के दिव्य रहस्य
प्रस्तावना: द्रव्य शुद्धि और देव कृपा का संबंध
सनातन धर्म की ज्ञान-गंगा में जब हम अवगाहन करते हैं, तो यह बोध होता है कि इस सृष्टि में कोई भी पदार्थ जड़ अथवा चेतना-रहित नहीं है। प्रत्येक अणु-परमाणु में एक दिव्य स्पंदन है। विशेष रूप से, स्वर्ण, रजत और ताम्र जैसी धातुएं केवल भौतिक पदार्थ नहीं, अपितु दिव्य शक्तियों एवं ग्रहों की ऊर्जाओं की स्थूल अभिव्यक्ति हैं। इनका शास्त्रोक्त एवं अनुष्ठानिक प्रयोग ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने का एक गूढ़ आध्यात्मिक विज्ञान है, जिसके माध्यम से साधक अपने मनोरथों को सिद्ध कर सकता है।
शास्त्रों का यह अकाट्य सिद्धांत है कि 'शुद्धि के बिना सिद्धि संभव नहीं है'। किसी भी साधना अथवा अनुष्ठान की सफलता के लिए सप्त-शुद्धि अनिवार्य बताई गई है— देश शुद्धि (स्थान की पवित्रता), काल शुद्धि (उचित समय), मंत्र शुद्धि (शुद्ध उच्चारण), देह शुद्धि (शारीरिक स्वच्छता), विचार शुद्धि, इंद्रिय शुद्धि और द्रव्य शुद्धि (पदार्थों की पवित्रता) । इनमें 'द्रव्य शुद्धि' का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। अशुद्ध, दोषयुक्त अथवा अनुचित द्रव्य से किया गया अनुष्ठान उसी प्रकार निष्फल हो जाता है, जैसे अपवित्र पात्र में रखा गया गंगाजल।
यह समझना आवश्यक है कि द्रव्य शुद्धि (पदार्थ की पवित्रता) और भाव शुद्धि (आंतरिक निष्ठा) एक-दूसरे से पृथक नहीं, अपितु परस्पर आश्रित हैं। जब कोई साधक ईश्वर की आराधना के लिए स्वर्ण जैसी दिव्य उत्पत्ति वाली धातु का प्रयोग करता है, तो उस धातु का सात्विक स्पंदन स्वतः ही साधक के भावों को उन्नत और निर्मल करता है। इसी प्रकार, जिसके अंतःकरण में शुद्ध भाव और सच्ची श्रद्धा होती है, वह अपनी पूजा के लिए सहज ही शास्त्र-सम्मत और शुद्ध द्रव्यों का ही चयन करता है। इस प्रकार, शुद्ध भाव और शुद्ध द्रव्य का संयोग एक ऐसा पवित्र ऊर्जा क्षेत्र निर्मित करता है, जिसमें दैवीय कृपा का अवतरण अवश्यंभावी हो जाता है 1।
प्रथम अध्याय: धातुओं का दिव्य उद्गम – पौराणिक संदर्भ
प्रत्येक धातु की अपनी एक विशिष्ट ऊर्जा होती है, जिसका मूल उसके दिव्य उद्गम से जुड़ा है। पुराणों में इन धातुओं की उत्पत्ति की कथाएं इनके आध्यात्मिक महत्व को प्रकाशित करती हैं।
स्वर्ण (Gold) – अग्नि एवं सूर्य का तेज
शतपथ ब्राह्मण में वर्णित एक आख्यान के अनुसार, स्वर्ण की उत्पत्ति स्वयं अग्निदेव के वीर्य से हुई है। जब अग्निदेव ने जलों के साथ संयोग किया, तब उनका तेज वीर्यरूप में स्थापित हुआ और वही 'सुवर्ण' कहलाया। यही कारण है कि स्वर्ण अग्नि के समान देदीप्यमान, ओजस्वी और परम शुद्ध है। यह कभी मलिन नहीं होता और प्रचंड अग्नि में भी अपने स्वरूप को नहीं खोता। ज्योतिष शास्त्र में स्वर्ण का संबंध देवगुरु बृहस्पति और ग्रहों के राजा सूर्य से है। यह प्रकाश, अमरत्व, ज्ञान, ऐश्वर्य और दिव्यता का साक्षात प्रतीक है।
रजत (Silver) – महादेव के नेत्र एवं चंद्र देव का अंश
शास्त्रों के अनुसार, रजत अर्थात् चांदी की उत्पत्ति भगवान आशुतोष शिव के नेत्रों से हुई है। महादेव के नेत्रों से उद्भूत होने के कारण यह एक अत्यंत पवित्र, शीतल और सात्विक धातु मानी जाती है। वैदिक ज्योतिष में इसका सीधा संबंध मन के कारक चंद्र देव और सौंदर्य के कारक शुक्र देव से स्थापित किया गया है। जिस प्रकार चंद्रमा अपनी शीतल किरणों से जगत को शांति प्रदान करते हैं, उसी प्रकार चांदी भी धारण करने वाले के मन को शांत, स्थिर और भावनाओं को संतुलित करती है।
ताम्र (Copper) – सूर्य एवं मंगल की ऊर्जा
ताम्र को ज्योतिष में सूर्य और मंगल ग्रह की ऊर्जा से युक्त माना गया है । इसकी शुद्धता और ऊर्जा-संवहन की अद्भुत क्षमता के कारण ही इसे पूजा-पाठ और अनुष्ठानों में विशेष स्थान प्राप्त है । एक पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु के परम भक्त दैत्य गुडाकेश ने जब यह वर मांगा कि उसकी मृत्यु श्रीहरि के सुदर्शन चक्र से हो, तब भगवान ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके शरीर के अंशों को ताम्र धातु में परिवर्तित कर दिया और यह वरदान दिया कि यह धातु उनकी पूजा में सदैव प्रयोग की जाएगी। इसी कारण ताम्र को परम पवित्र माना जाता है।
धातु | पौराणिक उद्गम | संबद्ध ग्रह | आध्यात्मिक फल |
---|---|---|---|
स्वर्ण | अग्निदेव का वीर्य | सूर्य, बृहस्पति | ज्ञान, ऐश्वर्य, दिव्यता, अमरत्व |
रजत | शिवजी के नेत्र | चंद्र, शुक्र | मानसिक शांति, शीतलता, सौंदर्य |
ताम्र | भक्त गुडाकेश का शरीर | सूर्य, मंगल | पवित्रता, ऊर्जा-संवहन, आरोग्य |
द्वितीय अध्याय: यंत्र साधना में धातु – श्रीयंत्र का विधान
यंत्र, जिसका शाब्दिक अर्थ 'उपकरण' या 'मशीन' है, वस्तुतः दिव्य शक्तियों का ज्यामितीय स्वरूप है। यह ब्रह्मांड में व्याप्त ऊर्जा को एक बिंदु पर केंद्रित कर साधक को चेतना के उच्च स्तर से जोड़ने का एक शक्तिशाली आध्यात्मिक माध्यम है।
श्री यंत्र – यंत्रों की रानी
समस्त यंत्रों में 'श्रीयंत्र' को सर्वश्रेष्ठ अर्थात् 'यंत्रराज' की उपाधि प्राप्त है। यह स्वयं आदिशक्ति माँ त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप है और इसे संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति, स्थिति और लय का प्रतीक माना जाता है। श्रीयंत्र की नित्य पूजा और दर्शन मात्र से ही साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसकी कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, अष्टसिद्धि और नवनिधि की प्राप्ति होती है।
धातु भेद से फल भेद
शास्त्र इस बात पर विशेष बल देते हैं कि श्रीयंत्र का निर्माण किस धातु पर किया गया है, इसका उसके फल और प्रभाव की अवधि पर सीधा असर पड़ता है। यह वर्गीकरण केवल धातुओं के भौतिक मूल्य पर आधारित नहीं, अपितु उनकी ऊर्जा धारण करने की क्षमता और आध्यात्मिक पवित्रता पर आधारित है।
स्वर्ण निर्मित श्रीयंत्र: शास्त्रों ने स्वर्ण निर्मित श्रीयंत्र को 'उत्तम' कहा है। इसका फल 'अनंतगुणा' होता है और यह यंत्र 'आजीवन' फलदायी रहता है। स्वर्ण, जो स्वयं अग्निदेव का वीर्य और अक्षय ऊर्जा का प्रतीक है, यंत्र में प्रतिष्ठित मंत्र-चेतना को अनंत काल तक धारण करने और विकीर्ण करने की क्षमता रखता है। यह एक ऐसी दिव्य बैटरी के समान है जो कभी क्षीण नहीं होती।
रजत निर्मित श्रीयंत्र: चांदी से निर्मित श्रीयंत्र को 'मध्यम' माना गया है, जिसका फल 'कोटिगुणा' (करोड़ गुना) कहा गया है। यह 22 वर्षों तक पूर्ण प्रभाव से फल प्रदान करता है। चांदी, जिसकी उत्पत्ति शिव के शीतल नेत्रों से हुई है और जिसका संबंध चंद्र देव से है, दिव्य ऊर्जा को एक बहुत लंबी किन्तु सीमित अवधि तक धारण कर पाती है।
ताम्र निर्मित श्रीयंत्र: ताम्रपत्र पर बने श्रीयंत्र को स्वर्ण और रजत की तुलना में 'अधम' कहा गया है। इसका फल 'सौ गुणा' होता है और यह 12 वर्षों तक प्रभावी रहता है। ताम्र, सूर्य और मंगल की ऊर्जा से युक्त एक उत्कृष्ट ऊर्जा चालक है, किन्तु इसकी ऊर्जा धारण क्षमता स्वर्ण और रजत की तुलना में कम होती है, जिससे इसका प्रभाव शीघ्र क्षीण होता है।
भोजपत्र पर लिखित श्रीयंत्र: भोजपत्र पर निर्मित यंत्र 6 वर्षों तक फलदायी होता है।
यह गहन विवेचन दर्शाता है कि हमारे ऋषियों ने धातुओं को केवल रासायनिक पदार्थ के रूप में नहीं, अपितु विभिन्न क्षमता वाली दिव्य ऊर्जा-धारकों के रूप में समझा था। यंत्र के लिए धातु का चयन एक प्रकार का आध्यात्मिक अभियांत्रिकी है, जो उस यंत्र की शक्ति और प्रभाव की अवधि को सुनिश्चित करता है।
तृतीय अध्याय: देव प्रतिमाओं का रहस्य – अष्टधातु की महिमा
सनातन धर्म में देव प्रतिमाओं को केवल प्रतीक नहीं, अपितु देवता का जीवंत स्वरूप माना जाता है। शिल्प शास्त्रों में प्रतिमा निर्माण के लिए 'अष्टधातु' को सर्वाधिक श्रेष्ठ बताया गया है।
अष्टधातु की संरचना
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, अष्टधातु आठ पवित्र धातुओं का एक शास्त्रोक्त मिश्रण है। इसमें सोना, चांदी, तांबा, सीसा, जस्ता, टिन, लोहा और पारा (रस) का एक विशिष्ट अनुपात में संयोजन किया जाता है।
अष्टधातु का आध्यात्मिक महत्व
अष्टधातु से निर्मित प्रतिमाएं अत्यंत चैतन्य और शक्तिशाली मानी जाती हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्येक धातु ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी न किसी ग्रह की ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है। जब इन आठ धातुओं को एक साथ पिघलाकर प्रतिमा का निर्माण किया जाता है, तो यह नवग्रहों की संयुक्त ऊर्जा का एक सामंजस्यपूर्ण केंद्र बन जाती है।
ग्रह शांति: अष्टधातु से बनी मूर्ति की पूजा करने से या इसके बने कड़े या अंगूठी को धारण करने से सभी नौ ग्रहों के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों और पीड़ाओं में शांति मिलती है। यह विशेष रूप से राहु और केतु जैसे छाया ग्रहों के अशुभ प्रभावों को दूर करने में अत्यंत प्रभावी मानी गई है।
सकारात्मक ऊर्जा का केंद्र: अष्टधातु की प्रतिमा अपने चारों ओर एक अत्यंत शक्तिशाली सकारात्मक ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण करती है, जो उपासक को सहज ही दैवीय चेतना से जोड़ता है और नकारात्मक शक्तियों से उसकी रक्षा करता है।
शारीरिक एवं मानसिक लाभ: अष्टधातु का मनुष्य के स्वास्थ्य से भी गहरा संबंध है। इसे धारण करने से हृदय को बल मिलता है, मानसिक तनाव दूर होता है, मन में शांति आती है और व्यक्ति की निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि होती है। यह भाग्य का उदय कर व्यापार और जीवन में उन्नति के मार्ग प्रशस्त करती है।
चतुर्थ अध्याय: दान की महिमा – धातु दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति
'परहित सरिस धर्म नहिं भाई।' शास्त्रों में दान को कलियुग का परम धर्म बताया गया है। दान एक ऐसा पुण्य कर्म है, जिसका फल न केवल इस जीवन में, बल्कि मृत्यु के उपरांत परलोक में भी प्राप्त होता है। श्रद्धापूर्वक किया गया दान व्यक्ति को सांसारिक मोह से मुक्त करता है और उसके संचित दोषों का शमन करता है।
गरुड़ पुराण के आलोक में सुवर्ण दान
गरुड़ पुराण में 'अष्ट महादान' का वर्णन है, जिसमें सुवर्ण दान को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है।
पुराण के अनुसार, स्वर्ण दान करने से ब्रह्मा आदि समस्त देवता, ऋषिगण और स्वयं धर्मराज भी संतुष्ट होकर दाता को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण फल यह है कि स्वर्ण का दान देने वाला जीव यमलोक के कष्टों को नहीं भोगता। उसे सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। बहुत काल तक सत्यलोक में निवास करने के उपरांत जब वह पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है, तो वह रूपवान, धार्मिक, श्रीमान और अतुल पराक्रमी राजा होता है 12।
पद्म पुराण के अनुसार रजत दान
पद्म पुराण में विभिन्न वस्तुओं के दान से प्राप्त होने वाले विशिष्ट फलों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी क्रम में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "चांदी दान करने वाले को उत्तम रूप मिलता है"। चांदी का संबंध चंद्र और शुक्र से है, जो सौंदर्य, कांति और आकर्षण के कारक ग्रह हैं। अतः, रजत का दान करने से व्यक्ति के भौतिक स्वरूप में निखार आता है और उसे आकर्षक व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है।
अन्य धातु दान का फल
विभिन्न धातुओं का दान विशिष्ट कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है:
तांबे का दान: यदि कोई व्यक्ति मुकदमों में फंसा हो या ऋण के भार से दबा हो, तो उसे तांबे की वस्तुओं का दान करने से विजय और कर्ज से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
लोहे का दान: नौकरी या व्यवसाय में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए और शनिदेव की कृपा प्राप्ति हेतु लोहे का दान करना शुभ माना गया है।
पंचम अध्याय: ज्योतिषीय उपाय एवं दैनिक पूजा में धातु प्रयोग
धातुओं का प्रयोग केवल बड़े अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं है, अपितु ज्योतिषीय उपायों और हमारी दैनिक पूजा पद्धति में भी इनका महत्वपूर्ण स्थान है।
ग्रह शांति हेतु रत्न एवं धातु
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, प्रत्येक ग्रह की रश्मियों को आकर्षित करने के लिए एक विशिष्ट रत्न होता है। किन्तु उस रत्न का पूर्ण फल तभी प्राप्त होता है, जब उसे उस ग्रह से संबंधित सही धातु में धारण किया जाए। गलत धातु का प्रयोग रत्न के प्रभाव को क्षीण या पूर्णतः विपरीत भी कर सकता है।
माणिक्य (सूर्य): सूर्य के रत्न माणिक्य को स्वर्ण या तांबे की धातु में धारण करना ही सर्वोत्तम फल देता है।
मोती (चंद्र): चंद्र के रत्न मोती को केवल और केवल चांदी में ही धारण करने का विधान है।
मूंगा (मंगल): मंगल के रत्न मूंगा को स्वर्ण, चांदी अथवा तांबे में धारण किया जा सकता है।
पन्ना (बुध): बुध के रत्न पन्ना के लिए स्वर्ण अथवा चांदी शुभ मानी गई है।
नीलम (शनि): शनिदेव के शक्तिशाली रत्न नीलम को पंचधातु, स्टील या लोहे में धारण करना चाहिए।
दैनिक पूजा में धातु का प्रयोग
दैनिक देव-पूजन में हम जिन पात्रों का उपयोग करते हैं, उनकी धातु का भी पूजा के फल पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यहाँ 'ऊर्जा-संगति' का सिद्धांत कार्य करता है, अर्थात् जैसी देवता की ऊर्जा, वैसी ही धातु का प्रयोग होना चाहिए।
ताम्र पात्र की अनिवार्यता: देव-पूजा में तांबे के बर्तनों का प्रयोग सर्वाधिक शुभ और अनिवार्य माना गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि ताम्र एक विशुद्ध धातु है, जिसमें किसी अन्य धातु का मिश्रण नहीं होता। तांबे के पात्र में रखा जल ऊर्जा को ग्रहण कर पवित्र हो जाता है। इसी जल से जब सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है, तो साधक की कुंडली में सूर्य, चंद्र और मंगल की स्थिति मजबूत होती है और घर से नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है।
चांदी के प्रयोग में सावधानी: यद्यपि चांदी भगवान शिव के नेत्रों से उत्पन्न एक परम पवित्र धातु है, तथापि शास्त्रों के अनुसार इसका संबंध पितरों से माना गया है। पितृ-कार्य (श्राद्ध आदि) में चांदी का प्रयोग श्रेष्ठ फल देता है। किन्तु देव-कार्य में इसका प्रयोग सामान्यतः वर्जित है। पितरों की शीतल, चंद्र-प्रधान ऊर्जा, अधिकांश देवताओं की उग्र, सूर्य-प्रधान ऊर्जा से मेल नहीं खाती। इस ऊर्जा-असंगति के कारण देव-पूजा में चांदी के पात्रों का प्रयोग नहीं किया जाता। इसका एकमात्र अपवाद चंद्र देव की पूजा है, जिसमें चांदी का प्रयोग श्रेष्ठकर माना गया है।
यह विवेचन दर्शाता है कि हमारे धर्म में प्रत्येक विधान के पीछे सूक्ष्म ऊर्जा का गहन विज्ञान छिपा है। किस देवता के लिए किस धातु का प्रयोग करना है, यह उनकी ऊर्जा की प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि केवल धातु की पवित्रता या मूल्य पर।
उपसंहार: श्रद्धा एवं भाव ही परम साधन है
इस विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि स्वर्ण, रजत, ताम्र आदि धातुओं का अनुष्ठानिक प्रयोग केवल एक परंपरा नहीं, अपितु एक गहन आध्यात्मिक विज्ञान पर आधारित है। धातुओं की दिव्य उत्पत्ति से लेकर यंत्र निर्माण, प्रतिमा पूजन, दान और ज्योतिषीय उपायों तक, प्रत्येक विधान का एक विशिष्ट उद्देश्य और फल है।
किन्तु, हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी साधन और विधियां तभी फलित होती हैं, जब इनके मूल में भक्त की सच्ची श्रद्धा और निर्मल भाव हो। शास्त्रों में 'भाव शुद्धि' को 'द्रव्य शुद्धि' से भी ऊपर स्थान दिया गया है। बिना श्रद्धा और विश्वास के, स्वर्ण का श्रीयंत्र भी एक साधारण रेखाचित्र के समान है और अष्टधातु की प्रतिमा भी पाषाण-तुल्य है। परमात्मा भाव के भूखे हैं, वैभव के नहीं।
अतः, पूर्ण श्रद्धा, निर्मल मन और अटूट विश्वास के साथ शास्त्र-विधि से किया गया एक छोटा-सा अनुष्ठान भी साधक के समस्त मनोरथों को सिद्ध करने में समर्थ है। ईश्वर हम सभी को ऐसी ही श्रद्धा और विवेक प्रदान करें, जिससे हम इन दिव्य साधनों का यथोचित प्रयोग कर अपना और जगत का कल्याण कर सकें।
।। ॐ तत् सत् ।।