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गुरु कृपा का अमृत: पढ़िए कैसे दीक्षित मंत्र से होता है आत्मा का दिव्य कायाकल्प

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गुरु कृपा का अमृत: दीक्षित मंत्र से कैसे होता है आध्यात्मिक कायाकल्प?

वन्देबोधमयंनित्यंगुरुंशंकररूपिणम्।
यमाश्रितोहिवक्रोऽपिचन्द्रःसर्वत्रवन्द्यते॥

(मैं उन नित्य, ज्ञानमय, शंकररूपी श्रीगुरुदेव की वन्दना करता हूँ, जिनका आश्रय लेने से टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दनीय हो जाता है।)

सनातन धर्म की ज्ञान-गंगा जिस उद्गम से प्रवाहित होती है, वह गुरु-तत्व है। वेद, पुराण, उपनिषद् और समस्त शास्त्र एक स्वर में जिस महिमा का गान करते हैं, वह गुरु-पद की महिमा है। गुरु केवल एक शिक्षक या उपदेशक नहीं, अपितु साक्षात परब्रह्म का साकार स्वरूप हैं, जो शिष्य के जीवन में अज्ञान के घोर अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से मिटाने के लिए अवतरित होते हैं । 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। इस प्रकार, जो अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर दे, वही 'गुरु' है।

यह गुरु-शिष्य परंपरा इतनी पवित्र और अनिवार्य है कि स्वयं लीला-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र को गुरु रूप में वरण किया तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांदीपनि मुनि के आश्रम में रहकर शिष्य धर्म का निर्वाह किया । उन्होंने अपने आचरण से यह सिद्ध कर दिया कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए गुरु की शरण में जाना एक अपरिहार्य विधान है।

अतः, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब कोई साधक किसी सद्गुरु से विधिवत 'दीक्षा' प्राप्त कर मंत्र ग्रहण करता है, तो उसके आध्यात्मिक विकास में ऐसा क्या अंतर आता है जो स्वयं के द्वारा चुने गए मंत्र-जप से संभव नहीं है? आइये, शास्त्रों के प्रकाश में इस गहन रहस्य को समझें।

अध्याय १: दीक्षा का रहस्य – एक आध्यात्मिक पुनर्जन्म

साधारणतया लोग 'शिक्षा' और 'दीक्षा' को एक ही मान लेते हैं, परंतु शास्त्रों में इन दोनों के मध्य आकाश-पाताल का अंतर बताया गया है। शिक्षा का संबंध बुद्धि और सूचना से है, जबकि दीक्षा का संबंध आत्मा और चेतना से है। शिक्षा का अर्थ है 'सिखाना', जबकि दीक्षा का अर्थ है 'दिखाना' या 'प्रदान करना'। शिक्षा सांसारिक ज्ञान देती है, दीक्षा आध्यात्मिक कायाकल्प करती है।

दीयतेविमलंज्ञानंक्षीयतेकर्मवासना।
तस्मात्दीक्षेतिसाप्रोक्‍ताज्ञानिभिःतंत्रवेदिभिः॥

अर्थात, "जिस क्रिया के द्वारा निर्मल ज्ञान प्रदान किया जाता है और कर्म-वासनाओं का क्षय (नाश) होता है, उसी को तंत्र के ज्ञाता 'दीक्षा' कहते हैं"।

दीक्षा एक अत्यंत रहस्यमयी और शक्तिशाली आध्यात्मिक प्रक्रिया है। यह केवल एक कर्मकांड नहीं, अपितु गुरु द्वारा अपनी आध्यात्मिक और प्राणिक ऊर्जा का एक अंश शिष्य के भीतर स्थापित करने की क्रिया है। यह शिष्य का आध्यात्मिक पुनर्जन्म है। जिस प्रकार एक बीज को उपजाऊ भूमि में बोने पर ही वह अंकुरित होता है, उसी प्रकार गुरु अपने सिद्ध मंत्र रूपी बीज को शिष्य के शुद्ध हृदय रूपी भूमि में स्थापित करते हैं । इस बीजारोपण के पश्चात ही शिष्य की वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा का शुभारंभ होता है।

शिक्षा और दीक्षा में शास्त्रीय भेद

विशेषता शिक्षा दीक्षा
अर्थ सिखाना दिखाना, प्रदान करना
माध्यम बुद्धि, तर्क आत्मा, प्राण-शक्ति
लक्ष्य सांसारिक ज्ञान, कौशल आत्म-ज्ञान, मोक्ष
प्रक्रिया सूचना का आदान-प्रदान शक्ति का संचार
परिणाम विद्वता, पदवी चित्त-शुद्धि, कर्म-क्षय

इस सारणी से स्पष्ट है कि दीक्षा एक गहन आध्यात्मिक रूपांतरण की प्रक्रिया है, जो शिक्षा की सीमाओं से कहीं परे है।

अध्याय २: मंत्र-विज्ञान और चैतन्य मंत्र का सामर्थ्य

सनातन परंपरा में शब्द को 'ब्रह्म' माना गया है - 'शब्द ब्रह्म'। मंत्र केवल अक्षरों का समूह नहीं, अपितु ध्वनि-विज्ञान का सूक्ष्मतम रहस्य है, जिसमें ब्रह्मांड की शक्तियों को जाग्रत करने की क्षमता निहित है। परंतु, किसी शास्त्र या पुस्तक से पढ़कर जपा गया मंत्र और गुरुमुख से प्राप्त मंत्र में वही अंतर है, जो एक निर्जीव चित्र और एक जीवित व्यक्ति में होता है।

पुस्तक में लिखा मंत्र 'अचैतन्य' या सुप्त अवस्था में होता है। उसे कोई भी जप सकता है, परंतु उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता क्योंकि कई मंत्र कीलित होते हैं, जिन्हें केवल सद्गुरु ही उत्कीलन करके प्रदान कर सकते हैं। इसके विपरीत, सद्गुरु जिस मंत्र की दीक्षा देते हैं, वह 'चैतन्य' होता है। इसका कारण यह है कि गुरु ने स्वयं उस मंत्र की वर्षों तक साधना करके उसे सिद्ध किया होता है। उस मंत्र की शक्ति को उन्होंने अपनी आत्मा में आत्मसात कर लिया होता है, जिससे गुरु और मंत्र में कोई भेद नहीं रह जाता।

जब गुरु शिष्य को वह मंत्र प्रदान करते हैं, तो वे केवल शब्द नहीं देते, अपितु उस शब्द में निहित अपनी सिद्ध-शक्ति, अपनी चेतना और अपना संकल्प भी भर देते हैं। यह मंत्र शिष्य के लिए गुरु की चेतना से जुड़ने का एक जीवंत माध्यम बन जाता है। शिष्य जब उस मंत्र का जप करता है, तो वह वास्तव में गुरु की ही शक्ति का आवाहन कर रहा होता है।

अध्याय ३: शक्तिपात – गुरु-कृपा का प्रत्यक्ष अवतरण

दीक्षा का सबसे शक्तिशाली और प्रत्यक्ष स्वरूप 'शक्तिपात दीक्षा' है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समर्थ सद्गुरु अपनी आध्यात्मिक शक्ति के प्रवाह से शिष्य की सोई हुई कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर देते हैं। यह कृपा का सर्वोच्च अवतरण है, जो वर्षों की साधना का फल एक क्षण में प्रदान कर सकता है। शास्त्रों के अनुसार, शक्तिपात चार मुख्य प्रकार से किया जा सकता है:

  • स्पर्श दीक्षा: गुरु अपने शिष्य के आज्ञाचक्र, हृदय या मूलाधार चक्र पर स्पर्श करके अपनी ऊर्जा को प्रवाहित करते हैं।
  • दृष्टि दीक्षा (हक-दीक्षा): गुरु केवल अपनी करुणामयी दृष्टि से देखकर ही शिष्य की शक्ति को जाग्रत कर देते हैं।
  • शब्द दीक्षा (मंत्र दीक्षा): चैतन्य मंत्र के माध्यम से शक्ति का संचार करना।
  • मानस दीक्षा (संकल्प दीक्षा): गुरु केवल अपने संकल्प मात्र से, चाहे शिष्य कितनी भी दूर क्यों न हो, उसकी कुंडलिनी को जाग्रत कर सकते हैं।

शक्तिपात के पश्चात साधक को कई प्रकार के अनुभव हो सकते हैं, जैसे शरीर का कांपना, स्वतः ही योग की क्रियाएं (आसन, प्राणायाम) होना, रोना या हंसना। यह सभी अनुभव उस दिव्य शक्ति द्वारा शरीर और मन के शोधन की प्रक्रिया के अंग हैं। शक्तिपात शिष्य की आध्यात्मिक यात्रा को एक तीव्र गति प्रदान करता है, जिससे वह मार्ग में आने वाली बाधाओं को सुगमता से पार कर लेता है। यह उस अग्नि के समान है जो शिष्य के भीतर के आध्यात्मिक ईंधन को एक क्षण में प्रज्वलित कर देती है।

अध्याय ४: दीक्षित शिष्य के जीवन में रूपांतरण

गुरु द्वारा दीक्षित मंत्र प्राप्त होने के पश्चात शिष्य के जीवन में एक समग्र रूपांतरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। यह परिवर्तन केवल बाहरी नहीं, अपितु अंतःकरण की गहराइयों में होता है।

इसका सबसे पहला प्रभाव 'चित्त-शुद्धि' के रूप में प्रकट होता है। मंत्र-जप से उत्पन्न आध्यात्मिक तरंगें मन में जमे हुए जन्म-जन्मांतर के संस्कारों, कुविचारों और वासनाओं को धीरे-धीरे धोने लगती हैं। जैसे-जैसे मन निर्मल होता है, शिष्य का व्यक्तित्व तेजस्वी, मनस्वी और वर्चस्वी बनने लगता है। उसकी देखने की दृष्टि बदल जाती है; उसे संसार के कण-कण में अपने गुरु और इष्ट की चेतना का आभास होने लगता है।

अध्याय ५: कर्म-बंधन का क्षय और मोक्ष का प्रशस्त मार्ग

मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष, अर्थात जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना है। इस चक्र का मूल कारण 'कर्म-बंधन' है। गुरु द्वारा दिया गया चैतन्य मंत्र इस कर्म-बंधन को काटने का सबसे अचूक साधन है।

यह मंत्र 'ज्ञानाग्नि' अर्थात ज्ञान की अग्नि के समान कार्य करता है। जिस प्रकार अग्नि सूखी लकड़ी के ढेर को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार दीक्षित मंत्र का जप शिष्य के 'संचित कर्मों' (अतीत के जन्मों में एकत्रित कर्म) के बीजों को भस्म कर देता है। गुरु-मंत्र में 'प्रारब्ध-विनाशिनी शक्ति' होती है, जो 'प्रारब्ध कर्म' (वे कर्म जिनका फल इस जन्म में मिलना है) के कठोर प्रभावों को भी शांत और सहनीय बना देती है। इसके साथ ही, जब शिष्य गुरु के प्रति समर्पण भाव से कर्म करता है, तो वह नए कर्म-बंधन ('आगामी कर्म') नहीं बनाता, क्योंकि वह कर्ता-भाव से मुक्त हो जाता है।

इस प्रकार, गुरु-मंत्र शिष्य के कर्मों की पूरी प्रणाली को ही बदल देता है। वह कर्म के कारागार से निकालकर उसे कृपा के साम्राज्य में स्थापित कर देता है। कुलार्णव तंत्र का यह वचन अकाट्य सत्य है: 'दीक्षैवमोचयत्यर्द्धं' अर्थात, "दीक्षा स्वयं ही मुक्ति प्रदान करती है"। दीक्षा के द्वारा शिष्य मोक्ष के राजमार्ग पर स्थापित हो जाता है, जहाँ गुरु स्वयं सारथी बनकर उसे परमधाम तक ले जाते हैं।

उपसंहार: गुरु-चरणों में समर्पण ही परम पुरुषार्थ

अतः, यह स्पष्ट है कि स्वयं के द्वारा चुना गया मंत्र-जप एक टिमटिमाते दीपक के समान है, जो थोड़ा प्रकाश तो दे सकता है, परंतु अज्ञान के घने अंधकार को पूरी तरह मिटा नहीं सकता। वहीं, सद्गुरु द्वारा प्राप्त दीक्षित मंत्र उस प्रखर सूर्य के समान है, जिसके उदय होते ही अंधकार का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता।

दीक्षित मंत्र केवल एक साधना नहीं, अपितु गुरु की करुणा का साक्षात स्वरूप है, जो शिष्य की आत्मा में स्थापित होकर उसे रूपांतरित कर देता है। यह शिष्य के भीतर सोई हुई दिव्यता को जगाता है, कर्मों के बंधनों को काटता है, और जीवन के परम लक्ष्य 'मोक्ष' का मार्ग प्रशस्त करता है। यह एक आध्यात्मिक कायाकल्प है, जो जीव को शिव में परिवर्तित करने की सामर्थ्य रखता है।

इसीलिए शास्त्रों ने बार-बार कहा है, 'मोक्षमूलंगुरुकृपा'। सद्गुरु की प्राप्ति और उनसे दीक्षा का सौभाग्य प्राप्त करना ही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और परम उपलब्धि है।

अज्ञानतिमिरान्धस्यज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितंयेनतस्मैश्रीगुरवेनमः॥

(अज्ञान रूपी अंधकार से अंधे हुए व्यक्ति की आँखें जिसने ज्ञान रूपी अंजन की सलाई से खोल दीं, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है।)


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